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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥
॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥ चतुर्थी कोटीरुद्रसंहितायां
त्रिचत्वारिंशोऽध्यायः ज्ञाननिरूपणम् -
ज्ञानका निरूपण तथा शिवपुराणकी कोटिरुद्रसंहिताके श्रवणादिका माहात्म्य सूत उवाच - श्रूयतामृषयः सर्वे शिवज्ञानं यथा श्रुतम् । कथयामि महागुह्यं पर मुक्तिस्वरूपकम् ॥ १ ॥ सूतजी बोले-हे ऋषियो ! अत्यन्त गोपनीय तथा परममुक्तिस्वरूप शिवज्ञानको जैसा मैंने सुना है, वैसा ही कहता हूँ, आप सभी लोग सुनिये ॥ १ ॥ कनारदकुमाराणां व्यासस्य कपिलस्य च । एतेषां च समाजे तैर्निश्चित्य समुदाहृतम् ॥ २ ॥ ब्रह्मा, नारद, सनत्कुमार, व्यास एवं कपिलसभीके समाजमें इन्हीं [महर्षियोंने शिवज्ञानका स्वरूप] निश्चय करके कहा है ॥ २ ॥ इति ज्ञानं सदा ज्ञेयं सर्वं शिवमयं जगत् । शिवः सर्वमयो ज्ञेयस्सर्वज्ञेन विपश्चिता ॥ ३ ॥ यह सारा जगत् शिवमय है, ऐसा ज्ञान निरन्तर अनुशीलन करनेयोग्य है । इस प्रकार सर्वज्ञ विद्वान्को [निश्चितरूपसे] शिवको सर्वमय जानना चाहिये ॥ ३ ॥ आब्रह्मतृणपर्यन्तं यत्किंचिद्दृश्यते जगत् । तत्सर्वं शिव एवास्ति स देवः शिव उच्यते ॥ ४ ॥ ब्रह्मासे लेकर तृणपर्यन्त जो कुछ संसार दीख रहा है, वह सब शिव ही है, वे देव शिव [सर्वमय] कहे जाते हैं ॥ ४ ॥ यदेच्छा तस्य जायेत तदा च क्रियते त्विदम् । सर्वं स एव जानाति तं न जानाति कश्चन ॥ ५ ॥ जिस समय उनकी इच्छा होती है, तभी वे इस संसारकी सृष्टि करते हैं । वे सबको जानते हैं, किंतु उन्हें कोई नहीं जानता ॥ ५ ॥ रचयित्वा स्वयं तच्च प्रविश्य दूरतः स्थितः । न तत्र च प्रविष्टोसौ निर्लिप्तश्चित्स्वरूपवान् ॥ ६ ॥ वे इस जगत्का निर्माणकर उसमें प्रविष्ट होकर भी [जगत्से] दूर ही रहते हैं । वे न तो वहाँ हैं और न उसमें प्रविष्ट हैं, क्योंकि वे निर्लिप्त तथा चित्स्वरूपवाले हैं ॥ ६ ॥ यथा च ज्योतिषश्चैव जलादौ प्रतिबिंबता । वस्तुतो न प्रवेशो वै तथैव च शिवः स्वयम् ॥ ७ ॥ वस्तुतस्तु स्वयं सर्वं क्रमो हि भासते शुभः । अज्ञानं च मतेर्भेदो नास्त्यन्यच्च द्वयम्पुनः ॥ ८ ॥ दर्शनेषु च सर्वेषु मतिभेदः प्रदर्श्यते । परं वेदान्तिनो नित्यमद्वैतं प्रतिचक्षते ॥ ९ ॥ जिस प्रकार जल आदिमें प्रकाशका प्रतिबिम्ब दिखायी देता है, किंतु यथार्थ रूपसे उसका प्रवेश नहीं होता है, उसी प्रकार स्वयं शिव भी [जगत्में भासमान होते हुए भी स्वस्वरूपमें स्थित रहते हैं । वस्तुरूपसे स्वयं वे ही सर्वमय हैं और सर्वत्र उन्हींका शुभ क्रम अर्थात् अनुप्रवेश भासित होता है । बुद्धिका भेद भ्रम ही अज्ञान है, शिवके अतिरिक्त और कोई द्वितीय वस्तु नहीं है । सम्पूर्ण दर्शनोंमें बुद्धिका भेद ही दिखायी पड़ता है, किंतु वेदान्ती लोग नित्य अद्वैततत्त्वका ही प्रतिपादन करते हैं ॥ ७-९ ॥ स्वस्याप्यंशस्य जीवांशो ह्यविद्यामोहितो वशः । अन्योऽहमिति जानाति तया मुक्तो भवेच्छिवः ॥ १० ॥ स्वयं आत्मरूप शिवका अंशभूत यह जीवात्मा अविद्यासे मोहित होकर परतन्त्र-सा हो गया है और मैं दूसरा हूँ-ऐसा समझता है, किंतु उस अविद्यासे मुक्त हो जानेपर वह [साक्षात्] शिव हो जाता है ॥ १० ॥ सर्वं व्याप्य शिवः साक्षाद् व्यापकः सर्वजन्तुषु । चेतनाचेतनेशोपि सर्वत्र शंकरस्स्वयम् ॥ ११ ॥ सभीको व्याप्त करके वे शिवजी सभी जन्तुओंमें व्यापक रूपसे स्थित हैं, जड़-चेतनके ईश्वर वे शिव स्वयं सर्वत्र विद्यमान हैं ॥ ११ ॥ उपायं यः करोत्यस्य दर्शनार्थं विचक्षणः । वेदान्तमार्गमाश्रित्य तद्दर्शनफलं लभेत् ॥ १२ ॥ जो विद्वान् वेदान्तमार्गका आश्रय लेकर इनके दर्शनके लिये उपाय करता है, वह [अवश्य ही] उनका दर्शनरूप फल प्राप्त करता है ॥ १२ ॥ यथाग्निर्व्यापकश्चैव काष्ठेकाष्ठे च तिष्ठति । यो वै मंथति तत्काष्ठं स वै पश्यत्यसंशयम् ॥ १३ ॥ जिस प्रकार अग्नि व्यापक होकर प्रत्येक काष्ठमें [अलक्षितरूपसे] स्थित है, किंतु जो उस काष्ठका मन्थन करता है, उसे ही निःसन्देह अग्निका दर्शन प्राप्त होता है ॥ १३ ॥ भक्त्यादिसाधनानीह यः करोति विचक्षणः । स वै पश्यत्यवश्यं हि तं शिवं नात्र संशयः ॥ १४ ॥ जो विद्वान् भक्ति आदि साधनोंका अनुष्ठान इस लोकमें करता है, वह अवश्य ही उन शिवका दर्शन प्राप्त करता है, इसमें संशय नहीं है ॥ १४ ॥ शिवःशिवःशिवश्चैव नान्यदस्तीति किंचन । भ्रान्त्या नानास्वरूपो हि भासते शङ्करस्सदा ॥ १५ ॥ सर्वत्र शिव ही हैं, शिव ही हैं, शिव ही हैं, अन्य कुछ भी नहीं है, भ्रमके कारण ही वे शंकर [अज्ञानी जीवोंको] अनेक स्वरूपोंमें निरन्तर भासते रहते हैं ॥ १५ ॥ यथा समुद्रो मृच्चैव सुवर्णमथवा पुनः । उपाधितो हि नानात्वं लभते शंकरस्तथा ॥ १६ ॥ जिस प्रकार समुद्र, मिट्टी एवं सुवर्ण उपाधिभेदसे [एक होकर भी] अनेकत्वको प्राप्त होते हैं, उसी प्रकार शिव भी उपाधियोंके भेदसे अनेक रूपोंमें भासते हैं ॥ १६ ॥ कार्यकारणयोर्भेदो वस्तुतो न प्रवर्तते । केवलं भ्रान्तिबुद्ध्यैव तदाभावे स नश्यति ॥ १७ ॥ वास्तवमें कार्य-कारणमें [कुछ भी] भेद नहीं है, केवल बुद्धिकी भ्रान्तिसे अन्तर दिखायी पड़ता है और उसके न रहनेपर वह भेद दूर हो जाता है ॥ १७ ॥ तदा बीजात्प्ररोहश्च नानात्वं हि प्रकाशयेत् । अन्ते च बीजमेव स्यात्तत्प्ररोहश्च नश्यति ॥ १८ ॥ बीजसे प्ररोह अनेक प्रकारका दिखायी देता है, किंतु अन्तमें बीज ही शेष रहता है और प्ररोह नष्ट हो जाता है ॥ १८ ॥ ज्ञानी च बीजमेव स्यात्प्ररोहो विकृतीर्मता । तन्निवृत्तौ पुनर्ज्ञानी नात्र कार्या विचारणा ॥ १९ ॥ ज्ञानी बीजस्वरूप है और प्ररोह (अंकुर)-को विकार माना गया है । उस विकाररूपी अंकुरके नष्ट हो जानेपर ज्ञानीरूपी बीज शेष रहता है, इसमें सन्देह नहीं करना चाहिये ॥ १९ ॥ सर्वं शिवः शिवं सर्वं नास्ति भेदश्च कश्चन । कथं च विविधं पश्यत्येकत्वं च कथं पुनः ॥ २० ॥ यथैकं चैव सूर्याख्यं ज्योतिर्नानाविधं जनैः । जलादौ च विशेषेण दृश्यते तत्तथैव सः ॥ २१ ॥ सब कुछ शिव है तथा शिव ही सब कुछ हैं । इन दोनोंमें कुछ भी भेद नहीं है, फिर क्यों अनेकता देखी जाय या एकता देखी जाय ? जिस प्रकार लोग एक ही सूर्य नामक ज्योतिको जल आदिमें अनेक रूपमें देखते हैं, उसी प्रकार एक ही शिव अनेक रूपमें भासते हैं । २०-२१ ॥ सर्वत्र व्यापकश्चैव स्पर्शत्वं न विबध्यते । तथैव व्यापको देवो बध्यते न क्वचित्स वै ॥ २२ ॥ जिस प्रकार आकाश सर्वत्र व्यापक होकर भी स्पर्शसे बद्ध नहीं होता, उसी प्रकार सर्वव्यापक वह परमात्मा कहीं भी बद्ध नहीं होता है ॥ २२ ॥ साहंकारस्तथा जीवस्तन्मुक्तः शंकरः स्वयम् । जीवस्तुच्छः कर्मभोगो निर्लिप्तः शंकरो महान् ॥ २३ ॥ [आत्मतत्त्व] जबतक अहंकारसे युक्त है, तबतक ही वह जीव है और उससे मुक्त हो जानेपर वह स्वयं शिव है । जीव कर्मभोगी होनेके कारण तुच्छ है और उससे निर्लिप्त होनेसे शिव महान् हैं ॥ २३ ॥ यथैकं च सुवर्णादि मिलितं रजतादिना । ।४ अल्पमूल्यं प्रजायेत तथा जीवोऽप्यहंयुतः ॥ २४ ॥ जैसे चाँदी आदिसे मिश्रित होनेपर सुवर्ण अल्प मूल्यवाला हो जाता है, वैसे ही जीव अहंकारयुक्त होनेपर महत्त्वहीन हो जाता है ॥ २४ ॥ यथैव हि सुर्वणादि क्षारादेः शोधितं शुभम् । पूर्ववन्मूल्यतां याति तथा जीवोऽपि संस्कृतेः ॥ २५ ॥ प्रथमं सद्गुरुं प्राप्य भक्तिभाव समन्वितः । शिवबुद्ध्या करोत्युच्चैः पूजनं स्मरणादिकम् ॥ २६ ॥ जैसे सुवर्ण आदि क्षार आदिसे शोधित होकर शुद्ध हो जानेपर पहलेके समान मूल्य प्राप्त कर लेता है, उसी प्रकार जीव भी संस्कारसे शुद्ध हो [साक्षात् शिव ही] हो जाता है । पहले श्रेष्ठ गुरुको प्राप्तकर भक्तिभावसे युक्त होकर शिवबुद्धिसे उनका भलीभाँति पूजन-स्मरण आदि करे ॥ २५-२६ ॥ तद्बुध्या देहतो याति सर्वपापादिको मलः । तदाऽज्ञानं च नश्येत ज्ञानवाञ्जायते यदा ॥ २७ ॥ तदाहंकारनिर्मुक्तो जीवो निर्मलबुद्धिमान् । शङ्करस्य प्रसादेन प्रयाति शङ्करताम्पुनः ॥ २८ ॥ उनमें इस प्रकारकी बुद्धि (शिवबुद्धि) रखनेसे देहसे सम्पूर्ण पाप आदि दोष दूर हो जाते हैं, इस प्रकार जब वह ज्ञानवान् हो जाता है, तब उस जीवका [द्वैतभावरूप] अज्ञान विनष्ट हो जाता है । वह अहंकारमुक्त होकर निर्मल बुद्धिसे युक्त हो जाता है एवं शिवजीकी कृपासे शिवत्व प्राप्त कर लेता है ॥ २७-२८ ॥ यथाऽऽदर्शस्वरूपे च स्वीयरूपं प्रदृश्यते । तथा सर्वत्रगं शम्भु पश्यतीति सुनिश्चितम् ॥ २९ ॥ जिस प्रकार शुद्ध दर्पणमें अपना रूप दिखायी देता है, उसी प्रकार जीवको भी सभी जगह शिवका साक्षात्कार होने लगता है-यह निश्चित है ॥ २९ ॥ जीवन्मुक्तस्य एवासौ देहः शीर्ण शिवे मिलेत् । प्रारब्धवशगो देहस्तद्भिन्नो ज्ञानवान् मतः ॥ ३० ॥ वह जीव शिवसाक्षात्कार होनेपर जीवन्मुक्त हो जाता है । शरीरके शीर्ण हो जानेपर वह शिवमें मिल जाता है । शरीर प्रारब्धके अधीन है, जो देहाभिमानशून्य है, वही ज्ञानी कहा गया है ॥ ३० ॥ शुभं लब्ध्वा न हृष्येत कुप्येल्लब्ध्वाऽशुभं न हि । द्वंद्वेषु समता यस्य ज्ञानवानुच्यते हि सः ॥ ३१ ॥ शुभ वस्तुको प्राप्तकर जो हर्षित नहीं होता और अशुभको प्राप्तकर क्रोध नहीं करता और द्वन्द्वोंमें समान रहता है, वह ज्ञानवान् कहा जाता है ॥ ३१ ॥ आत्मयोगेन तत्त्वानामथवा च विवेकतः । यथा शरीरतो यायाच्छरीरं मुक्तिमिच्छतः ॥ ३२ ॥ सदाशिवो विलीयेत मुक्तो विरहमेव च । ज्ञानमूलन्तथाध्यात्म्यं तस्य भक्तिश्शिवस्य च ॥ ३३ ॥ आत्मचिन्तनसे तथा तत्त्वोंके विवेकसे ऐसा प्रयल करे कि शरीरसे अपनी पृथक्ताका बोध हो जाय । मुक्तिकी इच्छा रखनेवाला पुरुष शरीर एवं उसके अभिमानको त्यागकर अहंकारशून्य एवं मुक्त हो सदाशिवमें विलीन हो जाता है । अध्यात्मचिन्तन एवं उन शिवजीकी भक्ति-ये ज्ञानके मूल कारण हैं ॥ ३२-३३ ॥ भक्तेश्च प्रेम संप्रोक्तं प्रेम्णश्च श्रवणन्तथा । श्रवणाच्चापि सत्संगस्सत्संगाच्च गुरुर्बुधः ॥ ३४ ॥ सम्पन्ने च तथा ज्ञाने मुक्तो भवति निश्चितम् । इति चेज्ज्ञानवान्यो वै शंभुमेव सदा भजेत् ॥ ३५ ॥ अनन्यया च भक्त्या वै युक्तः शम्भुं भजेत्पुनः । अन्ते च मुक्तिमायाति नात्र कार्या विचारणा ॥ ३६ ॥ भक्तिसे प्रेम, प्रेमसे श्रवण, श्रवणसे सत्संग और सत्संगसे विद्वान् गुरुकी प्राप्ति कही गयी है । ज्ञान हो जानेपर मनुष्य निश्चितरूपसे मुक्त हो जाता है । इस प्रकार जो ज्ञानवान् है, वह सदा शिवजीका भजन करता है । जो अनन्य भक्तिसे युक्त होकर शिवका भजन करता है, वह अन्तमें मुक्त हो जाता है, इसमें किसी भी प्रकारका विचार नहीं करना चाहिये ॥ ३४-३६ ॥ अतोऽधिको न देवोऽस्ति मुक्तिप्राप्त्यै च शंकरात् । शरणं प्राप्य यश्चैव संसाराद्विनिवर्तते ॥ ३७ ॥ मुक्ति प्राप्त करनेके लिये शिवसे बढ़कर अन्य कोई देवता नहीं है, जिनकी शरण प्राप्तकर मनुष्य संसारसे मुक्त हो जाता है ॥ ३७ ॥ इति मे विविधं वाक्यमृषीणां च समागतैः । निश्चित्य कथितं विप्रा धिया धार्यं प्रयत्नतः ॥ ३८ ॥ हे ब्राह्मणो ! इस प्रकार मैंने ऋषियोंके समागमसे निश्चय किये गये अनेक वचन कहे, आपलोगोंको उन्हें यलपूर्वक बुद्धिसे धारण करना चाहिये ॥ ३८ ॥ प्रथमं विष्णवे दत्तं शंभुना लिंगसन्मुखे । विष्णुना ब्रह्मणे दत्तं ब्रह्मणा सनकादिषु ॥ ३९ ॥ नारदाय ततः प्रोक्तं तज्ज्ञानं सनकादिभिः । व्यासाय नारदेनोक्तं तेन मह्यं कृपालुना ॥ ४० ॥ मया चैव भवद्भ्यश्च भवद्भिर्लोकहेतवे । स्थापनीयं प्रयत्नेन शिवप्राप्तिकरं च तत् ॥ ४१ ॥ सर्वप्रथम शिवने ज्योतिर्लिंगके सामने विष्णुको वह ज्ञान दिया था । विष्णुने ब्रह्माको तथा ब्रह्माने सनक आदि ऋषियोंको दिया । उसके बाद सनक आदिने वह ज्ञान नारदसे कहा, नारदने व्यासजीसे कहा, उन कृपालु व्यासजीने मुझसे कहा और मैंने आपलोगोंसे कहा । अब आपलोगोंको लोककल्याणके लिये उसे प्रयत्नपूर्वक धारण करना चाहिये; क्योंकि वह शिवकी प्राप्ति करानेवाला है ॥ ३९-४१ ॥ इति वश्च समाख्यातं यत्पृष्टोऽहं मुनीश्वराः । गोपनीयं प्रयत्नेन किमन्यच्छ्रोतुमिच्छथ ॥ ४२ ॥ हे मुनीश्वरो ! आपलोगोंने मुझसे जो पूछा था, वह मैंने आपलोगोंसे कह दिया, इसे यत्नपूर्वक गुप्त रखना चाहिये, अब आपलोग और क्या सुनना चाहते हैं ? ॥ ४२ ॥ व्यास उवाच - एतच्छुत्वा तु ऋषय आनन्दं परमं गताः । हर्षगद्गदया वाचा नत्वा ते तुष्टुवुर्मुहुः ॥ ४३ व्यासजी बोले-यह सुनकर वे ऋषि परम हर्षको प्राप्त हुए और सूतजीको नमस्कारकर हर्षके कारण गद्गद वाणीमें बारंबार उनकी स्तुति करने लगे ॥ ४३ ॥ ऋषय ऊचुः - व्यासशिष्य नमस्तेऽस्तु धन्यस्त्वं शैवसत्तमः । श्रावितं नः परं वस्तु शैवं ज्ञानमनुत्तमम् ॥ ४४ ॥ अस्माकं चेतसो भ्रान्तिर्गता हि कृपया तव । सन्तुष्टाश्शिवसज्ज्ञानं प्राप्य त्वत्तो विमुक्तिदम् ॥ ४५ ॥ ऋषिगण बोले-हे व्यासशिष्य ! आपको नमस्कार है । हे शैवसत्तम ! आप धन्य हैं, जो कि आपने हमलोगोंको परम तत्त्वरूपी उत्तम शिवज्ञान सुनाया । आपकी कृपासे हमलोगोंके चित्तकी भ्रान्ति दूर हो गयी । हमलोग आपसे मुक्तिदायक शिवविषयक उत्तम ज्ञान प्राप्तकर सन्तुष्ट हो गये ॥ ४४-४५ ॥ सूत उवाच - नास्तिकाय न वक्तव्यमश्रद्धाय शठाय च । अभक्ताय महेशस्य न चाशुश्रुषवे द्विजाः ॥ ४६ ॥ इतिहासपुराणानि वेदाच्छास्त्राणि चासकृत् । विचार्य्योद्धृत्य तत्सारं मह्यं व्यासेन भाषितम् ॥ ४७ ॥ सूतजी बोले-हे द्विजो ! नास्तिक, श्रद्धारहित, शठ, शिवमें भक्ति न रखनेवाले तथा सुननेकी इच्छा न रखनेवालेको इसे नहीं बताना चाहिये । व्यासजीने इतिहास, पुराण और वेद-शास्त्रोंको बारंबार विचारकर तथा उनका तत्त्व निकालकर मुझसे कहा है ॥ ४६-४७ ॥ एतच्छ्रुत्वा ह्येकवारं भवेत्पापं हि भस्मसात् । अभक्तो भक्तिमाप्नोति भक्तस्य भक्तिवर्द्धनम् ॥ ४८ ॥ पुनश्श्रुते च सद्भक्तिर्मुक्तिस्स्याच्च श्रुते पुनः । तस्मात्पुनःपुनश्श्राव्यं भुक्तिमुक्तिफलेप्सुभिः ॥ ४९ ॥ इसे एक बार सुननेसे पाप नष्ट हो जाता है । अभक्तको भक्ति प्राप्त होती है एवं भक्तकी भक्तिमें वृद्धि होती है । पुनः सुननेसे श्रेष्ठ भक्ति मिलती है और पुनः सुननेसे मुक्ति प्राप्त होती है । अतः भोग तथा मोक्षरूप फल चाहनेवालोंको इसे बार-बार सुनना चाहिये ॥ ४८-४९ ॥ आवृत्तयः पंच कार्याः समुद्दिश्य फलं परम् । तत्प्राप्नोति न सन्देहो व्यासस्य वचनं त्विदम् ॥ ५० ॥ उत्तम फलको लक्ष्य करके इसकी पाँच आवृत्ति करनी चाहिये, ऐसा करनेसे मनुष्य उसे प्राप्त कर लेता है, इसमें संशय नहीं है; यह व्यासजीका वचन है ॥ ५० ॥ न दुर्लभं हि तस्यैव येनेदं श्रुतमुत्तमम् । पंचकृत्वस्तदावृत्त्या लभ्यते शिवदर्शनम् ॥ ५१ ॥ पुरातनाश्च राजानो विप्रा वैश्याश्च सत्तमाः । इदं श्रुत्वा पंचकृत्वो धिया सिद्धिं परां गताः ॥ ५२ ॥ श्रोष्यत्यद्यापि यश्चेदं मानवो भक्तितत्परः । विज्ञानं शिवसंज्ञं वै भुक्तिं मुक्तिं लभेच्च सः ॥ ५३ ॥ जिसने इस उत्तम इतिहासको सुना, उसे कुछ भी दर्लभ नहीं है । इसकी पाँच आवृत्ति करनेसे शिवजीका दर्शन प्राप्त होता है । हे श्रेष्ठ ऋषियो ! प्राचीनकालके राजा, ब्राह्मण एवं वैश्य बुद्धिपूर्वक इसे पाँच बार सुनकर उत्कृष्ट सिद्धिको प्राप्त हुए हैं । आज भी जो मनुष्य भक्तिमें तत्पर होकर इस शिवसंजक विज्ञानका श्रवण करेगा, वह भोग तथा मोक्ष प्राप्त करेगा ॥ ५१-५३ ॥ व्यास उवाच - इति तद्वचनं श्रुत्वा परमानन्दमागताः । समानर्चुश्च ते भूतं नानावस्तुभिरादरात ॥ ५४ ॥ नमस्कारैः स्तवैश्चैव स्वस्तिवाचनपूर्वकम् । आशीर्भिर्वर्द्धयामासुः संतुष्टाश्छिन्नसंशयाः ॥ ५५ ॥ व्यासजी बोले-उनका यह वचन सुनकर वे ऋषि परम आनन्दित हुए और आदरके साथ अनेक प्रकारकी वस्तुओंसे सूतजीकी पूजा करने लगे । वे सन्देहरहित तथा प्रसन्न होकर स्वस्तिवाचनपूर्वक नमस्कार करके अनेक स्तोत्रोंसे उनकी स्तुति करते हुए शुभकामनाओंसे उनका अभिनन्दन करने लगे ॥ ५४-५५ ॥ परस्परं च संतुष्टाः सूतस्ते च सुबुद्धयः । शंभुं देवं परं मत्वा नमंति स्म भजंति च ॥ ५६ ॥ इसके बाद परम बुद्धिमान् वे ऋषिगण एवं सूतजी परस्पर सन्तुष्ट होकर शिवको परम देवता मानकर नमस्कार तथा भजन करने लगे ॥ ५६ ॥ एतच्छिवसुविज्ञानं शिवस्यातिप्रियं महत् । भुक्तिमुक्तिप्रदं दिव्यं शिवभक्तिविवर्द्धनम् ॥ ५७ ॥ इयं हि संहिता पुण्या कोटिरुद्राह्वया परा । चतुर्थी शिव पुराणस्य कथिता मे मुदावहा ॥ ५८ ॥ शिवसम्बन्धी यह विशिष्ट ज्ञान शिवको अत्यन्त प्रसन्न करनेवाला, भोग-मोक्ष देनेवाला तथा दिव्य शिवभक्तिको बढ़ानेवाला है । इस प्रकार मैंने शिवपुराणकी आनन्द प्रदान करनेवाली तथा उत्कृष्ट कोटिरुद्र नामक चौथी संहिताका वर्णन कर दिया ॥ ५७-५८ ॥ एतां यः शृणुयाद्भक्त्या श्रावयेद्वा समाहितः । स भुक्त्वेहाखिलान्भोगानंते परगतिं लभेत् ॥ ५९ ॥ जो मनुष्य सावधानचित्त होकर भक्तिपूर्वक इसे सुनता है अथवा सुनाता है, वह इस लोकमें सम्पूर्ण सुखोंको भोगकर अन्तमें परम गति प्राप्त करता है ॥ ५९ ॥ इति श्रीशिवमहापुराणे चतुर्विंशतिसाहस्र्यां वैयासिक्यां संहितायां तदन्तर्गतायां चतुर्थ्यां कोटिरुद्रसंहितायां ज्ञाननिरूपणं नाम त्रिचत्वारिंशोऽध्यायः ॥ ४३ ॥ समाप्तेयं शिवमहापुराणान्तर्गत चतुर्थी कोटिरुद्रसंहिता ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत चतुर्थ कोटिरुद्रसंहितामें ज्ञान-निरूपण नामक तैंतालीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ४३ ॥ ॥ चतुर्थ कोटिरुद्रसंहिता पूर्ण हुई ॥ श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु |