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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥

॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥

चतुर्थी कोटीरुद्रसंहितायां

द्विचत्वारिंशोऽध्यायः

सगुणनिर्गुणभेदवर्णनम् -
बभगवान् शिवके सगुण और निर्गुण स्वरूपका वर्णन -


ऋषय ऊचुः -
शिवः को वा हरिः को वा रुद्रः को वा विधिश्च कः ।
एतेषु निर्गुणः को वा ह्येतं नश्छिन्धि संशयम् ॥ १ ॥
ऋषिगण बोले-[हे सूतजी !] शिवजी कौन हैं, विष्णु कौन हैं, रुद्र कौन हैं तथा ब्रह्मा कौन हैं और इनमें निर्गुण कौन है ? हमलोगोंके इस संशयको दूर कीजिये ॥ १ ॥

सूत उवाच -
यच्चादौ हि समुत्पन्नं निर्गुणात्परमात्मनः ।
तदेव शिवसंज्ञं हि वेदवेदांतिनो विदुः ॥ २ ॥
सूतजी बोले-हे ऋषियो ! [सृष्टिके] आदिमें निर्गुण परमात्मासे जो उत्पन्न हुआ, उसी [सगुणरूप]को शिव कहा गया है-ऐसा वेद और वेदान्तके वेत्ता लोग कहते हैं ॥ २ ॥

तस्मात्प्रकृतिरुत्पन्ना पुरुषेण समन्विता ।
ताभ्यान्तपः कृतं तत्र मूलस्थे च जले सुधीः ॥ ३ ॥
पञ्चकोशीति विख्याता काशी सर्वातिवल्लभा ।
व्याप्तं च सकलं ह्येतत्तज्जलं विश्वतो गतम् ॥ ४ ॥
उसीसे पुरुषसहित प्रकृति उत्पन्न हुई । उन दोनोंने मूल स्थानमें स्थित जलमें तप किया । वही [तपःस्थली]-पंचक्रोशी काशी कही गयी है, वह शिवजीको अत्यन्त प्रिय है । उसीका जल फैलकर सारे संसारमें व्याप्त हो गया ॥ ३-४ ॥

संभाव्य मायया युक्तस्तत्र सुप्तो हरिस्स वै ।
नारायणेति विख्यातः प्रकृतिर्नारायणी मता ॥ ५ ॥
[उसी जलका] आश्रय लेकर श्रीहरि [योग] मायाके साथ वहाँ सो गये । तब वे [नार अर्थात् जलको अयन (निवासस्थान) बनानेके कारण] 'नारायण' नामसे विख्यात हुए तथा माया नारायणी नामसे विख्यात हुई ॥ ५ ॥

तन्नाभिकमले यो वै जातस्स च पितामहः ।
तेनैव तपसा दृष्टस्स वै विष्णुरुदाहृतः ॥ ६।
उनके नाभिकमलसे जो उत्पन्न हुए, वे पितामह [ब्रह्मा कहलाये] थे । उन्होंने तपस्यासे जिन्हें देखा, वे विष्णु कहे गये ॥ ६ ॥

उभयोर्वादशमने यद्रूपं स दर्शितं बुधाः ।
महादेवेति विख्यातं निर्गुणेन शिवेन हि ॥ ७ ॥
तेन प्रोक्तमहं शम्भुर्भविष्यामि कभालतः ।
रुद्रो नाम स विख्यातो लोकानुग्रहकारकः ॥ ८ ॥
हे विद्वानो ! [किसी समय] उन दोनोंके विवादको शान्त करनेके लिये निर्गुण शिवने जिस रूपका साक्षात्कार कराया, वह महादेव नामसे प्रसिद्ध हुआ । उन्होंने कहा कि मैं ब्रह्माके मस्तकसे शम्भुरूपमें प्रकट होऊँगा, लोकपर अनुग्रह करनेवाले वे ही रुद्रनामसे विख्यात हुए ॥ ७-८ ॥

ध्यानार्थं चैव सर्वेषामरूपो रूपवानभूत् ।
स एव च शिवस्साक्षाद्भक्तवात्सल्यकारकः ॥ ९ ॥
इस प्रकार भक्तोंके ऊपर वात्सल्यभाव प्रकट करनेवाले वे शिवजी ही सबके चिन्तनका विषय बननेके लिये रूपरहित होते हुए भी रूपवान् होकर साकार रुद्ररूपसे प्रकट हुए ॥ ९ ॥

शिवे त्रिगुणसम्भिन्ने रुद्रे तु गुणधामनि ।
वस्तुतो न हि भेदोऽस्ति स्वर्णे तद्भूषणे यथा ॥ १० ॥
पूर्णत: त्रिगुणरहित शिवमें एवं गुणोंके धाम रुद्रमें वस्तुतः कोई भेद नहीं है, जैसे सुवर्ण एवं उससे बने आभूषणमें कोई अन्तर नहीं होता है ॥ १० ॥

समानरूपकर्माणौ समभक्तगतिप्रदौ ।
समानाखिलसंसेव्यौ नानालीलाविहारिणौ ॥ ११ ॥
ये दोनों ही समान रूप तथा कर्मवाले, समान रूपसे भक्तोंको गति देनेवाले हैं, समान रूपसे सबके द्वारा सेवनीय और अनेक प्रकारकी लीलाएँ करनेवाले हैं ॥ ११ ॥

सर्वथा शिवरूपो हि रुद्रो रौद्रपराक्रमः ।
उत्पन्नो भक्तकार्यार्थं हरिब्रह्मसहायकृत् ॥ १२ ॥
भयानक पराक्रमवाले रुद्र सभी प्रकारसे शिवरूप ही हैं । वे भक्तोंका कार्य करनेके लिये प्रकट होते हैं और ब्रह्मा तथा विष्णुकी सहायता करते हैं ॥ १२ ॥

अन्ये च ये समुत्पन्ना यथानुक्रमतो लयम् ।
यांति नैव तथा रुद्रः शिवे रुद्रो विलीयते ॥ ४३ ॥
अन्य जो लोग उत्पन्न हुए हैं, वे क्रमानुसार लयको प्राप्त होते हैं, किंतु रुद्र ऐसे नहीं हैं, रुद्र शिवमें ही विलीन होते हैं ॥ १३ ॥

ते वै रुद्रं मिलित्वा तु प्रयान्ति प्रकृता इमे ।
इमान्रुद्रो मिलित्वा तु न याति श्रुतिशासनम् ॥ १४ ॥
सभी प्राकृत [देवता] क्रमशः मिलकर विलीन हो जाते हैं, किंतु रुद्र उन विष्णु आदिमें मिलकर विलीन नहीं होते-ऐसी वेदोंकी आज्ञा है ॥ १४ ॥

सर्वे रुद्रं भजन्त्येव रुद्रः कञ्चिद्भजेन्न हि ।
स्वात्मना भक्तवात्सल्याद्भजत्येव कदाचन ॥ १५ ॥
सभी रुद्रका भजन करते हैं, किंतु रुद्र किसीका भजन नहीं करते, कभी-कभी भक्तवत्सलतावश वे अपने-आप अपने भक्तोंका भजन करते हैं ॥ १५ ॥

अन्यं भजन्ति ये नित्यं तस्मिंस्ते लीनतां गताः ।
तेनैव रुद्रं ते प्राप्ताः कालेन महता बुधाः ॥ १६ ॥
रुद्रभक्तास्तु ये केचित्तत्क्षणं शिवतां गताः ।
अन्यापेक्षा न वै तेषां श्रुतिरेषा सनातनी ॥ १७ ॥
हे विद्वानो ! जो लोग नित्य अन्य देवताका भजन करते हैं, वे उसीमें लीन होकर बहुत समयके बाद उसीसे रुद्रको प्राप्त होते हैं । जो कोई भी रुद्रभक्त हैं, वे उसी क्षण शिवत्वको प्राप्त हो जाते हैं । क्योंकि उन्हें अन्य देवताकी अपेक्षा नहीं होती-यह सनातनी श्रुति है ॥ १६-१७ ॥

अज्ञानं विविधं ह्येतद्विज्ञानं विविधं न हि ।
तत्प्रकारमहं वक्ष्ये शृणुतादरतो द्विजाः ॥ १८ ॥
हे द्विजो ! अज्ञान तो अनेक प्रकारका होता है, किंतु यह विज्ञान अनेक प्रकारका नहीं होता, मैं उस [विज्ञान]को समझनेकी रीति कहता हूँ, आपलोग आदरपूर्वक सुनिये ॥ १८ ॥

ब्रह्मादि तृणपर्यंतं यत्किंचिद्दृश्यते त्विह ।
तत्सर्वं शिव एवास्ति मिथ्या नानात्वकल्पना ॥ १९ ॥
इस लोकमें ब्रह्मासे लेकर तृणपर्यन्त जो कुछ दिखायी देता है, वह सब शिव ही है, अनेकताकी कल्पना मिथ्या है ॥ १९ ॥

सृष्टेः पूर्वं शिवः प्रोक्तः सृष्टेर्मध्ये शिवस्तथा ।
सृष्टेरन्ते शिवः प्रोक्तस्सर्वशून्ये तदा शिवः ॥ २० ॥
तस्माच्चतुर्गुणः प्रोक्तः शिव एव मुनीश्वराः ।
स एव सगुणो ज्ञेयः शक्तिमत्त्वाद्द्विधापि सः ॥ २१ ॥
सृष्टिके आदिमें शिव कहे गये हैं, सृष्टिके मध्यमें शिव कहे गये हैं, सृष्टिके अन्तमें शिव कहे गये हैं और सर्वशून्य होनेपर भी सदाशिव विद्यमान रहते हैं । इसलिये हे मुनीश्वरो । शिव चार गुणोंवाले कहे गये हैं । उन्हीं सगुण शिवको शक्तिसे युक्त होनेके कारण दो प्रकारका भी समझना चाहिये ॥ २०-२१ ॥

येनैव विष्णवे दत्तास्सर्वे वेदास्सनातनाः ।
वर्णा मात्रा ह्यनैकाश्च ध्यानं स्वस्य च पूजनम् ॥ २२ ॥
ईशानः सर्वविद्यानां श्रुतिरेषा सनातनी ।
वेदकर्ता वेदपतिस्तस्माच्छंभुरुदाहृतः ॥ २३ ॥
जिसने विष्णुको सनातन वेदोंका उपदेश किया, अनेक वर्ण, अनेक मात्रा, ध्यान तथा अपनी पूजाका रहस्य बताया, वे शिव सम्पूर्ण विद्याओंके अधिपति हैंयह सनातनी श्रुति है, इसीलिये उन शिवको वेदोंको प्रकट करनेवाला तथा वेदपति कहा गया है ॥ २२-२३ ॥

स एव शंकरः साक्षात्सर्वानुग्रहकारकः ।
कर्ता भर्ता च हर्ता च साक्षी निर्गुण एव सः ॥ २४ ॥
वही शिव सबपर साक्षात् अनुग्रह करनेवाले हैं । वे ही कर्ता, भर्ता, हर्ता, साक्षी तथा निर्गुण हैं ॥ २४ ॥

अन्येषां कालमानं च कालस्य कलना न हि ।
महाकालस्स्वयं साक्षान्महाकालीसमाश्रितः ॥ २५ ॥
सभीके जीवनके कालका प्रमाण है, किंतु उन काल [-रूप शिव] का प्रमाण नहीं है । वे स्वयं महाकाल हैं और महाकालीके भी आश्रय हैं ॥ २५ ॥

तथा च ब्राह्मणा रुद्रं तथा कालीं प्रचक्षते ।
सर्वं ताभ्यान्ततः प्राप्तमिच्छया सत्यलीलया ॥ २६ ॥
ब्राह्मणलोग रुद्र तथा कालीको सबका कारण बताते हैं । उन दोनोंके द्वारा सत्यलीलायुक्त इच्छासे सब कुछ व्याप्त हुआ है ॥ २६ ॥

न तस्योत्पादकः कश्चिद्भर्ता हर्ता न तस्य हि ।
स्वयं सर्वस्य हेतुस्ते कार्यभूताच्युतादयः ॥ २७ ॥
उन [शिव]-को उत्पन्न करनेवाला कोई नहीं है । और उनका पालन करनेवाला तथा विनाश करनेवाला भी कोई नहीं है, स्वयं वे सबके कारण हैं, वे विष्णु आदि सभी देवता उनके कार्यरूप हैं ॥ २७ ॥

स्वयं च कारणं कार्यं स्वस्य नैव कदाचन ।
एकोव्यनेकतां यातोप्यनेकोप्येकतां व्रजेत् ॥ २८ ॥
वे शिवजी स्वयं ही कारण और कार्यरूप हैं, किंतु उनका कारण कोई नहीं है । वे एक होकर भी अनेक हैं और अनेक होकर भी एकताको प्राप्त होते हैं ॥ २८ ॥

एकं बीजं बहिर्भूत्वा पुनर्बीजं च जायते ।
बहुत्वे च स्वयं सर्वं शिवरूपी महेश्वरः ॥ २९ ॥
जिस प्रकार एक ही बीज बाहर अंकुरित होकर बहुत बीजोंके रूपमें प्रकट होता है, उसी प्रकार बहुत होनेपर भी वस्तुरूपसे स्वयं शिवरूपी महेश्वर एक ही हैं ॥ २९ ॥

एतत्परं शिवज्ञानं तत्त्वतस्तदुदाहृतम् ।
जानाति ज्ञानवानेव नान्यः कश्चिदृषीश्वराः ॥ ३० ॥
हे मुनीश्वरो ! यह उत्तम शिवविषयक ज्ञान यथार्थ रूपसे [ मेरे द्वारा] कह दिया गया, इसे ज्ञानवान् पुरुष ही जानता है और कोई नहीं ॥ ३० ॥

मुनय ऊचुः -
ज्ञानं सलक्षणं ब्रूहि यज्ज्ञात्वा शिवताम्व्रजेत् ।
कथं शिवश्च तत्सर्वं सर्वं वा शिव एव च ॥ ३१ ॥
मुनिगण बोले-[हे सूतजी !] आप लक्षणसहित ज्ञानका वर्णन कीजिये, जिसे जानकर मनुष्य शिवत्वको प्राप्त होते हैं । वे शिव सर्वमय कैसे हैं और सब कुछ शिवमय कैसे है ? ॥ ३१ ॥

व्यास उवाच -
एतदाकर्ण्य वचनं सूतः पौराणिकोत्तमः ।
स्मृत्वा शिवपदाम्भोजं मुनींस्तानब्रवीद्वचः ॥ ३२ ॥
व्यासजी बोले-यह वचन सुनकर पौराणिकोत्तम सूतजीने शिवजीके चरणकमलोंका ध्यान करके उन मुनियोंसे यह वचन कहा- ॥ ३२ ॥

इति श्रीशिवमहापुराणे चतुर्थ्यां कोटिरुद्रसंहितायां
सगुणनिर्गुणभेदवर्णनं नाम द्विचत्वारिंशोऽध्यायः ॥ ४२ ॥
इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत चतुर्थ कोटिरुद्रसंहितामें सगुणनिर्गुणभेदवर्णन नामक बयालीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ४२ ॥



श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु


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