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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥
॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥ चतुर्थी कोटीरुद्रसंहितायां
एकविंशोऽध्यायः भीमेश्वरज्योतिर्लिङ्गोत्पत्तिमाहात्म्यवर्णनम् -
भीमशंकर ज्योतिर्लिंगकी उत्पत्ति तथा उसके माहात्म्यका वर्णन - सूत उवाच - शिवोऽपि च गणैस्सार्द्धं जगाम हितकाम्यया । स्वभक्तनिकटं गुप्तस्तस्थौ रक्षार्थमादरात् ॥ १ ॥ सूतजी बोले-[उसके बाद] शिवजी भी अपने गणोंको साथ लेकर राजाके कल्याणकी कामनासे आदरपूर्वक वहाँ गये और उसकी रक्षाके लिये गुप्तरूपसे स्थित हो गये ॥ १ ॥ एतस्मिन्नन्तरे तत्र कामरूपेश्वरेण च । अत्यंतं ध्यानमारब्धं पार्थिवस्य पुरस्तदा ॥ २ ॥ इसी अवसरपर कामरूपेश्वरने वहाँ पार्थिव लिंगके आगे गहन ध्यान करना प्रारम्भ किया ॥ २ ॥ केनचित्तत्र गत्वा च राक्षसाय निवेदितम् । राजा किंचित्करोत्येवं त्वदर्थं ह्याभिचारिकम् ॥ ३ ॥ तभी किसीने जाकर राक्षससे कह दिया कि वह राजा आपके निमित्त कुछ अभिचारकर्म कर रहा है ॥ ३ ॥ सूत उवाच - राक्षसस्स च तच्छुत्वा क्रुद्धस्तद्धननेच्छया । गृहीत्वा करवालं च जगाम नृपतिं प्रति ॥ ४ ॥ सूतजी बोले-यह सुनकर राक्षस कुपित हो उठा और उसे मारनेकी इच्छासे हाथमें तलवार लेकर राजाके समीप गया ॥ ४ ॥ तद्दृष्ट्वा राक्षसस्तत्र पार्थिवादि स्थितं च यत् । तदर्थं तत्स्वरूपं च दृष्ट्वा किंचित्करोत्यसौ ॥ ५ ॥ अत एनं बलादद्य हन्मि सोपस्करं नृपम् । विचार्येति महाक्रुद्धो राक्षसः प्राह तं नृपम् ॥ ६ ॥ वहाँ जो पार्थिव शिवलिंग आदि रखा हुआ था, उसे देखकर और उसके स्वरूपको देखकर उसने निश्चय कर लिया कि यह मेरे लिये कुछ कर रहा है । अतः मैं आज सभी सामग्रीसहित इसे बलपूर्वक मार डालूँगा । इस प्रकार विचार करके अत्यन्त क्रुद्ध हो राक्षसने राजासे कहा- ॥ ५-६ ॥ भीम उवाच - रेरे पार्थिव दुष्टात्मन्क्रियते किं त्वयाधुना । सत्यं वद न हन्यां त्वामन्यथा हन्मि निश्चितम् ॥ ७ ॥ भीम बोला-हे दुष्टात्मा राजा ! तुम इस समय क्या कर रहे हो ? यह सच-सच बता दो, तो तुम्हें नहीं मारूंगा, अन्यथा निश्चय ही तुम्हारा वध कर दूंगा ॥ ७ ॥ सूत उवाच - इति श्रुत्वा वचस्तस्य कामरूपेश्वरश्च सः । मनसीति चिचिन्ताशु शिवविश्वासपूरितः ॥ ८ ॥ भविष्यं यद्भवत्येव नास्ति तस्य निवर्तकः । प्रारब्धाधीनमेवात्र प्रारब्धस्स शिवः स्मृतः ॥ ९ ॥ कृपालुश्शंकरश्चात्र पार्थिवे वर्तते ध्रुवम् । मदर्थं न करोतीह कुतः कोयं च राक्षसः ॥ १० ॥ स्वानुरूपां प्रतिज्ञां स सत्यं चैव करिष्यति । सत्यप्रतिज्ञो भगवाञ्छिवश्चेति श्रुतौ श्रुतः ॥ ११ ॥ मम भक्तं यदा कश्चित्पीडयत्यतिदारुणः । तदाहं तस्य रक्षार्थं दुष्टं हन्मि न संशयः ॥ १२ ॥ सतजी बोले-उसका यह वचन सुनकर शिवमें विश्वासपरायण वह कामरूपेश्वर शीघ्र ही अपने मनमें यह विचार करने लगा-जो होनहार है, वह होकर रहेगा, उसको टालनेवाला कोई नहीं है, यहाँ तो सब कुछ प्रारब्धके अधीन है और शिवको ही प्रारब्ध कहा गया है । वे दयालु शिवजी निश्चितरूपसे इस पार्थिव लिंगमें भी उपस्थित हैं । क्या वे मेरे लिये कुछ नहीं करेंगे ? यह राक्षस [उनके सामने] क्या है ? वे अपनी की हुई प्रतिज्ञा पूर्ण करेंगे; क्योंकि भगवान् शिव वेदमें सत्यप्रतिज्ञ कहे गये हैं । [वे स्वयं कहते हैं] जब कोई अत्यन्त निर्दयी व्यक्ति मेरे भक्तको पीड़ित करता है, तो मैं उसकी रक्षाके लिये उस दुष्टका वध कर देता हूँ, इसमें संशय नहीं है ॥ ८-१२ ॥ एवं धैर्य्यं समालंब्य ध्यात्वा देवं च शंकरम् । प्रार्थयामास सद्भक्त्या मनसैव रसेश्वरः ॥ १३ ॥ त्वदीयोऽस्मि महाराज यथेच्छसि तथा कुरु । सत्यं च वचनं ह्यत्र ब्रवीमि कुरु मे हितम् ॥ १४ ॥ इस प्रकार धैर्य धारणकर भगवान् शिवका ध्यान करते हुए वह राजा अपने मनमें उत्तम भक्तिपूर्वक प्रार्थना करने लगा । हे महाराज ! मैं आपका हूँ, जैसी आपकी इच्छा हो, वैसा कीजिये । मैं यह सत्य कहता हूँ कि आप मेरा कल्याण कीजिये ॥ १३-१४ ॥ एवं मनसि स ध्यात्वा सत्यपाशेन मंत्रितः । प्राह सत्यं वचो राजा राक्षसं चावमानयन् ॥ १५ ॥ इस प्रकार मनमें ध्यान करके सत्यपाशमें बंधे हुए उस राजाने राक्षसका तिरस्कार करते हुए सत्य वचन कहा- ॥ १५ ॥ नृप उवाच - भजामि शंकरं देवं स्वभक्तपरिपालकम् । चराचराणां सर्वेषामीश्वरं निर्विकारकम् ॥ १६ ॥ राजा बोला-[हे राक्षस !] मैं अपने भक्तोंकी रक्षा करनेवाले, समस्त चराचरके स्वामी तथा निर्विकार भगवान् शिवका भजन कर रहा हूँ ॥ १६ ॥ सूत उवाच - इति तस्य वचः श्रुत्वा कामरूपेश्वरस्य सः । क्रोधेन प्रचलद्गात्रो भीमो वचनमब्रवीत् ॥ १७ ॥ सूतजी बोले-उस कामरूपेश्वरका यह वचन सुनकर क्रोधसे काँपते हुए शरीरवाले उस भीमने यह वचन कहा- ॥ १७ ॥ भीम उवाच - शंकरस्ते मया ज्ञातः किं करिष्यति वै मम । यो मे पितृव्यकेनैव स्थापितः किंकरो यथा ॥ १८ ॥ भीम बोला-मैं तुम्हारे शंकरको जानता हूँ, वह मेरा क्या कर लेगा, जिसे मेरे पिताके भाई [रावण]ने दासकी भाँति स्थापित किया था ॥ १८ ॥ तद्बलं हि समाश्रित्य विजेतुं त्वं समीहसे । तर्हि त्वया जितं सर्वं नात्र कार्या विचारणा ॥ १९ ॥ यावन्मया न दृष्टो हि शंकरस्त्वत्प्रपालकः । तावत्त्वं स्वामिनं मत्वा सेवसे नान्यथा क्वचित् ॥ २० ॥ तुम उसीके बलका सहारा लेकर मुझे जीतना चाहते हो, तो अब तुम सब कुछ जीत चुके ! इसमें सन्देह नहीं करना चाहिये । जबतक तुम्हारा पालन करनेवाला वह शिव मेरे सामने आकर दिखायी नहीं पड़ता, तबतक तुम उसे स्वामी मानकर उसकी सेवा करते रहो, अन्यथा कभी नहीं कर सकोगे ॥ १९-२० ॥ मया दृष्टे च तत्सर्वं स्फुटं स्यात्सर्वथा नृप । तस्मात्त्वं वै शिवस्येदं रूपं दूरतरं कुरु ॥ २१ ॥ अन्यथा हि भयं तेऽद्य भविष्यति न संशयः । स्वामिनस्ते करं तीक्ष्णं दास्येऽहं भीमविक्रमः ॥ २२ ॥ हे राजन् ! उसे मेरे द्वारा देख लेनेसे सब कुछ भलीभाँति स्पष्ट हो जायगा, अतः तुम शिवजीके इस रूपको दूर कर दो । अन्यथा तुम्हें आज अवश्य ही भय होगा, इसमें संशय नहीं है, भयंकर पराक्रमवाला मैं तुम्हारे स्वामीको तीक्ष्ण चपेटा मारूंगा ॥ २१-२२ ॥ सूत उवाच - इति तद्वचनं श्रुत्वा कामरूपेश्वरो नृपः । दृढं शंकरविश्वासो द्रुतं वाक्यमुवाच तम् ॥ २३ ॥ सूतजी बोले-उसका यह वचन सुनकर शिवके प्रति आस्थावाले राजा कामरूपेश्वरने भीमसे शीघ्र ही यह दृढ़ वचन कहा- ॥ २३ ॥ राजोवाच - अहं च पामरो दुष्टो न मोक्ष्ये शंकरं पुनः । सर्वोत्कृष्टश्च मे स्वामी न मां मुंचति कर्हिचित् ॥ २४ ॥ राजा बोला-हे राक्षस ! मैं नीच एवं दुष्ट जो भी हूँ, किंतु शिवजीका त्याग कभी नहीं करूंगा और मेरे स्वामी भी सर्वश्रेष्ठ हैं, वे मेरा त्याग कभी नहीं करेंगे ॥ २४ ॥ सूत उवाच - एवं वचस्तदा श्रुत्वा तस्य राज्ञश्शिवात्मनः । तं प्रहस्य द्रुतं भीमो भूपतिं राक्षसोऽब्रवीत् ॥ २५ ॥ सूतजी बोले-इस प्रकार उस शिवभक्त राजाकी बात सुनकर उस भीम राक्षसने हँसकर शीघ्र ही उस राजासे कहा- ॥ २५ ॥ भीम उवाच - मत्तो भिक्षयते नित्यं स किं जानाति स्वाकृतिम् । योगिनां का च निष्ठा वै भक्तानां प्रतिपालने ॥ २६ ॥ भीम बोला-मत्त होकर वह नित्य भीख माँगता रहता है, उसे तो अपने स्वरूपका भी ज्ञान नहीं है । भक्तोंकी रक्षा करनेमें योगियोंकी क्या निष्ठा होगी ? ॥ २६ ॥ इति कृत्वा मतिं त्वं च दूरतो भव सर्वथा । अहं च तव स स्वामी युद्धं वै करवावहे ॥ २७ ॥ ऐसा विचारकर तुम सब प्रकारसे उससे दूर रहो, मैं और तुम्हारा वह स्वामी [परस्पर] युद्ध करेंगे ॥ २७ ॥ सूत उवाच - इत्युक्तस्य नृपश्रेष्ठश्शंभुभक्तो दृढव्रतः । प्रत्युवाचाभयो भीमं दुःखदं जगतां सदा ॥ २८ ॥ सूतजी बोले-उसके बाद इस प्रकार कहे जानेपर शिवभक्त तथा दृढ़ व्रतवाले उस श्रेष्ठ राजाने निडर होकर सदा जगत्को दुःख देनेवाले भीमसे कहा- ॥ २८ ॥ राजोवाच - शृणु राक्षस दुष्टात्मन्मया कर्तुं न शक्यते । त्वया विक्रियते तर्हि कुतस्त्वं शक्तिमानसि ॥ २९ ॥ राजा बोला-हे दुष्टात्मा राक्षस ! सुनो, मैं ऐसा कभी नहीं कर सकता । तुम जो यह विकर्म करते हो, उसमें तुम समर्थ कहाँसे हुए हो ? ॥ २९ ॥ सूत उवाच - इत्युक्तस्सैन्यमादाय राजानं परिभर्त्स्य तम् । करालं करवालं च पार्थिवे प्राक्षिपत्तदा ॥ ३० ॥ पश्य त्वं स्वामिनोऽद्यैव बलं भक्तसुखावहम् । इत्युवाच विहस्यैव राक्षसैस्स महाबलः ॥ ३१ ॥ सूतजी बोले-उसके इस प्रकार कहनेपर सेना लेकर [आये हुए] भीमने उस राजाको धमका करके अपने भयंकर कृपाणसे पार्थिव लिंगपर प्रहार किया और राक्षसोंके साथ उस महाबली भीमने हँसकर कहा-अब तुम भक्तोंको सुख देनेवाला अपने स्वामीका बल देखो ॥ ३०-३१ ॥ करवालः पार्थिवं च यावत्स्पृशति नो द्विजाः । यावच्च पार्थिवात्तस्मादाविरासीत्स्वयं हरः ॥ ३२ ॥ हे द्विजो ! जबतक कि उस तलवारने पार्थिवका स्पर्श भी नहीं किया, तबतक उस पार्थिव लिंगसे शिवजी स्वयं प्रकट हो गये ॥ ३२ ॥ पश्य भीमेश्वरोहं च रक्षार्थं प्रकटोऽभवम् । मम पूर्वव्रतं ह्येतद्रक्ष्यो भक्तो मया सदा ॥ ३३ ॥ एतस्मात्पश्य मे शीघ्रं बलं भक्तसुखावहम् । इत्युक्त्वा स पिनाकेन करवालो द्विधा कृतः ॥ ३४ ॥ [शिवजी बोले-]'हे भीम ! देखो, मैं ईश्वर हूँ, मैं [राजाकी ] रक्षाके लिये प्रकट हुआ हूँ । मेरा पहलेसे ही यह व्रत है कि मैं सदा भक्तोंकी रक्षा करता हूँ । अतः अब तुम भक्तोंको सुख देनेवाले मेरे बलको शीघ्र देखो'-ऐसा कहकर शिवजीने अपने पिनाक धनुषसे उसकी तलवारके दो टुकड़े कर दिये ॥ ३३-३४ ॥ पुनश्चैव त्रिशूलं स्वं चिक्षिपे तेन रक्षसा । तच्छूलं शतधा नीतमपि दुष्टस्य शंभुना ॥ ३५ ॥ तब उस राक्षसने पुनः अपना त्रिशूल फेंका । शिवजीने उस दुष्टके उस त्रिशूलके भी सैकड़ों टुकड़े कर दिये ॥ ३५ ॥ पुनश्शक्तिश्च निःक्षिप्ता तेन शंभूपरि द्विजाः । शंभुना सापि बाणैस्स्वैर्लक्षधा च कृता द्रुतम् ॥ ३६ ॥ हे द्विजो ! तब उस दुष्टने शिवजीके ऊपर अपनी शक्तिसे प्रहार किया । शिवजीने शीघ्रतासे अपने बाणोंसे उसके भी लाखों टुकड़े कर दिये ॥ ३६ ॥ पट्टिशश्च ततस्तेन निःक्षिप्तो हि शिवोपरि । शिवेन स त्रिशूलेन तिलशश्च कृतं क्षणात् ॥ ३७ ॥ तत्पश्चात् उसने शिवजीके ऊपर पट्टिशसे प्रहार किया, तब शिवजीने त्रिशूलसे पट्टिशको तिलके समान खण्ड-खण्ड कर दिया ॥ ३७ ॥ ततश्शिवगणानां च राक्षसानां परस्परम् । युद्धमासीत्तदा घोरं पश्यतां दुःखकावहम् ॥ ३८ ॥ उसके बाद शिवके गणों तथा राक्षसोंके बीच घोर युद्ध होने लगा, जो देखनेवालोंको भय उत्पन्न करनेवाला था ॥ ३८ ॥ ततश्च पृथिवी सर्वा व्याकुला चाभवत्क्षणात् । समुद्राश्च तदा सर्वे चुक्षुभुस्समहीधराः ॥ ३९ ॥ देवाश्च ऋषयस्सर्वे बभूवुर्विकला अति । ऊचुः परस्परं चेति व्यर्थं वै प्रार्थितश्शिवः ॥ ४० ॥ इसके बाद तो उससे सारी पृथ्वी क्षणभरमें व्याकुल हो उठी और पर्वतोंसहित सभी समुद्र विक्षुब्ध हो उठे । सभी देवता तथा ऋषि अत्यन्त व्याकुल हो गये और आपसमें कहने लगे कि हमलोगोंने व्यर्थ ही शिवसे प्रार्थना की ॥ ३९-४० ॥ नारदश्च समागत्य शंकरं दुःखदाहकम् । प्रार्थयामास तत्रैव सांजलिर्नतमस्तकः ॥ ४१ ॥ इसी बीच नारदजी आकरके दुःखको नष्ट करनेवाले शिवजीसे हाथ जोड़कर तथा सिर झुकाकर प्रार्थना करने लगे ॥ ४१ ॥ नारद उवाच - क्षम्यतां क्षम्यतां नाथ त्वया विभ्रमकारक । तृणेकश्च कुठारो वै हन्यतां शीघ्रमेव हि ॥ ४२ ॥ नारदजी बोले-हे नाथ ! हे विभ्रमकारक ! आप क्षमा करें । क्या तृणपर कुठारका प्रयोग करना उचित है ? अतः आप शीघ्र ही इसका वध कीजिये ॥ ४२ ॥ इति संप्रार्थितश्शंभुः सर्वान्रक्षोगणान्प्रभुः । हुंकारेणैव चास्त्रेण भस्मसात्कृतवांस्तदा ॥ ४३ ॥ तब [नारदके द्वारा] इस प्रकार प्रार्थना किये जानेपर प्रभु शिवने अपने हुंकाररूपी अस्वसे समस्त राक्षसोंको भस्म कर दिया ॥ ४३ ॥ सर्वे ते राक्षसा दग्धाः शंकरेण क्षणं मुने । बभूवुस्तत्र सर्वेषां देवानां पश्यताद्भुतम् ॥ ४४ ॥ दावानलगतो वह्निर्यथा च वनमादहेत् । तथा शिवेन क्रुद्धेन राक्षसानां बलं क्षणात् ॥ ४५ ॥ हे मुने ! इस प्रकार शिवजीके द्वारा वे सभी राक्षस क्षणमात्रमें सभी देवताओंके देखते-देखते दग्ध कर दिये गये । जिस प्रकार दावानलसे उत्पन्न अग्नि वनको जला डालती है, वैसे ही कुपित शिवजीने राक्षसोंकी सेनाको क्षणभरमें जला डाला ॥ ४४-४५ ॥ भीमस्यैव च किं भस्म न ज्ञातं केनचित्तदा । परिवारयुतो दग्धो नाम न श्रूयते क्वचित् ॥ ४६ ॥ उस समय किसीको ज्ञात न हुआ कि भीमकी भस्म कौन-सी है ! वह परिवारसहित भस्म हो गया, उसका नाम भी कहीं सुनायी नहीं पड़ता था ॥ ४६ ॥ ततश्शिवस्य कृपया शांतिं प्राप्ता मुनीश्वराः । देवास्सर्वे च शक्राद्यास्स्वास्थ्यं प्रापाखिलं जगत् ॥ ४७ ॥ इसके बाद शिवजीकी कृपासे सभी मुनीश्वरों तथा इन्द्र आदि सभी देवताओंको शान्ति प्राप्त हुई और सारा जगत् स्वस्थ हो गया ॥ ४७ ॥ क्रोधज्वाला महेशस्य निस्ससार वनाद्वनम् । राक्षसानां च तद्भस्म सर्वं व्याप्तं वनेऽखिलम् ॥ ४८ ॥ उस समय महेश्वरके क्रोधकी ज्वाला एक वनसे दूसरे वनतक फैलने लगी । इससे राक्षसोंकी वह सम्पूर्ण भस्म वनमें सभी जगह व्याप्त हो गयी ॥ ४८ ॥ ततश्चौषधयो जाता नानाकार्यकरास्तथा । रूपान्तरं ततो नॄणां भवेद्वेषांतरं तथा ॥ ४९ ॥ उससे अनेक कार्य सम्पन्न करनेवाली ऐसी ओषधियाँ उत्पन्न हुई, जिनके प्रभावसे मनुष्योंके रूप तथा वेष भिन्न-भिन्न रूपमें बदल जाते हैं ॥ ४९ ॥ भूतप्रेतपिशाचादि दूरतश्च ततो व्रजेत् । तन्न कार्यं च यच्चैव ततो न भवति द्विजाः ॥ ५० ॥ हे द्विजो ! उन औषधियोंसे भूत, प्रेत, पिशाच आदि दूर भाग जाते हैं, जगत्का ऐसा कोई कार्य नहीं है, जो उन औषधियोंसे न होता हो ॥ ५० ॥ ततः प्रार्थितश्शम्भुर्मुनिभिश्च विशेषतः । स्थातव्यं स्वामिना ह्यत्र लोकानां सुखहेतवे ॥ ५१ ॥ अयं वै कुत्सितो देश अयोध्यालोकदुःखदः । भवंतं च तदा दृष्ट्वा कल्याणं संभविष्यति ॥ ५२ ॥ भीमशंकरनामा त्वं भविता सर्वसाधकः । एतल्लिंगं सदा पूज्यं सर्वापद्विनिवारकम् ॥ ५३ ॥ उसके बाद उन देवताओं एवं ऋषियोंने शिवजीसे विशेषरूपसे प्रार्थना की-संसारको सुख देनेके लिये आप स्वामीको अब यहीं निवास करना चाहिये । निर्बल तथा पराक्रमहीन लोगोंको दुःख देनेवाला यह बड़ा कुत्सित देश है, आपके दर्शनसे उन लोगोंका कल्याण होगा । आप भीमशंकर नामसे प्रसिद्ध होंगे और सब कुछ सिद्ध करेंगे । सभी आपत्तियोंको दूर करनेवाला यह लिंग सदा पूज्य होगा ॥ ५१-५३ ॥ सूत उवाच - इत्येवं प्रार्थितश्शम्भुर्लोकानां हितकारकः । तत्रैवास्थितवान्प्रीत्या स्वतन्त्रो भक्तवत्सलः ॥ ५४ ॥ सूतजी बोले-इस प्रकार प्रार्थना किये जानेपर लोकका हित करनेवाले, स्वतन्त्र तथा भक्तवत्सल शिवजी प्रेमपूर्वक वहींपर स्थित हो गये ॥ ५४ ॥ इति श्रीशिवमहापुराणे चतुर्थ्यां कोटिरुद्रसंहितायां भीमेश्वरज्योतिर्लिङ्गोत्पत्तिमाहात्म्यवर्णनं नामैकविंशोऽध्यायः ॥ २१ ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत चतुर्थ कोटिरुगसंहितामें भीमेश्वरचोतिर्लिंगोत्पत्ति तथा उसके माहात्म्यका वर्णन नामक इक्कीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २१ ॥ श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु |