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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥

॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥

चतुर्थी कोटीरुद्रसंहितायां

त्रिंशोऽध्यायः

नागेश्वरज्योतिर्लिंगोद्भवमाहात्म्यवर्णनम् -
नागेश्वर ज्योतिर्लिंगकी उत्पत्ति एवं उसके माहात्म्यका वर्णन -


सूत उवाच -
कदाचित्सेवकस्तस्य राक्षसस्य दुरात्मनः ।
तदग्रे सुंदरं रूपं शंकरस्य ददर्श ह ॥ १ ॥
सूतजी बोले-[हे मुनियो !] किसी समय उस दुष्टात्मा राक्षस दारुकके एक सेवकने वैश्यके समक्ष [स्थित हुए] शिवजीका सुन्दर रूप देखा ॥ १ ॥

तस्मै निवेदितं राज्ञे राक्षसानां यथार्थकम् ।
सर्वं तच्चरितं तेन सकौतुकमथाद्भुतम् ॥ २ ॥
राजापि तत्र चागत्य राक्षसानां स दारुकः ।
विह्वलस्सबलश्शीघ्रं पर्यपृच्छच्च तं शिवम् ॥ ३ ॥
उसने जाकर राक्षसराजके सामने कौतुकसमन्वित उस अद्‌भुत चरित्रको यथार्थ रूपसे निवेदन किया । तब उस बलवान् राक्षसराज दारुकने भी विह्वल हो शीघ्र ही वहाँ आकर शिवके विषयमें उससे पूछा- ॥ २-३ ॥

दारुक उवाच -
किं ध्यायसि हि वैश्य त्वं सत्यं वद ममाग्रतः ।
एवं सति न मृत्युस्ते मम वाक्यं च नान्यथा ॥ ४ ॥
दारुक बोला-हे वैश्य ! तुम किसका ध्यान कर रहे हो, मेरे सामने सत्य-सत्य बताओ, ऐसा करनेपर तुम्हें मृत्युदण्ड नहीं प्राप्त होगा, अन्यथा तुम मारे जाओगे, मेरी बात कभी झूठी नहीं होती ॥ ४ ॥

सूत उवाच -
तेनोक्तं च न जानामि तच्छ्रुत्वा कुपितस्य वै ।
राक्षसान्प्रेरयामास हन्यतां राक्षसा अयम् ॥ ५ ॥
सूतजी बोले-तब उसने कहा-मैं कुछ नहीं जानता । यह सुनकर उसने कुपित होकर राक्षसोंसे कहा-हे राक्षसो ! इसे मार डालो ॥ ५ ॥

तदुक्तास्ते तदा हंतुं नानायुधधरा गताः ।
द्रुतं तं वैश्यशार्दूलं शंकरासक्तचेतसम् ॥ ६ ॥
उसके ऐसा कहनेपर तत्काल ही वे राक्षस शिवमें तत्पर चित्तवाले उस श्रेष्ठ वैश्यको मारनेके लिये अनेकविध शस्त्र धारणकर वेगसे दौड़े ॥ ६ ॥

तानागतांस्तदा दृष्ट्‍वा भयवित्रस्तलोचनः ।
शिवं सस्मार सुप्रीत्या तन्नामानि जगौ मुहुः ॥ ७ ॥
तब उन राक्षसोंको आया हुआ देखकर वह वैश्य भयसे अपने नेत्रोंको बन्दकर अत्यन्त प्रेमपूर्वक शिवका स्मरण और बार-बार उनके नामका संकीर्तन करने लगा ॥ ७ ॥

वैश्यपतिरुवाच -
पाहि शंकर देवेश पाहि शंभो शिवेति च ।
दुष्टादस्मात्त्रिलोकेश खलहन्भक्तवत्सल ॥ ८ ॥
वैश्यपति बोला-हे शंकर ! हे देवेश ! हे शम्भो ! हे शिव ! हे त्रिलोकेश ! हे दुष्टनाशक ! हे भक्तवत्सल ! इस दुष्टसे रक्षा कीजिये, रक्षा कीजिये ॥ ८ ॥

सर्वस्वं च भवानद्य मम देव त्वमेव हि ।
त्वदधीनस्त्वदीयोऽहं त्वत्प्राणस्सर्वदा प्रभो ॥ ९ ॥
हे देव ! आप ही मेरे सर्वस्व हैं, हे प्रभो ! इस समय मैं आपके अधीन हूँ, आपका ही हूँ और आप ही मेरे सर्वदा प्राण हैं ॥ ९ ॥

सूत उवाच -
इति संप्रार्थितश्शंभुर्विवरान्निर्गतस्तदा ।
भवनेनोत्तमेनाथ चतुर्द्वारयुतेन च ॥ १० ॥
सूतजी बोले-[हे महर्षियो !] इस प्रकार प्रार्थना किये जानेपर चारों ओर दरवाजेवाले उत्तम मन्दिरके सहित शिवजी उस विवरसे प्रकट हुए ॥ १० ॥

मध्यज्योतिस्स्वरूपं च शिवरूपं तदद्भुतम् ।
परिवारसमायुक्तं दृष्ट्‍वा चापूजयत्स वै ॥ ११ ॥
उस (भवन)-के बीचमें ज्योतिःस्वरूप परिवारसहित अद्‌भुत शिवका रूप देखकर उसने पूजन किया ॥ ११ ॥

पूजितश्च तदा शंभुः प्रसन्नो ह्यभवत्स्वयम् ।
अस्त्रं पाशुपतं नाम दत्त्वा राक्षसपुंगवान् ॥ १२ ॥
जघान सोपकरणांस्तान्सर्वान्सगणान्द्रुतम् ।
अरक्षच्च स्वभक्तं वै दुष्टहा स हि शंकरः ॥ १३ ॥
तब उससे पूजित हुए शिवजी प्रसन्न हो गये और उन्होंने [सुप्रिय वैश्यको] पाशुपत नामक अस्त्र दे करके सभी उपकरणों तथा गणोंसहित उन समस्त राक्षसगणोंका स्वयं शीघ्रतासे संहार कर दिया । इस प्रकार दुष्टोंका वध करनेवाले उन शिवने अपने भक्तकी रक्षा की ॥ १२-१३ ॥

सर्वांस्तांश्च तदा हत्वा वरं प्रादाद्वनस्य च ।
अत्यद्भुतकरश्शंभुस्स्वलीलात्तसुविग्रहः ॥ १४ ॥
अस्मिन्वने सदा वर्णधर्मा वै संभवंतु च ।
ब्राह्मणक्षत्रियविशां शूद्राणां हि तथैव च ॥ १५ ॥
उस समय अपनी लीलासे सुन्दर शरीर धारण करनेवाले तथा अत्यद्‌भुत चरित्र करनेवाले शिवजीने उन सबको मारकर उस वनको वरदान दिया कि इस वनमें ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र-इन चारों वर्गों के धर्म नित्य स्थिर रहेंगे ॥ १४-१५ ॥

भवत्वत्र मुनिश्रेष्ठास्तामसा न कदाचन ।
शिवधर्मप्रवक्तारश्शिवधर्मप्रवर्तकाः ॥ १६ ॥
यहाँ शिवधर्मप्रवर्तक तथा शिवधर्मवक्ता श्रेष्ठ मुनि ही होंगे, तमोगुणी लोग कभी नहीं होंगे ॥ १६ ॥

सूत उवाच -
एतस्मिन्समये सा वै राक्षसी दारुकाह्वया ।
देव्याः स्तुतिं चकारासौ पार्वत्या दीनमानसा ॥ १७ ॥
सूतजी बोले-इसी समय दुःखित मनवाली उस दारुका नामक राक्षसीने भगवती पार्वतीकी स्तुति की ॥ १७ ॥

प्रसन्ना च तदा देवी किं करोमीत्युवाच हि ।
साप्युवाच पुनस्तत्र वंशो मे रक्ष्यतां त्वया ॥ १८ ॥
रक्षयिष्यामि ते वंशं सत्यं च कथ्यते मया ।
इत्युक्त्वा च शिवेनैव विग्रहं सा चकार ह ॥ १९ ॥
तब पार्वतीजीने प्रसन्न होकर उससे कहा-मैं क्या करूँ, तब उसने पुनः कहा-[हे देवि !] आप मेरे वंशकी रक्षा करें । मैं तुम्हारे वंशकी रक्षा अवश्य करूंगी, यह मैं सत्य कह रही हूँ-ऐसा कहकर उन्होंने शिवके साथ (लीलापूर्वक) कलह किया ॥ १८-१९ ॥

शिवोपि कुपितां देवीं दृष्ट्‍वा वरवशः प्रभुः ।
प्रत्युवाचेति सुप्रीत्या यथेच्छसि तथा कुरु ॥ २० ॥
उसके बाद वरदानके वशीभूत हुए शिवजीने क्रुद्ध हुई पार्वतीजीको देखकर प्रेमपूर्वक कहा-तुम जैसा चाहो, वैसा करो ॥ २० ॥

सूत् उवाच -
इति श्रुत्वा वचस्तस्य स्वपतेश्शंकरस्य वै ।
सुप्रसन्ना विहस्याशु पार्वती वाक्यमब्रवीत् ॥ २१ ॥
सूतजी बोले-अपने पति शिवजीका यह वचन सुनकर अत्यन्त प्रसन्न हुई पार्वतीजीने हँस करके शीघ्रतासे यह वचन कहा- ॥ २१ ॥

पार्वत्युवाच -
भवदीयं वचस्तथ्यं युगांते संभविष्यति ।
तावच्च तामसी सृष्टिर्भवत्विति मतं मम ॥ २२ ॥
अन्यथा प्रलयस्स्याद्वै सत्यं मे व्याहृतं शिव ।
प्रमाणीक्रियतां नाथ त्वदीयास्मि त्वदाश्रया ॥ २३ ॥
इयं च दारुका देवी राक्षसी शक्तिका मम ।
बलिष्ठा राक्षसीनां च रक्षोराज्यं प्रशास्तु च ॥ २४ ॥
इमा राक्षसपत्न्यस्तु प्रसविष्यंति पुत्रकान् ।
ते सर्वे मिलिताश्चैव वने वासाय मे मताः ॥ २५ ॥
पार्वतीजी बोलीं-आपका वचन युगके अन्तमें सत्य होगा, तबतक तामसी सृष्टि ही बनी रहे-ऐसा मेरा विचार है, अन्यथा प्रलय हो जायगा । हे शिवजी ! यह मैं सत्य कहती हैं । हे नाथ ! मैं आपकी [वल्लभा] हूँ और आपकी आश्रिता हूँ । अतः मेरा वचन प्रमाणित कीजिये । यह राक्षसी देवी दारुका मेरी शक्ति है, सभी राक्षसियोंमें बलिष्ठ है, यह राक्षसोंपर राज्य करे । ये राक्षसोंकी पत्‍नियाँ यहाँपर अपने पुत्रोंको उत्पन्न करेंगी । वे सब मिलकर इस वनमें मेरी आज्ञासे निवास करेंगी ॥ २२-२५ ॥

सूत उवाच -
इत्येवं वचनं श्रुत्वा पार्वत्यास्स्वस्त्रियाः प्रभुः ।
प्रसन्नमानसो भूत्वा शंकरो वाक्यमब्रवीत् ॥ २६ ॥
सूतजी बोले-अपनी पत्‍नी पार्वतीजीका यह वचन सुनकर भगवान् शिव प्रसन्नमन होकर यह वाक्य कहने लगे- ॥ २६ ॥

शङ्कर उवाच -
इति ब्रवीषि त्वं वै चेच्छृणु मद्वचनं प्रिये ।
स्थास्याम्यस्मिन्वने प्रीत्या भक्तानां पालनाय च ॥ २७ ॥
शंकर बोले-हे प्रिये ! यदि तुम ऐसा कहती हो, तो मेरी बात सुनो । मैं अपने भक्तोंका पालन करनेके लिये इस वनमें प्रीतिपूर्वक निवास करूँगा ॥ २७ ॥

अत्र मे वर्णधर्मस्थो दर्शनं प्रीतिसंयुतम् ।
करिष्यति च यो वै स चक्रवर्ती भविष्यति ॥ २८ ॥
यहाँपर जो अपने वर्णोचित धर्ममें स्थित होकर प्रेमपूर्वक मेरा दर्शन करेगा, वह चक्रवर्ती राजा होगा ॥ २८ ॥

अन्यथा कलिपर्याये सत्यस्यादौ नृपेश्वर ।
महासेनसुतो यो वै वीरसेनेति विश्रुतः ॥ २९ ॥
स मे भक्त्यातिविक्रांतो दर्शनं मे करिष्यति ।
दर्शनं मे स कृत्वैव चक्रवर्ती भविष्यति ॥ ३० ॥
इसके बाद कलियुगके बीत जानेपर तथा सत्ययुगके प्रारम्भ होनेपर अपनी बहुत बड़ी सेनासे युक्त जो वीरसेन नामक प्रसिद्ध श्रेष्ठ राजा होगा, वह मेरी भक्तिके प्रभावसे अतीव पराक्रमी होगा, वह यहाँ आकर मेरा दर्शन करेगा और मेरे दर्शनके फलस्वरूप वह चक्रवर्ती राजा बनेगा ॥ २९-३० ॥

सूत उवाच -
इत्येवं दंपती तौ च कृत्वा हास्यं परस्परम् ।
स्थितौ तत्र स्वयं साक्षान्महत्त्वकारकौ द्विजाः ॥ ३१ ॥
सूतजी बोले-हे ब्राह्मणो ! इस प्रकार साक्षात् महालीला करनेवाले वे शिव और पार्वती परस्पर हासविलास करके स्वयं वहीं स्थित हो गये ॥ ३१ ॥

ज्योतिर्लिंगस्वरूपो हि नाम्ना नागेश्वरश्शिवः ॥
नागेश्वरी शिवा देवी बभूव च सतां प्रियौ ॥ ३२ ।
वहाँ ज्योतिर्लिंगरूप शिवजी नागेश्वर नामसे तथा देवी पार्वती नागेश्वरी नामसे प्रसिद्ध हुई, वे दोनों सज्जनोंको अत्यन्त प्रिय हैं ॥ ३२ ॥

ऋषय ऊचुः -
वीरसेनः कथं तत्र यास्यते दारुकावने ॥
कथमर्चिष्यति शिवं त्वं तद्वद महामते । ३३ ॥
ऋषिगण बोले-हे महामते ! वीरसेन उस दारुका वनमें किस प्रकार जायेंगे और किस प्रकार शिवजीकी पूजा करेंगे, आप इसका वर्णन कीजिये ? ॥ ३३ ॥

सूत उवाच -
निषधे सुंदरे देशे क्षत्रियाणां कुले च सः ।
महासेनसुतो वीरसेनश्चैव शिवप्रियः ॥ ३४ ॥
सूतजी बोले-निषध नामक सुन्दर देशमें क्षत्रियोंके कुलमें महासेनके वीरसेन नामक पुत्र उत्पन्न हुआ, जो शिवका [अत्यन्त] प्रिय था ॥ ३४ ॥

पार्थिवेशार्चनं कृत्वा तपः परमदुष्करम् ।
चकार वीरसेनो वै वर्षाणां द्वादशावधिः ॥ ३५ ॥
वीरसेनने पार्थिवेश शिवका अर्चन करते हुए बारह वर्षपर्यन्त अत्यन्त कठिन तप किया ॥ ३५ ॥

ततः प्रसन्नो देवेशः प्रत्यक्षं प्राह शंकरः ।
काष्ठस्य मत्स्यिकां कृत्वा त्रपुधातु विलेपनाम् ॥ ३६ ॥
विधाय योगमायां च दास्यामि वीरसेनक ।
तां गृहीत्वा प्रविश्यैतं नृभिस्सह व्रजाधुना ॥ ३७ ॥
ततस्त्वं तत्र गत्वा च विवरे च कृते मया ।
प्रविश्य च तदा पूजां कृत्वा नागेश्वरस्य च ॥ ३८ ॥
ततः पाशुपतं प्राप्य हत्वा च राक्षसीमुखान् ।
मयि दृष्टे तदा किंचिन्न्यूनं ते न भविष्यति ॥ ३९ ॥
पार्वत्याश्च बलं चैव संपूर्णं वै भविष्यति ।
अन्ये च म्लेच्छरूपा ये भविष्यंति वने शुभाः ॥ ४० ॥
तब प्रसन्न हुए देवाधिदेव शंकरने प्रकट होकर [राजासे] कहा-हे वीरसेन ! काठकी मछली बनाकर उसपर राँगेका लेपकर [और उसे] योगमाया [से सम्पन्न बनाकर तुम्हें दे रहा हूँ, उसे लेकर तुम इस समय नौकासे इस विवरमें प्रवेश करके चले जाओ, तदनन्तर वहाँ जाकर मेरे द्वारा किये गये उस विवरमें प्रविष्ट होकर नागेश्वरका पूजन करके उनसे पाशुपतास्त्र प्राप्तकर इन [दारुका आदि] प्रमुख राक्षसियोंका विनाश करना । मेरे दर्शनके प्रभावसे तुम्हें किसी प्रकारकी कमी न होगी । उस समयतक पार्वतीका वरदान भी पूर्ण हो जायगा, जिससे वहाँ जो अन्य म्लेच्छरूपवाले होंगे, वे भी सदाचारी हो जायेंगे ॥ ३६-४० ॥

सूत उवाच -
इत्युक्त्वा शंकरस्तत्र वीरसेनं हि दुःखह ।
कृत्वा कृपां च महतीं तत्रैवांतर्द्दधे प्रभुः ॥ ४१ ॥
दुःखको दूर करनेवाले प्रभु सदाशिव वीरसेनसे इतना कहकर उनपर महती कृपा प्रकट करके वहीं अन्तर्धान हो गये ॥ ४१ ॥

इति दत्तवरस्सोऽपि शिवेन परमात्मना ।
शक्तस्स वै तदा कर्तुं संबभूव न संशयः ॥ ४२ ॥
तब परमात्मा शिवसे वर प्राप्त किये हुए वे वीरसेन भी बिना संशयके सब कुछ करनेमें समर्थ हो गये ॥ ४२ ॥

एवं नागेश्वरो देव उत्पन्नो ज्योतिषां पतिः ।
लिंगरूपस्त्रिलोकस्य सर्वकामप्रदस्सदा ॥ ४३ ॥
इस प्रकार ज्योतियोंके पति लिंगरूप प्रभु नागेश्वरदेवकी उत्पत्ति हुई, वे तीनों लोकोंकी सम्पूर्ण कामनाको सदा पूर्ण करनेवाले हैं ॥ ४३ ॥

एतद्यश्शृणुयान्नित्यं नागेशोद्भवमादरात् ।
सर्वान्कामानियाद्धीमान्महापातकनाशनान् ॥ ४४ ॥
जो प्रतिदिन नागेश्वरकी इस उत्पत्तिका वृत्तान्त श्रद्धापूर्वक सुनता है, वह बुद्धिमान् महापातकोंका नाश करनेवाले सम्पूर्ण अभीष्टोंको प्राप्त कर लेता है ॥ ४४ ॥

इति श्रीशिवमहापुराणे चतुर्थ्यां कोटिरुद्रसंहितायां
नागेश्वरज्योतिर्लिंगोद्भवमाहात्म्यवर्णनं नाम त्रिंशोऽध्यायः ॥ ३० ॥
इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत चतुर्थ कोटिरुद्रसंहितामें नागेश्वर-ज्योतिलिंगोद्‌भवमाहात्म्यवर्णन नामक तीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ३० ॥



श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु


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