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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥

॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥

चतुर्थी कोटीरुद्रसंहितायां

सप्तविंशोऽध्यायः

त्र्यंबकेश्वरज्योतिर्लिंग माहात्म्यवर्णनम् -
गौतमी गंगा एवं त्र्यम्बकेश्वर ज्योतिर्लिंगका माहात्म्यवर्णन -


ऋषय ऊचुः -
गंगा च जलरूपेण कुतो जाता वद प्रभो ।
तन्माहात्म्यं विशेषेण कुतो जात वद प्रभो ॥ १ ॥
ैर्विप्रैर्गौतमायेव दुःखं दत्तं दुरात्मभिः ।
तेषां किंच ततो जातमुच्यतां व्यास सद्गुरो ॥ २ ॥
ऋषिगण बोले-हे प्रभो ! गंगा किस स्थानसे जलरूपमें प्रवाहित होकर प्रकट हुई ? हे प्रभो ! उनका माहात्म्य सबकी अपेक्षा अधिक क्यों हुआ ? इसे बताइये । हे व्यासशिष्य ! जिन दुष्ट ब्राह्मणोंने महर्षि गौतमको दु:ख दिया, बादमें उन्हें क्या फल मिला, उसे कहिये ? ॥ १-२ ॥

सूत उवाच -
एवं संप्राथिता गंगा गौतमेन तदा स्वयम् ।
ब्रह्मणश्च गिरेर्विप्रा द्रुतं तस्मादवातरत् ॥ ३ ॥
सूतजी बोले-हे ब्राहाणो ! उस समय गौतमके द्वारा प्रार्थना करनेपर स्वयं गंगाजी शीघ्र ही उस ब्रह्मगिरिसे प्रकट हुई ॥ ३ ॥

औदुंबरस्य शाखायास्तत्प्रवाहो विनिस्सृतः ।
तत्र स्नानं मुदा चक्रे गौतमो विश्रुतो मुनिः ॥ ४ ॥
गूलर वृक्षकी शाखासे उनकी धारा निकली, तब सुप्रसिद्ध मुनि गौतमने आनन्दसे उसमें स्नान किया ॥ ४ ॥

गौतमस्य च ये शिष्या अन्ये चैव महर्षयः ।
समागताश्च ते तत्र स्नानं चक्रुर्मुदान्विताः ॥ ५ ॥
गंगाद्वारं च तन्नाम प्रसिद्धमभवत्तदा ।
सर्वपापहरं रम्यं दर्शनान्मुनिसत्तमः ॥ ६ ॥
गौतमके जो शिष्य थे तथा अन्य आये हुए जो महर्षिगण थे, उन सभीने वहाँपर प्रसन्नतापूर्वक स्नान किया । तभीसे उस स्थानका नाम गंगाद्वार प्रसिद्ध हो गया । हे मुनियो ! इस रमणीय क्षेत्रका दर्शन करनेसे सम्पूर्ण पापोंका अपहरण हो जाता है ॥ ५-६ ॥

गौतमस्पर्द्धिनस्ते च ऋषयस्तत्र चागताः ।
स्नानार्थं तांश्च सा दृष्ट्‍वा ह्यंतर्धानं गता द्रुतम् ॥ ७ ॥
उसके बाद [महर्षि] गौतमसे द्वेष करनेवाले वे सभी ऋषि भी स्नान करनेके लिये वहाँ आ गये, तब उन्हें देखकर वे गंगाजी शीघ्रतासे अन्तर्धान हो गयीं ॥ ७ ॥

मामेति गौतमस्तत्र व्याजहार वचो द्रुतम् ।
मुहुर्मुहुः स्तुवन् गंगां सांजलिर्नतमस्तकः ॥ ८ ॥
महर्षि गौतमने हाथ जोड़कर सिर झुकाकर गंगाकी बारंबार स्तुति करते हुए शीघ्रतासे कहा-ऐसा मत कीजिये, ऐसा मत कीजिये ॥ ८ ॥

गौतम उवाच -
इमे च श्रीमदांधाश्च साधवो वाप्यसाधवः ।
एतत्पुण्यप्रभावेण दर्शनं दीयतां त्वया ॥ ९ ॥
गौतम बोले-[हे माता !] ये सभी महर्षि श्रीमदमें अन्धे हों, सज्जन हों अथवा असजन हों, [परंतु मेरे] इस पुण्यके प्रभावसे आप इन्हें दर्शन दीजिये ॥ ९ ॥

सूत उवाच -
ततो वाणी समुत्पन्ना गंगाया व्योममंडलात् ।
तच्छृणुध्वमृषिश्रेष्ठा गंगावचनमुत्तमम् ॥ १० ॥
सूतजी बोले-हे ऋषिश्रेष्ठो ! उसके बाद आकाशमण्डलसे गंगाजीकी वाणी प्रतिध्वनित हुई, आपलोग गंगाजीके उस उत्तम कथनको सुनिये- ॥ १० ॥

एते दुष्टतमाश्चैव कृतघ्नाः स्वामिद्रोहिणः ।
जाल्माः पाखंडिनश्चैव द्रष्टुं वर्ज्याश्च सर्वदा ॥ ११ ॥
गंगाजी बोलीं-ये अत्यन्त दुष्ट, कृतघ्न, स्वामीसे द्रोह करनेवाले, धूर्त और पाखण्डी हैं, इन्हें देखनातक नहीं चाहिये ॥ ११ ॥

गौतम उवाच -
मातश्च श्रूयतामेतन्महता गिर एव च ।
तस्मात्त्वया च कर्त्तव्यं सत्यं च भगवद्वचः ॥ १२ ॥
अपकारिषु यो लोक उपकारं करोति वै ।
तेन पूतो भवाम्यत्र भगवद्वचनं त्विदम् ॥ १३ ॥
गौतम बोले-हे मातः ! महापुरुषोंके इस कथनको आप सुनिये और भगवान् शंकरके वचनको सत्य कीजिये । इस पृथ्वीपर जो मनुष्य अपकार करनेवालोंका भी उपकार ही करता है, मैं उससे पवित्र होता हूँ'यह भगवान्का वचन है ॥ १२-१३ ॥

सूत उवाच -
इति श्रुत्वा मुनेर्वाक्यं गौतमस्य महात्मनः ।
पुनर्वाणी समुत्पन्ना गंगाया व्योममंडलात् ॥ १४ ॥
कथ्यते हि त्वया सत्यं गौतमर्षे शिवं वचः ।
तथापि संग्रहार्थ च प्रायश्चितं चरंतु वै ॥ १५ ॥
शतमेकोत्तरं चात्र कार्य्यं प्रक्रमणं गिरेः ।
भवच्छासनतस्त्वेतैस्त्वदधीनैर्विशेषतः ॥ १६ ॥
ततश्चैवाधिकारश्च जायते दुष्टकारिणाम् ।
मद्दर्शने विशेषेण सत्यमुक्तं मया मुने ॥ १७ ॥
सूतजी बोले-महात्मा गौतममुनिका यह वचन सुनकर आकाशमण्डलसे पुनः गंगाजीका कथन ध्वनित हुआ-हे गौतम महर्षे ! आप सत्य और कल्याणकारी वचन कह रहे हैं, फिर भी ये संसारको शिक्षा देनेके लिये प्रायश्चित्त करें । विशेषरूपसे आपके अधीन हुए इन लोगोंको आपकी आज्ञासे एक सौ एक बार इस पर्वतकी परिक्रमा करनी चाहिये । हे मुने ! तभी इन दुराचारियोंको मेरे दर्शनका विशेष अधिकार प्राप्त होगा, यह मैंने सत्य कहा है ॥ १४-१७ ॥

सूत उवाच -
इति श्रुत्वा वचस्तस्याश्चक्रुर्वै ते तथाऽखिलाः ।
संप्रार्थ्य गौतमं दीनाः क्षंतव्यो नोऽपराधकः ॥ १८ ॥
एवं कृते तदा तेन गौतमेन तदाज्ञया ।
कुशावर्तं नाम चक्रे गङ्गाद्वारादधोगतम् ॥ १९ ॥
[पुनः सूतजी बोले-] गंगाजीकी यह बात सुनकर उन सभी दीन ऋषियोंने 'हमारे अपराधको क्षमा करें' गौतमसे इस प्रकार प्रार्थनाकर पर्वतकी परिक्रमा की । उन ऋषियोंके द्वारा ऐसा कर लेनेपर उन गौतमने गंगाजीकी आज्ञासे गंगाद्वारके नीचेवाले स्थानका नाम कुशावर्त रखा ॥ १८-१९ ॥

ततः प्रादुरभूत्तत्र सा तस्य प्रीतये पुनः ।
कुशावर्तं च विख्यातं तीर्थमासीत्तदुत्तमम् ॥ २० ॥
उसके बाद वे गंगाजी गौतमको प्रसन्न करनेके लिये वहाँ पुनः प्रकट हुईं, तबसे वह श्रेष्ठ तीर्थ कुशावर्त नामसे प्रसिद्ध हुआ । वहाँ स्नान करनेवाला मनुष्य अपने सभी पापोंका त्याग करके दुर्लभ विज्ञान प्राप्तकर शीघ्र ही मोक्षका अधिकारी हो जाता है । २०-२१ ॥

तत्र स्नातो नरो यस्तु मोक्षाय परिकल्पते ।
त्यक्त्वा सर्वानघान्सद्यो विज्ञानं प्राप्य दुर्लभम् ॥ २१ ॥
गौतमो ऋषयश्चान्ये मिलिताश्च परस्परम् ।
लज्जितास्ते तदा ये च कृतघ्ना ह्यभवन्पुरा ॥ २२ ॥
इसके बाद जब गौतम एवं अन्य ऋषिगण परस्पर मिले, उस समय जिन्होंने पहले कृतघ्नता की थी, वे लोग लजित हो गये ॥ २२ ॥

ऋषय ऊचुः -
अस्माभिरन्यथा सूत श्रुतं तद्वर्णयामहे ।
गौतमस्तान्द्विजान् क्रुद्धश्शशापेति प्रबुध्यताम् ॥ २३ ॥
ऋषिगण बोले-हे सूतजी ! हमलोगोंने तो इसे दूसरी तरहसे सुना है, हम उसका वर्णन करते हैं । गौतमने क्रुद्ध होकर उन्हें शाप दिया था-आप ऐसा जानिये ॥ २३ ॥

सूत उवाच -
द्विजास्तदपि सत्यं वै कल्पभेदसमाश्रयात् ।
वर्णयामि विशेषेण तां कथामपि सुव्रता ॥ २४ ॥
सूतजी बोले-हे द्विजो ! कल्पभेदके कारण वह भी सत्य है, हे सुव्रतो ! मैं उस कथाका भी विशेष रूपसे वर्णन करता हूँ ॥ २४ ॥

गौतमोपि ऋषीन्दृष्ट्‍वा तदा दुर्भिक्षपीडितान् ।
तपश्चकार सुमहद्वरुणस्य महात्मनः ॥ २५ ॥
अक्षय्यं कल्पयामास जलं वरुणदां यया ।
ततो व्रीहीन्यवांश्चैव वापयामास भूरिशः ॥ २६ ॥
एवं परोपकारी स गौतमो मुनिसत्तमाः ।
आहारं कल्पयामास तेभ्यः स्वतपसो बलात् ॥ २७ ॥
गौतमने उन ऋषियोंको दुर्भिक्षसे पीड़ित देखकर महात्मा वरुणको उद्देश्यकर बहुत बड़ा तप किया । उसके अनन्तर वरुणकी कृपासे उन्होंने अक्षय जल प्राप्त किया और तत्पश्चात् बहुत-से धान तथा जौ बोवाये । [हे ऋषिश्रेष्ठो !] इस प्रकार उन परोपकारी महर्षि गौतमने अपने तपोबलसे उनके भोजनका प्रबन्ध किया । २५-२७ ॥

कदाचित्तत्स्त्रियो दुष्टा जलार्थमपमानिताः ।
ऊचु पतिभ्यस्ताः क्रुद्धा गौतमेर्ष्याकरं वचः ॥ २८ ॥
ततस्ते भिन्नमतयो गां कृत्वा कृत्रिमां द्विजाः ।
तद्धान्यभक्षणासक्तां चक्रुस्तां कुटिलाशयाः ॥ २९ ॥
किसी समय उनकी दुष्ट स्त्रियाँ जब जल लेनेके प्रसंगमें [अपने ही व्यवहारके कारण] अपमानित हो गयीं । तब वे क्रुद्ध होकर अपने पतियोंसे गौतमके प्रति ईर्ष्यायुक्त वचन बोलीं । तब दुष्टबुद्धिवाले तथा कुटिल अन्त:करणवाले उन ब्राह्मणोंने एक कृत्रिम गाय बनाकर उनकी फसलको चरनेके लिये छोड़ दिया ॥ २८-२९ ॥

स्वधान्यभक्षणासक्तां गां दृष्ट्‍वा गौतमस्तदा ।
तृणेन ताडयामास शनैस्तां संनिवारयन् ॥ ३० ॥
तृणसंस्पर्शमात्रेण सा भूमौ पतिता च गौः ।
मृता ह्यभूत्क्षणं विप्रा भाविकर्मवशात्तदा ॥ ३१ ॥
तब गौतमने अपनी फसलको खानेमें आसक्त उस गायको देखकर उसे धीरेसे हटाते हुए एक तिनकेसे मारा । हे विप्रो ! वह गाय तिनकेके स्पर्शमात्रसे भूमिपर गिर पड़ी और होनहारवश क्षणभरमें मर गयी ॥ ३०-३१ ॥

गौर्हता गौतमेनेति तदा ते कुटिलाशयाः ।
एकत्रीभूय तत्रत्यैः सकला ऋषयोऽवदन् ॥ ३२ ॥
तब वहाँकै कुत्सित विचारवाले सभी ऋषिगण एकत्र होकर कहने लगे कि गौतमने गाय मार डाली ॥ ३२ ॥

ततस्स गौतमो भीतो गौर्हतेति बभूव ह ।
चकार विस्मयं नार्यहल्याशिष्यैश्शिवानुगः ॥ ३३ ॥
ततस्स गौतमो ज्ञात्वा तां गां क्रोधसमाकुलः ।
शशाप तानृषीन् सर्वान् गौतमो मुनिसत्तमः ॥ ३४ ॥
इसके बाद शिवभक्त गौतम 'गाय मर गयी'-ऐसा सोचकर भयभीत हो गये और अपनी पत्‍नी अहल्या तथा शिष्योंसहित आश्चर्यमें पड़ गये । उसके पश्चात् उस कृत्रिम गायके विषयमें जानकर वे गौतम कुपित हो उठे और तब मुनिश्रेष्ठ गौतमने उन सभी ऋषियोंको शाप दे दिया ॥ ३३-३४ ॥

गौतम उवाच -
यूयं सर्वे दुरात्मानो दुःखदा मे विशेषतः ।
शिवभक्तस्य सततं स्युर्वेदविमुखास्सदा ॥ ३५ ॥
अद्यप्रभृति वेदोक्ते सत्कर्मणि विशेषतः ।
मा भूयाद्भवतां श्रद्धा शैवमार्गे विमुक्तिदे ॥ ३६ ॥
गौतम बोले-तुम सभी दुरात्मा हो, मुझ शिवभक्तको इस प्रकार विशेष दुःख देनेके कारण वेदसे विमुख हो जाओ । आजसे वेदोक्त सत्कर्ममें और विशेषकर मुक्ति प्रदान करनेवाले शैवमार्गमें तुमलोगोंकी श्रद्धा नहीं रहेगी ॥ ३५-३६ ॥

अद्यप्रभृति दुर्मार्गे तत्र श्रद्धा भवेत्तु वः ।
मोक्षमार्गविहीने हि सदा श्रुतिबहिर्मुखे ॥ ३७ ॥
अद्यप्रभृति भालानि मृल्लिप्तानि भवन्तु वः ।
स्रसध्वं नरके यूयं भालमृल्लेपनाद्द्विजाः ॥ ३८ ॥
आजसे वेदबहिष्कृत एवं मोक्षमार्गसे रहित बुरे मार्गमें तुमलोगोंकी प्रवृत्ति रहेगी । आजसे तुमलोगोंके मस्तकमें मृत्तिकाका तिलक होगा और हे ब्राह्मणो ! माथेपर मृत्तिकाका लेप करनेवाले तुमलोग नरकगामी होओगे ॥ ३७-३८ ॥

भवंतो मा भविष्यंतु शिवैक परदैवताः ।
अन्यदेवसमत्वेन जानंतु शिवमद्वयम् ॥ ३९ ॥
तुमलोग शिवको परदेवता नहीं मानोगे और उन अद्वैत सदाशिवको अन्य देवताओं के समान समझोगे ॥ ३९ ॥

मा भूयाद्भवतां प्रीतिश्शिवपूजादिकर्मणि ।
शिवनिष्ठेषु भक्तेषु शिवपर्वसु सर्वदा ॥ ४० ॥
शिवपूजा आदि कर्ममें, शिवनिष्ठ भक्तोंमें एवं शिवपोंमें तुमलोगोंकी प्रीति कभी भी नहीं होगी ॥ ४० ॥

अद्य दत्ता मया शापा यावंतो दुःखदायकाः ।
तावंतस्संतु भवतां संततावपि सर्वदा ॥ ४१ ॥
आज मैंने जितने दुःखदायी शाप तुमलोगोंको दिये है, वे सब सर्वदा तुमलोगोंकी सन्तानोंको भी प्राप्त होंगे ॥ ४१ ॥

अशैवास्संतु भवतां पुत्रपौत्रादयो द्विजाः ।
पुत्रैस्सहैव तिष्ठंतु भवंतो नरके ध्रुवम् ॥ ४२ ॥
ततो भवंतु चण्डाला दुःखदारिद्र्यपीडिताः ।
शठा निन्दाकरास्सर्वे तप्तमुद्रांकितास्सदा ॥ ४३ ॥
हे द्विजो ! तुमलोगोंके पुत्र-पौत्र आदि शिवभक्तिसे विमुख रहेंगे और तुमलोग अपने पुत्रोंके साथ निश्चित रूपसे नरकमें निवास करोगे । उसके बाद चाण्डालयोनिमें जन्म लेकर दुःख-दारिद्रयसे पीड़ित रहोगे और धूर्त एवं निन्दा करनेवाले होओगे तथा सर्वदा तप्त मुद्रासे चिह्नित रहोगे ॥ ४२-४३ ॥

सूत उवाच -
इति शप्त्वा मुनीन् सर्वान् गौतमस्स्वाश्रमं ययौ ।
शिवभक्तिं चकाराति स बभूव सुपावनः ॥ ४४ ॥
ततस्तैः खिन्नहृदया ऋषयस्तेखिला द्विजाः ।
कांच्यां चक्रुर्निवासं हि शैवधर्मबहिष्कृताः ॥ ४५ ॥
सूतजी बोले-[हे महर्षियो !] इस प्रकार उन सभी मुनियोंको शाप देकर महर्षि गौतम अपने आश्रमपर चले गये । उन्होंने अत्यधिक शिवभक्ति की तथा वे परम पवित्र हो गये । उसके बाद उन शापोंके कारण खिन्न हृदयवाले वे सभी ब्राह्मण शिवधर्मसे बहिष्कृत होकर कांचीपुरीमें निवास करने लगे ॥ ४४-४५ ॥

तत्पुत्राश्चाभवन्सर्वे शैवधर्मबहिष्कृताः ।
अग्रे तद्वद्भविष्यंति कलौ बहुजनाः खलाः ॥ ४६ ॥
इति प्रोक्तमशेषेण तद्वृत्तं मुनिसत्तमाः ।
पूर्ववृत्तमपि प्राज्ञाः श्रुतं सर्वैस्तु चादरात् ॥ ४७ ॥
उनके सभी पुत्र भी शिवधर्मसे बहिष्कृत हो गये । आगे चलकर कलियुगमें बहुत-से लोग उन्हींके समान दुष्ट होंगे । हे मुनिसत्तमो ! इस प्रकार मैंने उनका समग्र वृत्तान्त आपलोगोंसे कहा । हे प्राज्ञो ! इसके पहलेका वृत्तान्त भी आपलोग आदरपूर्वक सुन चुके हैं ॥ ४६-४७ ॥

इति वश्च समाख्यातो गौतम्याश्च समुद्भवः ।
माहात्म्यमुत्तमं चैव सर्वपापहरं परम् ॥ ४८ ॥
त्र्यंबकस्य च माहात्म्यं ज्योतिर्लिंगस्य कीर्तितम् ।
यच्छ्रुत्वा सर्वपापेभ्यो मुच्यते नात्र संशयः ॥ ४९ ॥
इस प्रकार मैंने गौतमी गंगाकी उत्पत्ति तथा पापहारी उत्तम माहात्म्य आपलोगोंसे कह दिया और त्र्यम्बक नामक ज्योतिर्लिंगका माहात्म्य भी मैंने कहा, जिसे सुनकर मनुष्य सारे पापोंसे छूट जाता है, इसमें सन्देह नहीं है ॥ ४८-४९ ॥

अतः परं प्रवक्ष्यामि वैद्यनाथेश्वरस्य हि ।
ज्योतिर्लिंगस्य माहात्म्यं श्रूयतां पापहारकम् ॥ ५० ॥
अब इसके आगे मैं वैद्यनाथेश्वर नामक ज्योतिर्लिंगके पापनाशक माहात्म्यका वर्णन करूँगा, आप लोग उसे सुनिये ॥ ५० ॥

इति श्रीशिवमहापुराणे चतुर्थ्यां कोटिरुद्रसंहितायां
त्र्यंबकेश्वरज्योतिर्लिंग माहात्म्यवर्णनं नाम सप्तविंशोध्यायः ॥ २७ ॥
इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत चतुर्थ कोटिरुद्रसंहितामें त्र्यम्बकेश्वरज्योतिलिंगमाहात्म्यवर्णन नामक सत्ताईसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २७ ॥



श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु


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