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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥
॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥ चतुर्थी कोटीरुद्रसंहितायां
एकचत्वारिंशोऽध्यायः मुक्तिनिरूपणम् -
ब्रह्म एवं मोक्षका निरूपण - ऋषय ऊचुः - मुक्तिर्नाम त्वया प्रोक्ता तस्यां किं नु भवेदिह ॥ अवस्था कीदृशी तत्र भवेदिति वदस्व नः ॥ १ ॥ > ऋषिगण बोले-[हे सूतजी !] आपने मुक्तिकी चर्चा की, उस मुक्तिमें क्या होता है और उसकी कैसी अवस्था होती है ? हमलोगोंको यह बताइये ॥ १ ॥ सूत उवाच - मुक्तिश्चतुर्विधा प्रोक्ता श्रूयतां कथयामि वः । संसारक्लेशसंहर्त्री परमानन्ददायिनी ॥ २ ॥ सारूप्या चैव सालोक्या सान्निध्या च तथा परा । सायुज्या च चतुर्थी सा व्रतेनानेन या भवेत् ॥ ३ ॥ > सूतजी बोले-सुनिये, मैं आपलोगोंको बता रहा हूँ । सांसारिक दुःखोंका नाश करनेवाली एवं परम आनन्द देनेवाली मुक्ति चार प्रकारकी कही गयी है । सारूप्य, सालोक्य, सान्निध्य एवं सायुज्य । इनमें जो चौथी सायुज्य मुक्ति होती है, वह इस [शिवरात्रि-] व्रतके करनेसे प्राप्त होती है ॥ २-३ ॥ मुक्तेर्दाता मुनिश्रेष्ठाः केवलं शिव उच्यते । ब्रह्माद्या न हि ते ज्ञेया केवलं च त्रिवर्गदाः ॥ ४ ॥ > हे श्रेष्ठ मुनियो ! मुक्ति प्रदान करनेवाले केवल शिवजी ही कहे जाते हैं । ब्रह्मा आदिको मुक्ति देनेवाला नहीं जानना चाहिये, वे केवल [धर्म, अर्थ और कामरूप] त्रिवर्गको देनेवाले हैं ॥ ४ ॥ ब्रह्माद्यास्त्रिगुणाधीशाश्शिवस्त्रिगुणतः परः । निर्विकारी परब्रह्म तुर्यः प्रकृतितः परः ॥ ५ ॥ > ब्रह्मा आदि त्रिगुणके अधीश्वर हैं और शिवजी त्रिगुणसे परे हैं । वे निर्विकार, परब्रह्म, तुरीय और प्रकृतिसे परे हैं ॥ ५ ॥ ज्ञानरूपोऽव्ययः साक्षी ज्ञानगम्योऽद्वयस्स्वयम् । कैवल्यमुक्तिदस्सोऽत्र त्रिवर्गस्य प्रदोऽपि हि ॥ ६ ॥ > वे ज्ञानरूप, अव्यय, साक्षी, ज्ञानगम्य, स्वयं अद्वय, कैवल्य मुक्तिके दाता एवं त्रिवर्गको भी देनेवाले हैं ॥ ६ ॥ कैवल्याख्या पंचमी च दुर्लभा सर्वथा नृणाम् । तल्लक्षणं प्रवक्ष्यामि श्रूयतामृषिसत्तमाः ॥ ७ ॥ > कैवल्य नामक पाँचवी मुक्ति मनुष्योंको सर्वथा दुर्लभ है । हे ऋषिगणो ! मैं उसका लक्षण बताऊंगा, आपलोग सुनिये ॥ ७ ॥ उत्पद्यते यतः सर्वं येनैतत्पाल्यते जगत् । यस्मिंश्च लीयते तद्धि येन सर्वमिदं ततम् ॥ ८ ॥ तदेव शिवरूपं हि पठ्यते च मुनीश्वराः । सकलं निष्कलं चेति द्विविधं वेदवर्णितम् ॥ ९ ॥ > हे मुनीश्वरो ! यह सारा जगत् जिससे उत्पन्न होता है, जिसके द्वारा पालित होता है और निश्चय ही वह जिसमें लीन होता है तथा जिससे यह सब कुछ व्याप्त है, वही शिवका स्वरूप कहा जाता है । [वही] सकल एवं निष्कल-दो रूपोंमें वेदोंमें वर्णित है ॥ ८-९ ॥ विष्णुना तच्च न ज्ञातं ब्रह्मणा न च तत्तथा । कुमाराद्यैश्च न ज्ञातं न ज्ञातं नारदेन वै ॥ १० ॥ शुकेन व्यास पुत्रेण व्यासेन च मुनीश्वरैः। तत्पूर्वैश्चाखिलैर्देवैर्वेदैः शास्त्रैस्तथा न हि । ११ ॥ > विष्णु उस रूपको न जान सके, ब्रह्माजी भी उसे न जान सके, सनत्कुमार आदि न जान सके और नारद भी नहीं जान सके । व्यासपुत्र शुकदेव, व्यासजी, उनसे पहलेके सभी मुनीश्वर, सभी देवता, वेद तथा शास्त्र भी उसे नहीं जान पाये ॥ १०-११ ॥ सत्यं ज्ञानमनंतं च सच्चिदानन्दसंज्ञितम् । निर्गुणो निरुपाधिश्चाव्ययः शुद्धो निरंजनः ॥ १२ ॥ > वह सत्य, ज्ञानरूप, अनन्त, सत्-चित्-आनन्दस्वरूप, निर्गुण, उपाधिरहित, अव्यय, शुद्ध एवं निरंजन है ॥ १२ ॥ न रक्तो नैव पीतश्च न श्वेतो नील एव च । न ह्रस्वो न च दीर्घश्च न स्थूलस्सूक्ष्म एव च ॥ १३ ॥ > वह न रक्त है, न पीत, न श्वेत, न नील है, न ह्रस्व, न दीर्घ, न स्थूल एवं न तो सूक्ष्म ही है ॥ १३ ॥ यतो वाचो निवर्तंते अप्राप्य मनसा सह । तदेव परमं प्रोक्तं ब्रह्मैव शिवसंज्ञकम् ॥ १४ ॥ > मनसहित वाणी आदि इन्द्रियाँ जिसे बिना प्राप्त किये ही लौट आती हैं, वही परब्रह्म 'शिव' नामसे कहा गया है ॥ १४ ॥ आकाशं व्यापकं यद्वत्तथैव व्यापकन्त्विदम् । मायातीतं परात्मानं द्वन्द्वातीतं विमत्सरम् ॥ १५ ॥ > जिस प्रकार आकाश व्यापक है, उसी प्रकार यह [शिवतत्त्व] भी व्यापक है, यह मायासे परे, परात्मा, द्वन्द्वरहित तथा मत्सरशून्य है ॥ १५ ॥ तत्प्राप्तिश्च भवेदत्र शिवज्ञानोदयाद्ध्रुवम् । भजनाद्वा शिवस्यैव सूक्ष्ममत्या सतां द्विजाः ॥ १६ ॥ > हे द्विजो ! उसकी प्राप्ति शिवविषयक ज्ञानके उदयसे, शिवके भजनसे अथवा सज्जनोंके सूक्ष्म विचारसे होती है * ॥ १६ ॥ ज्ञानं तु दुष्करं लोके भजनं सुकरं मतम् । तस्माच्छिवं च भजत मुक्त्यर्थमपि सत्तमाः ॥ १७ ॥ शिवो हि भजनाधीनो ज्ञानात्मा मोक्षदः परः । भक्त्यैव बहवः सिद्धा मुक्तिं प्रापुः परां मुदा ॥ १८ ॥ > इस लोकमें ज्ञानका उदय तो अत्यन्त दुष्कर है, किंतु भजन सरल कहा गया है । अतः हे द्विजो ! मुक्तिके लिये शिवका भजन कौजिये । शिवजी भजनके अधीन हैं । वे ज्ञानात्मा हैं तथा मोक्ष देनेवाले हैं । बहुत-से सिद्धोंने भक्तिके द्वारा ही आनन्दपूर्वक परम मुक्ति प्राप्त की है ॥ १७-१८ ॥ ज्ञानमाता शंभुभक्तिर्मुक्तिभुक्तिप्रदा सदा । सुलभा यत्प्रसादाद्धि सत्प्रेमांकुर लक्षणा ॥ १९ ॥ > शिवको भक्ति ज्ञानकी माता और भोग एवं मोक्षको देनेवाली है । प्रेमकी उत्पत्तिके लक्षणवाली वह भक्ति शिवके प्रसादसे ही सुलभ होती है ॥ १९ ॥ सा भक्तिर्विविधा ज्ञेया सगुणा निर्गुणा द्विजाः । वैधी स्वाभाविकी याया वरा सासा स्मृता परा ॥ २० ॥ > हे द्विजो ! वह भक्ति सगुण एवं निर्गुणके भेदसे अनेक प्रकारकी कही गयी है । जैसे-जैसे वैधी और स्वाभाविकी भक्ति बढ़ती जाती है, वैसे-वैसे श्रेष्ठ होती | जाती है ॥ २० ॥ नैष्ठिक्यनैष्ठिकीभेदाद्विविधैव हि कीर्तिता । षड्विधा नैष्ठिकी भेदाद्द्वितीयैकविधा स्मृता ॥ २१ ॥ > वह नैष्ठिकी तथा अनैष्ठिकीके भेदसे दो प्रकारको कही गयी है । नैष्ठिकी भक्तिको छः प्रकारकी जानना चाहिये । दूसरी अनैष्ठिकी भक्ति एक प्रकारकी कही गयी है ॥ २१ ॥ विहिताविहिताभेदात्तामनेकां विदुर्बुधाः । तयोर्बहुविधत्वाच्च विस्तारो न हि वर्ण्यते ॥ २२ ॥ > इसी प्रकार पण्डितलोग उसे विहिता तथा अविहिताके भेदसे अनेक प्रकारवाली कहते हैं, उन दोनोंके अनेक प्रकार होनेके कारण यहाँ उसके विस्तारका वर्णन नहीं किया जा रहा है ॥ २२ ॥ ते नवांगे उभे ज्ञेये श्रवणादिकभेदतः । सुदुष्करे तत्प्रसादं विना च सुकरे ततः ॥ २३ ॥ > उन दोनोंको श्रवणादि भेदसे नौ-नौ प्रकारकी जानना चाहिये । वे शिवकी कृपाके बिना अत्यन्त कठिन हैं, किंतु शिवकी प्रसन्नतासे अत्यन्त सरल हैं ॥ २३ ॥ भक्तिज्ञाने न भिन्ने हि शंभुना वर्णिते द्विजाः । तस्माद्भेदो न कर्तव्यस्तत्कर्तुस्सर्वदा सुखम् ॥ २४ ॥ > हे द्विजो ! भक्ति एवं ज्ञान परस्पर भिन्न नहीं हैं, शिवजीने उनका वर्णन कर दिया है । इसलिये ज्ञानी और भक्तमें भेद नहीं समझना चाहिये, ज्ञान हो या भक्ति इनका पालन करनेवालेको सर्वदा सुखकी प्राप्ति होती है ॥ २४ ॥ विज्ञानं न भवत्येव द्विजा भक्तिविरोधिनः । शंभुभक्तिकरस्यैव भवेज्ज्ञानोदयो द्रुतम् ॥ २५ ॥ > हे द्विजो ! भक्तिका विरोध करनेवालेको विज्ञान प्राप्त नहीं होता है, शिवकी भक्ति करनेवालेमें शीघ्र ही ज्ञानका उदय होता है ॥ २५ ॥ तस्माद्भक्तिर्महेशस्य साधनीया मुनीश्वराः । तयैव निखिलं सिद्धं भविष्यति न संशयः ॥ २६ ॥ > इसलिये हे मुनीश्वरो ! शिवकी भक्ति [अवश्य] करनी चाहिये, उसीसे सब कुछ सिद्ध होगा. इसमें संशय नहीं है ॥ २६ ॥ इति पृष्टं भवद्भिर्यत्तदेव कथितं मया । तच्छुत्वा सर्वपापेभ्यो मुच्यते नात्र संशयः ॥ २७ ॥ > आपलोगोंने मुझसे जो पूछा था, उसे मैंने कह दिया, जिसको सुनकर मनुष्य सभी पापोंसे छूट जाता है, इसमें सन्देह नहीं है ॥ २७ ॥ इति श्रीशिवमहापुराणे चतुर्थ्यां कोटिरुद्रसंहितायां मुक्तिनिरूपणं नामैकचत्वारिंशोऽध्यायः ॥ ४१ ॥ > इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत चतुर्थ कोटिरूबसंहितामें मुक्तिनिरूपण नामक इकतालीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ४१ ॥ श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु |