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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥

॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥

चतुर्थी कोटीरुद्रसंहितायां

चत्वारिंशोऽध्यायः

मुक्तिनिरूपणम् -
शिवरात्रिव्रतमाहात्म्यके प्रसंगमें व्याध एवं मृगपरिवारकी कथा तथा व्याधेश्वरलिंगका माहात्म्य -


ऋषय ऊचुः -
सूत ते वचनं श्रुत्वा परानन्दं वयं गताः ।
विस्तरात्कथय प्रीत्या तदेव व्रतमुत्तमम् ॥ १ ॥
ऋषिगण बोले-हे सूत ! आपकी वाणीको सुनकर हमलोग अत्यन्त आनन्दित हुए । आप उसी उत्तम व्रतको प्रीतिसे विस्तारपूर्वक कहिये ॥ १ ॥

कृतं पुरा तु केनेह सूतैतद्व्रतमुत्तमम् ।
कृत्वाप्यज्ञानतश्चैव प्राप्तं किं फलमुत्तमम् ॥ २ ॥
हे सूत ! यहाँपर इस उत्तम व्रतको पहले किसने किया तथा अज्ञानतापूर्वक भी इस व्रतको करनेसे [उसको] कौन-सा उत्तम फल प्राप्त हुआ ? ॥ २ ॥

सूत उवाच -
श्रूयतामृषयस्सर्वे कथयामि पुरातनम् ।
इतिहासं निषादस्य सर्वपापप्रणाशनम् ॥ ३ ॥
सूतजी बोले-हे ऋषिगणो ! मैं [इस विषयमें] एक निषादका सर्वपापनाशक पुराना इतिहास कहता हूँ, आप सभी लोग सुनिये ॥ ३ ॥

पुरा कश्चिद्वने भिल्लो नाम्ना ह्यासीद्गुरुद्रुहः ।
कुटुम्बी बलवान्क्रूरः क्रूरकर्मपरायणः ॥ ४ ॥
निरन्तरं वने गत्वा मृगान्हन्ति स्म नित्यशः ।
चौर्य्यं च विविधं तत्र करोति स्म वने वसन् ॥ ५ ॥
पूर्व समयमें किसी बनमें गुरुद्रुह नामक कोई बलवान, निर्दयी तथा क्रूरकर्ममें तत्पर भील कुटुम्बके साथ रहता था । वह सदैव वनमें जाकर प्रतिदिन पशुओंका वध करता था और वहीं वनमें निवास करते हुए अनेक प्रकारकी चोरी किया करता था ॥ ४-५ ॥

बाल्यादारभ्य तेनेह कृतं किंचिच्छुभं नहि ।
महान्कालो व्यतीयाय वने तस्य दुरात्मनः ॥ ६ ॥
कदाचिच्छिवरात्रिश्च प्राप्तासीत्तत्र शोभना ।
न दुरात्मा स्म जानाति महद्वननिवासकृत् ॥ ७ ॥
उसने बाल्यावस्थासे लेकर कभी कोई शुभ कर्म नहीं किया । इस प्रकार वनमें उस दुष्टात्माका बहुत समय बीत गया । किसी समय शिवरात्रिका उत्तम दिन आया, परंतु विशाल वनमें निवास करनेवाले उस दुष्टात्माको इसका कुछ भी ज्ञान न था । ६-७ ॥

एतस्मिन्समये भिल्लो मात्रा पित्रा स्त्रिया तथा ।
प्रार्थितश्च क्षुधाऽविष्टैर्भक्ष्यं देहि वनेचर ॥ ८ ॥
इसी समय भूखसे पीड़ित उसके माता-पिता तथा स्त्रीने उससे कहा-हे वनेचर ! हमें भोजन दो ॥ ८ ॥

इति संप्रार्थितः सोऽपि धनुरादाय सत्वरम् ।
जगाम मृगहिंसार्थं बभ्राम सकलं वनम् ॥ ९ ॥
उनके ऐसा कहनेपर वह भील भी धनुष लेकर शीघ्र ही मृगोंको मारनेके लिये सारे वनमें घूमने लगा ॥ ९ ॥

दैवयोगात्तदा तेन न प्राप्तं किंचिदेव हि ।
अस्तप्राप्तस्तदा सूर्यस्स वै दुःखमुपागतः ॥ १० ॥
दैवयोगसे उस समय उसे कुछ भी न मिला, तबतक सूर्यास्त हो गया, इससे वह बहुत दुखी हुआ ॥ १० ॥

किं कर्तव्यं क्व गंतव्यं न प्राप्तं मेऽद्य किंचन ।
बालाश्च ये गृहे तेषां किं पित्रोश्च भविष्यति ॥ ११ ॥
मदीयं वै कलत्रं च तस्याः किंचिद्भविष्यति ।
किंचिद्गृहीत्वा हि मया गंतव्यं नान्यथा भवेत् ॥ १२ ॥
इत्थं विचार्य स व्याधो जलाशय समीपगः ।
जलावतरणं यत्र तत्र गत्वा स्वयं स्थितः ॥ १३ ॥
अब क्या करूँ, कहाँ जाऊँ ? आज मुझे कुछ भी नहीं मिला । घरमें जो बालक हैं, उनकी तथा मातापिताकी क्या दशा होगी और जो मेरी स्त्री है, उसका क्या हाल होगा, अत: मुझे कुछ लेकर ही जाना चाहिये, बिना भोजन लिये घर जाना व्यर्थ होगा । ऐसा विचारकर वह व्याध किसी जलाशयके समीप गया और जहाँ जलमें उतरनेके लिये घाट था, वहाँ जाकर बैठ गया ॥ ११-१३ ॥

अवश्यमत्र कश्चिद्वै जीवश्चैवागमिष्यति ।
तं हत्वा स्वगृहं प्रीत्या यास्यामि कृतकार्यकः ॥ १४ ॥
इस स्थानपर जल पीनेके लिये कोई जन्तु अवश्य ही आयेगा, तब उसे मारकर मैं अपना कार्य सिद्ध करके आनन्दपूर्वक अपने घर चला जाऊँगा ॥ १४ ॥

इति मत्वा स वै वृक्षमेकं बिल्वेतिसंज्ञकम् ।
समारुह्य स्थितस्तत्र जलमादाय भिल्लकः ॥ १५ ॥
इस प्रकारका विचारकर वह भील जल लेकर पास ही स्थित किसी बिल्ववृक्षपर चढ़कर बैठ गया ॥ १५ ॥

कदा यास्यति कश्चिद्वै कदा हन्यामहं पुनः ।
इति बुद्धिं समास्थाय स्थितोऽसौ क्षुत्तृषान्वितः ॥ १६ ॥
कब कोई जीव आये और कब मैं उसे मा-ऐसा मनमें विचार करता हुआ वह भूखा-प्यासा व्याध वहाँ बैठा रहा ॥ १६ ॥

तद्रात्रौ प्रथमे यामे मृगी त्वेका समागता ।
तृषार्ता चकिता सा च प्रोत्फालं कुर्वती तदा ॥ १७ ॥
उस रातके प्रथम प्रहरमें प्याससे व्याकुल एक हरिनी चकित हो कूदती-फाँदती वहाँ आयी ॥ १७ ॥

तां दृष्ट्‍वा च तदा तेन तद्वधार्थमथो शरः ।
संहृष्टेन द्रुतं विष्णो धनुषि स्वे हि संदधे ॥ १८ ॥
तब उसे देखकर उसने प्रसन्न हो उसे मारनेके लिये शीघ्र ही अपने धनुषपर बाण चढ़ाया ॥ १८ ॥

इत्येवं कुर्वतस्तस्य जलं बिल्वदलानि च ।
पतितानि ह्यधस्तत्र शिवलिंगमभूत्ततः ॥ १९ ॥
यामस्य प्रथमस्यैव पूजा जाता शिवस्य च ।
तन्महिम्ना हि तस्यैव पातकं गलितन्तदा ॥ २० ॥
उसके ऐसा करते ही जल तथा कुछ बिल्वपत्र नीचे गिर पड़े, जहाँपर एक शिवलिंग था । इस प्रकार प्रथम प्रहरकी शिव-पूजा व्याधके द्वारा सम्पन्न हो गयी, जिसकी महिमासे उसके पाप नष्ट हो गये ॥ १९-२० ॥

तत्रत्यं चैव तच्छब्दं श्रुत्वा सा हरिणी भिया ।
व्याधं दृष्ट्‍वा व्याकुला हि वचनं चेदमब्रवीत् ॥ २१ ॥
वहाँके उस शब्दको सुनकर भयसे व्याकुल हरिणी व्याधको देखकर यह वचन कहने लगी- ॥ २१ ॥

मृग्युवाच -
किं कर्तुमिच्छसि व्याध सत्यं वद ममाग्रतः ।
तच्छुत्वा हरिणीवाक्यं व्याधो वचनमब्रवीत् ॥ २२ ॥
मृगी बोली-हे व्याध ! तुम क्या करना चाहते हो, मेरे सामने सच-सच बताओ ? तब हरिणीकी वह बात सुनकर व्याधने यह वचन कहा- ॥ २२ ॥

व्याध उवाच -
कुटुम्बं क्षुधितं मेऽद्य हत्वा त्वां तर्पयाम्यहम् ।
दारुणं तद्वचश्श्रुत्वा दृष्ट्‍वा तं दुर्द्धरं खलम् ॥ २३ ॥
किं करोमि क्व गच्छामि ह्युपायं रचयाम्यहम् ।
इत्थं विचार्यं सा तत्र वचनं चेदमब्रवीत् ॥ २४ ॥
व्याध बोला-आज मेरा सारा परिवार भूखा है, मैं तुम्हें मारकर उन्हें तप्त करूँगा । तब उसके इस दारुण वचनको सुनकर एवं उस महादुष्टको देखकर 'मैं क्या करूँ ? कहाँ जाऊँ, अच्छा ! कोई उपाय करती हूँ'-ऐसा | विचारकर वहाँपर उसने यह वचन कहा- ॥ २३-२४ ॥

मृग्युवाच -
मन्मांसेन सुखं ते स्याद्देहस्यानर्थकारिणः ।
अधिकं किं महत्पुण्यं धन्याहं नात्र संशयः ॥ २५ ॥
मृगी बोली-[हे व्याध !] यदि मेरे अनर्थकारी देहके मांससे तुम्हें सुख प्राप्त हो जाय, तो इससे अधिक पुण्य और क्या हो सकता है, मैं निःसन्देह धन्य हो जाऊँगी, इसमें सन्देह नहीं है ॥ २५ ॥

उपकारकरस्यैव यत्पुण्यं जायते त्विह ।
तत्पुण्यं शक्यते नैव वक्तुं वर्षशतैरपि ॥ २६ ॥
परं तु शिशवो मेऽद्य वर्तंते स्वाश्रमेऽखिलाः ।
भगिन्यै तान्समर्प्यैव प्रायास्ये स्वामिनेऽथ वा ॥ २७ ॥
लोकमें उपकारी जीवको जो पुण्य होता है, उस पुण्यका वर्णन सैकड़ों वर्षोंमें भी नहीं किया जा सकता है । किंतु [तुमसे एक विनती करती हूँ कि मेरे सभी बच्चे इस समय मेरे आश्रममें हैं, उन्हें अपनी बहन अथवा स्वामीको सौंपकर मैं पुनः आ जाऊँगी ॥ २६-२७ ॥

न मे मिथ्यावचस्त्वं हि विजानीहि वनेचर ।
आयास्येह पुनश्चेह समीपं ते न संशयः ॥ २८ ॥
स्थिता सत्येन धरणी सत्येनैव च वारिधिः ।
सत्येन जलधाराश्च सत्ये सर्वम्प्रतिष्ठितम् ॥ २९ ॥
हे वनेचर ! तुम मेरी बातको झूठ मत जानो, मैं अवश्य यहाँ तुम्हारे पास पुनः आ जाऊँगी, इसमें सन्देह नहीं । सत्यसे ही वह पृथ्वी टिकी हुई है, सत्यसे ही समुद्र तथा सत्यसे जलकी धारा बहती है, सब कुछ सत्यमें ही प्रतिष्ठित है ॥ २८-२९ ॥

सूत उवाच -
इत्युक्तोऽपि तया व्याधो न मेने तद्वचो यदा ।
तदा सुविस्मिता भीता वचनं साब्रवीत्पुनः ॥ ३० ॥
सूतजी बोले-उसके इस प्रकार कहनेपर भी जब उस व्याधने उसकी बात नहीं मानी, उसका कहना नहीं माना तब विस्मित एवं भयभीत उस हरिणीने पुनः यह वचन कहा- ॥ ३० ॥

मृग्युवाच -
शृणु व्याध प्रवक्ष्यामि शपथं हि करोम्यहम् ।
आगच्छेयं यथा ते न समीपं स्वगृहाद्गता ॥ ३१ ॥
ब्राह्मणो वेदविक्रेता सन्ध्याहीनस्त्रिकालकम् ।
स्त्रियस्स्वस्वामिनो ह्याज्ञां समुल्लंघ्य क्रियान्विताः ॥ ३२ ॥
कृतघ्ने चैव यत्पापं तत्पापं विमुखे हरे ।
द्रोहिणश्चैव यत्पापं तत्पापं धर्मलंघने ॥ ३३ ॥
विश्वासघातके तच्च तथा वै छलकर्तरि ।
तेन पापेन लिम्पामि यद्यहं नागमे पुनः ॥ ३४ ॥
मुगी बोली-हे व्याध ! मैं जो कहती हैं, उसे सुनो, मैं शपथ लेकर कहती हूँ कि यदि मैं जा करके अपने घरसे तुम्हारे पास न लौटूं, तो वेदविक्रयी एवं त्रिकाल सन्ध्योपासनहीन ब्राह्मणको तथा अपने स्वामीकी आज्ञाका उल्लंघन करके कर्ममें तत्पर रहनेवाली स्त्रियोंको जो पाप लगता है, कृतघ्नको जो पाप लगता है, शिवविमुखको जो पाप लगता है, परद्रोहीको जो पाप लगता है, धर्मका उल्लंघन करनेवालेको जो पाप लगता है । विश्वासघाती एवं छल करनेवालेको जो पाप लगता है, वह सब पाप मुझे लगे, यदि मैं तुम्हारे पास पुनः न लौहूँ ॥ ३१-३४ ॥

इत्याद्यनेकशपथान्मृगी कृत्वा स्थिता यदा ।
तदा व्याधस्य विश्वस्य गच्छेति गृहमब्रवीत् ॥ ३५ ॥
मृगी हृष्टाजलं पीत्वा गता स्वाश्रममण्डलम् ।
तावच्च प्रथमो यामस्तस्य निद्रां विना गतः ॥ ३६ ॥
इस प्रकार अनेक शपथ करके जब वह हरिणी वहीं खड़ी रही, तब उस भीलने विश्वास करके 'घर जाओ'-ऐसा कह दिया । तब हरिणी प्रसन्न होकर जल पी करके अपने स्थानको चली गयी । तबतक उसका प्रथम प्रहर बिना निद्राके बीत गया ॥ ३५-३६ ॥

तदीया भगिनी या वै मृगी च परिभाविता ।
तस्या मार्गं विचिन्वन्ती ह्याजगाम जलार्थिनी ॥ ३७ ॥
[इसी बीच उसकी बहन जो दूसरी हरिणी थी, वह उत्कण्ठापूर्वक उसे खोजती हुई जल पीनेके लिये वहाँ आ गयी ॥ ३७ ॥

तां दृष्ट्‍वा च स्वयं भिल्लोऽकार्षीद्बाणस्य कर्षणम् ।
पूर्ववज्जलपत्राणि पतितानि शिवोपरि ॥ ३८ ॥
यामस्य च द्वितीयस्य तेन शंभोर्महात्मनः ।
पूजा जाता प्रसंगेन व्याधस्य सुखदायिनी ॥ ३९ ॥
उसे देखकर भीलने बाणको [पुनः] खींचा, जिससे पहलेके समान ही जल तथा बिल्वपत्र शिवजीके ऊपर गिर पड़े । उसके कारण संयोगवश महात्मा सदाशिवकी दूसरे प्रहरकी भी पूजा हो गयी । जो व्याधके लिये सुखप्रद थी ॥ ३८-३९ ॥

मृगी सा प्राह तं दृष्ट्‍वा किं करोषि वनेचर ।
पूर्ववत्कथितं तेन तच्छ्रुत्वाह मृगी पुनः ॥ ४० ॥
उस हरिणीने उसकी ओर देखकर कहा-'हे वनेचर ! यह क्या कर रहे हो ?'उसने पहलेकी भाँति [अपना प्रयोजन] कहा । यह सुनकर उस मृगीने पुनः कहा- ॥ ४० ॥

मृग्युवाच -
धन्याहं श्रूयतां व्याध सफलं देहधारणम् ।
अनित्येन शरीरेण ह्युपकारो भविष्यति ॥ ४१ ॥
परन्तु मम बालाश्च गृहे तिष्ठन्ति चार्भकाः ।
भर्त्रे तांश्च समर्प्यैव ह्यागमिष्याम्यहं पुनः ॥ ४२ ॥
मृगी बोली-हे व्याध ! सुनो, मैं धन्य हूँ । आज मेरा देह धारण करना सफल हुआ; क्योंकि इस अनित्य शरीरसे उपकार होगा, परंतु मेरे बच्चे घरपर हैं, उन्हें मैं अपने स्वामीको सौंपकर पुन: यहाँ आ जाऊँगी ॥ ४१-४२ ॥

व्याध उवाच -
त्वया चोक्तं न मन्येहं हन्मि त्वां नात्र संशयः ।
तच्छुत्वा हरिणी प्राह शपथं कुर्वती हरे ॥ ४३ ॥
व्याध बोला-मैं तुम्हारी बात नहीं मानता, तुम्हें अवश्य मारूँगा, इसमें संशय नहीं है । यह सुनकर हरिणी विष्णुकी शपथ करती हुई कहने लगी ॥ ४३ ॥

मृग्युवाच -
शृणु व्याध प्रवक्ष्यामि नागच्छेयं पुनर्यदि ।
वाचा विचलितो यस्तु सुकृतं तेन हारितम् ॥ ४४ ॥
परिणीता स्त्रियं हित्वा गच्छत्यन्यां च यः पुमान् ।
वेदधर्मं समुल्लंघ्य कल्पितेन च यो व्रजेत् ॥ ४५ ॥
विष्णुभक्तिसमायुक्तः शिवनिन्दां करोति यः ।
पित्रोः क्षयाहमासाद्य शून्यं चैवाक्रमेदिह ॥ ४६ ॥
कृत्वा च पारतापं हि करोति वचनं पुनः ।
तेन पापेन लिंपामि नागच्छेयं पुनर्यदि ॥ ४७ ॥
मृगी बोली-हे व्याध ! मैं जो कहती हूँ, उसे सुनो, यदि मैं पुन: न आऊँ तो अपनी बातसे विचलित होनेवालेका जिस प्रकार सुकृत नष्ट हो जाता है अथवा जो मनुष्य अपनी विवाहिता स्त्रीको छोड़कर दूसरी स्त्रीसे समागम करता है, जो वेदधर्मका उल्लंघनकर मनमाने मार्गसे चलता है, विष्णुभक्त होकर जो शिवकी निन्दा करता है, माता-पिताके क्षयाहके आनेपर जो बिना श्राद्धादि किये] उसे सूना ही बिता देता है, अपने दिये हुए वचनको जो सन्तापका अनुभव करते हुए पूरा करता है-इन्हें जो पाप लगता है, वह पाप मुझे लगे, यदि मैं न आऊँ ॥ ४४-४७ ॥

सूत उवाच -
इत्युक्तश्च तया व्याधो गच्छेत्याह मृगीं च सः ।
सा मृगी च जलं पीत्वा हृष्टाऽगच्छत्स्वमाश्रमम् ॥ ४८ ॥
सूतजी बोले-उसके ऐसा कहनेपर व्याधने मृगीसे कहा-जाओ । तब वह मृगी भी प्रसन्न हो जल पीकर अपने स्थानपर चली गयी ॥ ४८ ॥

तावद्द्वितीयो यामो वै तस्य निद्रां विना गतः ।
एतस्मिन्समये तत्र प्राप्ते यामे तृतीयके ॥ ४९ ॥
ज्ञात्वा विलंबं चकितस्तदन्वेषणतत्परः । ।
तद्यामे मृगमद्राक्षीज्जलमार्गगतं ततः ॥ ५० ॥
तबतक उस व्याधका दूसरा प्रहर भी बिना निद्राके बीत गया । इसी समय तीसरा प्रहर आनेपर मृगीके आनेमें विलम्ब जानकर वह चकित हो उसे ढूँढ़ने लगा । तब उस प्रहरमें उसे एक मृग जलमार्गकी ओर आता हुआ दिखायी पड़ा ॥ ४९-५० ॥

पुष्टं मृगं च तं दृष्ट्‍वा हृष्टो वनचरस्स वै ।
शरं धनुषि संधाय हन्तुं तं हि प्रचक्रमे ॥ ५१ ॥
तदैवं कुर्वतस्तस्य बिल्वपत्राणि कानिचित् ।
तत्प्रारब्धवशाद्विष्णो पतितानि शिवोपरि ॥ ५२ ॥
उस पुष्ट मृगको देखकर वह व्याध बहुत ही प्रसन्न हुआ और धनुषपर बाण चढ़ाकर उसे मारनेके लिये उद्यत हो गया । हे द्विजो ! उस समय भी उस व्याधके ऐसा करते ही उसके प्रारब्धवश कुछ बिल्वपत्र शिवजीके ऊपर गिर पड़े ॥ ५१-५२ ॥

तेन तृतीययामस्य तद्रात्रौ तस्य भाग्यतः ।
पूजा जाता शिवस्यैव कृपालुत्वं प्रदर्शितम् ॥ ५३ ॥
इस प्रकार उस रात्रिमें उस भीलके भाग्यसे तीसरे प्रहरकी भी शिवपूजा हो गयी, इस तरहसे शिवजीने उसके ऊपर अपनी कृपालुता प्रकट की ॥ ५३ ॥

श्रुत्वा तत्र च तं शब्दं किं करोषीति प्राह सः ।
कुटुम्बार्थमहं हन्मि त्वां व्याधश्चेति सोब्रवीत् ॥ ५४ ॥
वहाँ उस शब्दको सुनकर उस मृगने कहा-[हे वनेचर !] यह क्या कर रहे हो ? तब वह व्याध बोला कि मैं अपने कुटुम्बके लिये तुम्हारा वध करूँगा ॥ ५४ ॥

तच्छ्रुत्वा व्याधवचनं हरिणो हृष्टमानसः ।
द्रुतमेव च तं व्याधं वचनं चेदमब्रवीत् ॥ ५५ ॥
व्याधका यह वचन सुनकर मृग प्रसन्नचित्त हो गया और बड़ी शीघ्रतासे उस व्याधसे यह वचन कहने लगा- ॥ ५५ ॥

हरिण उवाच -
धन्योहं पुष्टिमानद्य भवत्तृप्तिर्भविष्यति ।
यस्यांगं नोपकाराय तस्य सर्वं वृथा गतम् ॥ ५६ ॥
यो वै सामर्थ्ययुक्तश्च नोपकारं करोति वै ।
तत्सामर्थ्यं भवेद्व्यर्थं परत्र नरकं व्रजेत् ॥ ५७ ॥
परन्तु बालकान् स्वांश्च समर्प्य जननीं शिशून् ।
आश्वास्याप्यथ तान् सर्वानागमिष्याम्यहं पुनः ॥ ५८ ॥
हरिण बोला-मैं धन्य हूँ, जो इतना पुष्ट हूँ, जिससे तुम्हारी तृप्ति हो जायगी, जिसका शरीर उपकारके लिये प्रयुक्त न हो, उसका सब कुछ निष्फल हो जाता है । जो सामर्थ्ययुक्त रहता हुआ भी, उपकार नहीं करता, उसका सामर्थ्य निष्फल ही है और वह परलोकमें जानेपर नरक प्राप्त करता है, किंतु मैं अपने बच्चोंको उनकी माताको सौंपकर और उन सभीको धैर्य देकर पुन: आ जाऊँगा ॥ ५६-५८ ॥

इत्युक्तस्तेन स व्याधो विस्मितोतीव चेतसि ।
मनाक् शुद्धमनानष्टपापपुंजो वचोऽब्रवीत् ॥ ५९ ॥
उसके ऐसा कहनेपर वह व्याध अपने मनमें बहुत ही विस्मित हुआ, थोड़ा शुद्ध मनवाले तथा नष्ट हुए पापसमूहवाले उस व्याधने यह वचन कहा- ॥ ५९ ॥

व्याध उवाच -
ये ये समागताश्चात्र तेते सर्वे त्वया यथा ।
कथयित्वा गता ह्यत्र नायान्त्यद्यापि वंचकाः ॥ ६० ॥
व्याध बोला-जो-जो यहाँ आये, वे सभी तुम्हारे ही जैसा कहकर चले गये, किंतु वे वंचक अभीतक नहीं लौटे । हे मृग ! तुम भी संकटमें प्राप्त होकर उसी प्रकार झूठ बोलकर चले जाओगे, आज इस प्रकार में जीवन-निर्वाह कैसे होगा ? ॥ ६०-६१ ॥

त्वं चापि संकटे प्राप्तो व्यलीकं च गमिष्यसि ।
मम सञ्जीवनं चाद्य भविष्यति कथं मृग ॥ ६१ ॥
मृग उवाच -
शृणु व्याध प्रवक्ष्यामि नानृतं विद्यते मयि ।
सत्येन सर्वं ब्रह्माण्डं तिष्ठत्येव चराचरम् ॥ ६२ ॥
मृग बोला-हे व्याध ! मैं जो कहता हूँ, उसे सुनो, मैं झूठ नहीं बोलता, यह सारा चराचर ब्रह्माण्ड सत्यसे ही प्रतिष्ठित है । जिसकी वाणी मिथ्या होती है, उसका पुण्य क्षणभरमें नष्ट हो जाता है । तथापि हे भील ! तुम मेरी सत्य प्रतिज्ञाको सुनो । सन्ध्याकालमें मैथुन करनेसे, शिवरात्रिको भोजन करनेसे, झूठी गवाही देनेसे, धरोहरका हरण करनेसे, सन्ध्यारहित ब्राह्मणको, जिसके मुखसे 'शिव'नामका उच्चारण नहीं होता, समर्थ होते हुए भी जो उपकार नहीं करता, शिवपर्वके दिन बेलके तोड़नेसे, अभक्ष्य-भक्षणसे और बिना शिवपूजन किये एवं शरीरमें बिना भस्मका लेप किये, जो भोजन करता है-इन सभीको जो पाप लगता है, वह पाप मुझे लगे । यदि मैं पुनः लौटकर न आऊँ ॥ ६२-६६ ॥

यस्य वाणी व्यलीका हि तत्पुण्यं गलितं क्षणात् ।
तथापि शृणु वै सत्यां प्रतिज्ञां मम भिल्लक ॥ ६३ ॥
सन्ध्यायां मैथुने घस्रे शिवरात्र्यां च भोजने ।
कूटसाक्ष्ये न्यासहारे संध्याहीने द्विजे तथा ॥ ६४ ॥
शिवहीनं मुखं यस्य नोपकर्ता क्षमोऽपि सन् ।
पर्वणि श्रीफलस्यैव त्रोटनेऽभक्ष्यभक्षणे ॥ ६५ ॥
असंपूज्य शिवं भस्मरहितश्चान्नभुक् च यः ।
एतेषां पातकं मे स्यान्नागच्छेयं पुनर्यदि ॥ ६६ ॥
सूतजी बोले-उसका यह वचन सुनकर व्याधने उससे कहा-जाओ, शीघ्र लौटकर आना । तब वह हरिण जल पीकर चला गया ॥ ६७ ॥

शिव उवाच -
इति श्रुत्वा वचस्तस्य गच्छ शीघ्रं समाव्रज ।
स व्याधेनैवमुक्तस्तु जलं पीत्वा गतो मृगः ॥ ६७ ॥
इसके बाद भलीभाँति प्रतिज्ञा किये हुए वे सभी [मृग और मृगी] अपने आश्रममें जाकर परस्पर मिले और एक-दूसरेको सारा समाचार परस्पर निवेदन किया । इस प्रकार सारा वृत्तान्त सुनकर सभीने सत्यपाशमें नियन्त्रित होनेके कारण विचार किया कि हमें वहाँ निश्चितरूपसे जाना चाहिये और तब अपने बालकोंको धीरज देकर वे जानेको तैयार हो गये ॥ ६८-६९ ॥

ते सर्वे मिलितास्तत्र स्वाश्रमे कृतसुप्रणाः ।
वृत्तांतं चैव तं सर्वं श्रुत्वा सम्यक् परस्परम् ॥ ६८ ॥
गन्तव्यं निश्चयेनेति सत्यपाशेन यंत्रिताः ।
आश्वास्य बालकांस्तत्र गन्तुमुत्कण्ठितास्तदा ॥ ६९ ॥
उनमेंसे जो हरिणी सबसे बड़ी थी, उसने अपने स्वामीसे कहा-हे मृग ! तुम्हारे बिना ये बालक किस प्रकार यहाँ निवास करेंगे ? हे प्रभो ! मैं [व्याधके पास जानेके लिये] पहले प्रतिज्ञा कर चुकी हूँ । अतः पहले वहाँ मुझे जाना चाहिये । आप दोनों यहीं रहें । ७०-७१ ॥

मृगी ज्येष्ठा च या तत्र स्वामिनं वाक्यमब्रवीत् ।
त्वां विना बालका ह्यत्र कथं स्थास्यंति वै मृग ॥ ७० ॥
प्रथमं तु मया तत्र प्रतिज्ञा च कृता प्रभो ।
तस्मान्मया च गन्तव्यं भवद्भ्यां स्थीयतामिह ॥ ७१ ॥
इति तद्वचनं श्रुत्वा कनिष्ठा वाक्यमब्रवीत् ।
अहं त्वत्सेविका चाद्य गच्छामि स्थीयतां त्वया ॥ ७२ ॥
तच्छ्रुत्वा च मृगः प्राह गम्यते तत्र वै मया ।
भवत्यौ तिष्ठतां चात्र मातृतः शिशुरक्षणम् ॥ ७३ ॥
उसकी यह बात सुनकर छोटी हरिणीने यह वचन कहा-मैं तुम्हारी सेविका हूँ, आज मैं जाती हूँ और तुम यहींपर रहो । यह सुनकर मृगने कहा-मैं ही वहाँ जा रहा है, तुम दोनों यहीं रहो; क्योंकि माताके द्वारा ही बालकोंकी रक्षा होती है ॥ ७२-७३ ॥

तत्स्वामिवचनं श्रुत्वा मेनाते तन्न धर्मतः ।
प्रोचुः प्रीत्या स्वभर्तारं वैधव्ये जीवितं च धिक् ॥ ७४ ॥
तब स्वामीकी बात सुनकर उन्होंने उसे धर्मके अनुकूल नहीं समझा । वे बड़े प्रेमसे अपने पतिसे कहने लगी कि विधवा बनकर जीना धिक्कार है ॥ ७४ ॥

बालानाश्वास्य तांस्तत्र समर्प्य सहवासिनः ।
गतास्ते सर्व एवाशु यत्रास्ते व्याधसत्तमः ॥ ७५ ॥
ते बाला अपि सर्वे वै विलोक्यानुसमागताः ।
एतेषां या गतिः स्याद्वै ह्यस्माकं सा भवत्विति ॥ ७६ ॥
इसके बाद उन बालकोंको धैर्य देकर तथा उन्हें पड़ोसियोंको सौंपकर वे सभी शीघ्र वहाँ गये, जहाँ । व्याधश्रेष्ठ स्थित था । तब वे सभी बच्चे भी यह सोचकर उनके पीछे-पीछे चल पड़े कि इनकी जो गति होगी, वही गति हमारी भी हो ॥ ७५-७६ ॥

तान् दृष्ट्‍वा हर्षितो व्याधो बाणं धनुषि संदधे ।
पुनश्च जलपत्राणि पतितानि शिवोपरि ॥ ७७ ॥
तेन जाता चतुर्थस्य पूजा यामस्य वै शुभा ।
तस्य पापन्तदा सर्वं भस्मसादभवत् क्षणात् ॥ ७८ ॥
मृगी मृगी मृगश्चोचुश्शीघ्रं वै व्याधसत्तम ।
अस्माकं सार्थकं देहं कुरु त्वं हि कृपां कुरु ॥ ७९ ॥
उन्हें देखकर व्याध अत्यन्त हर्षित हो उठा और धनुषपर बाण चढ़ाने लगा । इतनेमें शिवजीके ऊपर पुनः जल और बिल्वपत्र गिर पड़े । उससे चतुर्थ प्रहरकी भी उत्तम पूजा सम्पन्न हो गयी, फिर तो क्षणभरमें ही उसका सारा पाप नष्ट हो गया । उस समय दोनों मृगियों एवं मृगने शीघ्रतापूर्वक कहा-हे व्याधश्रेष्ठ ! अब तुम [हमलोगोंपर] कृपा करो और हमारे शरीरको सार्थक करो ॥ ७७-७९ ॥

शिव उवाच -
इति तेषां वचश्श्रुत्वा व्याधो विस्मयमागतः ।
शिवपूजाप्रभावेण ज्ञानं दुर्लभमाप्तवान् ॥ ८० ॥
उनकी यह बात सुनकर भील आश्चर्यचकित हुआ । शिवजीकी पूजाके प्रभावसे उसे दुर्लभ ज्ञान प्राप्त हो गया ॥ ८० ॥

एते धन्या मृगाश्चैव ज्ञानहीनास्सुसंमताः ।
स्वीयेनैव शरीरेण परोपकरणे रताः ॥ ८१ ॥
मानुष्यं जन्म संप्राप्य साधितं किं मयाधुना ।
परकायं च संपीड्य शरीरं पोषितं मया ॥ ८२ ॥
कुटुम्बं पोषितं नित्यं कृत्वा पापान्यनेकशः ।
एवं पापानि हा कृत्वा का गतिर्मे भविष्यति ॥ २३ ॥
कां वा गतिं गमिष्यामि पातकं जन्मतः कृतम् ।
इदानीं चिंतयाम्येवं धिग्धिक् च जीवनं मम ॥ ८४ ॥
इति ज्ञानं समापन्नो बाणं संवारयंस्तदा ।
गम्यतां च मृगश्रेष्ठा धन्याः स्थ इति चाब्रवीत् ॥ ८५ ॥
ज्ञानरहित ये मृग धन्य हैं, ये परम सम्माननीय हैं, जो अपने शरीरसे परोपकार करनेमें तत्पर हैं । मैंने इस समय मनुष्यजन्म पाकर भी क्या फल प्राप्त किया, मैंने दूसरोंके शरीरको पीड़ित करके अपने शरीरका पालन किया । हाय ! मैंने नित्य अनेक पाप करके अपने कुटुम्बका पालन-पोषण किया । इस प्रकारके पाप करनेके कारण [अब आगे] मेरी क्या गति होगी, मैं किस गतिको प्राप्त होऊँगा ? हाय ! मैंने तो जन्मसे ही पाप किया है, मैं इस समय ऐसा सोच रहा हूँ, मेरे जीवनको धिक्कार है ! धिक्कार है ! !-इस प्रकारसे ज्ञानको प्राप्त हुआ वह व्याध अपने बाणको उतारते हुए कहने लगा कि हे श्रेष्ठ मृगो ! तुमलोग धन्य हो, अब जाओ ॥ ८१-८५ ॥

शिव उवाच -
इत्युक्ते च तदा तेन प्रसन्नश्शंकरस्तदा ।
पूजितं च स्वरूपं हि दर्शयामास संमतम् ॥ ८६ ॥
तब उसके इस प्रकार कहनेपर शंकरजीने प्रसन्न होकर अपने लोकपूजित उत्तम स्वरूपको उसे दिखाया ॥ ८६ ॥

संस्पृश्य कृपया शंभुस्तं व्याधं प्रीतितोऽब्रवीत् ।
वरं ब्रूहि प्रसन्नोऽस्मि व्रतेनानेन भिल्लक ॥ ८७ ॥
इसके बाद कृपापूर्वक उस व्याधको स्पर्शकर शिवजीने प्रसन्नतापूर्वक कहा-हे भील ! मैं [तुम्हारे] इस व्रतसे प्रसन्न हूँ, वर माँगो ॥ ८७ ॥

व्याधोऽपि शिवरूपं च दृष्ट्‍वा मुक्तोऽभवत्क्षणात् ।
पपात शिवपादाग्रे सर्वं प्राप्तमिति बुवन् ॥ ८८ ॥
व्याध भी शिवजीके स्वरूपको देखकर क्षणमात्रमें मुक्त हो गया और मैंने आज सब कुछ पा लिया-ऐसा कहता हुआ शिवके चरणोंके आगे गिर पड़ा ॥ ८८ ॥

शिवोऽपि सुप्रन्नात्मा नाम दत्वा गुहेति च ।
विलोक्य तं कृपादृष्ट्या तस्मै दिव्यान्वरानदात् ॥ ८९ ॥
शिवजीने भी प्रसन्नचित्त होकर उसे 'गुह'-ऐसा नाम देकर उसकी ओर कृपादृष्टिसे देखकर उसे दिव्य वर दिये ॥ ८९ ॥

शिव उवाच -
शृणु व्याधाद्य भोगांस्त्वं भुंक्ष्व दिव्यान्यथेप्सितान् ।
राजधानीं समाश्रित्य शृंगवेरपुरे पराम् ॥ ९० ॥
शिवजी बोले-हे व्याध ! सुनो, इस समय तुम श्रृंगवेरपुरमें [अपनी] श्रेष्ठ राजधानी बनाकर यथेष्ट दिव्य सुखोंका उपभोग करो ॥ ९० ॥

अनपाया वंशवृद्धिश्श्लाघनीयः सुरैरपि ।
गृहे रामस्तव व्याध समायास्यति निश्चितम् ॥ ९१ ॥
करिष्यति त्वया मैत्री मद्भक्तस्नेहकारकः ।
मत्सेवासक्तचेतास्त्वं मुक्तिं यास्यसि दुर्लभाम् ॥ ९२ ॥
वहाँ अक्षयरूपसे तुम्हारे वंशकी वृद्धि होगी, हे व्याध ! तुम देवताओंके लिये भी प्रशंसनीय रहोगे, तुम्हारे घर [साक्षात्] श्रीरामचन्द्रजी निश्चित रूपसे पधारेंगे । मेरे भक्तोंसे प्रेम करनेवाले वे तुमसे मित्रता करेंगे और मेरी सेवामें आसक्त चित्तवाले तुम दुर्लभ मोक्षको प्राप्त कर लोगे ॥ ९१-९२ ॥

एतस्मिन्नंतरे ते तु कृत्वा शंकरदर्शनम् ।
सर्वे प्रणम्य सन्मुक्तिं मृगयोनेः प्रपेदिरे ॥ ९३ ॥
विमानं च समारुह्य दिव्यदेहा गतास्तदा ।
शिवदर्शनमात्रेण शापान्मुक्ता दिवं गताः ॥ ९४ ॥
सूतजी बोले-इसी बीच वे सभी मृग भी शिवजीका दर्शनकर उन्हें प्रणाम करके मृगयोनिसे मुक्त हो गये । वे शिवके दर्शनमात्रसे शापमुक्त हो गये और दिव्य देह धारण करके विमानपर आरूढ़ होकर स्वर्गलोक चले गये । ९३-९४ ॥

व्याधेश्वरः शिवो जातः पर्वते ह्यर्बुदाचले ।
दर्शनात्पूजनात्सद्यो भुक्तिमुक्तिप्रदायकः ॥ ९५ ॥
तभीसे शिवजी अर्बुदाचल पर्वतपर व्याधेश्वर नामसे प्रसिद्ध हुए, जो दर्शन तथा पूजनसे शीघ्र भोग एवं मोक्ष प्रदान करनेवाले हैं ॥ ९५ ॥

व्याधोपि तद्दिनान्नूनं भोगान्स सुरसत्तम ।
भुक्त्वा रामकृपां प्राप्य शिवसायुज्यमाप्तवान् ॥ ९६ ॥
हे ब्राह्मणश्रेष्ठो ! उस भीलने भी उस दिनसे सुखोंका उपभोग करनेके उपरान्त श्रीरामकी कृपा प्राप्तकर शिवसायुज्य प्राप्त कर लिया ॥ ९६ ॥

अज्ञानात्स व्रतञ्चैतत्कृत्वा सायुज्यमाप्तवान् ।
किं पुनर्भक्तिसंपन्ना यान्ति तन्मयतां शुभाम् ॥ ९७ ॥
अज्ञानवश इस व्रतको करके उसने सायुज्य मुक्तिको प्राप्त किया, तो फिर यदि भक्तिभावसे युक्त मनुष्य शुभ सायुज्य मुक्तिको प्राप्त करते हैं तो इसमें आश्चर्य ही क्या है ? ॥ ९७ ॥

विचार्य्य सर्वशास्त्राणि धर्मांश्चैवाप्यनेकशः ।
शिवरात्रिव्रतमिदं सर्वोत्कृष्टं प्रकीर्तितम् ॥ ९८ ॥
व्रतानि विविधान्यत्र तीर्थानि विविधानि च ।
दानानि च विचित्राणि मखाश्च विविधास्तथा ॥ ९९ ॥
तपांसि विविधान्येव जपाश्चैवाप्य नेकशः ।
नैतेन समतां यान्ति शिवरात्रिव्रतेन च ॥ १०० ॥
तस्माच्छुभतरं चैतत्कर्तव्यं हितमीप्सुभिः ।
शिवरात्रिव्रतन्दिव्यं भुक्ति मुक्तिप्रदं सदा ॥ १०१ ॥
मैंने समस्त शास्त्रों तथा अनेक धर्मोका चिन्तन करके इस शिवरात्रिव्रतको सर्वोत्कृष्ट कहा है । अनेक प्रकारके व्रत, अनेक प्रकारके तीर्थ, अद्‌भुत दान, विविध यज्ञ, नाना प्रकारके तप एवं अनेक प्रकारके जप भी इस शिवरात्रिकी तुलना नहीं कर सकते । इसलिये अपना हित चाहनेवालोंको अत्यन्त शुभ, दिव्य भोग एवं मोक्ष देनेवाले इस शिवरात्रिनतको सदा करना चाहिये ॥ ९८-१०१ ॥

एतत्सर्वं समाख्यातं शिवरात्रिव्रतं शुभम् ।
व्रतराजेति विख्यातं किमन्यच्छ्रोतुमिच्छसि ॥ १०२ ॥
इस प्रकार मैंने व्रतराज-इस नामसे विख्यात इस शुभ शिवरात्रिव्रतका सम्पूर्ण रूपसे वर्णन किया । अब आपलोग और क्या सुनना चाहते हैं ? ॥ १०२ ॥

इति श्रीशिवमहापुराणे चतुर्थ्यां कोटिरुद्रसंहितायां
व्याधेश्वरमाहात्म्ये शिवरात्रिव्रतमाहात्म्यवर्णनं नाम चत्वारिंशोऽध्यायः ॥ ४० ॥
इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत चतुर्थ कोटिरुद्रसंहितामें व्याधेश्वरमाहात्यमें शिवरात्रिव्र माहात्म्यवर्णन नामक चालीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ४० ॥



श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु


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