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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥
॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥ चतुर्थी कोटीरुद्रसंहितायां
त्रयोविंशोऽध्यायः काशीविश्वेश्वरज्योतिर्लिङ्गमाहात्म्यवर्णनम् -
काशीविश्वेश्वर ज्योतिर्लिंगके माहात्म्यके प्रसंगमें काशीमें मुक्तिक्रमका वर्णन - ऋषय ऊचुः - एवं वाराणसी पुण्या यदि सूत महापुरी । तत्प्रभावं वदास्माकमविमुक्तस्य च प्रभो ॥ १ ॥ ऋषि बोले-हे प्रभो ! हे सूतजी ! यदि वाराणसी महापुरी इतनी पवित्र है, तो आप उसका एवं अविमुक्त [ज्योतिर्लिंग]-का प्रभाव हमलोगोंसे कहिये ॥ १ ॥ सूत उवाच - वक्ष्ये संक्षेपतस्सम्यग्वाराणस्यास्सुशोभनम् । विश्वेश्वरस्य माहात्म्यं श्रूयतां च मुनीश्वराः ॥ २ ॥ सूतजी बोले-हे मुनीश्वरो ! मैं संक्षेपमें सम्यक रीतिसे वाराणसी तथा विश्वेश्वरके अतिसुन्दर माहात्म्यका वर्णन करता हूँ, आपलोग सुनें ॥ २ ॥ कदाचित्पार्वती देवी शङ्करं परया मुदा । लोककामनयापृच्छन्माहात्म्यमविमुक्तयोः ॥ ३ ॥ किसी समय पार्वतीने बड़ी प्रसन्नतासे संसारके हितकी कामनासे काशी तथा अविमुक्तका माहात्म्य शिवजीसे पूछा ॥ ३ ॥ पार्वत्युवाच - अस्य क्षेत्रस्य माहात्म्यं वक्तुमर्हस्य शेषतः । ममोपरि कृपां कृत्वा लोकानां हितकाम्यया ॥ ४ ॥ पार्वती बोलीं-[हे शिवजी !] आप लोकहितकी कामनासे मेरे ऊपर कृपा करके इस क्षेत्रका माहात्म्य पूर्णरूपसे कहनेकी कृपा करें ॥ ४ ॥ सूत उवाच - देव्यास्तद्वचनं श्रुत्वा देवदेवो जगत्प्रभुः । प्रत्युवाच भवानीं तां जीवानां प्रियहेतवे ॥ ५ ॥ सूतजी बोले-देवीका यह वचन सुनकर देवाधिदेव जगत्प्रभुने जीवोंके कल्याणके लिये उन भवानीसे कहा- ॥ ५ ॥ परमेश्वर उवाच - साधु पृष्टं त्वया भद्रे लोकानां सुखदं शुभम् । कथयामि यथार्थं वै महा त्म्यमविमुक्तयोः ॥ ६ ॥ इदं गुह्यतमं क्षेत्रं सदा वाराणसी मम । सर्वेषामेव जंतूनां हेतुर्मोक्षस्य सर्वथा ॥ ७ ॥ परमेश्वर बोले-हे भद्रे ! तुमने लोकका कल्याण करनेवाला तथा सुखदायक शुभ प्रश्न किया है, अब मैं अविमुक्त तथा काशीके यथार्थ माहात्म्यका वर्णन करता हूँ । यह वाराणसी सदा मेरा गोपनीय क्षेत्र है और सब प्रकारसे सभी प्राणियोंके मोक्षका हेतु भी है ॥ ६-७ ॥ अस्मिन्सिद्धास्सदा क्षेत्रे मदीयं व्रतमाश्रिताः । नानालिंगधरा नित्यं मम लोकाभिकांक्षिणः ॥ ८ ॥ इस क्षेत्रमें सिद्धगण अनेक प्रकारका चिल्ल धारणकर मेरे लोककी प्राप्ति करनेकी इच्छासे मेरा व्रत धारणकर सर्वदा यहाँ निवास करते हैं ॥ ८ ॥ अभ्यस्यंति महायोगं जितात्मानो जितेन्द्रियाः । परं पाशुपतं श्रौतं भुक्तिमुक्तिफलप्रदम् ॥ ९ ॥ यहाँपर वे सिद्धगण अपने मन तथा इन्द्रियोंको वशमें करके महायोगका अभ्यास करते हैं एवं भोग तथा मोक्ष देनेवाले श्रेष्ठ पाशुपतव्रतका आचरण करते हैं ॥ ९ ॥ रोचते मे सदा वासो वाराणस्यां महेश्वरि । हेतुना येन सर्वाणि विहाय शृणु तद्ध्रुवम् ॥ १० ॥ हे महेश्वरि ! जिस कारणसे सब कुछ छोड़कर वाराणसीमें निवास करना मुझे निश्चय ही अच्छा लगता है, उसे तुम सुनो ॥ १० ॥ यो मे भक्तश्च विज्ञानी तावुभौ मुक्तिभागिनौ । तीर्थापेक्षा च न तयोर्विहिता विहिते समौ ॥ ११ ॥ जो मेरा भक है एवं जो ज्ञानी है-वे दोनों ही मुक्तिके भागी हैं, उन्हें किसी अन्य तीर्थकी अपेक्षा नहीं रहती । उनके लिये विहित एवं अविहित दोनों ही (प्रकारके कर्म) समान हैं ॥ ११ ॥ जीवन्मुक्तौ तु तौ ज्ञेयौ यत्रकुत्रापि वै मृतौ । प्राप्नुतो मोक्षमाश्वेव मयोक्तं निश्चितं वचः ॥ १२ ॥ अत्र तीर्थे विशेषोस्त्यविमुक्ताख्ये परोत्तमे । श्रूयतां तत्त्वया देवि परशक्ते सुचित्तया ॥ १३ ॥ उन दोनोंको जीवन्मुक्त समझना चाहिये । वे जहाँ कहीं भी मरें, उन्हें शीघ्र ही मुक्ति प्राप्त हो जाती है,मैंने यह सत्य वचन कहा है । हे देवि ! हे परम शक्तिस्वरूपिणि ! इस सर्वश्रेष्ठ अविमुक्त नामक तीर्थमें जो विशेषता है, उसे तुम ध्यानसे सुनो ॥ १२-१३ ॥ सर्वे वर्णा आश्रमाश्च बालयौवनवार्द्धकाः । अस्यां पुर्यां मृताश्चेत्त्स्युर्मुक्ता एव न संशयः ॥ १४ ॥ सभी वर्ण तथा आश्रमके लोग; चाहे वे बालक हों, युवा हों अथवा वृद्ध हों, इस पुरीमें मरनेपर अवश्य मुक्त हो जाते हैं, इसमें सन्देह नहीं है ॥ १४ ॥ अशुचिश्च शुचिर्वापि कन्या परिणता तथा । विधवा वाथ वा वंध्या रजोदोषयुतापि वा ॥ १५ ॥ प्रसूता संस्कृता कापि यादृशी तादृशी द्विजाः । अत्र क्षेत्रे मृता चेत्स्यान्मोक्षभाङ् नात्र संशयः ॥ १६ ॥ स्वेदजश्चांडजो वापि द्युद्भिज्जोऽथ जरायुजः । मृतो मोक्षमवाप्नोति यथात्र न तथा क्वचित् । १७ ॥ हे द्विजो । पवित्र हो, अपवित्र हो, कन्या हो या विवाहिता, विधवा, वन्ध्या, रजस्वला, प्रसूता अथवा असंस्कृता, चाहे-जैसी कैसी भी स्त्री हो, यदि वह इस क्षेत्रमें मर जाय, तो मुक्ति प्राप्त कर लेती है, इसमें संशय नहीं है । स्वेदज, अण्डज, उद्भिज्ज अथवा जरायुज प्राणी [-ये सभी] यहाँ मरनेपर जैसा मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं, वैसा अन्यत्र कहीं नहीं ॥ १५-१७ ॥ ज्ञानापेक्षा न चात्रैव भत्तयपेक्षा न वै पुनः । कर्मापेक्षा न देव्यत्र दानापेक्षा न चैव हि ॥ १८ ॥ संस्कृत्यपेक्षा नैवात्र ध्यानापेक्षा न कर्हिचित् । नामापेक्षार्चनापेक्षा सुजातीनां तथात्र न ॥ १९ ॥ हे देवि ! यहाँ न ज्ञानकी अपेक्षा है, न भक्तिकी अपेक्षा है, न सत्कर्मकी अपेक्षा और न दानकी ही अपेक्षा है । यहाँ न संस्कारको अपेक्षा है और न ध्यानकी ही अपेक्षा कभी है । यहाँ न नामकी अपेक्षा है । पूजा तथा उत्तम जातिकी भी कोई अपेक्षा नहीं है ॥ १८-१९ ॥ मम क्षेत्रे मोक्षदे हि यो वा वसति मानवः । यथा तथा मृतः स्याच्चेन्मोक्षमाप्नोति निश्चितम् ॥ २० ॥ जो कोई भी मनुष्य मेरे इस मोक्षदायक क्षेत्रमें निवास करता है, वह चाहे जिस किसी प्रकारसे मरा हो. निश्चय ही मोक्षको प्राप्त कर लेता है ॥ २० ॥ एतन्मम पुरं दिव्यं गुह्याद्गुह्यतरं प्रिये । ब्रह्मादयोऽपि जानंति माहात्म्यं नास्य पार्वति ॥ २१ ॥ महत्क्षेत्रमिदं तस्मादविमुक्तमिति स्मृतम् । सर्वेभ्यो नैमिषादिभ्यः परं मोक्षप्रदं मृते ॥ २२ ॥ हे प्रिये ! यह मेरा दिव्य पुर गुहासे भी गुहातर है । हे पार्वति ! ब्रह्मा आदि भी इसका माहात्म्य नहीं जानते हैं । अत: (सभी स्थितियों में मोक्ष प्रदान करनेके कारण)यह महान् क्षेत्र अविमुक्त कहा गया है । मरनेके बाद यह नैमिषारण्य आदि क्षेत्रोंसे भी अधिक मोक्षप्रद है ॥ २१-२२ ॥ धर्मस्योपनिषत्सत्यं मोक्षस्योपनिषत्समम् । क्षेत्रतीर्थोपनिषदमविमुक्तं विदुर्बुधाः ॥ २३ ॥ कामं भुंजन्स्वपन्क्रीडन्कुर्वन्हि विविधाः क्रियाः । अविमुक्ते त्यजन्प्राणाञ्जंतुर्मोक्षाय कल्पते ॥ २४ ॥ विद्वान् पुरुष धर्मका उपनिषद् सत्य, मोक्षका सारतत्त्व समत्वभाव, क्षेत्र और तीर्थका उपनिषद् अविमुक्तक्षेत्रको कहते हैं । अपनी इच्छानुसार भोजन, शयन, क्रीड़ा आदि विविध क्रियाओंको करता हुआ भी अविमुक्तमें प्राण-त्याग करनेवाला प्राणी मोक्षका अधिकारी हो जाता है ॥ २३-२४ ॥ कृत्वा पापसहस्राणि पिशाचत्वं वरं नृणाम् । न च क्रतुसहस्रत्वं स्वर्गे काशीं पुरीं विना ॥ २५ ॥ तस्मात्सर्वप्रयत्नेन सेव्यते काशिका पुरी । अव्यक्तलिंगं मुनिभिर्ध्यायते च सदाशिवः ॥ २६ ॥ हजारों पाप करके पिशाच हो जाना भी अच्छा है, किंतु काशीको छोड़कर स्वर्गमें हजार इन्द्रपद श्रेष्ठ नहीं हैं । इसलिये मुनिजन पूर्ण प्रयत्नके साथ काशीपुरीका सेवन करते हैं और अव्यक्त स्वरूपवाले सदाशिवका ध्यान करते हैं ॥ २५-२६ ॥ यद्यत्फलं समुद्दिश्य तपन्त्यत्र नरः प्रिये । तेभ्यश्चाहं प्रय च्छामि सम्यक्तत्तत्फलं धुवम् ॥ २७ ॥ सायुज्यमात्मनः पश्चादीप्सितं स्थानमेव च । न कुतश्चित्कर्मबंधस्त्यजतामत्र वै तनुम् ॥ २८ ॥ हे प्रिये ! मनुष्य जिस-जिस फलको उद्देश्य करके यहाँ तप करते हैं, उन्हें मैं निश्चय ही वे-वे मनोवांछित फल प्रदान करता हूँ, उसके बाद उन्हें अपनी सायुज्यमुक्ति तथा अभिलषित स्थान देता हूँ । यहाँ शरीरका त्याग करनेवालोंको कहीं भी कर्मका बन्धन नहीं होता है ॥ २७-२८ ॥ ब्रह्मा देवर्षिभिस्सार्द्धं विष्णुर्वापि दिवाकरः । उपासते महात्मानस्सर्वे मामिह चापरे ॥ २९ ॥ देवताओं तथा ऋषियोंके सहित ब्रह्मा, विष्णु, सूर्य और अन्य सभी महात्मा तथा दूसरे लोग भी यहाँ मेरी उपासना करते हैं ॥ २९ ॥ विषयासक्तचित्तोऽपि त्यक्त धर्मरुचिर्नरः । इह क्षेत्रे मृतो यो वै संसारं न पुनर्विशेत् ॥ ३० ॥ किं पुनर्निर्ममा धीरासत्त्वस्था दंभवर्जिताः । कृतिनश्च निरारंभास्सर्वे ते मयि भाविताः ॥ ३१ ॥ विषयासक्त चित्तवाला तथा धर्मरुचिसे रहित मनुष्य भी यदि इस क्षेत्रमें मृत्युको प्राप्त करता है, तो वह पुनः इस संसारमें नहीं आता है, फिर ममतासे रहित, धैर्यवान्, सत्त्वगुणमें स्थित, अहंकाररहित, पुण्यात्मा तथा सर्वारम्भपरित्यागी [निष्काम कर्म करनेवाले] पुरुषोंका कहना ही क्या है, वे सभी तो मुझमें ही लीन रहते हैं । ३०-३१ ॥ जन्मांतरसहस्रेषु जन्म योगी समाप्नुयात् । तदिहैव परं मोक्षं मरणादधिगच्छति ॥ ३२ ॥ अत्र लिंगान्यनेकानि भक्तैस्संस्थापितानि हि । सर्वकामप्रदानीह मोक्षदानि च पार्वति ॥ ३३ ॥ हजारों जन्म लेनेके पश्चात् योगी पुरुष यहाँ जन्म प्राप्त करता है, वह यहाँ मरनेपर परम मोक्ष प्राप्त करता है । हे पार्वति ! यहाँपर मेरे भक्तोंने अनेक लिंग स्थापित किये हैं, जो कामनाओंको पूर्ण करनेवाले एवं मोक्ष देनेवाले हैं ॥ ३२-३३ ॥ पंचक्रोशं चतुर्दिक्षु क्षेत्रमेतत्प्रकीर्तितम् । समंताच्च तथा जंतोर्मृतिकालेऽमृतप्रदम् ॥ ३४ ॥ यह क्षेत्र चारों दिशाओंमें सभी ओर पाँच कोसतक फैला हुआ कहा गया है, इसमें कहीं भी मर जानेपर प्राणीको अमृतत्वकी प्राप्ति होती है ॥ ३४ ॥ अपापश्च मृतो यो वै सद्यो मोक्षं समश्नुते । सपापश्च मृतौ यस्स्यात्कायव्यूहान्समश्नुते ॥ ३५ ॥ यातनां सोनुभूयैव पश्चान्मोक्षमवाप्नुयात् । पातकं योऽविमुक्ताख्ये क्षेत्रेऽस्मिन्कुरुते ध्रुवम् ॥ ३६ ॥ भैरवीं यातनां प्राप्य वर्षाणामयुते पुनः । ततो मोक्षमवाप्नोति भुक्त्वा पापं च सुन्दरि ॥ ३७ ॥ जो पापरहित (पुण्यात्मा) मनुष्य यहाँ मरता है, वह शीघ्र मोक्ष प्राप्त कर लेता है और जो पापी मरता है, वह [पहले] कायव्यूहोंको प्राप्त करता है, फिर वह यातनाको भोगकर बादमें मोक्ष प्राप्त करता है । हे सुन्दरि ! जो इस अविमुक्तक्षेत्रमें पाप करता है, वह निश्चित ही दस हजार वर्षपर्यन्त भैरवी यातना प्राप्त करके पापका फल भोगनेके अनन्तर मुक्त हो जाता है ॥ ३५-३७ ॥ इति ते च समाख्याता पापाचारे च या गतिः । एवं ज्ञात्वा नरस्सम्यक्सेवयेदविमुक्तकम् ॥ ३८ ॥ कृतकर्मक्षयो नास्ति कल्पकोटिशतैरपि । अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम् ॥ ३९ ॥ इस प्रकार यहाँ पाप करनेवालोंकी जो गति होती है, उस सबको मैंने तुमसे कह दिया । इसे जानकर मनुष्यको अविमुक्तक्षेत्रका विधिवत् सेवन करना चाहिये । सौ करोड़ कल्पोंमें भी [अपने द्वारा किये गये कर्मका नाश नहीं होता है, किये गये शुभ और अशुभ कर्मका फल [जीवको] अवश्य भोगना पड़ता है ॥ ३८-३९ ॥ केवलं चाशुभं कर्म नरकाय भवेदिह । शुभं स्वर्गाय जायेत द्वाभ्यां मानुष्यमीरितम् ॥ ४० ॥ अशुभ कर्म निश्चय ही नरकके लिये होता है एवं शुभ कर्म स्वर्गके लिये होता है । [शुभ-अशुभ] दोनों कर्मोंसे मनुष्यलोकमें जन्म कहा गया है ॥ ४० ॥ जन्म सम्यगसम्यक् च न्यूनाधिक्ये भवेदिह । उभयोश्च क्षयो मुक्तिर्भवेत्सत्यं हि पार्वति ॥ ४१ ॥ हे पार्वति ! शुभाशुभ कर्मके न्यूनाधिक्यसे उत्तम तथा अधम शरीर प्राप्त होते हैं, किंतु जब दोनोंका क्षय हो जाता है, तब मुक्ति होती है, यह सत्य है ॥ ४१ ॥ कर्म च त्रिविधं प्रोक्तं कर्मकाण्डे महेश्वरि । संचितं क्रियमाणं च प्रारब्धं चेति बंधकृत् ॥ ४२ ॥ हे महेश्वरि ! कर्मकाण्डमें संचित, प्रारब्ध एवं क्रियमाण-तीन प्रकारके कर्म बताये गये हैं, जो बन्धनमें डालनेवाले हैं ॥ ४२ ॥ पूर्वजन्मसमुद्भूतं संचितं समुदाहृतम् । भुज्यते च शरीरेण प्रारब्धं परिकीर्तितम् ॥ ४३ ॥ जन्मना यच्च क्रियते कर्म सांप्रतम् । शुभाशुभं च देवेशि क्रियमाणं विदुर्बुधाः ॥ ४४ ॥ पूर्वजन्ममें किये गये कर्मको संचित कहा गया है और जिसका इस शरीरसे भोग किया जा रहा है, वह प्रारब्ध कहा गया है । हे देवेशि ! जो इस जन्ममें शुभाशुभ कर्म इस समय किया जा रहा है, उसे विद्वज्जन क्रियमाण कहते हैं । ४३-४४ ॥ प्रारब्धकर्मणो भोगात्क्षयश्चैव चान्यथा । उपायेन द्वयोर्नाशः कर्मणोः पूजनादिना ॥ ४५ ॥ सर्वेषां कर्मणां नाशो नास्ति काशीं पुरीं विना । सर्वं च सुलभं तीर्थं दुर्ल्लभा काशिका पुरी ॥ ४६ ॥ प्रारब्ध कर्मका नाश [केवल] उसके भोगसे ही होता है, इसके अतिरिक्त कोई उपाय नहीं है । संचित और क्रियमाण-इन दोनों कोंका नाश पूजनादि उपायसे होता है । सम्पूर्ण कर्मोंका नाश काशीपुरीके अतिरिक्त अन्यत्र नहीं होता है । सभी तीर्थ सुलभ हैं, किंतु काशीपुरी दुर्लभ है ॥ ४५-४६ ॥ पूर्वजन्मकृतं चेद्वै काशीदर्शनमादरात् । तदा काशीं च संप्राप्य लभेन्मृत्युं न चान्यथा ॥ ४७ ॥ काशीं प्राप्य नरो यस्तु गंगायां स्नानमाचरेत् । तदा च क्रियमाणस्य संचितस्यापि संक्षयः ॥ ४८ ॥ यदि पूर्वजन्ममें आदरपूर्वक काशीका दर्शन किया गया है, तभी काशीमें आकर मनुष्य मृत्युको प्राप्त होता है, अन्यथा नहीं । काशीमें आकर जो मनुष्य गंगास्नान करता है, उसके संचित तथा क्रियमाण कर्मका नाश हो जाता है । ४७-४८ ॥ प्रारब्धं न विना भोगो नश्य तीति सुनिश्चितम् । मृतिश्च तस्य संजाता तदा तस्य क्षयो भवेत् ॥ ४९ ॥ पूर्वं चैव कृता काशी पश्चात्पापं समाचरेत् । तद्बीजेन बलवता नीयते काशिका पुनः ॥ ५० ॥ तदा सर्वाणि पापानि भस्मसाच्च भवंति हि । तस्मात्काशीं नरस्सेवेत्कर्मनिर्मूलनीं ध्रुवम् ॥ ५१ ॥ एकोऽपि ब्राह्मणो येन काश्यां संवासितः प्रिये । काशीवासमवाप्यैव ततो मुक्तिं स विंदति ॥ ५२ ॥ यह निश्चित है कि बिना भोग किये प्रारब्धकर्मका नाश नहीं होता, जब मनुष्यकी [शास्त्रानुमोदित रीतिसे] मृत्यु होती है, तब प्रारब्धकर्मका भी क्षय हो जाता है । यदि किसीने पूर्व में काशीसेवन किया है और उसके बाद पाप किया है, तो भी काशीसेवनरूप बलवान् बीजसे उसे काशी पुनः प्राप्त हो जाती है और तब सम्पूर्ण पाप भस्म हो जाते हैं, इसलिये कर्मका निर्मूलन करनेवाली काशीका सेवन निश्चित रूपसे करना चाहिये । हे प्रिये । जिसने एक भी ब्राह्मणको काशीवास कराया, वह स्वयं भी काशीवास पाकर मुक्ति प्राप्त कर लेता है ॥ ४९-५२ ॥ काश्यां यो वै मृतश्चैव तस्य जन्म पुनर्नहि । समुद्दिश्य प्रयागे च मृतस्य कामनाफले ॥ ५३ ॥ संयोगश्च तयोश्चेत्स्यात्काशीजन्यफलं वृथा । यदि न स्यात्तयोर्योगस्तीर्थराजफलं वृथा ॥ ५४ ॥ तस्मान्मच्छासनाद्विष्णुस्सृष्टिं साक्षाद्धि नूतनाम् । विधाय मनसोद्दिष्टां तत्सिद्धिं यच्छति ध्रुवम् ॥ ५५ ॥ जो काशीमें मरता है, उसका पुनर्जन्म नहीं होता, किंतु प्रयागमें फलके उद्देश्यसे मरनेपर कामनानुरूप फल प्राप्त होता है । यदि [मोक्षदायिनी] काशी तथा [वांछितप्रद] प्रयाग-दोनोंका मरणफल एक ही हो तो काशीमरणका अपूर्व फल मोक्ष व्यर्थ हो जायगा और प्रयागमें यदि मरणसे कामनासिद्धि न हुई तो उसका अपूर्व फल भी सिद्ध न हो सकेगा । अत: मेरी आज्ञासे साक्षात् विष्णु भगवान् नयी सृष्टि रचकर [प्रयागमें मनुष्योंको] मनोवांछित सिद्धि प्रदान करते हैं ॥ ५३-५५ ॥ सूत उवाच - इत्यादि बहुमाहात्म्यं काश्यां वै मुनिसत्तमाः । तथा विश्वेश्वरस्यापि भुक्तिमुक्तिप्रदं सताम् ॥ ५६ ॥ अतः परं प्रवक्ष्यामि माहात्म्यं त्र्यंबकस्य च । यच्छ्रुत्वा सर्वपापेभ्यो मुच्यते मानवः क्षणात् ॥ ५७ ॥ सूतजी बोले-हे श्रेष्ठ मुनियो ! इस प्रकार काशीपुरीका तथा विश्वेश्वरका भी बहुत माहात्म्य है, जो सजनोंको भोग तथा मोक्ष प्रदान करनेवाला है । इसके बाद मैं त्र्यम्बकेश्वरके माहात्म्यका वर्णन करूँगा, जिसे सुनकर मनुष्य क्षणमात्रमें सम्पूर्ण पापोंसे छूट जाता है ॥ ५६-५७ ॥ इति श्रीशिवमहापुराणे चतुर्थ्यां कोटिरुद्रसंहितायां काशीविश्वेश्वरज्योतिर्लिङ्गमाहात्म्यवर्णनंनामत्रयोविंशोध्याय. ॥ २३ ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत चतुर्थ कोटिरुनसंहितामें काशीविश्वेश्वरज्योतिर्लिंग माहात्म्यवर्णन नामक तेईसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २३ ॥ श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु |