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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥
॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥ चतुर्थी कोटीरुद्रसंहितायां
एकत्रिंशोऽध्यायः रामेश्वरमाहात्म्यवर्णनम् -
रामेश्वर नामक ज्योतिर्लिंगके प्रादुर्भाव एवं माहात्म्यका वर्णन - सूत उवाच - अतः परं प्रवक्ष्यामि लिंगं रामेश्वराभिधम् । उत्पन्नं च यथा पूर्वमृषयश्शृणुतादरात् ॥ १ ॥ सूतजी बोले-हे ऋषियो ! इसके बाद मैं रामेश्वर नामक ज्योतिलिंग पूर्व समयमें जिस प्रकार उत्पन्न हुआ, उसका वर्णन करता हूँ, आपलोग आदरपूर्वक सुनिये ॥ १ ॥ पुरा विष्णुः पृथिव्यां चावततार सतां प्रियः ॥ २ ॥ तत्र सीता हृता विप्रा रावणेनोरुमायिना । प्रापिता स्वगृहं सा हि लंकायां जनकात्मजा ॥ ३ ॥ हे ब्राह्मणो ! पूर्व समयमें सज्जनोंके प्रिय भगवान् विष्णु पृथ्वीपर [रामके रूपमें] अवतरित हुए । उस समय महामायावी रावणने उनकी पत्नी सीताका हरण कर लिया और उन जनकपुत्रीको अपने घर लंकापुरीमें पहुँचा दिया ॥ २-३ ॥ अन्वेषणपरस्तस्याः किष्किन्धाख्यां पुरीमगात् । सुग्रीवहितकृद्भूत्वा वालिनं संजघान ह ॥ ४ ॥ सीताको खोजते हुए राम किष्किन्धा नामक नगरीमें गये और उन्होंने सुग्रीवसे मित्रताकर बालीका वध किया ॥ ४ ॥ तत्र स्थित्वा कियत्कालं तदन्वेषणतत्परः । सुग्रीवाद्यैर्लक्ष्मणेन विचारं कृतवान्स वै ॥ ५ ॥ कपीन्संप्रेषयामास चतुर्दिक्षु नृपात्मजः । हनुमत्प्रमुखान्रामस्तदन्वेषणहेतवे ॥ ६ ॥ कुछ समयतक वहाँ रहकर सीताको खोजनेमें तत्पर वे लक्ष्मण, सुग्रीव आदिके साथ विचार-विमर्श करते रहे । इसके बाद राजकुमार रामने उन्हें खोजनेके लिये हनुमान् आदि प्रमुख वानरोंको चारों दिशाओंमें भेजा ॥ ५-६ ॥ अथ ज्ञात्वा गतां लंकां सीतां कपिवराननात् । सीताचूडामणिं प्राप्य मुमुदे सोऽति राघवः ॥ ७ ॥ उसके बाद वानरश्रेष्ठ हनुमानजीके मुखसे सीताको लंकामें स्थित जानकर तथा उनकी चूडामणि प्राप्तकर वे रामचन्द्रजी बहुत प्रसन्न हुए ॥ ७ ॥ सकपीशस्तदा रामो लक्ष्मणेन युतो द्विजाः । सुग्रीवप्रमुखैः पुण्यैर्वानरैर्बलवत्तरैः ॥ ८ ॥ पद्मैरष्टादशाख्यैश्च ययौ तीरं पयोनिधेः । दक्षिणे सागरे यो वै दृश्यते लवणाकरः ॥ ९ ॥ तत्रागत्य स्वयं रामो वेलायां संस्थितो हि सः । वानरैस्सेव्यमानस्तु लक्ष्मणेन शिवप्रियः ॥ १० ॥ हे द्विजो ! इसके अनन्तर वे श्रीरामचन्द्रजी हनुमान्, लक्ष्मण तथा सुग्रीव आदि पुण्यवान् तथा अति बलवान् अठारह पद्म वानरोंके साथ समुद्रके तटपर पहुँचे । दक्षिण सागरमें जो लवणसमुद्र दिखायी देता है, वहाँ आकर वे शिवप्रिय राम लक्ष्मण तथा वानरोंसे सेवित होते हुए उसके तटपर स्थित हुए ॥ ८-१० ॥ हा जानकि कुतो याता कदा चेयं मिलिष्यति । अगाधस्सागरश्चैवातार्या सेना च वानरी ॥ ११ ॥ राक्षसो गिरिधर्त्ता च महाबलपराक्रमः । लंकाख्यो दुर्गमो दुर्ग इंद्रजित्तनयोस्य वै ॥ १२ ॥ इत्येवं स विचार्यैव तटे स्थित्वा सलक्ष्मणः । आश्वासितो वनौकोभिरंगदादिपुरस्सरैः ॥ १३ ॥ हाय, जानकी कहाँ चली गयी, वह कब मिलेगी ? यह समुद्र अगाध है और वानरीसेना इसे पार करने में सर्वथा असमर्थ है । कैलासको भी उठानेवाला राक्षस रावण महाबली है, लंका भी अगम्य दुर्ग है, उसका पुत्र मेघनाद तो इन्द्रको भी जीतनेवाला है-इस प्रकार लक्ष्मणसहित श्रीराम जब विचार कर रहे थे, तब | अंगदादि वानर अनुचरोंने उन्हें समझाते हुए धीरज बँधाया ॥ ११-१३ ॥ एतस्मिन्नंतरे तत्र राघवश्शैवसत्तमः । उवाच भ्रातरं प्रीत्या जलार्थी लक्ष्मणाभिधम् ॥ १४ ॥ इसी अवसरपर महाशिवभक्त श्रीरामचन्द्रजीको प्यास लगी और उन्होंने अपने भाई लक्ष्मणसे प्रीतिपूर्वक कहा- ॥ १४ ॥ राम उवाच - भ्रातर्लक्ष्मण वीरेशाहं जलार्थी पिपासितः । तदानय द्रुतं पाथो वानरैः कैश्चिदेव हि ॥ १५ ॥ श्रीरामजी बोले-हे वीरेश्वर भाई लक्ष्मण ! मैं प्यासा हूँ, मुझे जलकी आवश्यकता है । अतः तुम कुछ वानरोंको भेजकर शीघ्र जल मँगाओ ॥ १५ ॥ सूत उवाच - तच्छ्रुत्वा वानरास्तत्र ह्यधावंत दिशो दश । नीत्वा जलं च ते प्रोचुः प्रणिपत्य पुरः स्थिताः ॥ १६ ॥ सूतजी बोले-यह सुनकर वानरगण [जल लेनेके लिये] दसों दिशाओंमें गये और जल लाकर आगे खड़े हो प्रणामकर उन सबने कहा- ॥ १६ ॥ वानरा ऊचुः - जलं च गृह्यतां स्वामिन्नानीतं तत्त्वदाज्ञया । महोत्तमं च सुस्वादु शीतलं प्राणतर्पणम् ॥ १७ ॥ वानर बोले-हे स्वामिन् ! इमलोग आपकी आज्ञासे शीतल, स्वादिष्ट, प्राणोंको तृप्त करनेवाला तथा अत्यन्त उत्तम जल लाये हैं, इसे आप ग्रहण कीजिये ॥ १७ ॥ सूत उवाच - सुप्रसन्नतरो भूत्वा कृपादृष्ट्या विलोक्य तान् । तच्छ्रुत्वा रामचन्द्रोऽसौ स्वयं जग्राह तज्जलम् ॥ १८ ॥ सूतजी बोले-वानरोंकी बात सुनकर श्रीरामचन्द्रजीने अत्यन्त प्रसन्न होकर उनकी ओर कृपादृष्टिसे देखकर स्वयं वह जल ग्रहण किया ॥ १८ ॥ स शैवस्तज्जलं नीत्वा पातुमारब्धवान्यदा । तदा च स्मरणं जातमित्थमस्य शिवेच्छया ॥ १९ ॥ न कृतं दर्शनं शंभोर्गृह्यते च जलं कथम् । स्वस्वामिनः परेशस्य सर्वानंदप्रदस्य वै । २० ॥ उन शिवभक्त [राम]-ने ज्यों ही जल लेकर पीना प्रारम्भ किया, उसी समय शिवकी इच्छासे उन्हें यह स्मरण हुआ कि मैंने सम्पूर्ण आनन्द देनेवाले अपने स्वामी परमेश्वर सदाशिवका दर्शन नहीं किया है, फिर इस जलको किस प्रकार ग्रहण करूं ? ॥ १९-२० ॥ इत्युक्त्वा च जलं पीतं तदा रघुवरेण च । पश्चाच्च पार्थिवीं पूजां चकार रघुनंदनः ॥ २१ ॥ आवाहनादिकांश्चैव ह्युपचारान्प्रकल्प्य वै । विधिवत्षोडश प्रीत्या देवमानर्च शङ्करम् । २२ ॥ प्रणिपातैस्स्तवैर्दिव्यैश्शिवं संतोष्य यत्नतः । प्रार्थयामास सद्भक्त्या स रामश्शंकरं मुदा ॥ २३ ॥ ऐसा कहकर श्रीरामचन्द्रजीने पार्थिवपूजा सम्पन्न की और तदुपरान्त उन रघुनन्दनने जलका पान किया । उन्होंने आवाहन आदि सोलह उपचारोंको समर्पित करके विधिपूर्वक प्रेमसे शिवजीका पूजन किया । इसके बाद प्रणाम तथा दिव्य स्तोत्रोंसे यत्नपूर्वक शिवको सन्तुष्टकर वे श्रीराम उत्तम भक्तिसे प्रसन्नतापूर्वक शंकरजीसे प्रार्थना करने लगे- ॥ २१-२३ ॥ राम उवाच - स्वामिञ्छंभो महादेव सर्वदा भक्तवत्सल । पाहि मां शरणापन्नं त्वद्भक्तं दीनमानसम् ॥ २४ ॥ श्रीराम बोले-हे स्वामिन् ! हे शम्भो ! हे महादेव ! हे भक्तवत्सल ! शरणमें आये हुए तथा दुखी चित्तवाले मुझ अपने भक्तकी रक्षा कीजिये ॥ २४ ॥ एतज्जलमगाधं च वारिधेर्भवतारण । रावणाख्यो महावीरो राक्षसो बलवत्तरः ॥ २५ ॥ हे संसाररूपी समुद्रसे पार उतारनेवाले ! इस समुद्रका यह जल अगाध है और रावण नामक राक्षस महापराक्रमी तथा अति बलवान् है ॥ २५ ॥ वानराणां बलं ह्येतच्चंचलं युद्धसाधनम् । ममकार्यं कथं सिद्धं भविष्यति प्रियाप्तये ॥ २६ ॥ मेरे पास युद्धका साधन केवल वानरोंकी चंचल सेना है, अतः अपनी प्रियाकी प्राप्तिहेतु मेरा यह कार्य किस प्रकार सिद्ध होगा ? ॥ २६ ॥ तस्मिन्देव त्वया कार्यं साहाय्यं मम सुव्रत । साहाय्यं ते विना नाथ मम कार्य्यं हि दुर्लभम् ॥ २७ ॥ त्वदीयो रावणोऽपीह दुर्ज्जयस्सर्वथाखिलैः । त्वद्दत्तवरदृप्तश्च महावीरस्त्रिलोकजित् ॥ २८ ॥ अप्यहं तव दासोऽस्मि त्वदधीनश्च सर्वथा । विचार्येति त्वया कार्यः पक्षपातस्सदाशिव ॥ २९ ॥ हे देव ! हे सुव्रत ! इस कार्यमें आप मेरी सहायता करें । हे नाथ ! आपकी सहायताके बिना मेरा कार्य पूर्ण होना दुर्लभ है । यह रावण भी आपका परम भक्त है और यह सभी लोगोंसे सर्वथा अजेय है, आपके द्वारा प्रदत्त वरसे गर्वित होकर यह महान् वीर तथा तीनों लोकोंका विजेता हो गया है । हे सदाशिव ! मैं भी आपका दास है और सर्वथा आपके अधीन हूँ-ऐसा विचारकर आपको मेरा पक्षपात करना चाहिये ॥ २७-२९ ॥ सूत उवाच - इत्येवं स च संप्रार्थ्य नमस्कृत्य पुनःपुनः । तदा जयजयेत्युच्चैरुद्धोषैश्शंकरेति च ॥ ३० ॥ इति स्तुत्वा शिवं तत्र मंत्रध्यानपरायणः । पुनः पूजां ततः कृत्वा स्वाम्यग्रे स ननर्त ह ॥ ३१ ॥ सूतजी बोले-इस प्रकार उन्होंने शिवकी प्रार्थना करके और बारंबार उन्हें नमस्कारकर-हे शंकर ! आपकी जय हो, आपकी जय हो-इस प्रकार ऊँचे स्वरमें इन उद्घोषोंसे जयकार की । इस प्रकार स्तुतिकर मन्त्रार्थकी भावना करते हुए उन्होंने शिवजीको पुनः पूजा करके उन स्वामीके आगे नृत्य किया । ३०-३१ ॥ प्रेमी विक्लिन्नहृदयो गल्लनादं यदाकरोत् । तदा च शंकरो देवस्सुप्रसन्नो बभूव ह ॥ ३२ ॥ जब वे प्रेमाहदय होकर गाल बजाने लगे, तब भगवान् शंकर अत्यन्त प्रसन्न हो उठे ॥ ३२ ॥ सांगस्सपरिवारश्च ज्योतीरूपो महेश्वरः । यथोक्तरूपममलं कृत्वाविरभवद्द्रुतम् ॥ ३३ ॥ ततस्संतुष्टहृदयो रामभक्त्या महेश्वरः । शिवमस्तु वरं ब्रूहि रामेति स तदाब्रवीत् ॥ ३४ ॥ वे ज्योतिर्मय महेश्वर वामांगभूता पार्वतीजी तथा पार्षदगणोंके साथ शास्त्रोक्त निर्मल रूप धारणकर तत्काल वहाँ प्रकट हो गये । इसके बाद रामकी भक्तिसे प्रसन्नचित्त होकर उन महेश्वरने कहा-हे राम ! तुम्हारा कल्याण हो, वर माँगो ॥ ३३-३४ ॥ तद्रूपं च तदा दृष्ट्वा सर्वे पूतास्ततस्स्वयम् । कृतवान्राघवः पूजां शिवधर्मपरायणः ॥ ३५ ॥ स्तुतिं च विविधां कृत्वा प्रणिपत्य शिवं मुदा । जयं च प्रार्थयामास रावणाजौ तदात्मनः ॥ ३६ ॥ उस समय उनके रूपको देखकर सभी लोग पवित्र हो गये और स्वयं शिवधर्मपरायण श्रीरामने शिवकी पूजा की । उन्होंने अनेक प्रकारकी स्तुतिकर प्रसन्नतापूर्वक शिवको प्रणाम करके रावणके साथ युद्ध में अपनी विजयके लिये प्रार्थना की ॥ ३५-३६ ॥ ततः प्रसन्नहृदयो रामभक्त्या महेश्वरः । जयोस्तु ते महाराज प्रीत्या स पुनरब्रवीत् ॥ ३७ ॥ शिवदत्तं जयं प्राप्य ह्यनुज्ञां समवाप्य च । पुनश्च प्रार्थयामास सांजलिर्नतमस्तकः ॥ ३८ ॥ - इसके बाद श्रीरामकी भक्तिसे सन्तुष्ट होकर उन महेश्वरने पुनः कहा-हे महाराज ! आपकी विजय हो । तब शिवजीके द्वारा विजयका वरदान पाकर और उनकी आज्ञा प्राप्तकर वे मस्तक झुकाकर तथा हाथ जोड़कर पुनः प्रार्थना करने लगे- ॥ ३७-३८ ॥ राम उवाच - त्वया स्थेयमिह स्वामिंल्लोकानां पावनाय च । परेषामुपकारार्थं यदि तुष्टोऽसि शंकर ॥ ३९ ॥ श्रीराम बोले-हे स्वामिन् ! हे शंकर ! यदि आप प्रसन्न हैं, तो संसारको पवित्र करनेके लिये तथा दूसरोंका उपकार करनेके लिये आप यहीं निवास करें ॥ ३९ ॥ सूत उवाच - इत्युक्तस्तु शिवस्तत्र लिंगरूपोऽभवत्तदा । रामेश्वरश्च नाम्ना वै प्रसिद्धो जगतीतले ॥ ४० ॥ सूतजी बोले-उनके ऐसा कहनेपर शिवजी वहींपर लिंगरूपमें स्थित हो गये और रामेश्वर नामसे पृथ्वीपर प्रसिद्ध हुए ॥ ४० ॥ रामस्तु तत्प्रभावाद्वै सिन्धुमुत्तीर्य चांजसा । रावणादीन्निहत्याशु राक्षसान्प्राप तां प्रियाम् ॥ ४१ ॥ उसके बाद उन्हींके प्रभावसे श्रीरामने शीघ्र ही समुद्रको अनायास पारकर रावण आदि राक्षसोंको मारकर अपनी उन प्रिया सीताको प्राप्त किया ॥ ४१ ॥ रामेश्वरस्य महिमाद्भुतोऽभूद्भुवि चातुलः । भुक्तिमुक्तिप्रदश्चैव सर्वदा भक्तकामदः ॥ ४२ ॥ पृथ्वीतलपर रामेश्वरकी महिमा अद्भुत एवं असीम है । यह लिंग भोग-मोक्ष देनेवाला तथा सदा भक्तोंकी कामना पूर्ण करनेवाला है ॥ ४२ ॥ दिव्यगंगाजलेनैव स्नापयिष्यति यश्शिवम् । रामेश्वरं च सद्भक्त्या स जीवन्मुक्त एव हि ॥ ४३ ॥ इह भुक्त्वाखिलान्भोगान्देवानां दुर्लभानपि । अंते प्राप्य परं ज्ञानं कैवल्यं प्राप्नुयाद्ध्रुवम् ॥ ४४ ॥ जो दिव्य गंगाजलके द्वारा उत्तम भक्तिभावसे श्रीरामेश्वर नामक शिवलिंगको स्नान करायेगा, वह जीवन्मुक्त हो जायगा और इस लोकमें देवताओंके लिये भी दुर्लभ सम्पूर्ण भोगोंको भोगकर अन्तमें श्रेष्ठ ज्ञान प्राप्त करके निश्चित रूपसे कैवल्य (मोक्ष) प्राप्त कर लेगा ॥ ४३-४४ ॥ इति वश्च समाख्यातं ज्योतिर्लिगं शिवस्य तु । रामेश्वराभिधं दिव्यं शृण्वतां पापहारकम् ॥ ४५ ॥ [हे ऋषियो !] इस प्रकार मैंने शिवजीके रामेश्वर नामक दिव्य ज्योतिर्लिंगका वर्णन आपलोगोंसे कर दिया, यह माहात्म्य सुननेवालोंके पापको नष्ट कर देनेवाला है ॥ ४५ ॥ इति श्रीशिवमहापुराणे चतुर्थ्यां कोटिरुद्रसंतायां रामेश्वरमाहात्म्यवर्णनं नामैकत्रिंशोऽध्यायः ॥ ३१ ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत चतुर्थ कोटिरुद्रसंहितामें रामेश्वरमाहात्म्यवर्णन नामक इकतीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ३१ ॥ श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु |