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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥
॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥ चतुर्थी कोटीरुद्रसंहितायां
पञ्चविंशोऽध्यायः गौतमव्यवस्थावर्णनम् -
मुनियोंका महर्षि गौतमके प्रति कपटपूर्ण व्यवहार - सूत उवाच - कदाचिद्गौतमेनैव जलार्थं प्रेषिता निजाः । शिष्यास्तत्र गता भक्त्या कमंडलुकरा द्विजाः ॥ १ ॥ सूतजी बोले-हे ब्राह्मणो ! किसी समय गौतम ऋषिने अपने शिष्योंको जल लानेहेतु भेजा और वे हाथमें कमण्डलु लेकर भक्तिपूर्वक वहाँ पहुँचे ॥ १ ॥ शिष्याञ्जलसमीपे तु गतान्दृष्ट्वा न्यषेधयन् । जलार्थमगतांस्तत्र चर्षिपत्न्योप्यनेकशः ॥ २ ॥ उस समय जल लेनेके लिये आयी हुई ऋषिपत्नियोंने जलके समीपमें गये उन गौतमशिष्योंको देखकर उन्हें जल लेनेसे रोका ॥ २ ॥ ऋषिपत्न्यो वयं पूर्वं ग्रहीष्यामो विदूरतः । पश्चाच्चैव जलं ग्राह्यमित्येवं पर्यभर्त्सयन् ॥ ३ ॥ पहले हम ऋषिपत्नियाँ जल ग्रहण करेंगी, इसके बाद तुमलोग दूर रहकर जल ग्रहण करना-ऐसा कहकर उन्होंने धमकाया ॥ ३ ॥ परावृत्य तदा तैश्च ऋषिपत्न्यै निवेदितम् । सा चापि तान्समादाय समाश्वास्य च तैः स्वयम् ॥ ४ ॥ जलं नीत्वा ददौ तस्मै गौतमाय तपस्विनी । नित्यं निर्वाहयामास जलेन ऋषिसत्तमः ॥ ५ ॥ तब वहाँसे लौटकर उन शिष्योंने यह बात ऋषिपत्नीसे कही । इसके बाद तपस्विनी गौतमपत्नी उनको धीरज देकर उन शिष्योंको साथ लेकर स्वयं वहाँ गर्मी और जल लाकर उन गौतमको दिया । तब उन ऋषिवरने उस जलसे अपना नित्यकर्म सम्पन्न किया ॥ ४-५ ॥ ताश्चैवमृषिपत्न्यस्तु क्रुद्धास्तां पर्यभर्त्सयन् । परावृत्य गतास्सर्वास्तूटजान्कुटिलाशयाः ॥ ६ ॥ स्वाम्यग्रे विपरीतं च तद्वृत्तं निखिलं ततः । दुष्टाशयाभिः स्त्रीभिश्च ताभिर्वै विनिवेदितम् ॥ ७ ॥ इधर, कुटिल विचारवाली उन सभी ऋषिपत्नियोंने कुपित होकर महर्षिपत्नीको फटकारा और वहाँसे लौटकर अपनी-अपनी पर्णशालाओंमें गयीं । इसके बाद दुष्ट स्वभाववाली उन स्त्रियोंने अपने-अपने पतियोंसे उलटेसीधे वह सारा समाचार निवेदन किया ॥ ६-७ ॥ अथ तासां वचः श्रुत्वा भाविकर्मवशात्तदा । गौतमाय च संकुद्धाश्चासंस्ते परमर्षयः ॥ ८ ॥ तब उनकी बात सुनकर भवितव्यतावश वे महर्षिगण गौतमके ऊपर क्रुद्ध हो गये ॥ ८ ॥ विघ्नार्थं गौतमस्यैव नानापूजोपहारकैः । गणेशं पूजयामासुस्संकुद्धास्ते कुबुद्धयः ॥ ९ ॥ इसके बाद क्रोधित हुए उन दुर्बुद्धि ऋषियोंने गौतमके तपमें विघ्न करनेके लिये अनेक प्रकारके पूजन एवं उपहारोंद्वारा गणेशजीकी आराधना की ॥ ९ ॥ आविर्बभूव च तदा प्रसन्नो हि गणेश्वरः । उवाच वचनं तत्र भक्ताधीनः फलप्रदः ॥ १० ॥ तदनन्तर भक्तके अधीन रहनेवाले तथा अभीष्ट फल देनेवाले गणेशजी प्रसन्न होकर वहाँ प्रकट हो गये और यह वचन कहने लगे- ॥ १० ॥ गणेश उवाच - प्रसन्नोऽस्मि वरं ब्रूत यूयं किं करवाण्यहम् । तदीयं तद्वचः श्रुत्वा ऋषयस्तेऽबुवंस्तदा ॥ ११ ॥ गणेशजी बोले-[हे महर्षियो !] मैं प्रसन्न हूँ, आपलोग वर मागिये, मैं आपलोगोंका कौन-सा कार्य सम्पन्न करूँ ? तब उनकी बात सुनकर उन महर्षियोंने कहा- ॥ ११ ॥ ऋषय ऊचुः - त्वया यदि वरो देयो गौतमस्स्वाश्रमाद्बहिः । निष्कास्यं नो ऋषिभिः परिभर्त्स्य तथा कुरु ॥ १२ ॥ ऋषिगण बोले-यदि आप वर देना चाहते हैं, तो हम ऋषियोंसे धिक्कार दिलाकर गौतमको इनके आश्रमसे बाहर निकलवा दें, [इस प्रकार] हमलोगोंका यह कार्य पूरा कर दें ॥ १२ ॥ सूत उवाच - स एवं प्रार्थितस्तैस्तु विहस्य वचनं पुनः । प्रोवाचेभमुखः प्रीत्या बोधयंस्तान्सतां गतिः ॥ १३ ॥ सूतजी बोले-ऋषियोंद्वारा इस प्रकार प्रार्थना किये जानेपर सज्जनोंको गति प्रदान करनेवाले गजाननने प्रेमपूर्वक उन्हें समझाते हुए हँसकर पुनः यह वचन कहा- ॥ १३ ॥ गणेश उवाच - श्रूयतामृषयस्सर्वे युक्तं न क्रियतेऽधुना । अपराधं विना तस्मै क्रुध्यतां हानिरेव च ॥ १४ ॥ उपस्कृतं पुरा यैस्तु तेभ्यो दुःखं हितं न हि । यदा च दीयते दुःखं तदा नाशो भवेदिह ॥ १५ ॥ गणेशजी बोले-हे समस्त ऋषियो ! सुनिये, आपलोग इस समय उचित नहीं कर रहे हैं, बिना अपराधके उनपर क्रोध करनेवाले आपलोगोंकी हानि ही होगी । जिन्होंने पूर्वमें आपलोगोंका उपकार किया है, उन्हें दुःख देना हितकारी नहीं है और यदि उनको दुःख दिया जायगा, तो इससे आपलोगोंका यहीं विनाश होगा । १४-१५ ॥ ईदृशं च तपः कृत्वा साध्यते फलमुत्तमम् । शुभं फलं स्वयं हित्वा साध्यते नाहितं पुनः ॥ १६ ॥ इस प्रकारका तपकर उत्तम फलका साधन करना चाहिये, स्वयं ही शुभफलका परित्याग करके अहितकारक फलको नहीं ग्रहण किया जाता ॥ १६ ॥ सूत उवाच - इत्येवं वचनं श्रुत्वा तस्य ते मुनिसत्तमाः । बुद्धिमोहं तदा प्राप्ता इदमेव वचोऽब्रुवन् ॥ १७ ॥ सूतजी बोले-तब उनकी यह बात सुनकर बुद्धिमोहको प्राप्त हुए, उन ऋषिवरोंने यह वचन कहा- ॥ १७ ॥ ऋषय ऊचुः - कर्तव्यं हि त्वया स्वामिन्निदमेव न चान्यथा । इत्युक्तस्तु तदा देवो गणेशो वाक्यमब्रवीत् ॥ १८ ॥ ऋषि बोले-हे स्वामिन् ! आपको तो यही करना है, इसके अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं । तब उनके ऐसा कहनेपर प्रभु गणेशजीने यह वचन कहा- ॥ १८ ॥ गणेश उवाच - असाधुस्साधुतां चैव साधुश्चासाधुतां तथा । कदाचिदपि नाप्नोति ब्रह्मोक्तमिति निश्चितम् ॥ १९ ॥ गणेशजी बोले-ब्रह्मदेवने ऐसा कहा है कि नीच पुरुष कभी भी सज्जन नहीं हो सकता तथा वैसे ही सज्जन पुरुष कभी नीच नहीं हो सकता-यह निश्चित है ॥ १९ ॥ यदा च भवतां दुःखं जातं चानशनात्पुरा । तदा सुखं प्रदत्तं वै गौतमेन महर्षिणा ॥ २० ॥ इदानीं वै भवद्भिश्च तस्मै दुःखं प्रदीयते । नेतद्युक्ततमं लोके सर्वथा सुविचार्यताम् ॥ २१ ॥ पहले जब भोजनके बिना आपलोगोंको दुःख प्राप्त हुआ, तब महर्षि गौतमने आपलोगोंको सुख प्रदान किया था । किंतु इस समय आपलोग उन्हें दुःख दे रहे हैं । यह तो लोकमें किसी प्रकार भी उचित नहीं है, आपलोग भलीभाँति विचार करें ॥ २०-२१ ॥ स्त्रीबलान्मोहिता यूयं न मे वाक्यं करिष्यथ । एतद्धिततमं तस्य भविष्यति न संशयः ॥ २२ ॥ यदि आपलोग [अपनी-अपनी] स्वीके वशीभूत होकर मेरी बात नहीं मानेंगे, तो यह भी उनके लिये परम हितकर ही होगा, इसमें सन्देह नहीं है ॥ २२ ॥ पुनश्चायमृषिश्रेष्ठो दास्यते वस्सुखं ध्रुवम् । तारणं न च युक्तं स्याद्वरमन्यं वृणीत वै ॥ २३ ॥ अभी भी ये ऋषिवर आपलोगोंको निश्चित रूपसे सुख देंगे, अत: उनके साथ छल करना उचित नहीं है, आप लोग दूसरा वरदान माँगिये ॥ २३ ॥ सूत उवाच - इत्येवं वचनं तेन गणेशेन महात्मना । यद्यप्युक्तमृषिभ्यश्च तदप्येते न मेनिरे ॥ २४ ॥ भक्ताधीनतया सोथ शिवपुत्रोब्रवीत्तदा । उदासीनेन मनसा तानृषीन्दुष्टशेमुषीन् ॥ २५ ॥ सूतजी बोले-[हे महर्षियो !] यद्यपि महात्मा गणेशने उन ऋषियोंको इस प्रकारसे बहुत समझाया, किंतु ऋषियोंने उनकी बात नहीं मानी । इसके बाद भक्तोंके अधीन रहनेके कारण उन शिवपुत्रने उन दुष्टबुद्धि ऋषियोंसे उदासीन मनसे कहा- ॥ २४-२५ ॥ गणेश उवाच - भवद्भिः प्रार्थ्यते यच्च करिष्येऽहं तथा खलु । पश्चाद्भावि भवेदेव इत्युक्त्वांतर्दधे पुनः ॥ २६ ॥ गणेशजी बोले-आपलोग जो प्रार्थना कर रहे हैं, वैसा ही करूँगा, अब जो होनहार है, वह तो होकर ही रहेगा-ऐसा कहकर वे अन्तर्धान हो गये ॥ २६ ॥ गौतमस्स न जानाति मुनीनां वै दुराशयम् । आनन्दमनसा नित्यं पत्न्या कर्म चकार तत् ॥ २७ ॥ तदन्तरे च यज्जातं चरितं वरयोगतः । तद्दुष्टर्षिप्रभावात्तु श्रूयतां तन्मुनीश्वराः ॥ २८ ॥ उन गौतमजीको दुष्ट ऋषियोंके अभिप्रायका ज्ञान नहीं हुआ और वे प्रसन्न मनसे [निरन्तर] अपनी स्त्रीके साथ नित्यकर्म करते रहे । हे मुनीश्वरो ! इसके पश्चात् उस वरदानके कारण उन दुष्ट ऋषियोंके प्रभावसे जो घटना घटी, उसे सुनिये ॥ २७-२८ ॥ गौतमस्य च केदारे तत्रासन्व्रीहयो यवाः । गणेशस्तत्र गौर्भूत्वा जगाम किल दुर्बला ॥ २९ ॥ कंपमाना च सा गत्वा तत्र तद्वरयोगतः । व्रीहीन्संभक्षयामास यवांश्च मुनिसत्तमाः ॥ ३० ॥ महर्षि गौतमकी क्यारीमें धान्य एवं यव बोया गया था, गणेशजी अत्यन्त दुर्बल गौका रूप धारणकर वहाँ चले गये । हे मुनिसत्तमो ! उस वरके कारण काँपती हुई वह गाय यब तथा धान चरने लगी ॥ २९-३० ॥ एतस्मिन्नन्तरे दैवाद्गौतमस्तत्र चागतः । स दयालुस्तृणस्तंम्बैर्वारयामास तां तदा ॥ ३१ ॥ तृणस्तंबेन सा स्पृष्टा पपात पृथिवीतले । मृता च तत्क्षणादेव तदृषेः पश्यतस्तदा ॥ ३२ ॥ इसी बीच दैवयोगसे [महर्षि] गौतम भी वहीं पहुँच गये और वे दयालु उस गायको तिनकोंसे हटाने लगे । तब उन तिनकोंके स्पर्शमात्रसे गाय पृथ्वीपर गिरी और उसी क्षण उन ऋषिके देखते-देखते मर गयी ॥ ३१-३२ ॥ ऋषयश्छन्नरूपास्ते ऋषिपत्न्यस्तथाशुभाः । ऊचुस्तत्र तदा सर्वे किं कृतं गौतमेन च ॥ ३३ ॥ गौतमोऽपि तथाहल्यामाहूयासीत्सुविस्मितः । उवाच दुःखतो विप्रा दूयमानेन चेतसा ॥ ३४ ॥ तब कपटसे गुप्तरूप धारण करनेवाले ऋषि एवं दुष्ट ऋषिपलियाँ सभी कहने लगे कि गौतमने क्या कर डाला । हे विप्रो ! आश्चर्यमें पड़े हुए गौतमने भी अहल्याको बुलाकर व्यथित मनसे दुःखपूर्वक कहा- ॥ ३३-३४ ॥ गौतम उवाच - किं जातं च कथं देवि कुपितः परमेश्वरः । किं कर्तव्यं क्व गन्तव्यं हत्या च समुपस्थिता ॥ ३५ ॥ गौतम बोले-हे देवि ! यह क्या हो गया ? कैसे हुआ, क्या परमेश्वर कुपित हो गये ? अब मैं क्या करूँ, कहाँ जाऊँ ? मुझे गोवधका पाप लग गया ॥ ३५ ॥ सूत उवाच - एतस्मिन्नन्तरे विप्रो गौतमं पर्यभर्त्सयन् । विप्रपत्न्यस्तथाऽहल्यां दुर्वचोभिर्व्यथां ददुः ॥ ३६ ॥ सूतजी बोले-इसी बीच वहाँके ब्राह्मण गौतमको तथा ब्राह्मणियाँ अहल्याको धिक्कारने लगी और कटु वचनोंसे उन्हें कष्ट देने लगीं ॥ ३६ ॥ दुर्बुद्धयश्च तच्छिष्यास्सुतास्तेषां तथैव च । गौतम परिभर्त्स्यैव प्रत्यूचुर्धिग्वचो मुहुः ॥ ३७ ॥ दुष्ट बुद्धिवाले उनके शिष्य तथा पुत्र भी गौतमकी निन्दा करके बार-बार उन्हें धिक्कारने लगे ॥ ३७ ॥ ऋषय ऊचुः - मुखं न दर्शनीयं ते गम्यतां गम्यतामिति । दृष्ट्वा गोघ्नमुखं सद्यस्सचैलं स्नानमाचरेत् ॥ ३८ ॥ ऋषि बोले-हे [गौतम !] तुम्हारा मुँह देखनेयोग्य नहीं है, चले जाओ, चले जाओ; गोहत्यारेका मुख देखकर सचैल (वस्त्रसहित) स्नान करना चाहिये ॥ ३८ ॥ यावदाश्रममध्ये त्वं तावदेव हविर्भुजः । पितरश्च न गृह्णंति ह्यस्मद्दत्तं हि किञ्चन ॥ ३९ ॥ तस्माद्गच्छान्यतस्त्वं च परिवारसमन्वितः । विलम्बं कुरु नैव त्वं धेनुहन्पापकारक ॥ ४० ॥ जबतक तुम इस आश्रममें रहोगे, तबतक देवता तथा पितर हमलोगोंके द्वारा दिया गया कुछ भी ग्रहण नहीं करेंगे । इसलिये हे गोघातक ! हे पापकारक ! तुम परिवारसहित अन्यत्र चले जाओ, तुम विलम्ब मत करो ॥ ३९-४० ॥ सूत उवाच - इत्युक्त्वा ते च तं सर्वे पाषाणैस्समताडयन् । व्यथां ददुरतीवास्मै त्वहल्यां च दुरुक्तिभिः ॥ ४१ ॥ सूतजी बोले-ऐसा कहकर वे सभी गौतमको पत्थरोंसे मारने लगे और गौतमपत्नीको भी दुर्वचनोंसे बहुत अधिक दुःख देने लगे ॥ ४१ ॥ ताडितो भर्त्सितो दुष्टैर्गौतमो गिरमब्रवीत् । इतो गच्छामि मुनयो ह्यन्यत्र निवसाम्यहम् ॥ ४२ ॥ उन दुष्टोंके द्वारा पीटे तथा अपमानित किये गये [महर्षि] गौतमने यह वचन कहा-हे मुनियो ! मैं यहाँसे चला जाता हूँ और दूसरी जगह निवास करूंगा ॥ ४२ ॥ इत्युक्त्वा गौतमस्तस्मात्स्थानाच्च निर्गतस्तदा । गत्वा क्रोशं तदा चक्रे ह्याश्रमं तदनुज्ञया ॥ ४३ ॥ यावच्चैवाभिशापो वै तावत्कार्य्यं न किंचन । न कर्मण्यधिकारोऽस्ति दैवे पित्र्येऽथ वैदिके ॥ ।४४ ॥ तब ऐसा कहकर गौतम उस स्थानसे चले गये और एक कोसकी दूरीपर जाकर उनकी अनुमतिसे आश्रम बना लिया । [वहाँ भी जाकर उन ब्राह्मणोंने कहा-] जबतक गोहत्याका पाप है, तबतक तुम्हें कुछ नहीं करना चाहिये, वेदानुमोदित देव अथवा पितृकार्यमें तुम्हारा कोई अधिकार नहीं है । ४३-४४ ॥ मासार्धं च ततो नीत्वा मुनीन्संप्रार्थयत्तदा । गौतमो मुनिवर्य्यस्स तेन दुःखेन दुखितः ॥ ४५ ॥ इस प्रकार आधे महीनेका समय व्यतीत करके उस दुःखसे व्याकुल हुए महर्षि गौतम ऋषियोंसे प्रार्थना करने लगे ॥ ४५ ॥ गौतम उवाच - अनुकंप्यो भवद्भिश्च कथ्यतां क्रियते मया । यथा मदीयं पापं च गच्छत्विति निवेद्यताम् ॥ ४६ ॥ गौतमजी बोले-आपलोग कृपा कीजिये और बताइये कि मैं क्या करूँ ? जिस तरह मेरा पाप दूर हो सके, वह उपाय आपलोग बतायें ॥ ४६ ॥ सूत उवाच - इत्युक्तास्ते तदा विप्रा नोचुश्चैव परस्परम् । अत्यंतं सेवया पृष्टा मिलिता ह्येकतस्स्थिताः ॥ ४७ ॥ गौतमो दूरतः स्थित्वा नत्वा तानृषिसत्तमान् । पप्रच्छ विनयाविष्टः किं कार्यं हि मयाधुना ॥ ४८ ॥ सूतजी बोले-उनके इस प्रकार पूछनेपर भी वे ऋषिगण कुछ न बोले । तब वे सब जहाँ स्थित थे, वहाँ जाकर गौतम अत्यन्त विनयपूर्वक सेवाभावसे पूछने लगे । गौतमने दूर रहकर उन श्रेष्ठ ऋषियोंको प्रणाम करके विनययुक्त होकर पूछा कि अब मुझे क्या करना चाहिये ? ॥ ४७-४८ ॥ इत्युक्ते मुनिना तेन गौतमेन महात्मना । मिलितास्सकलास्ते वै मुनयो वाक्यमब्रुवन् ॥ ४९ ॥ उन महात्मा गौतमके इस प्रकार पूछनेपर उन सभी मुनियोंने परस्पर मिलकर यह वचन कहा- ॥ ४९ ॥ ऋषय ऊचुः - निष्कृतिं हि विना शुद्धिर्जायते न कदाचन । तस्मात्त्वं देहशुद्ध्यर्थं प्रायश्चित्तं समाचर ॥ ५० ॥ ऋषि बोले-बिना प्रायश्चित्त किये कभी भी शुद्धि नहीं होती है, इसलिये तुम शरीरशुद्धिके निमित्त प्रायश्चित्त करो ॥ ५० ॥ त्रिवारं पृथिवीं सर्वां क्रम पापं प्रकाशयन् । पुनरागत्य चात्रैव चर मासव्रतं तथा ॥ ५१ ॥ शतमेकोत्तरं चैव ब्रह्मणोऽस्य गिरेस्तथा । प्रक्रमणं विधायैवं शुद्धिस्ते च भविष्यति ॥ ५२ ॥ तुम अपने पापको प्रकाशित करते हुए तीन बार पृथ्वीकी परिक्रमा करो, फिर यहीं आकर मासव्रतका अनुष्ठान करो । इसके बाद एक सौ एक बार इस ब्रह्मगिरिकी परिक्रमा करनेसे तुम्हारी शुद्धि होगी ॥ ५१-५२ ॥ अथवा त्वं समानीय गंगास्नानं समाचर । पार्थिवानां तथा कोटिं कृत्वा देवं निषेवय ॥ ५३ ॥ गंगायां च ततः स्नात्वा पुनश्चैव भविष्यति । पुरा दश तथा चैकं गिरेस्त्वं क्रमणं कुरु ॥ ५४ ॥ शत कुंभैस्तथा स्नात्वा पार्थिवं निष्कृतिर्भवेत् । इति तैर्षिभिः प्रोक्तस्तथेत्योमिति तद्वचः ॥ ५५ ॥ अथवा तुम यहीं गंगाको लाकर स्नान करो और एक करोड़ पार्थिव लिंग बनाकर भगवान् शिवका पूजन करो । उसके बाद गंगामें स्नान करके तुम पवित्र हो जाओगे । सर्वप्रथम ग्यारह बार इस पर्वतकी परिक्रमा करो, तत्पश्चात् सौ घड़े गंगाजलसे स्नानकर पार्थिवपूजन करो, तब तुम्हारा प्रायश्चित्त (पूर्ण) होगा । इस प्रकार उन ऋषियोंके कहनेपर उन्होंने 'हाँ ठीक है'-ऐसा कहकर उनकी बात स्वीकार कर ली ॥ ५३-५५ ॥ पार्थिवानां तथा पूजां गिरेः प्रक्रमणं तथा । करिष्यामि मुनिश्रेष्ठा आज्ञया श्रीमतामिह ॥ ५६ ॥ इत्युक्त्वा सर्षिवर्यश्च कृत्वा प्रक्रमणं गिरेः । पूजयामास निर्माय पार्थिवान्मुनिसत्तमः ॥ ५७ ॥ अहल्या च ततस्साध्वी तच्च सर्वं चकार सा । शिष्याश्च प्रतिशिष्याश्च चक्रुस्सेवां तयोस्तदा ॥ ५८ ॥ [गौतम बोले-] हे मुनिश्रेष्ठो ! मैं आप श्रीमान् लोगोंकी आज्ञासे पार्थिव-पूजन तथा पर्वतकी परिक्रमा करूंगा-ऐसा कहकर उन मुनिश्रेष्ठ महर्षिने पर्वतकी परिक्रमा करके पार्थिव लिंगोंको बनाकर उनका पूजन किया । उन साध्वी अहल्याने भी वही सब किया । उस समय उनके शिष्यों तथा प्रशिष्योंने भी उन दोनोंकी सेवाका कार्य सम्पादित किया ॥ ५६-५८ ॥ इति श्रीशिवमहापुराणे चतुर्थ्यां कोटिरुद्रसंहितायां गौतमव्यवस्थावर्णनं नाम पंचविंशोऽध्यायः ॥ २५ ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत चतुर्थ कोटिरुतसंहितामें गौतमव्यवस्थावर्णन नामक पच्चीसवां अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २५ ॥ श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु |