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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥
॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥ चतुर्थी कोटीरुद्रसंहितायां
विंशोऽध्यायः भीमेश्वरज्योतिर्लिगमाहात्म्ये भीमासुरकृतोपद्रववर्णनम् -
भीमशंकर ज्योतिर्लिगके माहात्म्य-वर्णन-प्रसंगमें भीमासुरके उपद्रवका वर्णन - सूत उवाच - अतः परं प्रवक्ष्यामि माहात्म्यं भैमशंकरम् । यस्य श्रवणमात्रेण सर्वाभीष्टं लभेन्नरः ॥ १ ॥ सूतजी बोले-[हे महर्षियो !] अब मैं भीमशंकरके माहात्म्यको कह रहा हूँ, जिसके सुननेमात्रसे मनुष्य सभी प्रकारके अभीष्टको प्राप्त कर लेता है ॥ १ ॥ कामरूपाभिधे देशे शंकरो लोककाम्यया । अवतीर्णः स्वयं साक्षात्कल्याणसुखभाजनम् ॥ २ ॥ यदर्थमवतीर्णोसौ शंकरो लोकशंकरः । शृणुतादरतस्तच्च कथयामि मुनीश्वराः ॥ ३ ॥ कामरूप नामक देशमें लोकहितकी कामनासे साक्षात् कल्याण एवं सुखके भाजन शिवजी स्वयं प्रकट हुए थे । * हे मुनीश्वरो ! लोककल्याण करनेवाले शंकरजीने [यहाँ] जिस लिये अवतार लिया, उसे आपलोग आदरपूर्वक सुनिये; मैं कह रहा हूँ ॥ २-३ ॥ भीमोनाम महोवीर्यो राक्षसोऽभूत्पुरा द्विजाः । दुःखदस्सर्वभूतानां धर्मध्वंसकरस्सदा ॥ ४ ॥ हे ब्राह्मणो ! पूर्व समयमें सभी प्राणियोंको सदा दुःख देनेवाला एवं धर्मको नष्ट करनेवाला भीम नामका एक बड़ा बलवान् राक्षस हुआ था ॥ ४ ॥ कुंभकर्णात्समुत्पन्नः कर्कट्यां सुमहाबलः । सह्ये च पर्वते सोऽपि मात्रा वासं चकार ह ॥ ५ ॥ महाबलवान् वह कुम्भकर्णके द्वारा कर्कटी नामक राक्षसीसे उत्पन्न हुआ था और अपनी माताके साथ सह्य पर्वतपर निवास करता था ॥ ५ ॥ कुंभकर्णे च रामेण हते लोकभयंकरे । राक्षसी पुत्रसंयुक्ता सह्येऽतिष्ठत्स्वयं तदा ॥ ६ ॥ संसारको भयभीत करनेवाले कुम्भकर्णका रामके द्वारा वध कर दिये जानेपर वह राक्षसी स्वयं सह्य पर्वतपर अपने पुत्रके साथ निवास करने लगी ॥ ६ ॥ स बाल एकदा भीमः कर्कटीं मातरं द्विजाः । पप्रच्छ च खलो लोकदुःखदो भीमविक्रमः ॥ ७ ॥ हे द्विजो ! सारे प्राणियोंको दुःख देनेवाले प्रचण्ड पराक्रमी उस भीमने बाल्यावस्थामें किसी समय [अपनी] माता कर्कटीसे पूछा- ॥ ७ ॥ भीम उवाच - मातर्मे कः पिता कुत्र कथं वैकाकिनी स्थिता । ज्ञातुमिच्छामि तत्सर्वं यथार्थं त्वं वदाधुना ॥ ८ ॥ भीम बोला-हे मातः ! मेरे पिता कौन हैं, वे कहाँ रहते हैं और तुम अकेली ही यहाँ क्यों रहती हो ? मैं वह सब जानना चाहता हूँ, तुम इस समय ठीक-ठीक बताओ ॥ ८ ॥ सूत उवाच - एवं पृष्टा तदा तेन पुत्रेण राक्षसी च सा । उवाच पुत्रं सा दुष्टा श्रूयतां कथयाम्यहम् ॥ ९ ॥ सूतजी बोले-इस प्रकार अपने पुत्रके पूछनेपर उस दुष्टा राक्षसीने अपने पुत्रसे कहा- तुम सुनो, मैं सब कुछ कहती हूँ ॥ ९ ॥ कर्कट्युवाच - पिता ते कुम्भकर्णश्च रावणानुज एव च । रामेण मारितस्सोयं भ्रात्रा सह महाबलः ॥ १० ॥ अत्रागतः कदाचिद्वै कुम्भकर्णस्य राक्षसः । मद्भोगं कृतवांस्तात प्रसह्य बलवान्पुरा ॥ ११ ॥ लंकां स गतवान्मां च त्यक्त्वात्रैव महाबलः । मया न दृष्ट्वा सा लंका ह्यत्रैव निवसाम्यहम् ॥ १२ ॥ पिता मे कर्कटो नाम माता मे पुष्कसी मता । भर्ता मम विराधो हि रामेण निहतः पुरा ॥ १३ ॥ कर्कटी बोली-तुम्हारे पिता रावणके छोटे भाई महाबली कुम्भकर्ण थे, जिन्हें रामने उनके भाई रावणसहित मार डाला । हे तात ! पूर्वकालमें किसी समय वह बलवान् राक्षस कुम्भकर्ण यहाँ आया और उसने मेरे साथ बलपूर्वक सहवास किया । इसके बाद वह महाबली [कुम्भकर्ण] मुझे यहींपर छोड़कर लंकापुरी चला गया । मैंने वह लंका नहीं देखी है, अतः मैं यहीं निवास करती हूँ । मेरे पिताका नाम कर्कट है तथा मेरी माता पुष्कसी कही गयी है । मेरा पति विराध था, जिसे रामने पहले ही मार दिया था ॥ १०-१३ ॥ पित्रोः पार्श्वे स्थिता चाहं निहते स्वामिनि प्रिये । पितरौ मे मृतौ चात्र ऋषिणा भस्मसात्कृतौ ॥ १४ ॥ भक्षणार्थं गतौ तत्र कुद्धेन सुमहात्मना । सुतीक्ष्णेन सुतपसाऽगस्त्यशिष्येण वै तदा ॥ १५ ॥ अपने प्रिय पतिके मारे जानेपर मैं अपने मातापिताके साथ यहाँ निवास करने लगी । मेरे माता-पिताको (सुतीक्ष्ण) ऋषिने भस्म कर दिया और वे मर गये । [इसका कारण यह था कि वे दोनों उनको खानेके लिये गये हुए थे, तब परम तपस्वी महात्मा अगस्त्यशिष्य सुतीक्ष्णने क्रोधित हो उन्हें भस्म कर दिया ॥ १४-१५ ॥ साऽहमेकाकिनी जाता दुःखिता पर्वते पुरा । निवसामि स्म दुःखार्ता निरालंबा निराश्रया ॥ १६ ॥ एतस्मिन्समये ह्यत्र राक्षसो रावणानुजः । आगत्य कृतवान्संगं मां विहाय गतो हि सः ॥ १७ ॥ ततस्त्वं च समुत्पन्नो महाबलपराक्रमः । अवलंब्य पुनस्त्वां च कालक्षेपं करोम्यहम् ॥ १८ ॥ इस प्रकार मैं दुखी होकर बिना किसी सहायक एवं आश्रयके पहलेसे अकेली ही इस पर्वतपर निवास करने लगी । इस अवसरपर रावणके छोटे भाई राक्षस कुम्भकर्णने यहाँ आकर मेरे साथ सहवास किया और वह मुझे छोड़कर चला गया । [हे पुत्र !] उसके बाद महाबली एवं पराक्रमी तुम उत्पन्न हुए और अब मैं तुम्हारा सहारा लेकर समय बिता रही हूँ ॥ १६-१८ ॥ सूत उवाच - इति श्रुत्वा वचस्तस्या भीमो भीमपराक्रमः । कुद्धश्च चिंतयामास किं करोमि हरिं प्रति ॥ १९ ॥ पितानेन हतो मे हि तथा मातामहो ह्यपि । विराधश्च हतोऽनेन दुःखं बहुतरं कृतम् ॥ २० ॥ तत्पुत्रोहं भवेयं चेद्धरिं तं पीडयाम्यहम् । इति कृत्वा मतिं भीमस्तपस्तप्तुं महद्ययौ ॥ २१ ॥ सूतजी बोले-माताके इस वचनको सुनकर प्रबलपराक्रमी भीम कुपित हो उठा और विचार करने लगा कि अब मैं हरिके प्रति क्या करूँ ? इस रामचन्द्रने मेरे पिता तथा नानाका वध किया और इसने विराधका भी वध किया । इस प्रकार इसने बहुत अधिक दुःख दिया है । अतः यदि मैं कुम्भकर्णका पुत्र हूँ, तो हरिको अवश्य पीड़ा पहुँचाऊँगा-ऐसा विचार करके भीम महान् तप करनेके लिये चल पड़ा ॥ १९-२१ ॥ ब्रह्माणां च समुद्दिश्य वर्षाणां च सहस्रकम् । मनसा ध्यानमाश्रित्य तपश्चक्रे महत्तदा ॥ २२ ॥ ऊर्ध्वबाहुश्चैकपादस्सूर्य्ये दृष्टिं दधत्पुरा । संस्थितस्स बभूवाथ भीमो राक्षसपुत्रकः ॥ २३ ॥ उसने ब्रह्माको उद्देश्य करके मनसे उनका ध्यान करते हुए एक हजार वर्षतक महान् तप किया । वह राक्षसपुत्र भीम सूर्यकी ओर दृष्टि लगाये हुए दोनों हाथ ऊपर उठाकर एक पैरपर स्थित रहा ॥ २२-२३ ॥ शिरसस्तस्य संजातं तेजः परमदारुणम् । तेन दग्धास्तदा देवा ब्रह्माणं शरणं ययुः ॥ २४ ॥ [इस प्रकार तपमें निरत उस राक्षसके] सिरसे अत्यन्त भयानक तेज उत्पन्न हुआ तब उस तेजसे जलते हुए देवता ब्रह्माजीकी शरणमें गये ॥ २४ ॥ प्रणम्य वेधसं भक्त्या तुष्टुवुर्विविधैः स्तवैः । दुःखं निवेदयांचकुर्ब्रह्मणे ते सवासवाः ॥ २५ ॥ इन्द्रसहित उन देवताओंने ब्रह्माजीको प्रणाम करके अनेक प्रकारके स्तोत्रोंसे भक्तिपूर्वक उनकी स्तुति की । उसके अनन्तर वे ब्रह्माजीसे अपना दुःख कहने लगे ॥ २५ ॥ देवा ऊचुः - ब्रह्मन्वै रक्षसस्तेजो लोकान्पीडितुमुद्यतम् । यत्प्रार्थ्यते च दुष्टेन तत्त्वं देहि वरं विधे ॥ २६ ॥ नोचेदद्य वयं दग्धास्तीव्रतत्तेजसा पुनः । यास्यामस्संक्षयं सर्वे तस्मात्तं देहि प्रार्थितम् ॥ २७ ॥ देवता बोले-हे ब्रह्मन् ! उस राक्षसका तेज सभी लोकोंको पीड़ित करनेके लिये उद्यत है, अत: हे विधे ! वह दुष्ट जो मांगता है, उसे वह वर दीजिये; नहीं तो आज हम सब उसके प्रचण्ड तेजसे दग्ध होकर नष्ट हो जायेंगे, इसलिये उसकी प्रार्थना अवश्य स्वीकार कीजिये ॥ २६-२७ ॥ सूत उवाच - इति तेषां वचश्श्रुत्वा ब्रह्मा लोकपितामहः । जगाम च वरं दातुं वचनं चेदमब्रवीत् ॥ २८ ॥ सूतजी बोले-उनका यह वचन सुनकर लोकपितामह ब्रह्माजी उसको वर देनेके लिये गये और उन्होंने यह वचन कहा- ॥ २८ ॥ ब्रह्मोवाच - प्रसन्नोऽस्मि वरं ब्रूहि यत्ते मनसि वर्तते । इति श्रुत्वा विधेर्वाक्यमब्रवीद्राक्षसो हि सः ॥ २९ ॥ ब्रह्माजी बोले-[हे राक्षस !] मैं प्रसन्न हूँ, तुम्हारे मनमें जो भी हो, वह वर माँगो । ब्रह्माजीका यह वचन सुनकर उस राक्षसने कहा- ॥ २९ ॥ भीम उवाच - यदि प्रसन्नो देवेश यदि देयो वर स्त्वया । अतुलं च बलं मेऽद्य देहि त्वं कमलासन ॥ ३० ॥ भीम बोला-हे देवताओंके स्वामी कमलासन ब्रह्माजी ! यदि आप [मुझपर] प्रसन्न हैं तथा मुझे वर देना चाहते हैं, तो आज मुझे अप्रतिम बल दीजिये ॥ ३० ॥ सूत उवाच - इत्युक्त्वा तु नमश्चक्रे ब्रह्मणे स हि राक्षसः । ब्रह्मा चापि तदा तस्मै वरं दत्त्वा गृहं ययौ ॥ ३१ ॥ राक्षसो गृहमागत्य ब्रह्माप्तातिबलस्तदा । मातरं प्रणिपत्याशु स भीमः प्राह गर्ववान् ॥ ३२ ॥ सूतजी बोले-ऐसा कहकर उस राक्षसने ब्रह्माजीको प्रणाम किया और ब्रह्माजी भी उसे वर देकर अपने धामको चले गये । तब ब्रह्मदेवसे अतुल बलका वरदान प्राप्तकर उस गर्वयुक्त राक्षस भीमने शीघ्र ही घर आकर माताको प्रणामकर कहा- ॥ ३१-३२ ॥ भीम उवाच - पश्य मातर्बलं मेऽद्य करोमि प्रलयं महत् । देवानां शक्रमुख्यानां हरेर्वै तत्सहायिनः ॥ ३३ ॥ भीम बोला-हे माता ! अब मेरे बलको देखना; मैं इन्द्र आदि सभी देवताओं, विष्णु तथा उनके सहायकोंका घोर विनाश करूँगा ॥ ३३ ॥ सूत उवाच - इत्युक्त्वा प्रथमं भीमो जिग्ये देवान्सवासवान् । स्थानान्निस्सारयामास स्वात्स्वात्तान्भीमविक्रमः ॥ ३४ ॥ सूतजी बोले-इस प्रकार कहकर प्रचण्ड पराक्रमवाले उस भीमने सर्वप्रथम इन्द्रादि देवताओंको जीता और उन्हें अपने-अपने स्थानसे हटाकर बाहर निकाल दिया ॥ ३४ ॥ ततो जिग्ये हरिं युद्धे प्रार्थितं निर्जरैरपि । ततो जेतुं रसां दैत्यः प्रारंभं कृतवान्मुदा ॥ ३५ ॥ इसके बाद [सहायताहेतु] देवताओंके द्वारा प्रार्थित विष्णुको भी उस दैत्यने जीत लिया । तदनन्तर उसने प्रसन्नतापूर्वक पृथ्वीको जीतनेका उपक्रम किया ॥ ३५ ॥ पुरा सुदक्षिणां तत्र कामरूपेश्वरं प्रभुम् । जेतुं गतस्ततस्तेन युद्धमासीद्भयंकरम् ॥ ३६ ॥ वह पहले कामरूपके स्वामी सुदक्षिणको जीतने गया, वहाँ राजाके साथ उसका भयंकर युद्ध हुआ ॥ ३६ ॥ भीमोऽथ तं महाराजं प्रभावाद्ब्रह्मणोऽसुरः । जिग्ये वरप्रभावेण महावीरं शिवाश्रयम् ॥ ३७ ॥ असुर भीमने ब्रह्माके वरदानके प्रभावसे उस महावीर तथा शिवभक्त महाराजाको [युद्धमें] जीत लिया ॥ ३७ ॥ स हि जित्वा ततस्तं च कामरूपेश्वरं प्रभुम् । बबंध ताडयामास भीमो भीमपराक्रमः ॥ ३८ ॥ गृहीतं तस्य सर्वस्वं राज्यं सोपस्करं द्विजाः । तेन भीमेन दुष्टेन शिवदासस्य भूपतेः ॥ ३९ ॥ राजा चापि सुधर्मिष्ठः प्रियधर्मो हरप्रियः । गृहीतो निगडैस्तेन ह्येकांते स्थापितश्च सः ॥ ४० ॥ तब उस महाभयंकर पराक्रमवाले भीमने प्रभावशाली कामरूपेश्वरको जीतकर बाँध लिया और क्लेश देने लगा । हे द्विजो ! उस दुष्ट भीमने उस शिवभक्त राजाका सामग्रीसहित राज्य तथा सर्वस्व छीन लिया । उसने उस धर्मात्मा, शिवभक्त तथा धर्मप्रिय राजाको बेड़ियोंसे बाँध दिया और एकान्तमें बन्द कर दिया । ३८-४० ॥ तत्र तेन तदा कृत्वा पार्थिवीं मूर्तिमुत्तमाम् । भजनं च शिवस्यैव प्रारब्धी प्रियकाम्यया ॥ ४१ ॥ गंगायास्तवनं तेन बहुधा च तदा कृतम् । मानसं स्नानकर्मादि कृत्वा शंकरपूजनम् ॥ ४२ ॥ पार्थिवेन विधानेन चकार नृपसत्तमः । तद्ध्यानं च यथा स्याद्वै कृत्वा च विधिपूर्वकम् ॥ ४३ ॥ प्रणिपातैस्तथा स्तोत्रैर्मुद्रासन पुरस्सरम् । कृत्वा हि सकलं तच्च स भेजे शंकरं मुदा ॥ ४४ ॥ तब वहाँ उसने अपने कल्याणकी इच्छासे उत्तम पार्थिव लिंग बनाकर शिवजीका भजन करना प्रारम्भ किया । उसने अनेक प्रकारसे गंगाजीकी उस समय स्तुति की । मानसिक स्नान आदि कर्म करके उस नृपश्रेष्ठने पार्थिवविधानसे शिवका पूजन किया । जिस प्रकारका ध्यान विहित है, वैसा ही ध्यान विधिपूर्वक करके प्रणाम, स्तोत्रपाठ, मुद्रा, आसन आदिके साथ सब कुछ करते हुए उसने प्रसन्नतापूर्वक शिवजीकी उपासना की ॥ ४१-४४ ॥ पंचाक्षरमयीं विद्यां जजाप प्रणवान्विताम् । नान्यत्कार्यं स वै कर्तुं लब्धवानन्तरं तदा ॥ ४५ ॥ तत्पत्नी च तदा साध्वी दक्षिणा नाम विश्रुता । निधानं पार्थिवं प्रीत्या चकार नृपवल्लभा ॥ ४६ ॥ वह प्रणवके सहित पंचाक्षरी विद्याका जप करता था । उस समय उसे अन्य कार्य करनेके लिये कोई अवकाश न रहा । राजाको [अत्यन्त] प्रिय उसकी पतिव्रता पत्नी, जिसका नाम दक्षिणा था, प्रेमपूर्वक सविधि पार्थिव-पूजन किया करती थी ॥ ४५-४६ ॥ दंपती त्वेकभावेन शंकरं भक्तशंकरम् । भेजाते तत्र तौ नित्यं शिवाराधनतत्परौ ॥ ४७ ॥ राक्षसो यज्ञकर्मादि वरदर्प विमोहितः । लोपयामास तत्सर्वं मह्यं वै दीयतामिति ॥ ४८ ॥ इस प्रकार उन दोनों पति-पत्नीने शिवाराधनमें तत्पर हो भक्तोंका कल्याण करनेवाले शंकरकी तन्मयतासे सेवा की । वरदानके अभिमानसे मोहित हुए उस राक्षसने सम्पूर्ण यज्ञकर्मादि धर्मोंका लोप कर दिया और 'सब कुछ मुझे ही समर्पण करो'-वह इस प्रकारका प्रचार करने लगा । ४७-४८ ॥ बहुसैन्यसमायुक्तो राक्षसानां दुरात्मनाम । चकार वसुधां सर्वां स्ववशे चर्षिसत्तमाः ॥ ४९ ॥ वेदधर्मं शास्त्रधर्मं स्मृतिधर्मं पुराणजम् । लोपयित्वा च तत्सर्वं बुभुजे स्वयमूर्जितः ॥ ५० ॥ देवाश्च पीडितास्तेन सशक्रा ऋषयस्तथा । अत्यन्तं दुःखमापन्ना लोकान्निस्सारिता द्विजाः ॥ ५१ ॥ हे महर्षियो ! उसने दुष्ट राक्षसोंकी बहुत बड़ी अपनी सेना लेकर सारी पृथ्वी अपने वशमें कर ली और शक्तिसम्पन्न होकर वेदधर्म, शास्त्रधर्म, स्मृति-धर्म एवं पुराणधर्मका लोपकर स्वयं वह सबका भोग करने लगा । हे द्विजो ! उसने इन्द्रसहित समस्त देवताओं तथा ऋषियोंको पीड़ा पहुँचायी और उन्हें अत्यन्त दुःखित करके उनके स्थानोंसे निकाल दिया । ४९-५१ ॥ ते ततो विकलास्सर्वे सवासवसुरर्षयः । ब्रह्मविष्णू पुरोधाय शंकरं शरणं ययुः ॥ ५२ ॥ तब व्याकुल हुए इन्द्रसहित देवता तथा ऋषि ब्रह्मा और विष्णुको आगेकर शंकरकी शरणमें गये ॥ ५२ ॥ स्तुत्वा स्तोत्रैरनेकैश्च शंकरं लोक शंकरम् । प्रसन्नं कृतवंतस्ते महाकोश्यास्तटे शुभे ॥ ५३ ॥ कृत्वा च पार्थिवीं मूर्तिं पूजयित्वा विधानतः । तुष्टुवुर्विविधैः स्तोत्रैर्नमस्कारादिभिः क्रमात् ॥ ५४ ॥ एवं स्तुतस्तदा शंभुर्देवानां स्तवनादिभिः । सुप्रसन्नतरो भूत्वा तान्सुरानिदमब्रवीत् ॥ ५५ ॥ उन लोगोंने महाकोशी नदीके उत्तम तटपर लोकका कल्याण करनेवाले शंकरकी अनेक स्तोत्रोंसे स्तुतिकर उन्हें प्रसन्न किया और पार्थिव मूर्ति बनाकर विधिपूर्वक उनकी पूजा करके क्रमसे अनेक प्रकारके स्तोत्रों तथा नमस्कारादिसे उन्हें प्रसन्न किया । इस प्रकार देवगणोंकी स्तुति आदिसे स्तुत हुए शिवजीने अत्यन्त प्रसन्न होकर उन देवताओंसे यह कहा-||५३-५५ ॥ शिव उवाच - हे हरे हे विधे देवा ऋषयश्चाखिला अहम् । प्रसन्नोस्मि वरं ब्रूत किं कार्यं करवाणि वः ॥ ५६ ॥ शिवजी बोले-हे विष्णो ! हे ब्रह्मन् ! हे समस्त देवताओ एवं ऋषियो ! मैं प्रसन्न हूँ, आपलोग वर माँगिये; मैं आपलोगोंका कौन-सा कार्य करूँ ? ॥ ५६ ॥ सूत उवाच - इत्युक्ते च तदा तेन शिवेन वचने द्विजाः । सुप्रणम्य करौ बद्ध्वा देवः ऊचुश्शिवं तदा ॥ ५७ ॥ सूतजी बोले-हे द्विजो ! तब उन शिवजीके द्वारा यह वचन कहे जानेपर देवता लोग हाथ जोड़कर भलीभाँति प्रणाम करके शिवजीसे कहने लगे- ॥ ५७ ॥ देवा ऊचुः - सर्वं जानासि देवेश सर्वेषां मनसि स्थितम् । अन्तर्यामी च सर्वस्य नाज्ञातं विद्यते तव ॥ ५८ ॥ तथापि श्रूयतां नाथ स्वदुःखं ब्रूमहे वयम् । त्वदाज्ञया महादेव कृपादृष्ट्या विलोकय ॥ ५९ ॥ देवता बोले-हे देवेश ! आप सबके मनमें स्थित सारी बातें जानते हैं; आप अन्तर्यामी हैं, अत: कोई भी बात आपसे छिपी नहीं है । हे नाथ ! फिर भी सुनिये; हमलोग आपकी आज्ञासे अपना दुःख निवेदन करते हैं । हे महादेव ! | आप [अपनी] कृपादृष्टिसे हमें देखिये ॥ ५८-५९ ॥ राक्षसः कर्कटीपुत्रः कुंभकर्णोद्भवो बली । पीडयत्यनिशं देवान्ब्रह्मदत्तवरोर्जितः ॥ ६० ॥ कुम्भकर्णसे उत्पन्न कर्कटीका बलवान् पुत्र राक्षस भीम ब्रह्माके द्वारा दिये गये वरदानसे उन्मत्त होकर देवताओंको निरन्तर पौड़ा पहुँचा रहा है ॥ ६० ॥ तमिमं जहि भीमाह्वं राक्षसं दुःखदायकम् । कृपां कुरु महेशान विलंबं न कुरु प्रभो ॥ ६१ ॥ हे महेश्वर ! आप दुःख देनेवाले उस भीम नामक राक्षसका वध कीजिये । कृपा कीजिये । हे प्रभो ! इसमें विलम्ब न कीजिये ॥ ६१ ॥ सूत उवाच - इत्युक्तस्तु सुरैस्सर्वैश्शंभुवें भक्तवत्सलः । वधं तस्य करिष्यामीत्युक्त्वा देवांस्ततोऽब्रवीत् ॥ ६२ ॥ सूतजी बोले-इस प्रकार सभी देवताओंद्वारा कहे जानेपर भक्तवत्सल शिवजी-'मैं उसका वध करूँगा'ऐसा कहकर पुनः देवताओंसे कहने लगे ॥ ६२ ॥ शंभुरुवाच - कामरूपेश्वरो राजा मदीयो भक्त उत्तमः । तस्मै ब्रूतेति वै देवाः कार्य्यं शीघ्रं भविष्यति ॥ ६३ ॥ सुदक्षिण महाराज काम रूपेश्वर प्रभो । मद्भक्तस्त्वं विशेषेण कुरु मद्भजनं रतेः ॥ ६४ ॥ दैत्यं भीमाह्वयं दुष्टं ब्रह्मप्राप्तवरोर्जितम् । हनिष्यामि न संदेहस्त्वत्तिरस्कारकारिणम् ॥ ६५ ॥ शम्भु बोले-हे देवताओ ! राजा कामरूपेश्वर मेरा उत्तम भक्त है, आपलोग उससे यह कहिये, तब कार्य शीघ्र पूरा होगा । [शंकरजीने तुमसे कहा है कि] हे सुदक्षिण ! हे महाराज ! हे कामरूपेश्वर ! हे प्रभो ! तुम मेरे विशेष रूपसे भक्त हो, प्रेमपूर्वक मेरा भजन करते रहो । मैं ब्रह्मासे प्राप्त वरसे शक्तिमान् तथा तुम्हारा तिरस्कार करनेवाले भीम नामक दुष्ट राक्षसका वध करूँगा, इसमें संशय नहीं है । ६३-६५ ॥ सूत उवाच - अथ ते निर्जरास्सर्वे तत्र गत्वा मुदान्विताः । तस्मै महानृपायोचुर्यदुक्तं शंभुना च तत् ॥ ६६ ॥ तमित्युक्त्वा च वै देवा आनंदं परमं गताः । महर्षयश्च ते सर्वे ययुश्शीप्रं निजाश्रमान् ॥ ६७ ॥ सूतजी बोले-इसके बाद उन सभी देवताओंने हर्षित हो वहाँ जाकर शिवजीने जो कहा था, वह सब उस महाराजासे कह दिया । उससे यह कहकर वे सभी देवता तथा महर्षि परम आनन्दित हुए और शीघ्र ही अपने-अपने आश्रमोंको चले गये ॥ ६६-६७ ॥ इति श्रीशिवमहापुराणे चतुर्थ्यां कोटिरुद्रसंहितायां भीमेश्वरज्योतिर्लिगमाहात्म्ये भीमासुरकृतोपद्रववर्णनं नाम विंशोऽध्यायः ॥ २० ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत चतुर्थ कोटिरुगसंहिताके भीमेश्वरज्योतिर्लिंगमाहास्यमें भीमासुरकृतोपद्रववर्णन नामक बीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २० ॥ श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु |