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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥

॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥

चतुर्थी कोटीरुद्रसंहितायां

एकोनविंशोऽध्यायः

केदारेश्वरज्योतिर्लिंगमाहात्म्यवर्णनम् -
केदारेश्वर ज्योतिर्लिंगके प्राकट्य एवं माहात्म्यका वर्णन -


सूत उवाच -
नरनारायणाख्यौ याववतारौ हरेर्द्विजाः ।
तेपाते भारते खण्डे बदर्याश्रम एव हि ॥ १ ॥
ताभ्यां संप्रार्थितश्शंभुः पार्थिवे पूजनाय वै ।
आयाति नित्यं तल्लिंगे भक्ताधीनतया शिव ॥ २ ॥
सूतजी बोले-हे द्विजो ! विष्णुके नर-नारायण नामक जिन दो अवतारोंने भारत [वर्षके अन्तर्गत भरत] खण्डमें स्थित बदरिकाश्रममें तप किया था, उनके द्वारा पूजनहेतु प्रार्थना किये जानेपर भक्तके वशीभूत होनेके कारण सदाशिव नित्य इनके पार्थिव लिंगमें विराजमान हो जाते हैं । १-२ ॥

एवं पूजयतोश्शंभुं तयोर्विष्ण्ववतारयोः ।
चिरकालो व्यतीताय शैवयोर्धर्मपुत्रयोः ॥ ३ ॥
एकस्मिन्समये तत्र प्रसन्नः परमेश्वरः ।
प्रत्युवाच प्रसन्नोस्मि वरो मे व्रियतामिति ॥ ४ ॥
इस प्रकार शिवकी पूजा करते हुए उन परम शिवभक्त विष्णुके अवतारभूत धर्मपुत्र नर-नारायणका बहुत समय बीत गया । किसी समय प्रसन्न हुए परमेश्वरने कहामैं [आप दोनोंपर] प्रसन्न हूँ-वर माँगिये ॥ ३-४ ॥

इत्युक्ते च तदा तेन नरो नारायणस्स्वयम् ।
ऊचतुर्वचनं तत्र लोकानां हितकाम्यया ॥ ५ ॥
तब उनके इस प्रकार कहनेपर स्वयं नर-नारायणने लोककल्याणकी कामनासे यह वचन कहा- ॥ ५ ॥

नरनारायणावूचतुः -
यदि प्रसन्नो देवेश यदि देयो वरस्त्वया ।
स्थीयतां स्वेन रूपेण पूजार्थं शंकरस्स्वयम् ॥ ६ ॥
नर-नारायण बोले-हे देवेश ! हे शंकर ! यदि आप प्रसन्न हैं और यदि वर देना चाहते हैं, तो अपने स्वरूपसे पूजाके निमित्त स्वयं यहींपर निवास करें ॥ ६ ॥

सूत उवाच -
इत्युक्तस्तु तदा ताभ्यां केदारे हिमसंश्रये ।
स्वयं च शंकरस्तस्थौ ज्योतीरूपो महेश्वरः ॥ ७ ॥
सूतजी बोले-तब उन दोनोंके द्वारा इस प्रकार कहे जानेपर हिमाच्छादित उस केदारक्षेत्रमें स्वयं महेश्वर सदाशिव ज्योतिरूपसे विराजमान हो गये ॥ ७ ॥

ताभ्यां च पूजितश्चैव सर्वदुःखभयापहः ।
लोकानामुपकारार्थं भक्तानां दर्शनाय वै ॥ ८ ॥
स्वयं स्थितस्तदा शंभुः केदारेश्वरसंज्ञकः ।
भक्ताभीष्टप्रदो नित्यं दर्शनादर्चनादपि ॥ ९ ॥
इस प्रकार उनसे पूजित होकर सम्पूर्ण संकट तथा भयको दूर करनेवाले शिवजी लोकका कल्याण करनेके लिये एवं भक्तोंको दर्शन देनेके लिये वहाँ केदारेश्वर नामसे स्वयं स्थित हो गये । वे दर्शन तथा पूजन करनेसे अपने भक्तोंका मनोरथ पूर्ण करते हैं ॥ ८-९ ॥

देवाश्च पूजयंतीह ऋषयश्च पुरातनाः ।
मनोभीष्ट फलं तेते सुप्रसन्नान्महेश्वरात् ॥ १० ॥
भवस्य पूजनान्नित्यं बदर्याश्रमवासिनः ।
प्राप्नुवन्ति यतः सोऽसौ भक्ताभी ष्टप्रदः सदा ॥ ११ ॥
इनका पूजन सभी देवता तथा पुरातन ऋषि भी करते हैं और वे भलीभाँति प्रसन्न हुए महेश्वरसे मनोभिलषित वर प्राप्त करते हैं । बदरिकाश्रमके निवासी भी सदाशिवको नित्य पूजा करनेका वांछित फल प्राप्त करते हैं, क्योंकि वे [सदाशिव] सदैव अपने भक्तोंका मनोरथ पूर्ण करनेवाले हैं ॥ १०-११ ॥

तद्दिनं हि समारभ्य केदारेश्वर एव च ।
पूजितो येन भक्त्या वै दुःखं स्वप्नेऽति दुर्लभम् ॥ १२ ॥
उस दिनसे लेकर जिसने भी भक्तिसे केदारेश्वरकी पूजा की, उसे स्वप्नमें भी [किसी प्रकारका] कष्ट नहीं हुआ ॥ १२ ॥

यो वै हि पाण्डवान्दृष्ट्‍वा माहिषं रूपमास्थितः ।
मायामास्थाय तत्रैव पलायनपरोऽभवत् ॥ १३ ॥
धृतश्च पाण्डवैस्तत्र ह्यवाङ्मुखतया स्थितः ।
पुच्छ चैव धृतं तैस्तु प्रार्थितश्च पुनःपुनः ॥ १४ ॥
तद्रूपेण स्थितस्तत्र भक्तवत्सलनामभाक् ।
नयपाले शिरोभागो गतस्तद्रूपतः स्थितः ॥ १५ ॥
स वै व पूजनान्नित्यमाज्ञां चैवाप्यदात्तथा ।
पूजितश्च स्वयं शंभुस्तत्र तस्थौ वरानदात् ॥ १६ ॥
पूजयित्वा गतास्ते तु पाण्डवा मुदितास्तदा ।
लब्ध्वा चित्तेप्सितं सर्वं विमुक्तास्सर्वदुःखतः ॥ १७ ॥
पाण्डवोंको देखकर जिन्होंने मायासे महिपका रूप धारणकर पलायन किया था और जब उन पाण्डवोंने महिषरूपधारी उन शिवको तथा उनकी पूँछ भी पकड़ ली, तब वे उन [पाण्डवों]-के प्रार्थना करनेपर नीचेकी ओर मुखकर वहाँ स्थित हो गये । भक्तवत्सल नामवाले सदाशिव उसी रूपमें वहाँ विराजमान हुए । उस रूपका शिरोभाग नयपाल (नेपाल)-में प्रकट हुआ । उसके बाद शिवजीने उन्हें (पाण्डवोंको) पूजन करनेकी आज्ञा प्रदान की । तब उनके द्वारा पूजित होकर शिवजीने उन्हें अनेक वरदान दिये और स्वयं वहीं स्थित हो गये । पाण्डव भी उनकी पूजाकर प्रसन्न होकर सभी मनोवांछित फल प्राप्त करके समस्त दु:खोंसे मुक्त होकर वहाँसे चले गये ॥ १३-१७ ॥

तत्र नित्यं हस्साक्षात्क्षेत्रे केदारसंज्ञके ।
भारतीभिः प्रजाभिश्च तथेव परिपूज्यते ॥ १८ ॥
भारतवासी लोगोंद्वारा उस केदारेश्वर क्षेत्रमें साक्षात् [भगवान्] शंकरकी नित्य पूजा की जाती है ॥ १८ ॥

तत्रत्यं वलयं यो वै ददाति हरवल्लभः ।
हररूपांतिकं तच्च हररूपसमन्वितम् ॥ १९ ॥
तथैव रूपं दृष्ट्‍वा च सर्वपापैः प्रमुच्यते ।
जीवन्मुक्तो भवेत्सोपि यो गतो बदरीवने ॥ २० ॥
दृष्ट्‍वा रूपं नरस्यैव तथा नारायणस्य हि ।
केदारेश्वरशंभोश्च मुक्तभागी न संशयः ॥ २१ ॥
जो शिवप्रेमी वहाँका शिवरूपयुक्त कंकण उन्हें प्रदान करता है, वह शिवजीके समीप जाकर उनके उस रूपको देखकर सभी पापोंसे छूट जाता है । जो बदरीवनकी यात्रा करता है, वह भी जीवन्मुक्त हो जाता है । वहाँ नर-नारायण तथा केदारेश्वर शिवका दर्शन करके मनुष्य मुक्तिका अधिकारी हो जाता है । इसमें सन्देह नहीं है ॥ १९-२१ ॥

केदारेशस्य भक्ता ये मार्गस्थास्तस्य वै मृता ।
गतेऽपि मुक्ता भवंत्येव नात्र कार्य्या विचारणा ॥ २२ ॥
गत्वा तत्र प्रीतियुक्तः केदारेशं प्रपूज्य च ।
तत्रत्यमुदकं पीत्वा पुन र्जन्म न विन्दति ॥ २३ ॥
केदारेश्वरके जो भक्त उनकी यात्रा करते हुए मार्गमें मृत्युको प्राप्त होते हैं, वे भी मुक्त हो जाते हैं; इसमें संशय नहीं करना चाहिये । वहाँ जाकर प्रसन्नतासे युक्त होकर केदारेश्वरका पूजनकर तथा वहाँका जल पीकर मनुष्य पुनर्जन्म नहीं पाता है ॥ २२-२३ ॥

खण्डेस्मिन्भारते विप्रा नरनारायणेश्वरः ।
केदारेशः प्रपूज्यश्च सर्वैर्जीवैस्सुभक्तितः ॥ २४ ॥
अस्य खण्डस्य स स्वामी सर्वेशोपि विशेषतः ।
सर्वकामप्रदश्शंभुः केदाराख्यो न संशय ॥ २५ ॥
हे ब्राह्मणो ! इस भरतखण्डमें सभी प्राणियोंको नरनारायण तथा केदारेश्वरकी भक्तिपूर्वक पूजा करनी चाहिये । वे इस भूखण्डके स्वामी हैं और विशेष करके सबके स्वामी हैं, केदार नामक शम्भु सभी प्रकारकी कामनाओंको पूर्ण करनेवाले हैं; इसमें सन्देह नहीं है ॥ २४-२५ ॥

एतद्वचस्समाख्यातं यत्पृष्टमृषिसत्तमाः ।
श्रुत्वा पापं हरेत्सर्वं नात्र कार्या विचारणा ॥ २६ ॥
हे महर्षियो ! आपलोगोंने जो बात पूछी थी, वह सब मैंने कह दिया, इसे सुननेसे सारे पाप दूर हो जाते हैं; इसमें संशय नहीं है ॥ २६ ॥

इति श्रीशिवमहापुराणे चतुर्थ्यां कोटिरुद्रसंहितायां
केदारेश्वरज्योतिर्लिंगमाहात्म्यवर्णनं नामैकोनविंशोऽध्यायः ॥ १९ ॥
इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत चतुर्थ कोटिरुद्रसहितामें केदारेश्वरज्योतिलिंगमाहात्म्यवर्णन नामक उन्नीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १९ ॥



श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु


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