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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥
॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥ चतुर्थी कोटीरुद्रसंहितायां
षड्विंशोऽध्यायः त्र्यंबकेश्वरमाहात्म्यवर्णनम् -
त्र्यम्बकेश्वर ज्योतिर्लिंग तथा गौतमी गंगाके प्रादुर्भावका आख्यान - सूत उवाच - एवं कृते तु ऋपिणा सस्त्रीकेन द्विजाश्शिवः । आविर्बभूव स शिवः प्रसन्नस्सगणस्तदा ॥ १ ॥ अथ प्रसन्नस्स शिवो वरं ब्रूहि महामुने । प्रसन्नोऽहं सुभक्त्या त इत्युवाच कृपानिधिः ॥ २ ॥ सूतजी बोले-हे द्विजो ! उस समय स्त्रीसहित गौतमके द्वारा इस प्रकार प्रायश्चित्त करनेपर शिवजी प्रसन्न होकर पार्वतीजी तथा अपने गणोंके साथ प्रकट हो गये । इसके बाद प्रसन्न हुए कृपानिधि शिवजीने कहा-हे महामुने ! मैं आपकी उत्तम भक्तिसे अत्यन्त प्रसन्न हूँ, आप वर माँगिये ॥ १-२ ॥ तदा तत्सुंदरं रूपं दृष्ट्वा शंभोर्महात्मनः । प्रणम्य शंकरं भक्त्या स्तुतिं चक्रे मुदान्वितः ॥ ३ ॥ तब महात्मा शिवके उस सुन्दर रूपको देखकर शंकरजीको प्रणामकर प्रसन्न हो गौतम ऋषि उनकी भक्तिपूर्वक स्तुति करने लगे ॥ ३ ॥ स्तुत्वा बहु प्रणम्येशं बद्धाञ्जलिपुटः स्थितः । निष्पापं कुरु मां देवाब्रवीदिति स गौतमः ॥ ४ ॥ बहुत प्रकारसे स्तुति करके एवं शिवको प्रणामकर हाथ जोड़कर महर्षि गौतम स्थित हो गये और कहने लगे-हे देव ! आप मुझे पापरहित करें ॥ ४ ॥ सूत उवाच - इत्याकर्ण्य वचस्तस्य गौतमस्य महात्मनः । सुप्रसन्नतरो भूत्वा शिवो वाक्यमुपाददे ॥ ५ ॥ सूतजी बोले-उन महात्मा गौतमका यह वचन सुनकर शिवजीने अत्यन्त प्रसन्न हो यह वचन कहा- ॥ ५ ॥ शिव उवाच - धन्योऽसि कृतकृत्योऽसि निष्पापोऽसि सदा मुने । एतैर्दुष्टैः किल त्वं च च्छलितोऽसि खिलात्मभिः ॥ ६ ॥ शिवजी बोले-हे मुने ! आप सदा धन्य हैं, कृतकृत्य हैं तथा निष्पाप हैं, इन दुष्टात्मा पापी ऋषियोंने निश्चय ही आपके साथ छल किया है ॥ ६ ॥ त्वदीयदर्शनाल्लोका निष्पापाश्च भवंति हि । किं पुनस्त्वं सपापोऽसि मद्भक्तिनिरतस्सदा ॥ ७ ॥ जब आपके दर्शनमात्रसे लोग निष्पाप हो जाते हैं, तब मेरी भक्तिमें निरत रहनेवाले आप किस प्रकार पापी हो सकते हैं ? ॥ ७ ॥ उपद्रवस्त्वयि मुने यैः कृतस्तु दुरात्मभिः । ते पापाश्च दुराचारा हत्यावंतस्त एव हि ॥ ८ ॥ एतेषां दर्शनादन्ये पापिष्ठाः संभवंतु च । कृतघ्नाश्च तथा जाता नैतेषां निष्कृतिः क्वचित् ॥ ९ ॥ हे मुने ! जिन दुष्टोंने आपके प्रति उपद्रव किया है, वे ही पापी, दुराचारी और हत्यारे हैं । इनके दर्शनसे दूसरे लोग पापी हो जायेंगे, ये लोग कृतघ्न हैं, इनका कोई प्रायश्चित्त नहीं है ॥ ८-९ ॥ सूत उवाच - इत्युक्त्वा शंकरस्तस्मै तेषां दुश्चरितं तदा । बहूवाच प्रभुर्विप्राः सत्कदोऽसत्सु दंडदः ॥ १० ॥ सूतजी बोले-हे विप्रो ! ऐसा कहकर सज्जनोंको सुख देनेवाले तथा असज्जनोंको दण्ड देनेवाले शिवजीने उनसे ऋषियोंके बहुतसे दुश्चरित्रोंका वर्णन किया ॥ १० ॥ शर्वोक्तमिति स श्रुत्वा सुविस्मितमना ऋषिः । सुप्रणम्य शिवं भक्त्या सांजलिः पुनरब्रवीत् ॥ ११ ॥ शिवजीकी बात सुनकर महर्षि गौतम अत्यन्त आश्चर्यचकित हो गये और उन्होंने हाथ जोड़कर शिवजीको भक्तिपूर्वक प्रणाम करके पुन: कहा- ॥ ११ ॥ गौतम उवाच - ऋषिभिस्तैर्महेशान ह्युपकारः कृतो महान् । यद्येवं न कृतं तैस्तु दर्शनं ते कुतो भवेत् ॥ १२ ॥ धन्यास्ते ऋषयो यैस्तु मह्यं शुभतरं कृतम् । तद्दुराचरणादेव मम स्वार्थो महानभूत् ॥ १३ ॥ गौतम बोले-हे महेश्वर ! उन ऋषियोंने मेरा बहुत बड़ा उपकार किया है, यदि वे ऐसा न करते, तो आपका दर्शन कैसे होता ? वे ऋषि धन्य हैं, जिन्होंने मेरा अत्यन्त कल्याण किया, उनके दुराचारके कारण ही मेरा बहुत बड़ा स्वार्थ सिद्ध हुआ है । १२-१३ ॥ सूत उवाच - इत्येवं तद्वचश्श्रुत्वा सुप्रसन्नो महेश्वरः । गौतमं प्रत्युवाचाशु कृपादृष्ट्या विलोक्य च ॥ १४ ॥ सूतजी बोले-उनकी यह बात सुनकर अति प्रसन्न हुए शिवजीने कृपादृष्टिसे गौतमकी ओर देखकर शीघ्र ही उनसे कहा- ॥ १४ ॥ शिव उवाच - ऋषि धन्योसि विप्रेंद्र ऋषे श्रेष्ठतरोऽसि वै । ज्ञात्वा मां सुप्रसन्नं हि वृणु त्वं वरमुत्तमम् ॥ १५ ॥ शिवजी बोले-हे विप्रेन्द्र ! आप धन्य हैं । आप सर्वश्रेष्ठ ऋषि हैं । मुझे परम प्रसन्न जानकर आप उत्तम वरदान माँगिये ॥ १५ ॥ सूत उवाच - गौतमोऽपि विचार्यैव लोके विश्रुतमित्युत । अन्यथा न भवेदेव तस्मादुक्तं समाचरेत् ॥ १६ ॥ निश्चित्यैवं मुनिश्रेष्ठो गौतमश्शिवभक्तिमान् । सांजलिर्नतशीर्षो हि शंकरं वाक्यमब्रवीत् ॥ १७ ॥ सूतजी बोले-[हे द्विजो !] उसके बाद गौतमने भी [अपने मनमें] विचार किया कि [अब मेरे पापकी] प्रसिद्धि लोकमें हो चुकी है, इसलिये वह जिस प्रकार झूठ न हो, उन ऋषियोंकी कही बात सत्य करनी चाहिये । ऐसा निश्चय करके शिवभक्त मुनिश्रेष्ठ गौतमने हाथ जोड़कर सिर झुका करके शिवजीसे यह वचन कहा- ॥ १६-१७ ॥ गौतम उवाच - सत्यं नाथ ब्रवीषि त्वं तथापि पंचभिः कृतम् । नान्यथा भवतीत्यत्र यज्जातं जायतां तु तत् ॥ १८ ॥ गौतम बोले-हे नाथ ! आप सत्य कहते हैं, किंतु जैसा पंचोंने निर्णय दिया है, वह अन्यथा न हो । जैसा उन लोगोंने निर्णय दिया है, वही होने दीजिये ॥ १८ ॥ यदि प्रसन्नो देवेश गंगा च दीयतां मम । कुरु लोकोपकारं हि नमस्तेऽस्तु नमोऽस्तु ते ॥ १९ ॥ हे देवेश ! यदि आप प्रसन्न हैं, तो मुझे गंगा प्रदान कीजिये और इस प्रकार लोकका उपकार कीजिये, आपको नमस्कार है, आपको बारंबार नमस्कार है ॥ १९ ॥ सूत उवाच - इत्युक्त्वा वचनं तस्य धृत्वा वै पादपंकजम् । नमश्चकार देवेशं गौतमो लोककाम्यया ॥ २० ॥ सूतजी बोले-ऐसा कहकर लोककल्याणकी इच्छासे गौतमने उनके चरणकमल पकड़कर देवेशको [पुनः] प्रणाम किया ॥ २० ॥ ततस्तु शंकरो देवः पृथिव्याश्च दिवश्च सः । सारं चैव समुद्धृत्य रक्षितं पूर्वमेव तत् । २१ ॥ विवाहे ब्रह्मणा दत्तमवशिष्टं च किंचन । तत्तस्मै दत्तवाञ्च्छंभुर्मुनये भक्तवत्सलः ॥ २२ ॥ गंगाजलं तदा तत्र स्त्रीरूपमभवत्परम् । तस्याश्चैव ऋषिश्रेष्ठः स्तुतिं कृत्वा नतिं व्यधात् ॥ २३ ॥ उसके बाद पृथ्वी तथा स्वर्गके सारभूत जिस जलको निकालकर पूर्व में रख लिया था और विवाहकालमें ब्रह्माजीके द्वारा दिया गया जो कुछ शेष जल बचा था, उसे भक्तवत्सल भगवान् शिवने उन मुनिको प्रदान किया । उस समय वह गंगाजल परम सुन्दरी स्त्रीके रूपमें परिणत हो गया । तत्पश्चात् ऋषिवरने उस [स्त्रीरूप जल]-की स्तुतिकर उसे प्रणाम किया ॥ २१-२३ ॥ गौतम उवाच - धन्यासि कृतकृत्यासि पावितं भुवनं त्वया । मां च पावय गंगे त्वं पततं निरये ध्रुवम् ॥ २४ ॥ गौतम बोले-हे गंगे ! आप धन्य हैं, कृतकृत्य हैं, आपने जगत्को पवित्र कर दिया है, अतएव निश्चय ही नरकमें गिरते हुए मुझे भी आप पवित्र कीजिये ॥ २४ ॥ सूत उवाच - शंभुश्चापि तदोवाच सर्वेषां हितकृच्छृणु । गंगे गौतममेनं त्वं पावयस्व मदाज्ञया ॥ २५ ॥ सूत उवाच - इति श्रुत्वा वचस्तस्य शंभोश्च गौतमस्य च । उवाचैव शिवं गंगा शिवभक्तिर्हि पावनी ॥ २६ ॥ सूतजी बोले-तब सबका हित करनेवाले शिवजीने भी कहा-हे गंगे ! सुनो, तुम मेरी आज्ञासे इन गौतम मुनिको पवित्र करो । तब उन शिव तथा गौतमके वचनको सुनकर भगवान् शिवकी शक्ति परमपावनी गंगाजीने शिवजीसे कहा- ॥ २५-२६ ॥ गंगोवाच - ऋषिं तु पावयित्वाहं परिवारयुतं प्रभो । गमिष्यामि निजस्थानं वचस्सत्यं ब्रवीमि ह ॥ २७ ॥ गंगाजी बोलीं-हे प्रभो ! मैं मुनिको परिवारसहित पवित्रकर अपने स्थानको जाऊँगी, मैं सत्य वचन कहती हूँ ॥ २७ ॥ सूत उवाच - इत्युक्तो गंगया तत्र महेशो भक्तवत्सलः । लोकोपकरणार्थाय पुनर्गगां वचोऽब्रवीत् ॥ २८ ॥ सूतजी बोले-जब गंगाजीने ऐसा कहा, तब भक्तवत्सल शिवजीने लोकोपकारके निमित्त गंगाजीसे पुनः यह वचन कहा- ॥ २८ ॥ शिव उवाच - त्वया स्थातव्यमत्रैव व्रजेद्यावत्कलिर्युगः । वैवस्वतो मनुर्देवि ह्यष्टाविंशत्तमो भवेत् ॥ २९ ॥ शिवजी बोले-हे देवि ! वैवस्वत मन्वन्तरके अट्ठाईसवें कलियुगतक तुम यहाँ निवास करो ॥ २९ ॥ सूत उवाच - इति श्रुत्वा वचस्तस्य स्वामिनश्शंकरस्य तत् । प्रत्युवाच पुनर्गंगा पावनी सा सरिद्वरा ॥ ३० ॥ सूतजी बोले-उन स्वामी शिवका यह वचन सुनकर नदियोंमें श्रेष्ठ उन पावनी गंगाने पुनः कहा- ॥ ३० ॥ गंगोवाच - माहात्म्यमधिकं चेत्स्यान्मम स्वामिन्महेश्वर । सर्वेभ्यश्च तदा स्थास्ये धरायां त्रिपुरान्तकः ॥ ३१ ॥ गंगाजी बोलीं-हे स्वामिन् ! हे महेश्वर ! हे त्रिपुरान्तक ! यदि सबकी अपेक्षा मेरा माहात्म्य अधिक रहेगा, तभी मैं पृथ्वीपर निवास करूँगी ॥ ३१ ॥ किं चान्यच्च शृणु स्वामिन्वपुषा सुन्दरेण ह । तिष्ठ त्वं मत्समीपे वै सगणसांबिकः प्रभो ॥ ३२ ॥ हे स्वामिन् ! हे प्रभो ! एक और बात सुनिये, आप अपने गणों एवं पार्वतीसहित अपने सुन्दर स्वरूपसे मेरे समीप निवास कीजिये ॥ ३२ ॥ सूत उवाच - एवं तस्या वचः श्रुत्वा शंकरो भक्तवत्सलः । लोकोपकरणार्थाय पुनर्गंगां वचोब्रवीत् ॥ ३३ ॥ सूतजी बोले-उनका यह वचन सुनकर भक्तवत्सल शंकरने लोकोपकारके लिये गंगाजीसे पुनः यह वचन कहा- ॥ ३३ ॥ शिव उवाच - धन्यासि श्रूयतां गंगे ह्यहं भिन्नस्त्वया न हि । तथापि स्थीयते ह्यत्र स्थीयतां च त्वयापि हि ॥ ३४ ॥ शिवजी बोले-हे गंगे ! तुम धन्य हो, सुनो ! मैं तुमसे पृथक् नहीं हूँ, फिर भी मैं यहाँ निवास करता हूँ और तुम भी निवास करो ॥ ३४ ॥ सूत उवाच - इत्येवं वचनं श्रुत्वा स्वामिनः परमेशितुः । प्रसन्नमानसा भूत्वा गंगा च प्रत्यपूजयत् ॥ ३५ ॥ सूतजी बोले-इस प्रकार स्वामी सदाशिवकी बात सुनकर गंगाने प्रसन्नचित्त होकर उनकी आज्ञा स्वीकार कर ली ॥ ३५ ॥ एतस्मिन्नंतरे देवा ऋषयश्च पुरातनाः । सुतार्थान्यप्यनेकानि क्षेत्राणि विविधानि च ॥ ३६ ॥ आगत्य गौतमं सर्वे गंगां च गिरिशं तथा । जयजयेति भाषंतः पूजयामासुरादरात् ॥ ३७ ॥ इसी बीच देवता, प्राचीन ऋषि, पितर, अनेक सुन्दर तीर्थ एवं विविध क्षेत्र-सभीने वहाँ आकर गौतम, गंगा तथा गिरीशकी जय-जयकार करते हुए आदरपूर्वक उनका पूजन किया । ३६-३७ ॥ ततस्ते निर्जरा सर्वे तेषां चक्रुः स्तुतिं मुदा । करान् बद्ध्वा नतस्कंधा हरिब्रह्मादयस्तदा ॥ ३८ ॥ । गंगा प्रसन्ना तेभ्यश्च गिरिशश्चोचतुस्तदा । वरं ब्रूत सुरश्रेष्ठा दद्वो वः प्रियकाम्यया ॥ ३९ ॥ इसके बाद ब्रह्मा, विष्णु आदि उन सभी देवताओंने हाथ जोड़कर सिर झुका करके प्रसन्नतापूर्वक उनकी स्तुति की । उस समय उन देवताओंपर प्रसन्न हुई गंगाजी तथा शिवजीने कहा-हे सुरश्रेष्ठो ! आपलोग वर माँगये । आपलोगोंका हित करनेकी इच्छासे हम दोनों उसे प्रदान करेंगे ॥ ३८-३९ ॥ देवा ऊचुः - यदि प्रसन्नो देवेश प्रसन्ना त्वं सरिद्वरे । स्थातव्यमत्र कृपया नः प्रियार्थं तथा नृणाम् ॥ ४० ॥ देवता बोले-हे देवेश ! यदि आप प्रसन्न हैं और हे गंगे ! यदि आप भी प्रसन्न हैं, तो हमलोगोंके तथा मनुष्योंके हितके लिये कृपापूर्वक यहीं निवास करें ॥ ४० ॥ गंगोवाच - यूयं सर्वप्रियार्थं च तिष्ठथात्र न किं पुनः । गौतमं क्षालयित्वाहं गमिष्यामि यथागतम् ॥ ४१ ॥ भवत्सु मे विशेषोत्र ज्ञेयश्चैव कथं सुराः । तत्प्रमाणं कृतं चेत्स्यात्तदा तिष्ठाम्यसंशयम् ॥ ४२ ॥ गंगाजी बोलीं-हे देवताओ ! तुमलोग स्वयं ही लोकोपकारके निमित्त यहाँ निवास क्यों नहीं करते. मैं तो गौतमको पवित्रकर जहाँसे आयी हूँ, वहीं चली जाऊँगी । आप लोगोंमें मेरा वैशिष्ट्य किस प्रकार जाना जा सके यदि उसे प्रमाणित करो, तब मैं निश्चय ही यहाँ निवास कर सकती हूँ ॥ ४१-४२ ॥ सर्वे ऊचुः - सिंहराशौ यदा स्याद्वै गुरुस्सर्वसुहृत्तमः । तदा वयं च सर्वे त्वागमिष्यामो न संशयः ॥ ४३ ॥ सभी [देवगण] बोले-जब सबके परम सुहद् बृहस्पति सिंहराशिपर स्थित रहेंगे, तब हम सभी लोग आपके समीप आयेंगे, इसमें संशय नहीं है ॥ ४३ ॥ एकादश च वर्षाणि लोकानां पातकं त्विह । क्षालितं यद्भवेदेवं मलिनास्स्मः सरिद्वरे ॥ ४४ ॥ तस्यैव क्षालनाय त्वायास्यामस्सर्वथा प्रिये । त्वत्सकाशं महादेवि प्रोच्यते सत्यमादरात् ॥ ४५ ॥ हे सरिद्वरे ! इस लोकमें ग्यारह वर्षपर्यन्त लोगोंका जो पाप प्रक्षालित होगा, उससे जब हमलोग मलिन हो जायगे, तब हे प्रिये ! उस पापको धोनेके लिये हमलोग निश्चित रूपसे आपके पास आयेंगे, हे महादेवि ! हमलोग आदरपूर्वक सत्य कह रहे हैं ॥ ४४-४५ ॥ अनुग्रहाय लोकानामस्माकं प्रियकाम्यया । स्थातव्यं शंकरेणापि त्वया चैव सरिद्वरे ॥ ४६ ॥ हे सरिद्वरे ! लोकोंपर अनुग्रह करने तथा हमलोगोंका हित करनेके लिये आपको एवं शंकरजीको भी यहीं रहना चाहिये ॥ ४६ ॥ यावत्सिंहे गुरुश्चैव स्थास्यामस्तावदेव हि । त्वयि स्नानं त्रिकालं च शंकरस्य च दर्शनम् ॥ ४७ ॥ कृत्वा स्वपापं निखिलं विमोक्ष्यामो न संशयः । स्वदेशांश्च गमिष्यामो भवच्छासनतो वयम् ॥ ४८ ॥ जबतक बृहस्पति सिंहराशिपर रहेंगे, तबतक हमलोग भी यहीं निवास करेंगे और तीनों समय आप [के जल]-में स्नान करके तथा शिवजीका दर्शन करके अपने सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त होंगे और पुनः आपकी आज्ञासे अपने-अपने स्थानको चले जायेंगे, इसमें सन्देह नहीं है । ४७-४८ ॥ सूत उवाच - इत्येवं प्रार्थितस्तैस्तु गौतमेन महर्षिणा । स्थितोऽसौ शंकरः प्रीत्या स्थिता सा च सरिद्वरा ॥ ४९ ॥ सा गंगा गौतमी नाम्ना लिंगं त्र्यंबकमीरितम् । ख्याता ख्यातं बभूवाथ महापातकनाशनम् ॥ ५० ॥ सूतजी बोले-इस प्रकार महर्षि गौतम तथा उन देवताओंके द्वारा प्रार्थना किये जानेपर ये शंकरजी प्रेमपूर्वक वहीं स्थित हो गये और वे गंगाजी भी स्थित हो गयीं । वहाँपर वे गंगाजी गौतमी नामसे प्रसिद्ध हुई तथा वह शिवलिंग त्र्यम्बक नामसे विश्वमें विख्यात हुआ, जो महापातकका भी नाश करनेवाला है ॥ ४९-५० ॥ तद्दिनं हि समारभ्य सिंहस्थे च बृहस्पतौ । आयांति सर्वतीर्थानि क्षेत्राणि देवतानि च ॥ ५१ ॥ सरांसि पुष्करादीनि गंगाद्यास्सरितस्तथा । वासुदेवादयो देवाः संति वै गोतमीतटे ॥ ५२ ॥ उस दिनसे लेकर जब-जब बृहस्पति सिंहराशिपर आते हैं, तब सभी देवता, तीर्थ तथा क्षेत्र यहाँ आते हैं । पुष्कर आदि समस्त सरोवर, गंगा आदि सभी नदियाँ एवं विष्णु आदि देवगण गौतमीतटपर निवास करते हैं ॥ ५१-५२ ॥ यावत्तत्र स्थितानीह तावत्तेषां फलं न हि । स्वप्रदेशे समायातास्तर्ह्येतेषां फलं भवेत् ॥ ५३ ॥ ये जबतक वहाँ रहते हैं, तबतक [अपने स्थानपर उनके सेवनका फल प्राप्त नहीं होता और जब वे अपने-अपने निवासपर चले जाते हैं, तभी [उनकी उपासनाका] फल प्राप्त होता है ॥ ५३ ॥ ज्योतिर्लिंगमिदं प्रोक्तं त्र्यंबकं नाम विश्रुतम् । स्थितं तटे हि गौतम्या महापातकनाशनम् ॥ ५४ ॥ यः पश्येद्भक्तितो ज्योतिर्लिंगं त्र्यंबकनामकम् । पूजयेत्प्रणमेत्स्तुत्वा सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥ ५५ ॥ यह त्र्यम्बक नामसे प्रसिद्ध ज्योतिलिंग गौतमीके तटपर स्थित है और महान् पापोंका नाश करनेवाला है । जो इस त्र्यम्बकेश्वर नामक ज्योतिर्लिंगका भक्तिपूर्वक दर्शन, पूजन, प्रणाम एवं स्तवन करता है, वह सभी प्रकारके पापोंसे मुक्त हो जाता है ॥ ५४-५५ ॥ ज्योतिर्लिंगं त्र्यंबकं हि पूजितं गौतमेन ह । सर्वकामप्रदं चात्र परत्र परमुक्तिदम् ॥ ५६ ॥ गौतमके द्वारा पूजित यह त्र्यम्बक नामक ज्योतिर्लिंग इस लोकमें सम्पूर्ण कामनाओंको देनेवाला तथा परलोकमें उत्तम मुक्ति प्रदान करनेवाला है ॥ ५६ ॥ इति वश्च समाख्यातं यत्पृष्टोऽहं मुनीश्वराः । किमन्यदिच्छथ श्रोतुं तद् ब्रूयां वो न संशयः ॥ ५७ ॥ हे मुनीश्वरो ! जो आपलोगोंने मुझसे पूछा था, उसे मैंने कह दिया, अब आपलोग और क्या सुनना चाहते हैं ? उसे मैं कहूँगा, इसमें सन्देह नहीं है ॥ ५७ ॥ इति श्री शिवमहापुराणे चतुर्थ्यां कोटिरुद्रसंहितायां त्र्यंबकेश्वरमाहात्म्यवर्णनं नाम षड्विंशोऽध्यायः ॥ २६ ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत चतुर्थ कोटिरूद्रसंहितामें त्र्यम्बकेश्वरमाहात्यवर्णन नामक छब्बीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २६ ॥ श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु |