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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥

॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥

चतुर्थी कोटीरुद्रसंहितायां

अष्टविंशोऽध्यायः

वैद्यनाथेश्वरज्योतिर्लिंगमाहात्म्यवर्णनम् -
वैद्यनाथेश्वर ज्योतिर्लिंगके प्रादुर्भाव एवं माहात्म्यका वर्णन -


सूत उवाच -
रावणः राक्षसश्रेष्ठो मानी मानपरायणः ।
आरराध हरं भक्त्या कैलासे पर्वतोत्तमे ॥ १ ॥
सूतजी बोले-किसी समय अभिमानी तथा मानपरायण राक्षसश्रेष्ठ रावण पर्वतोंमें उत्तम कैलासपर भक्तिपूर्वक शिवजीकी आराधना करने लगा ॥ १ ॥

आराधितः कियत्कालं न प्रसन्नो हरो यदा ।
तदा चान्यत्तपश्चक्रे प्रासादार्थे शिवस्य सः ॥ २ ॥
जब कुछ समयतक आराधना किये जानेपर भी शिवजी प्रसन्न न हुए, तब शिवजीको प्रसन्न करनेके लिये उसने दूसरे प्रकारका तप करना प्रारम्भ किया ॥ २ ॥

नतश्चायं हिमवतस्सिद्धिस्थानस्य वै गिरेः ।
पौलस्त्यो रावणश्श्रीमान्दक्षिणे वृक्षखंडके ॥ ३ ॥
भूमौ गर्तं वर कृत्वा तत्राग्निं स्थाप्य स द्विजाः ।
तत्सन्निधौ शिवं स्थाप्य हवनं स चकार ह ॥ ४ ॥
हे द्विजो ! पुलस्त्यकुलमें जन्म ग्रहण करनेवाला ऐश्वर्यसम्पन्न वह रावण सिद्धिके स्थानभूत हिमालय पर्वतके दक्षिणमें वृक्षोंसे भरी हुई भूमिमें एक उत्तम गर्त बनाकर उसमें अग्नि स्थापित करके उसके समीपमें शिवजीकी स्थापनाकर हवन करने लगा ॥ ३-४ ॥

ग्रीष्मे पंचाग्निमध्यस्थो वर्षासु स्थंडिलेशयः ।
शीते जलांतरस्थो हि त्रिधा चक्रे तपश्च सः ॥ ५ ॥
बह ग्रीष्मकालमें पंचाग्निके मध्यमें बैठकर, वर्षाकालमें [खुले] चबूतरेपर बैठकर और शीतकालमें जलके भीतर रहकर-इस तरह तीन प्रकारसे तप करने लगा ॥ ५ ॥

चकारैवं बहुतपो न प्रसन्नस्तदापि हि ।
परमात्मा महेशानो दुराराध्यो दुरात्मभिः ॥ ६ ॥
इस प्रकार उसने घोर तप किया, तब भी दुष्टात्माओंके लिये दुराराध्य परमात्मा सदाशिव प्रसन्न नहीं हुए ॥ ६ ॥

ततश्शिरांसि छित्त्वा च पूजनं शंकरस्य वै ।
प्रारब्धं दैत्यपतिना रावणेन महात्मना ॥ ७ ॥
उसके बाद दैत्यपति महात्मा रावणने अपने सिर काटकर शिवका पूजन प्रारम्भ किया ॥ ७ ॥

एकैकं च शिरश्छिन्नं विधिना शिवपूजने ।
एवं सत्क्रमतस्तेन च्छिन्नानि नव वै यदा ॥ ८ ॥
एकस्मिन्नवशिष्टे तु प्रसन्नश्शंकरस्तदा ॥
आविर्बभूव तत्रैव संतुष्टो भक्तवत्सलः । ९ ॥
उसने शिवपूजनमें विधिपूर्वक एक-एक सिर काट डाला, इस प्रकार जब उसने क्रमशः अपने नौ सिर काट डाले, तब एक सिरके शेष रहनेपर शंकरजी प्रसन्न हो गये और वे भक्तवत्सल सदाशिव सन्तुष्ट होकर वहीं प्रकट हो गये ॥ ८-९ ॥

शिरांसि पूर्ववत्कृत्वा नीरुजानि तथा प्रभुः ।
मनोरथं ददौ तस्मादतुलं बलमुत्तमम् ॥ १० ॥
प्रभु सदाशिवने उसके सिरोंको पूर्ववत् स्वस्थ करके उसको मनोवांछित फल तथा अतुल बल प्रदान किया ॥ १० ॥

प्रसादं तस्य संप्राप्य रावणस्स च राक्षसः ।
प्रत्युवाच शिवं शम्भुं नतस्कंधः कृतांजलिः ॥ ११ ॥
तब उनकी प्रसन्नता प्राप्तकर उस राक्षस रावणने हाथ जोड़कर तथा सिर झुकाकर कल्याणकारी शिवजीसे कहा- ॥ ११ ॥

रावण उवाच -
प्रसन्नो भव देवेश लंकां च त्वां नयाम्यहम् ।
सफलं कुरु मे कामं त्वामहं शरणं गतः ॥ १२ ॥
रावण बोला-हे देवेश ! आप मुझपर प्रसन्न होइये, मैं आपको लंकापुरी ले चलता हूँ, मेरी इस इच्छाको पूर्ण कीजिये, मैं आपकी शरणमें हूँ ॥ १२ ॥

सूत उवाच -
इत्युक्तश्च तदा तेन शंभुर्वै रावणेन सः ।
प्रत्युवाच विचेतस्कः संकटं परमं गतः ॥ १३ ॥
सूतजी बोले-तब उस रावणके द्वारा इस प्रकार कहे जानेपर वे शिवजी परम संकटमें पड़ गये और खिन्नमनस्क होकर उन्होंने कहा- ॥ १३ ॥

शिव उवाच -
श्रूयतां राक्षसश्रेष्ठ वचो मे सारवत्तया ।
नीयतां स्वगृहे मे हि सद्भक्त्या लिंगमुत्तमम् ॥ १४ ॥
भूमौ लिंगं यदा त्वं च स्थापयिष्यसि तत्र वै ।
स्थास्यत्यत्र न संदेहो यथेच्छसि तथा कुरु ॥ १५ ॥
शिवजी बोले-हे राक्षसश्रेष्ठ ! तुम मेरी महत्त्वपूर्ण बात सुनो, तुम उत्तम भक्तिसे युक्त होकर मेरे इस श्रेष्ठ शिवलिंगको अपने घर ले जाओ । किंतु तुम इस लिंगको भूमिपर जहाँ भी रख दोगे, यह वहींपर स्थित हो जायगा, इसमें सन्देह नहीं । अब जैसा चाहो, वैसा करो ॥ १४-१५ ॥

सूत उवाच -
इत्युक्तश्शंभुना तेन रावणो राक्षसेश्वरः।
तथेति तत्समादाय जगाम भवनं निजम् । १६ ॥
सूतजी बोले-उन शिवजीके इस प्रकार कहनेपर राक्षसेश्वर रावण 'ठीक है'-ऐसा कहकर उसे लेकर अपने घर चला ॥ १६ ॥

आसीन्मूत्रोत्सर्गकामो मार्गे हि शिवमायया ।
तत्स्तंभितुं न शक्तोभूत्पौलस्त्यो रावणः प्रभुः ॥ १७ ॥
दृष्ट्वैकं तत्र वै गोपं प्रार्थ्य लिंगं ददौ च तत् ।
मुहूर्तके ह्यतिक्रांते गोपोभूद्विकलस्तदा ॥ १८ ॥
भूमौ संस्थापयामास तद्भारेणातिपीडितः ।
तत्रैव तत्स्थितं लिंगं वजसारसमुद्भवम् ।
सर्वकामप्रदं चैव दर्शनात्पापहारकम् ॥ १९ ॥
इसके बाद शिवकी मायासे मार्ग में ही उसे लघुशंकाकी इच्छा हुई । जब पुलस्त्यका पौत्र वह सामर्थ्यशाली रावण मूत्रके वेगको रोकनेमें समर्थ नहीं हुआ, तब उसने वहाँ एक गोपको देखकर उससे प्रार्थनाकर उस शिवलिंगको उसीको दे दिया । एक मुहूर्त बीतनेपर वह गोप शिवलिंगके भारसे पीड़ित होकर व्याकुल हो उठा और उसे पृथ्वीपर रख दिया । इस प्रकार वज्रसारसे उत्पन्न हुआ वह लिंग वहींपर स्थित हो गया, जो दर्शनमात्रसे पापोंको दूर करनेवाला तथा समस्त कामनाओंको पूर्ण करनेवाला है ॥ १७-१९ ॥

वैद्यनाथेश्वरं नाम्ना तल्लिंगमभवन्मुने ।
प्रसिद्धं त्रिषु लोकेषु भुक्तिमुक्तिप्रदं सताम् ॥ २० ॥
हे मुने ! वह लिंग तीनों लोकोंमें वैद्यनाथेश्वर नामसे प्रसिद्ध हुआ, वह सत्पुरुषोंको भोग तथा मोक्ष प्रदान करनेवाला है ॥ २० ॥

ज्योतिर्लिंगमिदं श्रेष्ठं दर्शनात्पूजनादपि ।
सर्वपापहरं दिव्यं भुक्तिवर्द्धनमुत्तमम् ॥ २१ ॥
यह दिव्य, उत्तम एवं श्रेष्ठ ज्योतिर्लिंग दर्शन एवं पूजनसे सारे पापोंको दूर करनेवाला है और मुक्ति प्रदान करनेवाला है ॥ २१ ॥

तस्मिँलिंगे स्थिते तत्र सर्वलोकहिताय वै ।
रावणः स्वगृहं गत्वा वरं प्राप्य महोत्तमम् ॥
प्रियायै सर्वमाचख्यौ सुखेनाति महासुरः । २२ ॥
सारे लोकोंका कल्याण करनेके लिये उस लिंगके वहाँ स्थित हो जानेपर रावण श्रेष्ठ वर प्राप्तकर अपने घर चला गया और उस महान् असुरने अपनी पत्‍नीसे अत्यन्त हर्षपूर्वक सारा वृत्तान्त बताया ॥ २२ ॥

तच्छ्रुत्वा सकला देवाश्शक्राद्या मुनयस्तथा ।
परस्परं समामन्त्र्य शिवासक्तधियोऽमलाः ॥ २३ ॥
इस [वृत्तान्त]-को सुनकर इन्द्र आदि सभी देवता तथा निष्पाप मुनिगण आपसमें विचारकर वैद्यनाथेश्वरमें आसक्त बुद्धिवाले हो गये ॥ २३ ॥

तस्मिन्काले सुरास्सर्वे हरिब्रह्मादयो मुने ।
आजग्मुस्तत्र सुप्रीत्या पूजां चक्रुर्विशेषतः ॥ २४ ॥
हे मुने ! उस समय ब्रह्मा, विष्णु आदि सभी देवगण वहाँ आये और उन्होंने विशेष विधिसे अतिशय प्रीतिपूर्वक शिवजीका पूजन किया ॥ २४ ॥

प्रत्यक्षं तं तदा दृष्ट्‍वा प्रतिष्ठाप्य च ते सुराः ।
वैद्यनाथेति संप्रोच्य नत्वा नुत्वा दिवं ययुः ॥ २५ ॥
वहाँ भगवान् शंकरका प्रत्यक्ष दर्शन करके देवताओंने उस (वज्रसारमय) शिवलिंगकी विधिवत् स्थापना की और उसका वैद्यनाथ नाम रखकर उसकी वन्दना और स्तवन करके वे स्वर्गलोकको चले गये ॥ २५ ॥

ऋषय ऊचुः -
तस्मिँल्लिंगे स्थिते तत्र रावणे च गृहं गते ।
किं कि चरित्रमभूत्तात ततस्तद्वद विस्तरात् ॥ २६ ॥
ऋषि बोले-हे तात ! उस लिंगके वहाँ स्थित हो जानेपर तथा रावणके घर चले जानेपर क्या घटना हुई, उसे विस्तारसे कहिये ॥ २६ ॥

सूत उवाच -
रावणोपि गृहं गत्वा वरं प्राप्य महोत्तमम् ।
प्रियायै सर्वमाचख्यौ मुमोदाति महासुरः ॥ २७ ॥
सूतजी बोले- अति उत्तम वर प्राप्तकर घर जा करके महान् असुर रावणने सारा वृत्तान्त अपनी पत्‍नीसे कहा और वह बहुत आनन्दित हुआ ॥ २७ ॥

तच्छ्रुत्वा सकलं देवाश्शक्राद्या मुनयस्तथा ।
परस्परं सुमूचुस्ते समुद्विग्ना मुनीश्वराः ॥ २८ ॥
हे मुनीश्वरो ! वह सारा वृत्तान्त सुनकर वे इन्द्र आदि देवता तथा मुनिगण अत्यन्त व्याकुल होकर आपसमें कहने लगे- ॥ २८ ॥

देवादय ऊचुः -
रावणोयं दुरात्मा हि देवद्रोही खलः कुधीः ।
शिवाद्वरं च संप्राप्य दुःखं दास्यति नोऽपि सः ॥ २९ ॥
देवता बोले-यह दुरात्मा रावण देवद्रोही, खल तथा दुर्बुद्धि है, शिवजीसे वरदान पाकर यह हमलोगोंको बहुत अधिक दुःखित करेगा ॥ २९ ॥

किं कुर्मः क्व च गच्छामः किं भविष्यति वा पुनः ।
दुष्टश्च दक्षतां प्राप्तः किंकिं नो साधयिष्यति ॥ ३० ॥
हमलोग क्या करें ? कहाँ जायें ? अब फिर क्या होगा ? एक तो वह स्वयं दुष्ट है, दूसरे अब वरदान प्राप्तकर और भी उद्धत हो गया है, अतः हमलोगोंका कौन-सा अपकार नहीं करेगा ॥ ३० ॥

इति दुःखं समापन्नाश्शक्राद्या मुनयस्सुराः ।
नारदं च समाहूय पप्रच्छुर्विकलास्तदा ॥ ३१ ॥
तब इस प्रकार दुखी हो इन्द्रादि देवता एवं मुनिगण नारदजीको बुलाकर व्याकुल हो करके पूछने लगे ॥ ३१ ॥

देवा ऊचुः -
सर्वं कार्य्यं समर्थोसि कर्तुं त्वं मुनिसत्तम ।
उपायं कुरु देवर्षे देवानां दुःखनाशने ॥ ३२ ॥
देवगण बोले-हे मुनिसत्तम ! आप सभी कार्य करनेमें समर्थ हैं, अत: हे देवर्षे ! देवगणोंके दुःखनाशका कोई उपाय कीजिये ॥ ३२ ॥

रावणोयं महादुष्टः किंकि नैव करिष्यति ।
क्व यास्यामो वयं चात्र दुष्टेनापीडिता वयम् ॥ ३३ ॥
नारद उवाच -
दुःखं त्यजत भो देवा युक्तिं कृत्वा च याम्यहम् ।
देवकार्यं करिष्यामि कृपया शंकरस्य वै ॥ ३४ ॥
यह महाखल रावण क्या-क्या नहीं कर डालेगा ! हमलोग इस दुष्टसे सर्वथा पीड़ित हैं, अतः अब हमलोग कहाँ जायें ? ॥ ३३ ॥ नारदजी बोले-हे देवताओ ! आपलोग दुखी मत होइये, मैं जा रहा हूँ और कोई उपाय करके शंकरकी कृपासे देवताओंका कार्य अवश्य करूँगा ॥ ३४ ॥

सूत उवाच -
इत्युक्त्वा स तु देवर्षिरगमद्रावणालयम् ।
सत्कारं समनुप्राप्य प्रीत्योवाचाखिलं च तत् ॥ ३५ ॥
सूतजी बोले-ऐसा कहकर वे देवर्षि नारद] रावणके घर गये और उससे सत्कृत होकर प्रीतिसे उन्होंने वह सब कहा- ॥ ३५ ॥

नारद उवाच -
राक्षसोत्तम धन्यस्त्वं शैववर्य्यस्तपोमनाः ।
त्वां दृष्ट्‍वा च मनो मेद्य प्रसन्नमति रावण ॥ ३६ ॥
स्ववृत्तं ब्रूह्यशेषेण शिवाराधनसंभवम् ।
इति पृष्टस्तदा तेन रावणो वाक्यमब्रवीत् ॥ ३७ ॥
नारदजी बोले-हे राक्षसोत्तम ! तुम धन्य हो और श्रेष्ठ शिवभक्त हो । हे तपोधन ! हे रावण ! तुम्हें देखकर मेरा मन आज बहुत अधिक प्रसन्न हुआ । अब तुम शिवाराधनसम्बन्धी अपने सम्पूर्ण वृत्तान्तको कहो । तब उनके इस प्रकार पूछनेपर रावणने यह वचन कहा- ॥ ३६-३७ ॥

रावण उवाच -
गत्वा मया तु कैलासे तपोर्थं च महामुने ।
तत्रैव बहुकालं वै तपस्तप्तं सुदारुणम् ॥ ३८ ॥
रावण बोला-हे महामुने ! तप करनेके लिये कैलासपर्वतपर जाकर मैंने वहाँ बहुत समयतक अत्यन्त कठोर तप किया ॥ ३८ ॥

यदा न शंकरस्तुष्टस्ततश्च परिवर्तितम् ।
आगत्य वृक्षखंडे वै पुनस्तप्तं मया मुने ॥ ३९ ॥
ग्रीष्मे पंचाग्निमध्ये तु वर्षासु स्थंडिलेशयः ।
शीते जलांतरस्थो हि कृतं चैव त्रिधा तपः ॥ ४० ॥
हे मुने । जब शिवजी प्रसन्न नहीं हुए, तब वहाँसे आकर मैं पुनः वृक्षसमूहके समीप दूसरे प्रकारसे तपस्या करने लगा । ग्रीष्मऋतुमें पंचाग्निके मध्य रहकर, वर्षामें स्थण्डिलशायी होकर और शीतकालमें जलके मध्यमें रहकर तीन प्रकारसे मैंने तप किया । ३९-४० ॥

एवं मया कृतं तत्र तपोत्युग्रं मुनीश्वर ।
तथापि शंकरो मह्यं न प्रसन्नोऽभवन्मनाक् ॥ ४१ ॥
तदा मया तु क्रुद्धेन भूमौ गर्तं विधाय च ।
तत्राग्निं समाधाय पार्थिवं च प्रकल्प्य च ॥ ४२ ॥
गंधैश्च चंदनैश्चैव धूपैश्च विविधैस्तदा ।
नैवेद्यैः पूजितश्शम्भुरारार्तिकविधानतः ॥ ४३ ॥
प्रणिपातैः स्तवैः पुण्यैस्तोषितश्शंकरो मया ।
गीतैर्नृत्यैश्च वाद्यैश्च मुखांगुलिसमर्पणैः ॥ ४४ ॥
एतैश्च विविधैश्चान्यैरुपायैर्भूरिभिर्मुने ।
शास्त्रोक्तेन विधानेन पूजितो भगवान् हरः ॥ ४५ ॥
हे मुनीश्वर ! इस प्रकार मैंने वहाँ अति कठोर तप किया, फिर भी जब मेरे ऊपर थोड़ा भी शिवजी प्रसन्न न हुए, तब मुझे बड़ा क्रोध हुआ और मैंने भूमिमें गड़ा खोदकर उसमें अग्नि स्थापित करके तथा पार्थिव शिवलिंग बनाकर गन्ध, चन्दन, धूप, विविध नैवेद्य तथा आरती आदिसे विधिपूर्वक शिवजीका पूजन किया । प्रणिपात, पुण्यप्रद स्तुति, गीत, नृत्य, वाद्य तथा मुखांगुलि समर्पणके द्वारा मैंने शंकरजीको सन्तुष्ट किया । हे मुने ! इन उपायों तथा अन्य बहुत-से उपायोंके द्वारा शास्त्रोक्त विधिसे मैंने भगवान् शिवका पूजन किया ॥ ४१-४५ ॥

न तुष्टः सन्मुखो जातो यदा च भगवान्हरः ।
तदाहं दुःखितोभूवं तपसोऽप्राप्य सत्फलम् ॥ ४६ ॥
धिक् शरीरं बलं चैव धिक् तपः करणं मम ।
इत्युक्त्वा तु मया तत्र स्थापितेग्नौ हुतं बहु ॥ ४७ ॥
जब भगवान् शिव सन्तुष्ट होकर प्रकट नहीं हुए, तब मैं अपने तपका उत्तम फल न प्राप्तकर दुखी हुआ । मेरे शरीर तथा बलको धिक्कार है । मेरे तपको भी धिक्कार है, ऐसा कहकर मैंने वहाँ स्थापित अग्निमें बहुत हवन किया ॥ ४६-४७ ॥

पुनश्चेति विचार्यैव त्वक्षाम्यग्नौ निजां तनुम् ।
संछिन्नानि शिरांस्येव तस्मिन् प्रज्वलिते शुचौ ॥ ४८ ॥
इसके बाद यह विचार करके कि अब मैं इस अग्निमें अपने शरीरकी ही आहुति दूंगा, मैं उस प्रज्वलित अग्निकी सन्निधिमें अपने सिरोंको काटने लगा ॥ ४८ ॥

सुच्छित्वैकैकशस्तानि कृत्वा शुद्धानि सर्वशः ।
शंकरायार्पितान्येव नवसंख्यानि वै मया ॥ ४९ ॥
यावच्च दशमं छेत्तुं प्रारब्धमृषिसत्तम ।
तावदाविरभूत्तत्र ज्योतीरूपो हरस्स्वयम् ॥ ५० ॥
मैंने एक-एक करके नौ सिर भलीभाँत काटकर उन्हें पूर्णतः शुद्ध करके शिवजीको समर्पित कर दिये । हे ऋषिश्रेष्ठ ! जब मैंने दसवाँ सिर काटना प्रारम्भ किया, उसी समय ज्योतिःस्वरूप शिवजी स्वयं प्रकट हो गये ॥ ४९-५० ॥

मामेति व्याहरत् प्रीत्या द्रुतं वै भक्तवत्सलः ।
प्रसन्नश्च वरं ब्रूहि ददामि मनसेप्सितम् ॥ ५१ ॥
इत्युक्ते च तदा तेन मया दृष्टो महेश्वरः ।
प्राणतस्संस्तुतश्चैव करौ बद्ध्वा सुभक्तितः ॥ ५२ ॥
उन भक्तवत्सलने शीघ्र ही प्रेमपूर्वक कहा-ऐसा मत करो, ऐसा मत करो । मैं प्रसन्न हूँ, वर माँगो, मैं तुम्हें मनोवांछित वर दूंगा । तब उनके ऐसा कहनेपर मैंने महेश्वरका दर्शन किया और हाथ जोड़कर भक्तिपूर्वक उन्हें प्रणाम किया तथा उनकी स्तुति की ॥ ५१-५२ ॥

तदा वृतं मयैतच्च देहि मे ह्यतुलं बलम् ।
यदि प्रसन्नो देवेश दुर्ल्लभं किं भवेन्मम ॥ ५३ ॥
तदनन्तर मैंने उनसे यह वर माँगा-मुझे अतुल बल दीजिये । हे देवेश ! यदि आप प्रसन्न हैं, तो मेरे लिये क्या दुर्लभ हो सकता है ! ॥ ५३ ॥

शिवेन परितुष्टेन सर्वं दत्तं कृपालुना ।
मह्यं मनोभिलषितं गिरा प्रोच्य तथास्त्विति ॥ ५४ ॥
सन्तुष्ट हुए कृपालु शिवने 'तथास्तु' यह वचन कहकर मेरा सारा मनोवांछित पूर्ण कर दिया ॥ ५४ ॥

अमोघया सुदृष्ट्या वै वैद्यवद्योजितानि मे ।
शिरांसि संधयित्वा तु दृष्टानि परमात्मना ॥ ५५ ॥
उन परमात्मा शिवने अपनी अमोघ दृष्टिसे देखकर वैद्यके समान मेरे सिरोंको पुन: यथास्थान जोड़ दिया ॥ ५५ ॥

एवंकृते तदा तत्र शरीरं पूर्ववन्मम ।
जातं तस्य प्रसादाच्च सर्वं प्राप्तं फलं मया ॥ ५६ ॥
तदा च प्रार्थितो मे संस्थितोसौ वृषभध्वजः ।
वैद्यनाथेश्वरो नाम्ना प्रसिद्धोभूज्जगत्त्रये ॥ ५७ ॥
उनके ऐसा करनेपर मेरा शरीर पहलेके समान हो गया और उनकी कृपासे मुझे सारा फल प्राप्त हो गया । इसके बाद मेरे द्वारा प्रार्थना किये जानेपर वे वृषभध्वज वहींपर स्थित हो गये और वैद्यनाथेश्वर नामसे तीनों लोकोंमें प्रसिद्ध हो गये ॥ ५६-५७ ॥

दर्शनात्पूजनाज्ज्योतिर्लिंगरूपो महेश्वरः ।
भुक्तिमुक्तिप्रदो लोके सर्वेषां हितकारकः ॥ ५८ ॥
दर्शन एवं पूजन करनेसे ज्योतिर्लिंगस्वरूप महेश्वर भुक्ति मुक्ति देनेवाले तथा लोकमें सबका हित करनेवाले है ॥ ५८ ॥

ज्योतिर्लिंगमहं तद्वै पूजयित्वा विशेषतः ।
प्रणिपत्यागतश्चात्र विजेतुं भुवनत्रयम् ॥ ५९ ॥
[हे देवर्षे !] मैं उस ज्योतिलिंगका विशेषरूपसे पूजन करके और उसे प्रणामकर तीनों लोकोंको जीतनेके लिये यहाँ आया हूँ ॥ ५९ ॥

सूत उवाच -
तदीयं तद्वचः श्रुत्वा देवर्षिर्जातसंभ्रमः ।
विहस्य च मनस्येव रावणं नारदोऽब्रवीत् ॥ ६० ॥
सूतजी बोले-उसका वह वचन सुनकर आश्चर्यचकित हुए देवर्षि नारदजी मन-ही-मन हँस करके रावणसे कहने लगे- ॥ ६० ॥

नारद उवाच -
श्रूयतां राक्षसश्रेष्ठ कथयामि हितं तव ।
त्वया तदेव कर्त्तव्यं मदुक्तं नान्यथा क्वचित् ॥ ६१ ॥
त्वयोक्तं यच्छिवेनैव हितं दत्तं ममाधुना ।
तत्सर्वं च त्वया सत्यं न मन्तव्यं कदाचन ॥ ६२ ॥
नारदजी बोले-हे राक्षसश्रेष्ठ ! सुनो, अब मैं तुम्हारे हितकी बात कहता हूँ; जैसा मैं कहता हूँ, वैसा ही तुम करो, मेरा कथन कभी भी असत्य नहीं होता । तुमने जो कहा कि शिवजीने इस समय मेरा सारा हित कर दिया है, उसे तुम कदापि सत्य मत मानना ॥ ६१-६२ ॥

अयं वै विकृतिं प्राप्तः किं किं नैव ब्रवीति च ।
सत्यं नैव भवेत्तद्वै कथं ज्ञेयं प्रियोस्ति मे ॥ ६३ ॥
ये शिव तो विकारग्रस्त हैं, वे क्या नहीं कह देते हैं, जबतक उनकी बात सत्य नहीं होती, तबतक कैसे मान लिया जाय; तुम मेरे प्रिय हो, [अत: तुम्हें मैं उपाय बताता हूँ ॥ ६३ ॥

इति गत्वा पुनः कार्य्यं कुरु त्वं ह्यहिताय वै ।
कैलासोद्धरणे यत्नः कर्तव्यश्च त्वया पुनः ॥ ६४ ॥
अब तुम पुनः जाकर उनके अहितके लिये कार्य करो । तुम कैलासको उखाड़नेका प्रयत्‍न करो ॥ ६४ ॥

यदि चैवोद्धृतश्चायं कैलासो हि भविष्यति ।
तदैव सफलं सर्वं भविष्यति न संशयः ॥ ६५ ॥
यदि तुम इस कैलासको उखाड़ दोगे, तब सब कुछ सफल हो जायगा, इसमें कुछ संशय नहीं है ॥ ६५ ॥

पूर्ववत्स्थापयित्वा त्वं पुनरागच्छ वै सुखम् ।
निश्चयं परमं गत्वा यथेच्छसि तथा कुरु ॥ ६६ ॥
इसके बाद उसे पूर्वकी भाँति स्थापितकर पुनः सुखपूर्वक लौट आना, अब निश्चयपूर्वक समझ-बूझकर तुम जैसा चाहो, वैसा करो ॥ ६६ ॥

सूत उवाच -
इत्युक्तस्स हितं मेने रावणो विधिमोहित ।
सत्यं मत्वा मुनेर्वाक्यं कैलासमगमत्तदा ॥ ६७ ॥
गत्वा तत्र समुद्धारं चक्रे तस्य गिरेस्स च ।
तत्रस्थं चैव तत्सर्वं विपर्यस्तं परस्परम् ॥ ६८ ॥
सूतजी बोले-उनके इस प्रकार कहनेपर प्रारब्धवश मोहित उस रावणने इसमें अपना हित समझा और मुनिकी चातको सत्य मानकर कैलासकी ओर चल पड़ा । उसने वहाँ जाकर कैलासपर्वतको उखाड़ना प्रारम्भ किया, जिससे उसपर स्थित सब कुछ [सभी प्राणिपदार्थ] परस्पर टकराकर गिरने लगे ॥ ६७-६८ ॥

गिरीशोपि तदा दृष्ट्‍वा किं जातमिति सोब्रवीत् ।
गिरिजा च तदा शंभुं प्रत्युवाच विहस्य तम् ॥ ६९ ॥
तब शिवजी भी यह देखकर कहने लगे-यह क्या हुआ ? तब पार्वतीने हँसकर उन शंकरसे कहा- ॥ ६९ ॥

गिरिजोवाच -
सच्छिश्यस्य फलं जातं सम्यग्जातं तु शिष्यतः ।
शान्तात्मने सुवीराय दत्तं यदतुलं बलम् ॥ ७० ॥
पार्वती बोलीं-आपने शान्तात्मा महावीरको जो अतुल बल दिया था, उसे उत्तम शिष्य बनानेका यह फल प्राप्त हो गया, यह सब उसी शिष्यसे हुआ है ॥ ७० ॥

सूत उवाच -
गिरिजायाश्च साकूतं वचः श्रुत्वा महेश्वरः ।
कृतघ्नं रावणं मत्वा शशाप बलदर्पितम् ॥ ७१ ॥
सूतजी बोले-पार्वतीके इस व्यंग्य वचनको सुनकर महेश्वरने रावणको कृतघ्न तथा बलसे गर्वित समझकर उसे शाप दे दिया ॥ ७१ ॥

महादेव उवाच -
रे रे रावण दुर्भक्त मा गर्वं वह दुर्मते ।
शीघ्रं च तव हस्तानां दर्पघ्नश्च भवेदिह ॥ ७२ ॥
महादेवजी बोले-हे दुर्भक्त रावण ! हे दुर्मते ! तुम घमण्ड मत करो, अब शीघ्र ही तुम्हारे हाथोंके घमण्डको दूर करनेवाला यहाँ कोई उत्पन्न होगा ॥ ७२ ॥

सूत उवाच -
इति तत्र च यज्जातं नारदः श्रुतवांस्तदा ।
रावणोपि प्रसन्नात्माऽगात्स्वधाम यथागतम् ॥ ७३ ॥
सूतजी बोले-इस प्रकार वहाँ जो घटना घटी, उसे नारदजीने भी सुन लिया और रावण भी प्रसन्नचित्त होकर जैसे आया था, वैसे ही वहाँसे अपने स्थानको चला गया ॥ ७३ ॥

निश्चयं परमं कृत्वा बली बलविमोहितः ।
जगद्वशं हि कृतवान्रावणः परदर्पहा ॥ ७४ ॥
शिवाज्ञया च प्राप्तेन दिव्यास्त्रेण महौजसा ।
रावणस्य प्रति भटो नालं कश्चिदभूत्तदा ॥ ७५ ॥
उसके बाद बली तथा शत्रुओंके अभिमानको चूर करनेवाले रावणने शिवजीके वरदानको सत्य मानकर अपने बलसे विमोहित हो सारे जगत्को अपने वशमें कर लिया । शिवजीकी आज्ञासे प्राप्त महातेजस्वी दिव्यास्त्रसे युक्त उस रावणकी बराबरी करनेवाला कोई भी शत्रु उस समय नहीं रहा ॥ ७४-७५ ॥

इत्येतच्च समाख्यातं वैद्यनाथेश्वरस्य च ।
माहात्म्यं शृण्वतां पापं नृणां भवति भस्मसात् ॥ ७६ ॥
[हे ऋषिगणो !] इस प्रकार मैंने वैद्यनाथेश्वरके माहात्म्यका वर्णन किया, जिसे सुननेवाले मनुष्योंका पाप विनष्ट हो जाता है ॥ ७६ ॥

इति श्रीशिवमहापुराणे चतुर्थ्यां कोटिरुद्रसंहितायां
वैद्यनाथेश्वरज्योतिर्लिंगमाहात्म्यवर्णनं नामाष्टाविंशोऽध्यायः ॥ २८ ॥
इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत चतुर्थ कोटिरुद्रसंहितामें वैद्यनाथेश्वरज्योतिर्लिंग माहात्म्यवर्णन नामक अट्ठाईसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २८ ॥



श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु


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