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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥

॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥

चतुर्थी कोटीरुद्रसंहितायां

एकोनत्रिंशोऽध्यायः

नागेश्वरज्योतिर्लिंगमाहात्म्ये दारुकावनराक्षसोपद्रववर्णनम् -
दारुकावनमें राक्षसोंके उपद्रव एवं सुप्रिय वैश्यकी शिवभक्तिका वर्णन -


सूत उवाच -
अथातः संप्रवक्ष्यामि नागेशाख्यं परात्मनः ।
ज्योतीरूपं यथा जातं परमं लिंगमुत्तमम् ॥ १ ॥
सूतजी बोले-इसके उपरान्त मैं परमात्मा शिवके नागेश नामक परमश्रेष्ठ ज्योतिलिंगकी जिस प्रकार उत्पत्ति हुई, उसे कह रहा हूँ ॥ १ ॥

दारुका राक्षसी काचित्पार्वती वरदर्पिता ।
दारुकश्च पतिस्तस्या बभूव बलवत्तरः ॥ २ ॥
बहुभी राक्षसैस्तत्र चकार कदनं सताम् ।
यज्ञध्वंसं च लोकानां धर्मध्वंसं तदाकरोत् ॥ ३ ॥
पार्वतीके वरदानसे अहंकारमें डूबी हुई दारुका नामक एक राक्षसी थी, उसका पति दारुक भी महाबलवान् था । वह अनेक राक्षसोंको साथ लेकर सत्पुरुषोंको दुःख दिया करता था और यज्ञका ध्वंस तथा लोगोंके धर्मका ध्वंस किया करता था ॥ २-३ ॥

पश्चिमे सागरे तस्य वनं सर्वसमृद्धिमत् ।
योजनानां षोडशभिर्विस्तृतं सर्वतो दिशम् ॥ ४ ॥
दारुका स्वविलासार्थं यत्र गच्छति तद्वनम् ।
भूम्या च तरुभिस्तत्र सर्वोपकरणैर्युतम् ॥ ५ ॥
दारुकायै ददौ देवी तद्वनस्यावलोकनम् ।
प्रयाति तद्वनं सा हि पत्या सह यदृच्छया ॥ ६ ॥
पश्चिम सागरके तटपर उसका एक वन था, जो चारों ओर सोलह योजन विस्तृत तथा सर्वसमृद्धिपूर्ण था । दारुका राक्षसी अपने क्रीडाविलासके निमित्त वहाँ नित्य विचरण करती थी । वह वन सुन्दर भूमि, नाना प्रकारके वृक्ष तथा अन्य सभी उपकरणोंसे युक्त था । देवीने उस वनकी देख-रेखका भार दारुकाको दिया था, जिसके लिये वह अपने पतिके साथ अपनी इच्छानुसार जाया करती थी ॥ ४-६ ॥

तत्र स्थित्वा तदा सोपि सर्वेषां च भयं ददौ ।
दारुको राक्षसः पत्न्या तया दारुकया सह ॥ ७ ॥
वह दारुक राक्षस भी अपनी पत्‍नी दारुकाके साथ वहाँ निवासकर सभीको भय देने लगा ॥ ७ ॥

ते सर्वे पीडिता लोका और्वस्य शरणं ययुः ।
नत्वा प्रीत्या विशेषेण तमूचुर्नतमस्तकाः ॥ ८ ॥
उससे पीड़ित हुए वहाँकै निवासी महर्षि और्वकी शरणमें गये और सिर झुकाकर उन्हें प्रेमपूर्वक नमस्कारकर कहने लगे- ॥ ८ ॥

लोका ऊचुः -
महर्षे शरणं देहि नो चेद्दुष्टैश्च मारिताः ।
सर्वं कर्तुं समर्थोसि तेजसा दीप्तिमानसि ॥ ९ ॥
लोग बोले-हे महर्षे ! हमको शरण दीजिये, अन्यथा दुष्ट हमलोगोंको मार डालेंगे, आप सब कुछ करने में समर्थ हैं; आप तेजसे प्रकाशवान् हैं ॥ ९ ॥

पृथ्व्यां न वर्तते कश्चित्त्वां विना शरणं च नः ।
यामो यस्य समीपे तु स्थित्वा सुखमवाप्नुमः ॥ १० ॥
पृथ्वीपर आपके सिवा कोई भी हमलोगोंका शरणदाता ऐसा नहीं है, जिसके पास हमलोग जाये और वहाँ रहकर सुख प्राप्त करें ॥ १० ॥

त्वां दृष्ट्‍वा राश्रसास्सर्वे पला यंते विदूरतः ।
त्वयि शैवं सदा तेजो विभाति ज्वलनो यथा ॥ ११ ॥
[हे महर्षे !] आपको देखते ही सभी राक्षस दूर भाग जाते हैं; क्योंकि आपमें अग्निके समान शिवका तेज प्रज्वलित होता रहता है ॥ ११ ॥

सूत उवाच -
इत्येवं प्रार्थितो लोकैरौर्वो हि मुनिसत्तमः ।
शोचमानः शरण्यश्च रक्षायै हि वचोऽब्रवीत् ॥ १२ ॥
सूतजी बोले-लोगोंके द्वारा इस प्रकार प्रार्थना किये जानेपर शरण देनेवाले मुनिश्रेष्ठ और्वने व्यथित होकर उनकी रक्षाके लिये यह वचन कहा- ॥ १२ ॥

और्व उवाच -
पृथिव्यां यदि रक्षांसि हिंस्युर्वै प्राणिनस्तदा ।
स्वयं प्राणैर्वियुज्येयू राक्षसा बलवत्तराः ॥ १३ ॥
यदा यज्ञा न हन्येरंस्तदा प्राणैर्वियोजिताः ।
भवंतु राक्षसास्सर्वे सत्यमेतन्मयोच्यते ॥ १४ ॥
और्व बोले-यदि अत्यन्त बलशाली ये राक्षस पृथ्वीपर प्राणियोंका वध करते रहेंगे, तो वे स्वयं मर जायेंगे । यदि वे इसी प्रकार यज्ञ-विध्वंस करते रहेंगे, तो सभी राक्षस स्वयं अपने प्राणोंसे हाथ धो लेंगे, यह मैं सत्य कहता हूँ ॥ १३-१४ ॥

सूत उवाच -
इत्युक्त्वा वचनं तेभ्यस्समाश्वास्य प्रजाः पुनः ।
तपश्चकार विविधमौर्वो लोकसुखावहः ॥ १५ ॥
सूतजी बोले-लोगोंको सुख देनेवाले महर्षि और्व उन लोगोंसे इस प्रकार कहकर तथा प्रजाओंको धीरज देकर विविध प्रकारसे तप करने लगे ॥ १५ ॥

देवास्तदा ते विज्ञाय शापस्य कारणं हि तत् ।
युद्धाय च समुद्योगं चक्रुर्देवारिभिस्सह ॥ १६ ॥
सर्वैश्चैव प्रयत्नैश्च नानायुधधरास्सुराः ।
सर्वे शक्रादयस्तत्र युद्धार्थं समुपागताः ॥ १७ ॥
इसके बाद वे देवगण शापका कारण जानकर देवशत्रु राक्षसोंके साथ युद्ध करनेका सभी प्रकारसे प्रयत्‍न करने लगे । उस समय इन्द्रादि समस्त देवगण अनेकविध अस्त्र-शस्त्रोंको धारणकर सभी उपकरणोंके साथ युद्धके लिये वहाँ उपस्थित हुए । १६-१७ ॥

तान्दृष्ट्‍वा राक्षसास्तत्र विचारे तत्पराः पुनः ।
बभूवुस्तेऽखिला दुष्टा मिथो ये यत्र संस्थिताः ॥ १८ ॥
उन्हें देखकर उस वनमें जहाँ जो भी राक्षस निवास कर रहे थे, वे सभी आपसमें मिलकर विचार करने लगे ॥ १८ ॥

राक्षसा ऊचुः -
किं कर्तव्यं क्व गंतव्यं संकटं समुपागताः ।
युद्ध्यते म्रियते चैव युद्ध्यते न विहन्यते ॥ १९ ॥
तथैव स्थीयते चेद्वै भक्ष्यते किं परस्परम् ।
दुःखं हि सर्वथा जातं क एनं विनिवारयेत् ॥ २० ॥
राक्षस बोले-अब हमलोग क्या करें, कहाँ जायँ ? [बहुत बड़ा] संकट उपस्थित हो गया । यदि हमलोग युद्ध करें, तो भी मारे जायेंगे और यदि युद्धन करें, तो भी मारे जायेंगे, यदि ऐसे ही पड़े रहे, तो हमलोग क्या भोजन करेंगे ? यह तो बड़ा दुःखका अवसर उपस्थित हुआ, कौन इस दुःखको दूर करेगा ? ॥ १९-२० ॥

सूत उवाच -
विचार्येति च ते तत्र दारुकाद्याश्च राक्षसाः ।
उपायं न विजानन्तो दुःखं प्राप्तास्सदा हि वै ॥ २१ ॥
दारुका राक्षसी चापि ज्ञात्वा दुःखं समागतम् ।
भवान्याश्च वरं तञ्च कथयामास सा तदा ॥ २२ ॥
सूतजी बोले-वहाँपर इस प्रकार ऐसा विचार करके भी उन दारुक आदि राक्षसोंको जब कोई उपाय नहीं सूझा, तब वे बहुत दुखी हुए । तब दारुका राक्षसी इस प्रकारका संकट उपस्थित हुआ जानकर पार्वतीजीके उस वरदानके विषयमें कहने लगी ॥ २१-२२ ॥

दारुकोवाच -
मया ह्याराधिता पूर्वं भवपत्नी वरं ददौ ।
वनं गच्छ निजैः सार्धं यत्र गंतुं त्वमिच्छसि ॥ २३ ॥
तद्वरश्च मया प्राप्तः कथं दुःखं विषह्यते ।
जलं वनं च नीत्वा वै सुखं स्थेयं तु राक्षसैः ॥ २४ ॥
दारुका बोली-मैंने पूर्वकालमें भवानीकी आराधना की थी, तब उन्होंने वरदान दिया था कि तुम जहाँ जाना चाहो, वहाँ अपने स्वजनोंको लेकर वनसहित जा सकती हो । जब मैंने वैसा वरदान प्राप्त किया है, तब तुमलोग दुःख क्यों सह रहे हो ? वनको जलके भीतर ले जाकर वहींपर सभी राक्षस सुखपूर्वक रह सकते हैं ॥ २३-२४ ॥

भूत उवाच -
तस्यास्तद्वचनं श्रुत्वा राक्षस्या हर्षमागताः ।
उचुस्सर्वे मिथस्ते हि राक्षसा निर्भयास्तदा ॥ २५ ॥
सूतजी बोले-तब उस राक्षसीका यह वचन सुनकर सभी राक्षस हर्षित हो उठे और निडर हो आपसमें कहने लगे- ॥ २५ ॥

धन्येयं कृतकृत्येयं राज्ञ्या वै जीवितास्स्वयम् ।
नत्वा तस्यै च तत्सर्वं कथयामासुरादरात् ॥ २६ ॥
यदि गंतुं भवेच्छक्तिर्गम्यतां किं विचार्यते ।
तत्र गत्वा जले देवि सुखं स्थास्याम नित्यशः ॥ २७ ॥
यह धन्य है । कृतकृत्य है, इस राजीने हमलोगोंको जीवनदान दिया है । तदुपरान्त वे उस राक्षसीको प्रणामकर आदरपूर्वक कहने लगे-हे देवि ! यदि तुममें इस प्रकार जानेकी शक्ति है, तो यहाँसे शीघ्र चलो, अब क्या विचार करती हो ? हमलोग जलमें जाकर सुखपूर्वक निवास करेंगे ॥ २६-२७ ॥

एतस्मिन्नंतरे लोका देवैस्सार्द्धं समागताः ।
युद्धाय विविधैर्दुःखैः पीडिता राक्षसैः पुरा । २८ ॥
इसी बीच सभी लोग देवताओंको साथ लेकर उन राक्षसोंसे युद्ध करनेके लिये आये, जिन्होंने उन्हें पहले बहुत दुःख दिया था ॥ २८ ॥

पीडिताश्च तदा तस्या भवान्या बलमाश्रिताः ।
समग्रं नगरं नीत्वा जलस्थलसमन्वितम् ॥ २९ ॥
जयजयेति देव्यास्तु स्तुतिमुच्चार्य राक्षसी ।
तत उड्डीयनं कृत्वा सपक्षो गिरिराड्यथा ॥ ३० ॥
समुद्रस्य च मध्ये सा संस्थिता निर्भया तदा ।
सकलैः परिवारैश्च मुमुदेति शिवानुगा ॥ ३१ ॥
देवगणोंसे पीड़ित उन राक्षसोंके साथ पार्वतीके बलका आश्रय लेकर 'तुम्हारी जय हो, तुम्हारी जय हो' इस प्रकार देवीकी स्तुतिकर जलस्थलसे युक्त अपना सारा नगर उठाकर पंखयुक्त हिमालयपर्वतके समान उड़ती हुई वह शिवभक्त राक्षसी समुद्रके मध्यमें चली गयी और अपने सम्पूर्ण परिवारोंके साथ निर्भय हो प्रसन्नताके साथ वहाँ रहने लगी ॥ २९-३१ ॥

तत्र सिंधौ च ते स्थित्वा नगरे च विलासिनः ।
राक्षसाश्च सुखं प्रापु्र्निर्भयाश्च विजह्रिरे ॥ ३२ ॥
राक्षसाश्च पृथिव्यां वै नाजग्मुश्च कदाचन ।
मुनेश्शापभयादेव बभ्रमुस्ते चले तदा ॥ ३३ ॥
इस प्रकार वे विलासी राक्षस समुद्रके मध्य में स्थित होकर सुखी हो गये और निर्भय होकर नगरमें विहार करने लगे । और्व मुनिके शापके भयसे वे कभी पृथ्वीपर नहीं आते थे, अपितु जलमें ही भ्रमण करते रहे ॥ ३२-३३ ॥

नौषु स्थिताञ्जनान्नीत्वा नगरे तत्र तांस्तदा ।
चिक्षिपुर्बन्धनागारे कांश्चिज्जघ्नुस्तदा हि ते ॥ ३४ ॥
यथायथा पुनः पीडां चक्रुस्ते राक्षसास्तदा ।
तत्रस्थिता भवान्याश्च वरदानाच्च निर्भयाः ॥ ३५ ॥
वे नावोंपर बैठे मनुष्योंको नगरमें लाकर उन्हें वहाँ कारागारमें डाल देते थे और किसी-किसीको मार भी डालते थे । वहाँ स्थित होकर भी वे राक्षस भवानीके वरदानसे निर्भय होकर जैसे-तैसे लोगोंको पीड़ा देते ही रहते थे ॥ ३४-३५ ॥

यथापूर्वं स्थले लोके भयं चासीन्निरन्तरम् ।
तथा भयं जले तेषामासीन्नित्यं मुनीश्वराः ॥ ३६ ॥
कदाचिद्राक्षसी सा च निस्सृता नगराज्जले ।
रुद्ध्वा मार्गं स्थिता लोकपीडार्थं धरणौ च हि ॥ ३७ ॥
हे मुनीश्वरो ! जिस प्रकार उन राक्षसोंका भय पूर्वमें पृथ्वीलोकमें स्थलपर नित्यप्रति बना रहता था । उसी प्रकार उनके जलमें रहनेपर भी निरन्तर भय बना रहने लगा । किसी समय वह राक्षसी जलमें स्थित अपने नगरसे निकलकर लोगोंको पीड़ा देनेके लिये पृथ्वीपर जानेका मार्ग रोककर स्थित हो गयी । ३६-३७ ॥

एतस्मिन्नंतरे तत्र नावो बहुतराः शुभाः ।
आगता बहुधा तत्र सर्वतो लोकसंवृताः ॥ ३८ ॥
इसी समय वहाँ चारों ओरसे मनुष्योंसे भरी हुई बहुत-सी सुन्दर नावें आयीं ॥ ३८ ॥

ता नावश्च तदा दृष्ट्‍वा हर्षं संप्राप्य राक्षसाः ।
द्रुतं गत्वा हि तत्रस्थान्वेगात्संदध्रिरे खलाः ॥ ३९ ॥
मनुष्योंसे भरी उन नावोंको देखकर हर्षसे भरे हुए उन दुष्ट राक्षसोंने शीघ्रतासे जाकर नावपर स्थित लोगोंको वेगपूर्वक पकड़ लिया ॥ ३९ ॥

आजग्मुर्नगरं ते च तानादाय महाबलाः ।
चिक्षिपुर्बन्धनागारे बद्ध्वा हि निगडैर्दृढैः ॥ ४० ॥
उन महाबली राक्षसोंने उन्हें अपने नगरमें लाकर दृढ़ बेड़ियोंसे बाँधकर कारागारमें डाल दिया ॥ ४० ॥

बद्धास्ते निगडैर्लोका संस्थिता बंधनालये ।
अतीव दुःखमाजग्मुर्भर्त्सितास्ते मुहुर्मुहुः ॥ ४१ ॥
शृंखलाओंसे बँधे हुए तथा कारागारमें पड़े हुए उन लोगोंपर राक्षसोंकी बारंबार फटकार भी पड़ती थी, जिसके कारण वे अत्यधिक दुःख पा रहे थे ॥ ४१ ॥

तेषां मध्ये च योऽधीशस्स वैश्यस्सुप्रियाभिधः ।
शिवप्रियश्शुभाचारश्शैवश्चासीत्सदातनः ॥ ४२ ॥
उन सभीमें उनका स्वामी जो सुप्रिय नामका वैश्य था, वह शिवजीका श्रेष्ठ भक्त, उत्तम आचरणवाला तथा शाश्वत शिवपरायण था ॥ ४२ ॥

विना च शिवपूजां वै न तिष्ठति कदाचन ।
सर्वथा शिवधर्मा हि भस्मरुद्राक्षभूषणः ॥ ४३ ॥
वह बिना शिवपूजन किये कभी नहीं रहता था । वह सर्वथा शिवधर्मका पालन करनेवाला और भस्म, रुद्राक्ष धारण करनेवाला था ॥ ४३ ॥

यदि पूजा न जाता चेन्न भुनक्ति तदा तु सः ।
अतस्तत्रापि वैश्योऽसौ चकार शिवपूजनम् ॥ ४४ ॥
यदि वह कभी पूजन नहीं कर पाता, तो उस दिन भोजन भी नहीं करता था । अतः वहाँ भी वह वैश्य शिवपूजन किया करता था ॥ ४४ ॥

कारागृहगतस्सोपि बहूंश्चाशिक्षयत्तदा ।
शिवमंत्रं च पूजां च पार्थिवीमृषिसत्तमाः ॥ ४५ ॥
हे श्रेष्ठ ऋषियो ! उसने कारागारमें रहते हुए भी बहुत-से लोगोंको शिवमन्त्र और पार्थिवपूजनकी विधि सिखा दी ॥ ४५ ॥

ते सर्वे च तदा तत्र शिवपूजां स्वकामदाम् ।
चक्रिरे विधिवत्तत्र यथादृष्टं यथाश्रुतम् ॥ ४६ ॥
तब कारागारमें रहनेवाले अन्य लोग भी अपनी कामनाको पूर्ण करनेवाली शिवकी पूजा विधिपूर्वक करने लगे, जैसा कि उन लोगोंने देखा और सुना था ॥ ४६ ॥

केचित्तत्र स्थिता ध्याने बद्ध्वासनमनुत्तमम् ।
मानसीं शिवपूजां च केचिच्चक्रुर्मुदान्विताः ॥ ४७ ॥
कुछ लोग उत्तम आसन लगाकर शिवजीका ध्यान करने लगे और कुछ लोग प्रसन्नतासे शिवकी मानसी पूजामें निरत हो गये ॥ ४७ ॥

तदधीशेन तत्रैव प्रत्यक्षं शिवपूजनम् ।
कृतं च पार्थिवस्यैव विधानेन मुनीश्वराः ॥ ४८ ॥
हे मुनीश्वरो ! उस समय उनका स्वामी प्रत्यक्ष ही पार्थिव विधिसे नित्य शिवपूजन किया करता था ॥ ४८ ॥

अन्ये च ये न जानन्ति विधानं स्मरणं परम् ।
नमश्शिवाय मंत्रेण ध्यायंतश्शंकरं स्थिताः ॥ ४९ ॥
सुप्रियो नाम यश्चासीद्वैश्यवर्यश्शिवप्रियः ।
ध्यायंश्च मनसा तत्र चकार शिवपूजनम् ॥ ५० ॥
जो अन्य लोग शिवपूजनका विधान तथा श्रेष्ठ स्मरण (शास्त्रोक्त ध्यान) नहीं जानते थे, वे 'नमः शिवाय'-इस मन्त्रसे शिवका ध्यान करते हुए रहने लगे । सुप्रिय नामक जो शिवभक्त श्रेष्ठ वैश्य था, वह मनमें [शिवजीका] ध्यान करता हुआ वहाँ शिवपूजा किया करता था ॥ ४९-५० ॥

यथोक्तरूपी शंभुश्च प्रत्यक्षं सर्वमाददे ।
सोपि स्वयं न जानाति गृह्यते न शिवेन वै ॥ ५१ ॥
एवं च क्रियमाणस्य वैश्यस्य शिवपूजनम् ।
व्यतीयुस्तत्र षण्मासा निर्विघ्नेन मुनीश्वराः ॥ ५२ ॥
भगवान् शिवजी भी शास्ववर्णित रूप धारणकर सभी सामग्री प्रत्यक्ष ग्रहण करते थे । वह वैश्य स्वयं भी इस बातको नहीं जानता था कि शिवजी उसे ग्रहण कर लेते हैं । हे मुनीश्वरो । इस प्रकार वैश्यको शिवपूजन करते हए वहाँ निर्विघ्न रूपसे छ: महीने बीत गये ॥ ५१-५२ ॥

अतः परं च यज्जातं चरितं शशिमौलिनः ।
तच्छृणुध्वमृषिश्रेष्ठाः सावधानेन चेतसा ॥ ५३ ॥
हे मुनीश्वरो ! इसके बाद शिवजीका जैसा चरित्र हुआ, उसे आपलोग सावधान मनसे सुनिये ॥ ५३ ॥

इति श्रीशिवमहापुराणे चतुर्थ्यां कोटिरुद्र संहितायां
नागेश्वरज्योतिर्लिंगमाहात्म्ये दारुकावनराक्षसोपद्रववर्णनंनामैकोनत्रिंशोऽध्यायः ॥ २९ ॥
इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत चतुर्थ कोटिरुद्रसंहिताके नागेश्वर ज्योतिलिंगमाहात्यमें दारुकावनमें राक्षसोपनववर्णन नामक उनतीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २९ ॥



श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु


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