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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥
॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥ पञ्चमी उमासंहितायां
प्रथमोऽध्यायः कृष्ण-उपमन्युसंवादे स्वगतिवर्णनम् -
पुत्रप्राप्तिके लिये कैलासपर गये हुए श्रीकृष्णका उपमन्युसे संवाद यो धत्ते भुवनानि सत्त्वगुणवान्स्रष्टा रजः संश्रयः संहर्त्ता तमसान्वितो गुणवतीं मायामतीत्य स्थितः । सत्यानन्दमनन्तबोधममलं ब्रह्मादिसंज्ञास्पदं नित्यं सत्त्वसमन्वयादधिगतं पूर्णं शिवं धीमहि ॥ १ ॥ जो परमात्मा सत्त्वगुणसे युक्त होकर अर्थात् सत्त्वगुणका आश्रय लेकर [चौदहों] भुवनोंको धारण करते हैं, रजोगुणका आश्रय लेकर सृष्टि करते हैं, तमोगुणसे समन्वित होकर संहार करते हैं एवं त्रिगुणमयी मायासे परे होकर स्थित हैं, उन सत्य-आनन्दस्वरूप, अनन्तज्ञानसम्पन्न, निर्मल, ब्रह्मा आदि नामोंसे पुकारे जानेवाले, नित्य, सत्त्वगुणके आश्रयसे प्राप्त होनेवाले तथा अखण्ड शिवका हम ध्यान करते हैं ॥ १ ॥ ऋषय ऊचुः - सूतसूत महाप्राज्ञ व्यासशिष्य नमोऽस्तु ते । चतुर्थी कोटिरुद्राख्या श्राविता संहिता त्वया ॥ २ ॥ ऋषिगण बोले-हे सूतजी ! हे महाप्राज्ञ ! हे व्यासशिष्य ! आपको नमस्कार है, आपने हमें कोटिरुद्र नामक चतुर्थ संहिता सुनायी ॥ २ ॥ अथोमासंहितान्तःस्थनानाख्यानसमन्वितम् । ब्रूहि शंभोश्चरित्रं वै साम्बस्य परमात्मनः ॥ ३ ॥ अब आप उमासंहितामें विद्यमान विविध आख्यानोंसे युक्त पार्वतीसहित परमात्मा शिवके चरित्रका वर्णन कीजिये ॥ ३ ॥ सूत उवाच - महर्षयः शौनकाद्याः शृणुत प्रेमतः शुभम् । शाङ्करं चरितं दिव्यं भुक्तिमुक्तिप्रदं परम् ॥ ४ ॥ सतजी बोले-हे शौनकादि महर्षियो ! अब आपलोग मंगलमय, भोग तथा मोक्षको देनेवाले, दिव्य एवं उत्तम शिवके चरित्रको प्रेमपूर्वक सुनिये ॥ ४ ॥ इतीदृशं पुण्यप्रश्नं पृष्टवान्मुनिसत्तमः । व्यासः सनत्कुमारं वै शैवं सच्चरितं जगौ ॥ ५ ॥ [किसी समय] मुनियोंमें श्रेष्ठ व्यासजीने ऐसा ही पवित्र प्रश्न सनत्कुमारसे पूछा था, तब उन्होंने शिवजीके सुन्दर चरित्रका वर्णन किया था ॥ ५ ॥ सनत्कुमार उवाच - वासुदेवाय यत्प्रोक्तमुपमन्युमहर्षिणा । तदुच्यते मया व्यास चरितं हि महेशितुः ॥ ६ ॥ सनत्कुमार बोले-हे व्यासजी ! महर्षि उपमन्युने श्रीकृष्णसे जिस शिवचरित्रका वर्णन किया था, उसीको मैं कहता हूँ ॥ ६ ॥ पुरा पुत्रार्थमगमत्कैलासं शङ्करालयम् । वसुदेवसुतः कृष्णस्तपस्तप्तुं शिवस्य हि ॥ ७ ॥ पूर्वकालमें वसुदेवपुत्र श्रीकृष्ण पुत्रकी कामनासे शिवजीकी तपस्या करनेके लिये शंकरालय कैलासपर गये ॥ ७ ॥ अत्रोपमन्युं संदृष्ट्वा तपन्तं शृङ्ग उत्तमे । प्रणम्य भक्त्या स मुनिं पर्यपृच्छत्कृताञ्जलिः ॥ ८ ॥ वहाँ पर्वतके उत्तम शिखरपर मुनि उपमन्युको तप करते देखकर भक्तिपूर्वक उन्हें प्रणाम करके हाथ जोड़ उनसे वे पूछने लगे ॥ ८ ॥ श्रीकृष्ण उवाच - उपमन्यो महाप्राज्ञ शैवप्रवर सन्मते । पुत्रार्थमगमं तप्तुं तपोऽत्र गिरिशस्य हि ॥ ९ ॥ ब्रूहि शङ्करमाहात्म्यं सदानन्दकरं मुने । यच्छ्रुत्वा भक्तितः कुर्यां तप ऐश्वरमुत्तमम् ॥ १० ॥ श्रीकृष्ण बोले-हे महाप्राज्ञ ! हे शैवप्रवर ! हे सन्मते ! हे उपमन्युजी ! मैं पुत्रप्राप्तिके लिये शंकरजीकी तपस्या करनेके लिये यहाँ आया हूँ । हे मुने ! निरन्तर आनन्द प्रदान करनेवाले शिवमाहात्म्यको कहिये, जिसे सुनकर मैं भक्तिपूर्वक महेश्वरका उत्तम तप करूँ ॥ ९-१० ॥ सनत्कुमार उवाच - इति श्रुत्वा वचस्तस्य वासुदेवस्य धीमतः । प्रत्युवाच प्रसन्नात्मा ह्युपमन्युः स्मरञ्छिवम् ॥ ११ ॥ सनत्कुमार बोले-उन बुद्धिमान् श्रीकृष्णकी यह बात सुनकर (महर्षि] उपमन्यु प्रसन्नचित्त होकर शिवजीका स्मरण करते हुए कहने लगे- ॥ ११ ॥ उपमन्युरुवाच - शृणु कृष्ण महाशैव महिमानं महेशितुः । यमद्राक्षमहं शंभोर्भक्तिवर्द्धनमुत्तमम् ॥ १२ ॥ तपःस्थोऽहं समद्राक्षं शङ्करं च तदायुधान् । परिवारं समस्तं च विष्ण्वादीनमरादिकान् ॥ १३ ॥ उपमन्यू बोले-हे महाशैव श्रीकृष्ण ! महेश्वर शिवजीकी भक्तिको बढ़ानेवाली जिस उत्तम महिमाको मैंने [स्वयं] देखा है, उसे आप सुनिये । तपमें स्थित मैंने शंकर, उनके आयुधों, उनके समस्त परिवार एवं विष्णु आदि देवगणोंका प्रत्यक्ष दर्शन किया ॥ १२-१३ ॥ त्रिभिरंशैः शोभमानमजस्रसुखमव्ययम् । एकपादं महादंष्ट्रं सज्वालकवलैर्मुखैः ॥ १४ ॥ द्विसहस्रमयूखानां ज्योतिषाऽतिविराजितम् । सर्वास्त्रप्रवराबाधमनेकाक्षं सहस्रपात् ॥ १५ ॥ मैंने देखा कि वह [पाशुपत] तीन फलकोंसे शोभित, शाश्वत सौख्यका हेत. अविनश्वर, एकपादात्मक, विशाल दाढ़ोंसे युक्त, मुखोंसे मानों आग उगलता हुआ, सहस्रों [सूर्योकी] किरणोंके प्रकाशसे देदीप्यमान, सहस्त्रचरणान्वित, अनेक नेत्रोंसे युक्त तथा सभी प्रमुख आयुधोंको अभिभूत करता हुआ [भगवान् शंकरके समीपमें स्थित है ॥ १४-१५ ॥ यश्च कल्पान्तसमये विश्वं संहरति ध्रुवम् । नावध्यो यस्य च भवेत्त्रैलौक्ये सचराचरे ॥ १६ ॥ महेश्वरभुजोत्सृष्टं त्रैलोक्यं सचराचरम् । निर्ददाह द्रुतं कृत्स्नं निमेषार्द्धान्न संशयः ॥ १७ ॥ जो कल्पके अन्तमें विश्वका संहार कर देता है, जिसके लिये इस चराचर त्रैलोक्यमें कोई भी अवध्य नहीं है, भगवान् महेश्वरकी भुजाओंसे छूटा हुआ वह [पाशुपत] चराचरसहित सम्पूर्ण त्रिलोकीको शीघ्र हीआधे पलमें दग्ध कर सकता है, इसमें सन्देह नहीं है ॥ १६-१७ ॥ तपःस्थो रुद्रपार्श्वस्थं दृष्टवानहमव्यम् । गुह्यमस्त्रं परं चास्य न तुल्यमधिकं क्वचित् ॥ १८ ॥ यत्तच्छूलमिति ख्यातं सर्वलोकेषु शूलिनः । विजयाभिधमत्युग्रं सर्वशस्त्रास्त्रनाशकम् ॥ १९ ॥ दारयेद्यन्महीं कृत्स्नां शोषयेद्यन्महोदधिम् । पातयेदखिलं ज्योतिश्चक्रं यन्नात्र संशयः ॥ २० ॥ तपमें स्थित मैंने रुद्रके समीपमें विद्यमान अविनाशी [उस] गुह्य अस्त्रको देखा, जिसके समान तथा बढ़कर कोई भी अस्त्र नहीं है, उन शिवजीका सभी लोकोंमें शूल नामसे प्रसिद्ध जो विजयास्त्र है, वह अत्यन्त उग्र है, समस्त शस्त्रास्त्रोंका विनाशक है और जो सम्पूर्ण पृथ्वीको विदीर्ण कर देता है, जो समुद्रको सुखा डालता है और जो सम्पूर्ण नक्षत्रमण्डलको गिरा देता है, इसमें संशय नहीं है ॥ १८-२० ॥ यौवनाश्वो हतो येन मांधाता सबलः पुरा । चक्रवर्ती महातेजास्त्रैलोक्यविजयो नृपः ॥ २१ ॥ दर्पाविष्टो हैहयश्च निःक्षिप्तो लवणासुरः । शत्रुघ्नं नृपतिं युद्धे समाहूय समन्ततः ॥ २२ ॥ तस्मिन्दैत्ये विनष्टे तु रुद्रहस्ते गतं तु यत् । तच्छूलमिति तीक्ष्णाग्रं सन्त्रासजननं महत् ॥ २३ ॥ जिसने पूर्वकालमें महाबली, चक्रवर्ती, त्रैलोक्यविजयी एवं महातेजसे सम्पन्न युवनाश्वपुत्र मान्धाताको विनष्ट कर दिया, जिसने [परशुरामजीके माध्यमसे] महाभिमानी हैहय (कार्तवीर्यार्जुन)-का संहार करवाया, जिसने युद्धके लिये स्वयं शत्रुघ्नको आमन्त्रितकर [अधर्मनिरत] लवणासुरका विनाश करवाया और उस दैत्य [लवणासुर]का वध हो जानेपर जो पुनः शिवजीके हाथों में पहुँच गया, वह शूल तीक्ष्ण अग्रभागवाला तथा घोर भय उत्पन्न करनेवाला है ॥ २१-२३ ॥ त्रिशिखां भृकुटीं कृत्वा तर्जयन्तमिव स्थितम् । विधूम्रानलसङ्काशं बालसूर्यमिवोदितम् ॥ २४ ॥ सूर्य हस्तमनिर्देश्यं पाशहस्तमिवान्तकम् । परशुं तीक्ष्णधारं च सर्पाद्यैश्च विभूषितम् ॥ २५ ॥ कल्पान्तदहनाकारं तथा पुरुषविग्रहम् । यत्तद्भार्गवरामस्य क्षत्रियान्तकरं रणे ॥ २६ ॥ रामो यद्बलमाश्रित्य शिवदत्तश्च वै पुरा । त्रिःसप्तकृत्वो नक्षत्रं ददाह हृषितो मुनिः ॥ २७ ॥ [हे श्रीकृष्ण !] तीन फलकोंवाला होनेसे मानो भौंहोंको तीन जगहसे टेढ़ीकर विरोधियोंको डाँटता हुआसा, धूमरहित अग्निके समान, उदयकालीन सूर्यके समान कान्तिमय, सर्पसे युक्त होनेके कारण पाशधारी यमराजके समान तथा अवर्णनीय वह त्रिशूल [भगवान् शंकरके समीप] स्थित था । [इसी प्रकार सर्प आदिसे विभूषित, तीक्ष्ण धारवाला तथा प्रलयकालीन अग्निके समान स्वरूपवान् वह परशु भी साक्षात् पुरुष देह धारणकर [शिवजीके निकट] उपस्थित था, जिसने भृगुवंशी परशुरामके क्षत्रिय शत्रुओंका युद्धमें संहार किया था । शिवजीके द्वारा प्रदत्त उसी परशुके सामर्थ्यका आश्रय लेकर प्राचीनकालमें परशुरामजी उत्साहपूर्वक इक्कीस बार क्षत्रियसमूहको भस्म कर सके थे ॥ २४-२७ ॥ सुदर्शनं तथा चक्रं सहस्रवदनं विभुम् । द्विसहस्रभुजं देवमद्राक्षं पुरुषाकृतिम् ॥ २८ ॥ द्विसहस्रेक्षणं दीप्तं सहस्रचरणाकुलम् । कोटिसूर्यप्रतीकाशं त्रैलोक्यदहनक्षमम् ॥ २९ ॥ [इसी प्रकार] व्यापक स्वरूपवाले हजार मुखोंसे युक्त, हजार-हजार भुजाओं, नेत्रों तथा चरणोंवाले, करोड़ों सूर्योंके सदृश कान्तिमय, त्रिलोकीको भस्म कर देनेमें समर्थ तथा पुरुष शरीर धारणकर वहाँ उपस्थित देवस्वरूप सुदर्शनचक्रको भी मैंने देखा ॥ २८-२९ ॥ वज्रं महोज्ज्वलं तीक्ष्णं शतपर्वमनुत्तमम् । महाधनुः पिनाकं च सतूणीरं महाद्युतिम् ॥ ३० ॥ शक्तिं खड्गं च पाशं च महादीप्तं समाङ्कुशम् । गदां च महतीं दिव्यामन्यान्यस्त्राणि दृष्टवान् ॥ ३१ ॥ पुन: मैंने अति उज्ज्वल, सौ पर्ववाले, तीक्ष्ण तथा उत्तम वज्रको, प्रदीप्त कान्तिवाले तथा तरकससहित पिनाक नामक धनुषको और शक्ति, खड्ग, पाश, महाकान्तिमान् अंकुश, महान् दिव्य गदा तथा अन्य अस्त्रोंको भी वहाँ स्थित देखा ॥ ३०-३१ ॥ तथा च लोकपालानामस्त्राण्येतानि यानि च । अद्राक्षं तानि सर्वाणि भगवद्रुद्रपार्श्वतः ॥ ३२ ॥ मैंने लोकपालोंके इन अस्त्रोंको तथा अन्य भी जितने अस्त्र हैं, उन सभीको भगवान् रुद्रके पासमें स्थित देखा ॥ ३२ ॥ सव्यदेशे तु देवस्य ब्रह्मा लोकपितामहः । विमानं दिव्यमास्थाय हंसयुक्तं मनोऽनुगम् ॥ ३३ ॥ वामपार्श्वे तु तस्यैव शंखचक्रगदाधरः । वैनतेयं समास्थाय तथा नारायणः स्थितः ॥ ३४ ॥ लोकपितामह ब्रह्मा हंससे युक्त तथा इच्छानुसार चलनेवाले दिव्य विमानपर आरूढ़ होकर उन प्रभुके दाहिनी ओर विराजमान थे और शंख, चक्र तथा गदा धारण किये भगवान् नारायण गरुड़पर विराजमान होकर उनके वामभागमें स्थित थे ॥ ३३-३४ ॥ स्वायंभुवाद्या मनवो भृग्वाद्या ऋषयस्तथा । शक्राद्या देवताश्चैव सर्व एव समं ययुः ॥ ३५ ॥ स्वायम्भुव आदि मनु, भृगु आदि ऋषि एवं इन्द्र आदि समस्त देवता भी उनके साथ आये थे ॥ ३५ ॥ स्कंदः शक्तिं समादाय मयूरस्थः सघंटकः । देव्याः समीपे सन्तस्थौ द्वितीय इव पावकः ॥ ३६ ॥ नंदी शूलं समादाय भवाग्रे समवस्थितः । सर्वभूतगणाश्चैवं मातरो विविधाः स्थिताः ॥ ३७ ॥ मोरपर सवार कार्तिकेय, शक्ति तथा घण्टा धारण करके देवी पार्वतीके समीप दूसरी अग्निके समान स्थित थे । नन्दी त्रिशूल धारण करके सदाशिवके आगे स्थित थे । समस्त भूतगण तथा विविध मातृकाएँ भी विराजमान थीं ॥ ३६-३७ ॥ तेऽभिवाद्य महेशानं परिवार्य समन्ततः । अस्तुवन्विविधैः स्तोत्रैर्महादेवं तदा सुराः ॥ ३८ ॥ उस समय वे सभी देवता महेश्वर महादेवको चारों ओरसे घेरकर उन्हें नमस्कारकर अनेक प्रकारके स्तोत्रोंद्वारा उनकी स्तुति कर रहे थे ॥ ३८ ॥ यत्किंचित्तु जगत्यस्मिन्दृश्यते श्रूयतेऽथवा । तत्सर्वं भगवत्पार्श्वे निरीक्ष्याहं सुविस्मितः ॥ ३९ ॥ इस प्रकार जगत्में जो कुछ भी दिखायी देता है अथवा सुना जाता है, वह सब भगवान्के पास देखकर मैं अत्यधिक आश्चर्यचकित हो गया ॥ ३९ ॥ सुमहद्धैर्यमालंब्य प्रांजलिर्विविधैः स्तवैः । परमानन्दसंमग्नोऽभूवं कृष्णाहमध्वरे ॥ ४० ॥ संमुखे शङ्करं दृष्ट्वा बाष्पगद्गदया गिरा । अपूजयं सुविधिवदहं श्रद्धासमन्वितः ॥ ४१ ॥ हे श्रीकृष्ण ! मैं इस [शिवाराधन] यज्ञमें अत्यधिक धैर्य धारणकर हाथ जोड़ करके नानाविध स्तोत्रोंसे उनकी स्तुतिकर परम आनन्दमें निमग्न हो गया और शिवजीको सम्मुख देखकर श्रद्धासे युक्त हो आँसुओंके कारण गद्गद वाणीसे मैंने विधिवत् उनका पूजन किया ॥ ४०-४१ ॥ भगवानथ सुप्रीतः शङ्करः परमेश्वरः । वाण्या मधुरया प्रीत्या मामाह प्रहसन्निव ॥ ४२ ॥ तब अत्यन्त प्रसन्न हुए परमेश्वर सदाशिवने हँसते हुए प्रेमपूर्वक मधुर वाणीमें मुझसे कहा- ॥ ४२ ॥ न विचालयितुं शक्यो मया विप्र पुनः पुनः । परीक्षितोऽसि भद्रं ते भवान्भक्त्यान्वितो दृढः ॥ ४३ ॥ हे विप्र ! मैंने बारंबार आपकी परीक्षा ली, आप भक्तिसे युक्त तथा दृढ़ हैं । मैं आपको अपनी भक्तिसे विचलित नहीं कर सका, आपका कल्याण हो ॥ ४३ ॥ तस्मात्ते परितुष्टोऽस्मि वरं वरय सुव्रत । दुर्लभं सर्वदेवेषु नादेयं विद्यते तव ॥ ४४ ॥ स चाहं तद्वचः श्रुत्वा शंभोः सत्प्रेमसंयुतम् । देवं तं प्रांजलिर्भूत्वाब्रुवं भक्तानुकंपिनम् ॥ ४५ ॥ अतः हे सुव्रत ! मैं बहुत प्रसन्न हूँ, आप सम्पूर्ण देवगणोंके लिये भी दुर्लभ वर माँगिये, आपके लिये कुछ भी अदेय नहीं है । तब शिवजीके उस प्रेमयुक्त वचनको सुनकर हाथ जोड़कर वह [मैं] भक्तोंपर कृपा करनेवाले उन प्रभुसे कहने लगा- ॥ ४४-४५ ॥ उपमन्युरुवाच - भगवन्यदि तुष्टोऽसि यदि भक्तिः स्थिरा मयि । तेन सत्येन मे ज्ञानं त्रिकालविषयं भवेत् ॥ ४६ ॥ उपमन्यु बोले-हे भगवन् ! यदि आप मुझसे सन्तुष्ट हैं और यदि आपमें मेरी दृढ़ भक्ति है, तो उस सत्यसे मुझे त्रिकालज्ञता प्राप्त हो जाय ॥ ४६ ॥ प्रयच्छ भक्तिं विपुलां त्वयि चाव्यभिचारिणीम् । सान्वयस्यापि नित्यं मे भूरि क्षीरौदनं भवेत् ॥ ४७ ॥ आप मुझको अपने प्रति दृढ़ अनन्यभक्ति प्रदान करें, मुझे तथा मेरे वंशजोंको पर्याप्त दूध-भात नित्य प्राप्त होता रहे ॥ ४७ ॥ ममास्तु तव सान्निध्यं नित्यं चैवाश्रमे विभो । तव भक्तेषु सख्यं स्यादन्योन्येषु सदा भवेत् ॥ ४८ ॥ हे विभो ! मुझे इस आश्रममें आपका नित्य सान्निध्य प्राप्त हो और आपके भक्तोंमें मेरी परस्पर मित्रता सदा बनी रहे तथा अन्य लोगोंके प्रति उदासीनता रहे ॥ ४८ ॥ एवमुक्तो मया शंभुर्विहस्य परमेश्वरः । कृपादृष्ट्या निरीक्ष्याशु मां स प्राह यदूद्वह ॥ ४९ ॥ हे यदुःश्रेष्ठ ! मेरे द्वारा इस प्रकार कहे जानेपर उन परमेश्वर सदाशिवने हँसकर कृपादृष्टिसे मेरी ओर देखकर शीघ्र ही कहा- ॥ ४९ ॥ श्रीशिव उवाच - उपमन्यो मुने तात वर्जितस्त्वं भविष्यसि । जरामरणजैर्दोषैः सर्वकामान्वितो भव ॥ ५० ॥ श्रीशिवजी बोले-हे उपमन्यो ! हे मुने ! हे तात ! आप जरा मरणजन्य दोषोंसे मुक्त रहेंगे और आपकी सारी कामनाएं पूर्ण होंगी ॥ ५० ॥ मुनीनां पूजनीयश्च यशोधनसमन्वितः । शीलरूपगुणैश्वर्यं मत्प्रसादात्पदेपदे ॥ ५१ ॥ आप सम्पूर्ण मुनियोंके पूजनीय, यश तथा धनसे परिपूर्ण होंगे और मेरी प्रसन्नतासे पद-पदपर आपको शील, रूप, गुण तथा ऐश्वर्यकी प्राप्ति होती रहेगी ॥ ५१ ॥ क्षीरोदसागरस्यैव सान्निध्यं पयसां निधेः । तत्र ते भविता नित्यं यत्रयत्रेच्छसे मुने ॥ ५२ ॥ हे मुने ! तुम जहाँ-जहाँ चाहोगे, वहाँ पयोराशिभूत क्षीरसागरका सान्निध्य आपको सदा प्राप्त होता रहेगा ॥ ५२ ॥ अमृतात्मकं तत्क्षीरं यावत्संयाम्यते ततः । इमं वैवस्वतं कल्पं पश्यसे बन्धुभिः सह ॥ ५३ ॥ त्वद्गोत्रं चाक्षयं चास्तु मत्प्रसादात्सदैव हि । सान्निध्यमाश्रमे तेऽहं करिष्यामि महामुने ॥ ५४ ॥ जबतक वैवस्वत मनुका यह कल्प समाप्त नहीं होगा, तबतक आप अपने बन्धुओंके साथ इस अमृतात्मक क्षीरसागरका दर्शन प्राप्त करते रहेंगे । हे महामुने ! मेरी कृपासे आपका वंश सदा अक्षय रहेगा और मैं आपके इस आश्रममें सदैव निवास करूँगा ॥ ५३-५४ ॥ मद्भक्तिस्तु स्थिरा चास्तु सदा दास्यामि दर्शनम् । स्मृतश्च भवता वत्स प्रियस्त्वं सर्वथा मम ॥ ५५ ॥ हे वत्स ! मेरी भक्ति आपमें सदा स्थिर रहेगी और आपके द्वारा स्मरण किये जानेपर मैं निरन्तर दर्शन देता रहूँगा, हे वत्स ! आप सब प्रकारसे मेरे प्रिय हैं ॥ ५५ ॥ यथाकामसुखं तिष्ठ नोत्कण्ठां कर्तुमर्हसि । सर्वं प्रपूर्णतां यातु चिन्तितं नात्र संशयः ॥ ५६ ॥ आप इच्छानुसार सुखपूर्वक रहें । किसी प्रकारकी उत्कण्ठा मत कीजिये, आपके सारे चिन्तित मनोरथ पूर्ण हो जायेंगे, इसमें संशय नहीं है ॥ ५६ ॥ उपमन्युरुवाच - एवमुक्त्वा स भगवान् सूर्यकोटिसमप्रभः । महेशानो वरान् दत्त्वा तत्रैवान्तरधीयत ॥ ५७ ॥ उपमन्यु बोले-ऐसा कहकर करोड़ों सूर्योके समान देदीप्यमान वे भगवान् महेश्वर वर प्रदानकर वहीं अन्तर्धान हो गये ॥ ५७ ॥ एवं दृष्टो मया कृष्ण परिवारसमन्वितः । शङ्करः परमेशानो भक्तिमुक्तिप्रदायकः ॥ ५८ ॥ शंभुना परमेशेन यदुक्तं तेन धीमता । तदवाप्तं च मे सर्वं देवदेव समाधिना ॥ ५९ ॥ हे श्रीकृष्ण ! इस प्रकार मैंने भोग एवं मोक्ष देनेवाले भगवान् सदाशिवको सपरिवार देखा । हे देवदेव ! उन महाबुद्धिमान् परमेश्वर सदाशिवने मुझसे जो कहा था, वह सब उनके ध्यानके द्वारा मैंने प्राप्त किया ॥ ५८-५९ ॥ प्रत्यक्षं चैव ते जातान् गन्धर्वाप्सरसस्तथा । ऋषीन्विद्याधरांश्चैव पश्य सिद्धान्व्यवस्थितान् ॥ ६० ॥ आप अपने समक्ष उपस्थित हुए गन्धों , अप्सराओं, ऋषियों, विद्याधरों एवं सिद्धोंको देखिये ॥ ६० ॥ पश्य वृक्षान्मनोरम्यान् स्निग्धपत्रान्सुगंधिनः । सर्वर्तुकुसुमैर्युक्तान् सदापुष्पफलन्वितान् ॥ ६१ ॥ सर्वमेतन्महाबाहो शङ्करस्य महात्मनः । प्रसादाद्देवदेवस्य विश्वं भावसमन्वितम् ॥ ६२ ॥ आप चिकने पत्तोंवाले, सुगन्धित, सभी ऋतुओंमें फूलनेवाले तथा सर्वदा पुष्प-फलसे युक्त इन मनोरम वृक्षोंको देखिये । हे महाबाहो ! अनेक पदार्थोसे संयुक्त यह समस्त विश्व ही देवदेव महात्मा शंकरकी कृपासे उत्पन्न हुआ है ॥ ६१-६२ ॥ ममास्ति त्वखिलं ज्ञानं प्रसादाद् शूलपाणिनः । भूतं भव्यं भविष्यं च सर्वं जानामि तत्त्वतः ॥ ६३ ॥ मुझे तो सदाशिवकी कृपासे सम्पूर्ण ज्ञान है, मैं भूत, भविष्य एवं वर्तमान सभीको यथार्थरूपमें जानता हूँ ॥ ६३ ॥ तमहं दृष्टवान्देवमपि देवाः सुरेश्वराः । यं न पश्यन्त्यनाराध्य कोऽन्यो धन्यतरो मया ॥ ६४ ॥ इन्द्र आदि देवगण भी जिन्हें बिना आराधनाके नहीं देख सकते, उन महेश्वर देवका मैंने दर्शन कर लिया, अत: मुझसे अधिक धन्य कौन हो सकता है ? ॥ ६४ ॥ षड्विंशकमिति ख्यातं परं तत्त्वं सनातनम् । एवं ध्यायन्ति विद्वांसौ महत्परममक्षरम् ॥ ६५ ॥ सर्व तत्त्वविधानज्ञः सर्वतत्त्वार्थदर्शनः । स एव भगवान् देवः प्रधानपुरुषेश्वरः ॥ ६६ ॥ छब्बीसवें तत्त्वके रूपमें प्रसिद्ध जो सनातन परमतत्त्व है, विद्वान् लोग उसी महान् परम अक्षर [ब्रह्म]-का ध्यान करते हैं । वे भगवान् सदाशिव ही सभी तत्त्वोंके विधानको जाननेवाले एवं सभी तत्त्वोंके अर्थोके द्रष्टा और प्रधान पुरुषेश्वर हैं । ६५-६६ ॥ यो निजाद्दक्षिणात्पार्श्वाद् ब्रह्माणं लोककारणम् । वामादप्यसृजद्विष्णुं लोकरक्षार्थमीश्वरः ॥ ६७ ॥ कल्पान्ते चैव संप्राप्तेऽसृजद् रुद्रं हृदः प्रभुः । ततः समहरत्कृत्स्नं जगत्स्थावरजङ्गमम् ॥ ६८ ॥ उन परमेश्वरने संसाररचनाके कारणभूत ब्रह्माको अपने दक्षिण पार्श्वसे तथा लोककी रक्षाके लिये विष्णुको अपने बायें भागसे उत्पन्न किया है । प्रभु सदाशिवने ही कल्पान्तके प्राप्त होनेपर [सृष्टिके विनाशके लिये] अपने हृदयसे रुद्रकी रचना की और उनको माध्यम बनाकर उन्होंने सम्पूर्ण चराचर संसारका संहार किया । ६७-६८ ॥ युगान्ते सर्वभूतानि संवर्तक इवानलः । कालो भूत्वा महादेवो ग्रसमानः स तिष्ठति ॥ ६९ ॥ वे ही महादेव युगके अन्तमें संवर्तक अग्निके समान काल बनकर सभी प्राणियोंका भक्षण करते हुए स्थित रहते हैं । ६९ ॥ सर्वज्ञः सर्वभूतात्मा सवर्भूतभवोद्भवः । आस्ते सर्वगतो देवो दृश्यः सर्वैश्च दैवतैः ॥ ७० ॥ वे प्रभु सर्वज्ञ, सर्वभूतात्मा, सभी प्राणियोंको उत्पन्न करनेवाले, सर्वव्यापक एवं सभी देवगणोंके दर्शनीय हैं ॥ ७० ॥ अतस्त्वं पुत्रलाभाय समाराधय शङ्करम् । शीघ्रं प्रसन्नो भविता शिवस्ते भक्तवत्सलः ॥ ७१ ॥ इसलिये [हे श्रीकृष्ण !] आप पुत्रप्राप्तिके लिये शिवकी आराधना करें, वे भक्तवत्सल शिव आपपर शीघ्र ही प्रसन्न होंगे ॥ ७१ ॥ इति श्रीशिवमहापुराणे पंचम्यामुमासंहितायां कृष्णोपमन्युसंवादे स्वगतिवर्णनं नाम प्रथमोऽध्यायः ॥ १ ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत पाँचवीं उमासंहितामें कृष्णोपमन्युसंवादमें स्वगतिवर्णन नामक पहला अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १ ॥ श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु |