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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥

॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥

चतुर्थी कोटीरुद्रसंहितायां

द्वाविंशोऽध्यायः

विश्वेश्वरमाहात्म्ये काश्यां रुद्रागमनवर्णनम् -
परब्रह्म परमात्माका शिव-शक्तिरूपमें प्राकट्य, पंचक्रोशात्मिका काशीका अवतरण, शिवद्वारा अविमुक्त लिंगकी स्थापना, काशीकी महिमा तथा काशीमें रुद्रके आगमनका वर्णन -


सूत उवाच -
अतःपरं प्रवक्ष्यामि श्रूयतामृषिसत्तमाः ।
विश्वेश्वरस्य माहात्म्यं महापातकनाशनम् ॥ १ ॥
यदिदं दृश्यते किंचिज्जगत्यां वस्तुमात्रकम् ।
चिदानन्द स्वरूपं च निर्विकारं सनातनम् ॥ २ ॥
सूतजी बोले-हे श्रेष्ठ ऋषिगण ! अब विश्वेश्वरके महापापनाशक माहात्म्यका वर्णन करूंगा, आपलोग सुनें । संसारमें यह जो कुछ भी वस्तुमात्र दिखायी देता है, वह चिदानन्दस्वरूप, निर्विकार एवं सनातन है ॥ १-२ ॥

तस्यैव कैवल्यरतेर्द्वितीयेच्छा ततोभवत् ।
स एव सगुणो जातश्शिव इत्यभिधीयते ॥ ३ ॥
अपने कैवल्य (अद्वैत)-भावमें ही रमनेवाले उस अद्वितीय परमेश्वरको दूसरा रूपवाला होनेकी इच्छा हुई, वही सगुण हो गया, जो शिवनामसे कहा जाता है ॥ ३ ॥

स एव हि द्विधा जातः पुंस्त्रीरूपप्रभेदतः ।
यः पुमान्स शिवः ख्यातः स्त्रीशक्तिस्सा हि कथ्यते ॥ ४ ॥
चिदानन्देस्वरूपाभ्यां पुरुषावपि निर्मितौ ॥ ५ ॥
अदृष्टाभ्यां तदा ताभ्यां स्वभावान्मुनिसत्तमाः ।
तावदृष्ट्‍वा तदा तौ च स्वमातृपितरौ द्विजाः ॥ ६ ॥
महासंशयमापन्नौ प्रकृतिः पुरुषश्च तौ ।
तदा वाणी समुत्पन्ना निर्गुणात्परमात्मनः ।
तपश्चैव प्रकर्तव्यं ततस्सृष्टिरनुत्तमा । ७ ॥
वे ही स्त्री तथा पुरुषके भेदसे दो रूपोंमें हो गये । उनमें जो पुरुष था, वह शिव कहा गया एवं जो स्त्री थी, वह शक्ति कही गयी । हे मुनिसत्तमो ! उन दोनों अदृष्ट चित् तथा आनन्दस्वरूप (शिव-शक्ति)-द्वारा स्वभावसे प्रकृति तथा पुरुष भी निर्मित किये गये । हे द्विजो ! जब इस प्रकृति एवं पुरुषने अपने जननी एवं जनकको नहीं देखा, तब वे महान् संशयमें पड़ गये । उस समय निर्गुण परमात्मासे आकाशवाणी उत्पन्न हुई कि तुम दोनों तप करो, उसीसे उत्तम सृष्टि होगी ॥ ४-७ ॥

प्रकृतिपुरुषाबूचतुः -
तपसस्तु स्थलंनास्ति कुत्रावाभ्यां प्रभोऽधुना ।
स्थित्वा तपः प्रकर्तव्यं तव शासनतश्शिव ॥ ८ ॥
प्रकृति-पुरुष बोले-हे प्रभो ! हे शिव ! तपका कोई स्थान नहीं है, फिर हम दोनों आपकी आज्ञासे कहाँ स्थित होकर तप करें ? ॥ ८ ॥

ततश्च तेजसस्सारं पंचक्रोशात्मकं शुभम् ।
सर्वोपकरणैर्युक्तं सुंदरं नगरं तथा ॥ ९ ॥
निर्माय प्रेषितं तत्स्वं निर्गुणेन शिवेन च ।
अंतरिक्षे स्थितं तच्च पुरुषस्य समीपतः ॥ १० ॥
तब निर्गुण शिवने अन्तरिक्षमें स्थित, सभी सामग्रियोंसे समन्वित, सम्पूर्ण तेजोंका सारभूत, पंचक्रोश (पाँच कोस) परिमाणवाला एक शुभ तथा सुन्दर नगर बनाया, जो कि उनका अपना ही स्वरूप था, [उस नगरको शिवजीने] पुरुषके समीप भेज दिया ॥ ९-१० ॥

तदधिष्ठाय हरिणा सृष्टिकामनया ततः ।
बहुकालं तपस्तप्तं तद्ध्यानमवलंब्य च ॥ ११ ॥
तब वहाँ स्थित होकर [पुरुषरूप] विष्णुने सृष्टिकी कामनासे उन शिवजीका ध्यान करते हुए बहुत कालपर्यन्त तप किया ॥ ११ ॥

श्रमेण जलधारश्च विविधाश्चाभवंस्तदा ।
ताभिर्व्याप्तं च तच्छून्यं नान्यत्किंचिददृश्यत ॥ १२ ॥
तपस्याके श्रमसे उनके शरीरसे अनेक जलधाराएँ उत्पन्न हो गयीं और उनसे सारा शून्य भर गया । उस समय कुछ भी दिखायी नहीं पड़ता था ॥ १२ ॥

ततश्च विष्णुना दृष्टं किमेतद्दृश्यतेऽद्भुतम् ।
इत्याश्चर्यं तदा दृष्ट्‍वा शिरसः कम्पनं कृतम् ॥ १३ ॥
इसके बाद विष्णुने देखा कि यह क्या आश्चर्य दिखायी दे रहा है ! तब इस आश्चर्यको देखकर विष्णुने अपना सिर हिला दिया ॥ १३ ॥

ततश्च पतितः कर्णान्मणिश्च पुरतः प्रभो ।
तद्बभूव महत्तीर्थं नामतो मणिकर्णिका ॥ १४ ॥
तब विष्णुके कानसे उनके सामने एक मणि गिर पड़ी । वही मणिकर्णिका नामसे एक महान् तीर्थ हो गया ॥ १४ ॥

जलौघे प्लाव्यमाना सा पंचक्रोशी यदाभवत ।
निर्गुणेन शिवेनाशु त्रिशूलेन धृता तदा ॥ १५ ॥
जब वह पंचक्रोशात्मिका नगरी उस जलराशिमें डूबने लगी, तब निर्गुण शिवने उसे शीघ्र ही अपने त्रिशूलपर धारण कर लिया ॥ १५ ॥

विष्णुस्तत्रैव सुष्वाप प्रकृत्या स्वस्त्रिया सह ।
तन्नाभिकमलाज्जातो ब्रह्मा शंकरशासनात् ॥ १६ ॥
इसके बाद विष्णुने प्रकृति नामक अपनी स्त्रीके साथ वहीं शयन किया, तब शंकरकी आज्ञासे उनके नाभिकमलसे ब्रह्मा प्रकट हुए ॥ १६ ॥

शिवाज्ञां स समासाद्य सृष्टिचक्रेऽद्भुता तदा ।
चतुर्द्दशमिता लोका ब्रह्मांडे यत्र निर्मिताः ॥ १७ ॥
योजनानां च पंचाशत्कोटिसंख्याप्रमाणतः ।
ब्रह्मांडस्यैव विस्तारो मुनिभिः परिकीर्तितः ॥ १८ ॥
तब उन्होंने शिवकी आज्ञा पाकर अद्‌भुत सृष्टिकी रचना की । उन्होंने ब्रह्माण्डमें चौदह लोकोंका निर्माण किया । मुनियोंने इस ब्रह्माण्डका विस्तार पचास करोड़ योजन बताया है ॥ १७-१८ ॥

ब्रह्मांडे कर्मणा बद्धा प्राणिनो मां कथं पुनः ।
प्राप्स्यंतीति विचिन्त्यैतत्पंचक्रोशी विमोचिता ॥ १९ ॥
- ब्रह्माण्डमें [अपने-अपने] कर्मोंसे बँधे हुए प्राणी मुझे किस प्रकारसे प्राप्त करेंगे-ऐसा विचारकर उन्होंने (शिवजीने) पंचकोशीको [ब्रह्माण्डसे] अलग रखा ॥ १९ ॥

इयं च शुभदा लोके कर्म नाशकरी मता ।
मोक्षप्रकाशिका काशी ज्ञानदा मम सुप्रिया ॥ २० ॥
अविमुक्तं स्वयं लिंगं स्थापितं परमात्मना ।
न कदाचित्त्वया त्याज्यमिदं क्षेत्रं ममांशक ॥ २१ ॥
यह काशी लोकमें कल्याण करनेवाली, कर्मबन्धनका विनाश करनेवाली, मोक्षतत्त्वको प्रकाशित करनेवाली, ज्ञान प्रदान करनेवाली तथा मुझे अत्यन्त प्रिय कही गयी है । परमात्मा शिवने अविमुक्त नामक लिंगको स्वयं स्थापित किया और उससे कहा-हे मेरे अंशस्वरूप ! तुम्हें मेरे इस क्षेत्रका कभी त्याग नहीं करना चाहिये ॥ २०-२१ ॥

इत्युक्त्वा च त्रिशूलात्स्वादवतार्य्य हरस्स्वयम् ।
मोचयामास भुवने मर्त्यलोके हि काशिकाम् ॥ २२ ॥
ऐसा कहकर स्वयं सदाशिवने उस काशीको अपने त्रिशूलसे उतारकर मर्त्यलोक संसारमें स्थापित किया ॥ २२ ॥

ब्रह्मणश्च दिने सा हि न विनश्यति निश्चितम् ।
तदा शिवस्त्रिशूलेन दधाति मुनयश्च ताम् ॥ २३ ॥
ब्रह्माका एक दिन पूरा होनेपर भी उस काशीका नाश निश्चत ही नहीं होता । हे मुनियो ! उस समय शिवजी उसे अपने त्रिशूलपर धारण करते हैं ॥ २३ ॥

पुनश्च ब्रह्मणा सृष्टौ कृतायां स्थाप्यते द्विजाः ।
कर्मणा कर्षणाच्चैव काशीति परिपठ्यते ॥ २४ ॥
हे द्विजो ! ब्रह्माद्वारा पुनः सृष्टि किये जानेपर वे काशीको स्थापित करते हैं । [सभी प्रकारके कर्मबन्धनोंको नष्ट करनेके कारण इसे काशी कहते हैं ॥ २४ ॥

अविमुक्तेश्वरं लिंगं काश्यां तिष्ठति सर्वदा ।
मुक्तिदातृ च लोकानां महापातकिनामपि ॥ २५ ॥
अन्यत्र प्राप्यते मुक्तिस्सारूप्यादिर्मुनीश्वराः ।
अत्रैव प्राप्यते जीवैः सायुज्या मुक्तिरुत्तमा ॥ २६ ॥
अविमुक्तेश्वर नामक लिंग काशीमें सर्वदा स्थित रहता है, यह महापातकियोंको भी मुक्त करनेवाला है । हे मुनीश्वरो ! अन्यत्र (मोक्षप्रद क्षेत्रोंमें) सारूप्य आदि मुक्ति प्राप्त होती है, किंतु यहाँ प्राणियोंको सर्वोत्तम सायुज्य मुक्ति प्राप्त होती है ॥ २५-२६ ॥

येषां क्वापि गतिर्नास्ति तेषां वाराणसी पुरी ।
पंचक्रोशी महापुण्या हत्याकोटिविनाशनी ॥ २७ ॥
जिनकी कहीं गति नहीं होती, उनके लिये वाराणसीपुरी है; महापुण्यदायिनी पंचकोशी करोड़ों हत्याओंको विनष्ट करनेवाली है ॥ २७ ॥

अमरा मरणं सर्वे वांछतीह परे च के ।
भुक्तिमुक्तिप्रदा चैषा सर्वदा शंकरप्रिया ॥ २८ ॥
सभी देवतालोग भी यहाँ मृत्युकी इच्छा करते हैं, फिर दूसरोंकी बात ही क्या है ? शंकरको प्रिय यह नगरी सर्वदा भोग एवं मोक्षको देनेवाली है ॥ २८ ॥

ब्रह्मा च श्लाघते चामूं विष्णुस्सिद्धाश्च योगिनः ।
मुनयश्च तथैवान्ये त्रिलोकस्था जनाः सदा ॥ २९ ॥
काश्याश्च महिमानं वै वक्तुं वर्षशतैरपि ।
शक्नोम्यहं न सर्वं हि यथाशक्ति ब्रुवे ततः ॥ ३० ॥
ब्रह्मा, विष्णु, सिद्ध, योगी, मुनि तथा त्रिलोकमें रहनेवाले अन्य लोग भी सदा काशीकी प्रशंसा करते हैं । [हे महर्षियो !] मैं काशीकी सम्पूर्ण महिमाको सौ वर्षों में भी नहीं कह सकता । फिर भी यथाशक्ति वर्णन करता हूँ ॥ २९-३० ॥

कैलासस्य पतिर्यो वै ह्यंतस्सत्त्वो बहिस्तमाः ।
कालाग्निर्नामतः ख्यातो निर्गुणो गुणवान्भवः ।
प्रणिपातैरनेकैश्च वचनं चेदमब्रवीत् ॥ ३१ ॥
जो कैलासपति भीतरसे सत्त्वगुणी, बाहरसे तमोगुणी कहे गये हैं तथा कालाग्निरुद्रके नामसे प्रसिद्ध हैं, वे निर्गुण होते हुए भी सगुणरूपमें प्रकट हुए शिव हैं । उन्होंने अनेक बार प्रणाम करते हुए शंकरसे यह वचन कहा था- ॥ ३१ ॥

रुद्र उवाच -
विश्वेश्वर महेशान त्वदीयोऽस्मि न संशयः ।
कृपां कुरु महादेव मयि त्वं साम्ब आत्मजे ॥ ३२ ॥
स्थातव्यं च सदात्रैव लोकानां हितकाम्यया ।
तारयस्व जगन्नाथ प्रार्थयामि जगत्पते ॥ ३३ ॥
रुद्र बोले-हे विश्वेश्वर ! हे महेश्वर ! मैं आपका हूँ, इसमें सन्देह नहीं । हे महादेव ! मुझ पुत्रपर अम्बासहित आप कृपा कीजिये । हे जगन्नाथ ! हे जगत्पते ! लोककल्याणकी कामनासे आप यहींपर सदा निवास कीजिये और सबका उद्धार कीजिये; मैं यही प्रार्थना करता हूँ । ३२-३३ ॥

सूत उवाच -
अविमुक्तेऽपि दान्तात्मा तं संप्रार्थ्य पुनः पुनः ।
नेत्राश्रूणि प्रमुच्यैव प्रीतः प्रोवाच शंकरम् ॥ ३४ ॥
सूतजी बोले-[तदनन्तर] मन तथा इन्द्रियोंको संयत करनेवाले अविमुक्तने भी वारंबार शिवकी प्रार्थना करके अपने नेत्रोंसे आँसुओंको गिराते हुए प्रसन्नतापूर्वक शिवजीसे कहा- ॥ ३४ ॥

अविमुक्त उवाच -
देवदेव महादेव कालामयसुभेषज ।
त्वं त्रिलोकपतिस्सत्यं सेव्यो ब्रह्माच्युतादिभिः ॥ ३५ ॥
अविमुक्त बोले-हे देवाधिदेव ! हे महादेव ! हे कालरूपी रोगकी उत्तम औषधि ! सचमुच आप त्रिलोकपति हैं और ब्रह्मा तथा विष्णु आदिके द्वारा सेवनीय हैं ॥ ३५ ॥

काश्यां पुर्यां त्वया देव राजधानी प्रगृह्यताम् ।
मया ध्यानतया स्थेयमचिंत्य सुखहेतवे ॥ ३६ ॥
हे देव ! आप काशीपुरीमें अपनी राजधानी स्वीकार कीजिये और मैं अचिन्त्य सुखके लिये आपका ध्यान करता हुआ यहीं निवास करूँगा ॥ ३६ ॥

मुक्तिदाता भवानेव कामदश्च न चापरः ।
तस्मात्त्वमुपकाराय तिष्ठोमासहितस्सदा ॥ ३७ ॥
जीवान्भवाब्धेरखिलांस्तारय त्वं सदाशिव ।
भक्तकार्य्यं कुरु हर प्रार्थयामि पुनःपुनः ॥ ३८ ॥
आप ही मुक्तिदाता एवं कामनाओंको पूर्ण करनेवाले हैं, दूसरा कोई नहीं; इसलिये आप लोकोपकारके लिये पार्वतीसहित सदा यहीं निवास करें । हे सदाशिव ! आप [यहाँ निवास करते हुए] संसारसागरसे सभी जीवोंका उद्धार कीजिये और भक्तोंका कार्य पूर्ण कीजिये, मैं आपसे बारंबार प्रार्थना करता हूँ ॥ ३७-३८ ॥

सूत उवाच -
इत्येवं प्रार्थितस्तेन विश्वनाथेन शंकरः ।
लोकानामुपकारार्थं तस्थौ तत्रापि सर्वराट् ॥ ३९ ॥
सूतजी बोले-इस प्रकार उन विश्वनाथके द्वारा प्रार्थना किये जानेपर सबके स्वामी शंकरजी लोकोपकारार्थ वहाँ भी निवास करने लगे ॥ ३९ ॥

यद्दिनं हि समारभ्य हरः काश्यामुपागतः ।
तदारभ्य च सा काशी सर्वश्रेष्ठतराभवत् ॥ ४० ॥
जिस दिनसे वे हर काशीमें आये, तभीसे वह काशी सर्वश्रेष्ठ हो गयी ॥ ४० ॥

इति श्रीशिवमहापुराणे चतुर्थ्यां कोटिरुद्रसंहितायां
विश्वेश्वरमाहात्म्ये काश्यां रुद्रागमनवर्णनंनाम द्वाविंशोऽध्यायः ॥ २२ ॥
इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत चतुर्थ कोटिरुद्रसंहितामें विश्वेश्वरमाहात्म्यमें काशीमें रुद्रका आगमनवर्णन नामक बाईसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २२ ॥



श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु


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