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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥

॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥

चतुर्थी कोटीरुद्रसंहितायां

द्वात्रिंशोऽध्यायः

घुश्मेश्वरमाहात्म्ये सुदेहासुधर्मचरितवर्णनम् -
घुश्मेश्वर ज्योतिर्लिंगके माहात्म्यमें सुदेहा ब्राह्मणी एवं सुधर्मा ब्राह्मणका चरित-वर्णन -


सूत उवाच -
अतः परं च घुश्मेशं ज्योतिर्लिंगमुदाहृतम् ।
तस्यैव च सुमाहात्म्यं श्रूयतामृषिसत्तमः ॥ १ ॥
सूतजी बोले-हे मुनिश्रेष्ठो ! इसके बाद घुश्मेश नामक ज्योतिर्लिंग कहा गया है । उसका उत्तम माहात्म्य सुनिये ॥ १ ॥

दक्षिणस्यां दिशि श्रेष्ठो गिरिर्देवेति संज्ञकः ।
महाशोभान्वितो नित्यं राजतेऽद्भुत दर्शनः ॥ २ ॥
दक्षिण दिशामें श्रेष्ठ देवगिरि नामक एक महान् शोभासे युक्त पर्वत विराजमान है, जो देखने में विचित्र मालूम पड़ता है ॥ २ ॥

तस्यैव निकटे कश्चिद्भारद्वाजकुलोद्भवः ।
सुधर्मा नाम विप्रश्च न्यवसद्ब्रह्मवित्तमः ॥ ३ ॥
उसीके समीप भारद्वाजके कुलमें उत्पन्न महान् वेदवेत्ता सुधर्मा नामका कोई ब्राह्मण रहता था ॥ ३ ॥

तस्य प्रिया सुदेहा च शिवधर्मपरायणः ।
पतिसेवापरा नित्यं गृहकर्मविचक्षणा ॥ ४ ॥
उसकी शिवधर्मपरायण, पतिसेवामें सदा तत्पर रहनेवाली तथा गृहकार्योंमें दक्ष सुदेहा नामक भार्या थी ॥ ४ ॥

सुधर्मा च द्विजश्रेष्ठो देवतातिथिपूजकः ।
वेदमार्गपरो नित्यमग्नि सेवापरायणः ॥ ५ ॥
श्रेष्ठ ब्राह्मण सुधर्मा भी देवता एवं अतिथिका पूजन करनेवाला, वेदमार्गके अनुसार आचरण करनेवाला तथा अग्निहोत्रमें नित्य तत्पर रहनेवाला था ॥ ५ ॥

त्रिकालसंध्यया युक्तस्सूर्य्यरूपसमद्युतिः ।
शिष्याणां पाठकश्चैव वेदशास्त्रविचक्षणः ॥ ६ ॥
धनवांश्च परो दाता सौजन्यगुणभाजनः ।
शिवकर्मरतो नित्यं शैवश्शैवजनप्रियः ॥ ७ ॥
वह तीनों समयमें सन्ध्योपासन करनेवाला, सूर्यके समान तेजस्वी, शिष्योंको अध्यापन करनेवाला, वेदशास्त्रका विद्वान, धनवान्, श्रेष्ठ, दानी, सौजन्यगुणसे युक्त, नित्य शिवकर्म करनेवाला, शिवभक्त तथा शिवभक्तोंका प्रिय था ॥ ६-७ ॥

आयुर्बहु व्यतीयाय तस्य धर्मं प्रकुर्वतः ।
पुत्रश्च नाभवत्तस्य ऋतुः स्यादफलः स्त्रियाः ॥ ८ ॥
इस प्रकार धर्माचरण करते हुए उस ब्राह्मणकी बहुत-सी आयु बीत गयी, किंतु पुत्र उत्पन्न नहीं हुआ और उसकी स्त्रीका ऋतुकाल भी निष्फल होता गया ॥ ८ ॥

तेन दुःखं कृतं नैव वस्तुज्ञानपरेण हि ।
आत्मनस्तारकश्चात्मा ह्यात्मनः पावनश्च सः ॥ ९ ॥
इत्येवं मानसं धृत्वा दुःखं न कृतवान्स्तदा ।
सुदेहा च तदा दुःखं चकार पुत्रसम्भवम् ॥ १० ॥
नित्यं च स्वामिनं सा वै प्रार्थयद्यत्नसाधने ।
पुत्रोत्पादनहेतोश्च सर्वविद्याविशारदम् ॥ ११ ॥
तब भी तत्त्वके ज्ञाता उस ब्राह्मणको थोड़ा-सा भी दुःख नहीं हुआ । आत्मा ही अपना उद्धार करनेवाला है और वही अपनेको पवित्र करनेवाला भी है-ऐसा मनमें विचारकर वह ब्राह्मण दुखित नहीं हुआ, किंतु सुदेहाको पुत्र उत्पन्न न होनेका बहुत बड़ा दुःख रहता था । वह सर्वविद्याविशारद अपने पतिसे पुत्र उत्पन्न करनेके लिये प्रयत्‍न करनेकी नित्य प्रार्थना किया करती थी ॥ ९-११ ॥

सोऽपि स्त्रियं तदा भर्त्स्य किं पुत्रश्च करिष्यति ।
का माता कः पिता पुत्रः को बंधुश्च प्रियश्च कः ॥ १२ ॥
वह ब्राह्मण अपनी स्त्रीको डाँटकर कहता था कि पुत्र क्या करेगा ? कौन किसकी माता तथा कौन किसका पिता है, कौन पुत्र है, कौन भाई है एवं कौन मित्र है ? ॥ १२ ॥

सर्वं स्वार्थपरं देवि त्रिलोक्यां नात्र संशयः ।
जानीहि त्वं विशेषेण बुद्ध्या शोकं न वै कुरु ॥ १३ ॥
तस्माद्देवि त्वया दुःखं त्यजनीयं सुनिश्चितम् ।
नित्यं मह्यं त्वया नैव कथनीयं शुभव्रते ॥ १४ ॥
हे देवि ! तीनों लोकोंमें सभी निःसन्देह स्वार्थका ही साधन करनेवाले हैं-ऐसा तुम बुद्धिसे विशेषरूपसे समझो और चिन्ता मत करो । अतः हे देवि ! तुम निश्चित रूपसे दुःखका त्याग करो और हे शुभवते ! तुम मुझसे नित्य इसके लिये मत कहा करो ॥ १३-१४ ॥

एवं तां सन्निवार्य्यैव भगवद्धर्मतत्परः ।
आसीत्परमसंतुष्टो द्वन्द्वदुःखं समत्यजत् ॥ १५ ॥
कदाचिच्च सुदेहा वै गेहे च सहवासिनः ।
जगाम प्रियगोष्ठ्यर्थं विवादस्तत्र संगतः ॥ १६ ॥
इस प्रकार उसे मना करके शिवधर्ममें निरत वह ब्राह्मण परम सन्तुष्ट हो गया और द्वन्द्वदुःखका त्याग कर दिया । किसी समय सुदेहा सखियोंकी गोष्ठीमें सम्मिलित होनेके लिये अपने पड़ोसीके घर गयी, वहींपर परस्पर विवाद होने लगा ॥ १५-१६ ॥

तत्पत्नी स्त्रीस्वभावाच्च भर्त्सिता सा तया तदा ।
उक्ता चेति दुरुक्त्या वै सुदेहा विप्रकामिनी ॥ १७ ॥
उस पड़ोसीकी स्त्रीने नारीस्वभावके कारण उस ब्राह्मण-पत्‍नी सुदेहाको धिक्कारते हुए बहुत कटु वचन कह दिये ॥ १७ ॥

द्विजपत्न्युवाच - अपुत्रिणि कथं गर्वं कुरुषे पुत्रिणी ह्यहम् ।
मद्धनं भोक्ष्यते पुत्रो धनं ते कश्च भोक्ष्यते ॥ १८ ॥
नूनं हरिष्यते राजा त्वद्धनं नात्र संशयः ।
धिग्धिक्त्वां ते धनं धिक्च धिक्ते मानं हि वन्ध्यके ॥ १९ ॥
[पड़ोसीकी] पत्‍नी बोली-हे अपुत्रिणि ! तुम किस बातका गर्व कर रही हो ? मैं पुत्रवती हूँ, मेरा धन तो मेरा पुत्र भोगेगा, किंतु तुम्हारे धनका भोग कौन करेगा ? निश्चय ही तुम्हारा धन राजा ले लेगा, इसमें सन्देह नहीं है । हे वन्ध्या ! तुम्हें धिक्कार है, तुम्हारे धनको धिक्कार है और तुम्हारे अहंकारको धिक्कार है ! ॥ १८-१९ ॥

सूत उवाच -
भर्त्सिता ताभिरिति सा गृहमागत्य दुःखिता ।
स्वामिने कथयामास तदुक्तं सर्वमादरात् ॥ २० ॥
सूतजी बोले-इस प्रकार उन स्त्रियोंके द्वारा अपमानित होकर दुःखित सुदेहाने घर आकर अपने पतिसे आदरपूर्वक उनकी सारी बात कही ॥ २० ॥

ब्राह्मणोऽपि तदा दुःखं न चकार सुबुद्धिमान् ।
कथितं कथ्यतामेव यद्भावि तद्भवेत्प्रिये ॥ २१ ॥
तब भी उस बुद्धिमान्को कुछ दुःख नहीं हुआ । उसने कहा-हे प्रिये ! जो उन्होंने कहा-कहने दो, जो होनहार है, वही होता है ॥ २१ ॥

इत्येवं च तदा तेन ह्याश्वस्तापि पुनः पुनः ।
न तदा सात्यजद्दुःखं ह्याग्रहं कृतवत्यसौ ॥ २२ ॥
इस प्रकार उसने वारंवार सुदेहाको समझाया, किंतु तब भी उसका दुःख दूर न हुआ, वह पुनः [पुत्रके लिये] आग्रह करने लगी ॥ २२ ॥

सुदेहोवाच -
यथा तथा त्वया पुत्रस्समुत्पाद्यः प्रियोऽसि मे ।
त्यक्षामि ह्यन्यथाहं च देहं देहभृतां वर ॥ २३ ॥
सुदेहा बोली-हे देहधारियोंमें श्रेष्ठ ! आप मेरे प्रिय हैं, चाहे जिस किसी भी उपायसे आप पुत्र उत्पन्न करें, अन्यथा मैं अपना शरीर त्याग दूंगी ॥ २३ ॥

सूत उवाच -
एवमुक्तं तया श्रुत्वा सुधर्मा ब्राह्मणोत्तमः ।
शिवं सस्मार मनसा तदाग्रहनिपीडितः ॥ २४ ॥
सूतजी बोले-उसके द्वारा कहे गये इस वचनको सुनकर उसके आग्रहसे विवश हुए ब्राह्मणश्रेष्ठ सुधर्माने चित्तमें भगवान् शिवका स्मरण किया ॥ २४ ॥ -

अग्नेरग्रेऽक्षिपत्पुष्पद्वयं विप्रो ह्यतंद्रितः ।
मनसा दक्षिणं पुष्पं तन्मेने पुत्रकामदम् ॥ २५ ॥
इसके बाद उस विप्रने सावधानीपूर्वक दो फूल लेकर अग्निके सामने रख दिये, उसने दाहिनेवाले पुष्पको मनमें पुत्रदायक समझा ॥ २५ ॥

एवं कृत्वा पणं पत्नीमुवाच ब्राह्मणस्स च ।
अनयोर्ग्राह्यमेकं ते पुष्पं पुत्र फलाप्तये ॥ २६ ॥
तया च मनसा धृत्वा पुत्रश्चैव भवेन्मम ।
तदा च स्वामिना यच्च धृतं पुष्पं समेतु माम् ॥ २७ ॥
इस प्रकारका संकल्प करके उस ब्राह्मणने अपनी पत्‍नीसे कहा-पुत्रफलकी प्राप्तिहेतु इन दोनोंमेंसे कोई एक फूल उठाओ । उसने अपने मनमें यह सोचा कि मुझे पुत्र हो और मेरे स्वामीने पुत्रके लिये जिस पुष्पको सोचा है, वही मेरे हाथमें आये ॥ २६-२७ ॥

इत्युक्त्वा च तया तत्र नमस्कृत्य शिवं तदा ।
नत्वा चाग्निं पुनः प्रार्थ्य गृहीतं पुष्पमेककम् ॥ २८ ॥
ऐसा कहकर उसने शिव तथा अग्निको प्रणाम करके तथा उनकी प्रार्थनाकर एक पुष्प उठा लिया ॥ २८ ॥

स्वामिना चिंतितं यच्च तद्गृहीतं तया न हि ।
सुदेहया विमोहेन शिवेच्छासंभवेन वै ॥ २९ ॥
शिवेच्छावश मोहसे ग्रस्त होनेके कारण सुदेहाने उस पुष्पको नहीं उठाया, जिसे उसके पतिने सोचा था ॥ २९ ॥

तद्दृष्ट्‍वा पुरुषश्चैव निश्वासं पर्यमोचयत् ।
स्मृत्वा शिवपदांभोजमुवाच निजकामिनीम् ॥ ३० ॥
यह देखकर ब्राह्मणने लम्बी साँस ली और शिवजीके चरण-कमलका स्मरण करके अपनी स्त्रीसे कहा- ॥ ३० ॥

सुधर्मोवाच -
निर्मितं चेश्वरेणैव कथं चैवान्यथा भवेत् ।
आशां त्यज प्रिये त्वं च परिचर्य्यां कुरु प्रभोः ॥ ३१ ॥
सुधर्मा बोला-हे प्रिये ! ईश्वरने जो रच दिया, है, वह अन्यथा कैसे हो सकता है, अब तुम पुत्रकी आशा छोड़ो और शिवकी परिचर्या करो ॥ ३१ ॥

इत्युक्त्वा तु स्वयं विप्र आशां परिविहाय च ।
धर्मकार्यरतस्सोऽभूच्छंकरध्यानतत्परः ॥ ३२ ॥
सा सुदेहाग्रहं नैव मुमोचात्मजकाम्यया ।
प्रत्युवाच पतिं प्रेम्णा सांजलिर्नतमस्तका ॥ ३३ ॥
ऐसा कहकर उस ब्राह्मणने स्वयं भी पुत्रकी आशा त्याग दी और शिवध्यानपरायण होकर धर्मकार्यमें प्रवृत्त हो गया, परंतु उस सुदेहाने आग्रह नहीं छोड़ा और पुत्रकामनासे उसने सिर झुकाकर तथा हाथ जोड़कर प्रेमपूर्वक पतिसे [फिर] कहा- ॥ ३२-३३ ॥

सुदेहोवाच -
मयि पुत्रो न चास्त्वन्या पत्नीं कुरु मदाज्ञया ।
तस्यां नूनं सुतश्चैव भविष्यति न संशयः ॥ ३४ ॥
सुदेहा बोली-हे स्वामिन् ! मुझसे पुत्र उत्पन्न नहीं होगा, तो आप मेरे आग्रहसे दूसरा विवाह कर लीजिये, उस स्त्रीसे आपको निश्चय ही पुत्र होगा, इसमें संशय नहीं है ॥ ३४ ॥

सूत उवाच -
तदैव प्रथितो वै स ब्रह्मणश्शैवसत्तमः ।
उवाच स्वप्रियां तां च सुदेहां धर्म तत्परः ॥ ३५ ॥
सूतजी बोले-उसके द्वारा इस प्रकार प्रार्थना किये जानेपर शिवभक्तोंमें श्रेष्ठ तथा धर्मपरायण उस ब्राह्मणने अपनी पत्‍नी उस सुदेहासे कहा- ॥ ३५ ॥

सुधर्मोवाच -
त्वदीयं च मदीयं च सर्वं दुःखं गतं ध्रुवम् ।
तस्मात्त्वं धर्मविघ्नं च प्रियो मा कुरु सांप्रतम् ॥ ३६ ॥
सुधर्मा बोला-हे प्रिये ! तुम्हारा तथा मेरा समस्त दुःख निश्चित रूपसे दूर हो गया है, इसलिये तुम अब मेरे धर्ममें विज मत करो ॥ ३६ ॥

सूत उवाच -
इत्येवं वारिता सा च स्वामातुः पुत्रिकां तदा ।
गृहमानीय भर्तारं वृणु त्वेनामिदं जगौ ॥ ३७ ॥
सूतजी बोले-[हे ऋषियो !] तब इस प्रकार ब्राह्मणके द्वारा मना किये जानेपर भी सुदेहाने अपनी माताकी पुत्री अर्थात् अपनी बहनको घर लाकर पतिसे कहा-आप इससे विवाह कर लें ॥ ३७ ॥

सुधर्मोवाच -
इदानीं वदसि त्वं च मत्प्रियेयं ततः पुनः ।
पुत्रसूश्च यदा स्याद्वै तदा स्पर्द्धां करिष्यसि ॥ ३८ ॥
सुधर्मा बोला-इस समय तो तुम कह रही हो कि यह मेरी पत्‍नी है, किंतु जब यह पुत्र उत्पन्न कर लेगी, तब तुम इससे ईर्ष्या करने लगोगी ॥ ३८ ॥

सूत उवाच -
इत्युक्त्वा तेन पतिना सा सुदेहा च तत्प्रिया ।
पुनः प्राह करौ बद्ध्वा सुधर्माणं पतिं द्विजाः ॥ ३९ ॥
सूतजी बोले-हे द्विजो ! अपने पतिद्वारा इस प्रकार कहे जानेपर उसकी पत्‍नी सुदेहाने हाथ जोड़कर पुनः अपने पति सुधर्मासे कहा- ॥ ३९ ॥

नाहं स्पर्द्धां भगिन्या वै करिष्ये द्विजसत्तम ।
उपयच्छस्व पुत्रार्थमिमामाज्ञापयामि च ॥ ४० ॥
हे द्विजश्रेष्ठ ! मैं अपनी बहनसे कभी ईर्ष्या नहीं करूँगी, आप पुत्रोत्पत्तिके निमित्त इसके साथ विवाह कीजिये, मैं अनुमति देती हूँ ॥ ४० ॥

इत्येवं प्रार्थितस्सोऽपि सुधर्मा प्रियया तया ।
घुश्मां तां समुपायंस्त विवाहविधिना द्विजः ॥ ४१ ॥
इस प्रकार अपनी प्रिया सुदेहाके द्वारा प्रार्थना किये जानेपर उस ब्राह्मण सुधर्माने भी विवाहविधिके अनुसार घुश्माका पाणिग्रहण कर लिया ॥ ४१ ॥

ततस्तां परिणीयाथ प्रार्थयामास तां द्विजः ।
त्वदीयेयं कनिष्ठा हि सदा पोष्यानघे प्रिये ॥ ४२ ॥
इसके बाद उसके साथ विवाह करके उस ब्राह्मणने अपनी पहली पत्‍नीसे कहा-हे प्रिये ! हे अनघे ! यह तुम्हारी छोटी बहन है, अतः तुम्हें इसका सदा भरणपोषण करना चाहिये ॥ ४२ ॥

उक्तैव स च धर्मात्मा सुधर्मा शैवसत्तमः ।
यथायोग्यं चकाराशु धर्मसंग्रहमात्मनः ॥ ४३ ॥
इस प्रकार कहकर वह शिवभक्त धर्मात्मा सुधर्मा यथायोग्य अपने धर्मका पालन करने लगा ॥ ४३ ॥

सा चापि मातृपुत्रीं तां दासीवत्पर्यवर्त्तत ।
परित्यज्य विरोधं हि पुपोषाहर्निशं प्रिया ॥ ४४ ॥
वह भी अपनी बहनके साथ सखीकी भाँति व्यवहार करने लगी और विरोधभावका त्याग करके और रात-दिन उसका पालन-पोषण करने लगी ॥ ४४ ॥

कनिष्ठा चैव या पत्नी स्वस्रनुज्ञामवाप्य च ।
पार्थिवान्सा चकाराशु श्रियमेकोत्तरं शतम् ॥ ४५ ॥
विधानपूर्वकं घुष्मा सोपचारसमन्वितम् ।
कृत्वा तान्प्राक्षिपत्तत्र तडागे निकटस्थिते ॥ ४६ ॥
उसकी जो छोटी पत्‍नी थी, वह अपनी बहनकी आज्ञा प्राप्तकर नित्य एक सौ एक पार्थिव शिवलिंगोंका निर्माण करती थी, फिर वह घुश्मा विधिपूर्वक षोडशोपचारसे पूजनकर पासमें स्थित तालाबमें उन्हें विसर्जित कर देती थी ॥ ४५-४६ ॥

एवं नित्यं सा चकार शिवपूजां स्वकामदाम् ।
विसृज्य पुनरावाह्य तत्सपर्य्याविधानतः ॥ ४७ ॥
इस प्रकार वह नित्य शिवलिंगका विसर्जनकर पुनः दूसरे दिन पार्थिव शिवलिंगका निर्माणकर आवाहनसे लेकर विसर्जनतक कामना पूर्ण करनेवाली शिवपूजा विधिपूर्वक करती थी ॥ ४७ ॥

कुर्वन्त्या नित्यमेवं हि तस्याश्शंकरपूजनम् ।
लक्षसंख्याभवत्पूर्णा सर्वकामफलप्रदा ॥ ४८ ॥
इस प्रकार नित्य शिवपूजन करते हुए उसकी सभी कामनाओंका फल प्रदान करनेवाली एक लाख पार्थिवसंख्या पूरी हुई ॥ ४८ ॥

कृपया शंकरस्यैव तस्याः पुत्रो व्यजायत ।
सुन्दरस्सुभगश्चैव कल्याणगुणभाजम् ॥ ४९ ॥
उसके अनन्तर शिवजीकी कृपासे उसे सुन्दर, भाग्यवान् और सभी कल्याणकारी गुणोंका पात्र पुत्र उत्पन्न हुआ ॥ ४९ ॥

तं दृष्ट्‍वा परमप्रीतः स विप्रो धर्मवित्तमः ।
अनासक्तस्सुखं भेजे ज्ञानधर्मपरायणः ॥ ५० ॥
धर्मज्ञोंमें श्रेष्ठ वह विप्र सुधर्मा उस पुत्रको देखकर बहुत प्रसन्न हुआ और ज्ञानधर्मपरायण तथा आसक्तिरहित होकर सुखका उपभोग करने लगा ॥ ५० ॥

सुदेहा तावदस्यास्तु स्पर्द्धामुग्रां चकार सा ।
प्रथमं शीतलं तस्या हृदयं ह्यसिवत्पुनः ॥ ५१ ॥
उसके बादसे वह सुदेहा उससे अत्यधिक ईर्ष्या करने लगी, पहले उसका जो हृदय शीतल था, वही अब तलवारके समान हो गया ॥ ५१ ॥

ततः परं च यज्जातं कुत्सितं कर्म दुःखदम् ।
सावधानेन मनसा श्रूयतां तन्मुनीश्वरा ॥ ५२ ॥
हे मुनीश्वरो ! उसके बाद जो दुःखदायी एवं निन्दित कर्म हुआ, उसे आपलोग सावधान मनसे सुनिये ॥ ५२ ॥

इति श्रीशिवमहापुराणे चतुर्थ्यां कोटिरुद्रसंहितायां
घुश्मेश्वरमाहात्म्ये सुदेहासुधर्मचरितवर्णनं नाम द्वात्रिंशोऽध्यायः ॥ ३२ ॥
॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत चतुर्थ कोटिरूजसंहिताके घुश्मेश्वरमाहात्म्यमें सुदेहासुधर्माचरितवर्णन नामक बत्तीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ३२ ॥



श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु


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