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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥
॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥ पञ्चमी उमासंहितायां
षष्ठोऽध्यायः पापभेदवर्णनम्
पापभेदनिरूपण सनत्कुमार उवाच - द्विजद्रव्यापहरणमपि दायव्यतिक्रमः । अतिमानोऽतिकोपश्च दांभिकत्वं कृतघ्नता ॥ १ ॥ अत्यन्तविषयासक्तिः कार्पण्यं साधुमत्सरम् । परदाराभिगमनं साधुकन्यासु दूषणम् ॥ २ ॥ परिवित्तिः परिवेत्ता च यया च परिविद्यते । तयोर्दानं च कन्यायास्तयोरेव च याजनम् ॥ ३ ॥ शिवाश्रमतरूणां च पुष्पारामविनाशनम् । यः पीडामाश्रमस्थानामाचरेदल्पिकामपि ॥ ४ ॥ सभृत्यपरिवारस्य पशुधान्यधनस्य च । कुप्यधान्यपशुस्तेयमपां व्यापावनं तथा ॥ ५ ॥ यज्ञारामतडागानां दारापत्यस्य विक्रयम् । तीर्थयात्रोपवासानां व्रतोपनयकर्मिणाम् ॥ ६ ॥ स्त्रीधनान्युपजीवन्ति स्त्रीभिरप्यन्तनिर्जिताः । अरक्षणं च नारीणां मायया स्त्रीनिषेवणम् ॥ ७ ॥ कालागताप्रदानं च धान्यवृद्ध्युपसेवनम् । निंदिताच्च धनादानं पण्यानां कूटजीवनम् ॥ ८ ॥ विषमारण्यपत्राणां सततं वृषवाहनम् । उच्चाटनाभिचारं च धान्यादानं भिषक्क्रिया ॥ ९ ॥ जिह्वाकामोपभोगार्थं यस्यारंभः सुकर्मसु । मूलेनख्यापको नित्यं वेदज्ञानादिकं च यत् ॥ १० ॥ ब्राह्म्यादिव्रतसन्त्यागश्चान्याचारनिषेवणम् । असच्छास्त्राधिगमनं शुष्कतर्कावलम्बनम् ॥ ११ ॥ देवाग्निगुरुसाधूनां निन्दया ब्राह्मणस्य च । प्रत्यक्षं वा परोक्षं वा राज्ञां मण्डलिनामपि ॥ १२ ॥ उत्सन्नपितृदेवेज्याः स्वकर्म्मत्यागिनश्च ये । दुःशीला नास्तिकाः पापाः सदा वाऽसत्यवादिनः ॥ १३ ॥ पर्वकाले दिवा वाप्सु वियोनौ पशुयोनिषु । रजस्वलाया योनौ च मैथुनं यः समाचरेत् ॥ १४ ॥ स्त्रीपुत्रमित्रसंप्राप्ते आशाच्छेदकराश्च ये । जनस्याप्रियवक्तारः क्रूरा समयभेदिनः ॥ १५ ॥ भेत्ता तडागकूपानां सङ्क्रयाणां रसस्य च । एकपङ्क्तिस्थितानां च पाकभेदं करोति यः ॥ १६ ॥ इत्येतैः स्त्रीनराः पापैरुपपातकिनः स्मृताः । युक्ता एभिस्तथान्येऽपि शृणु तांस्तु ब्रवीमि ते ॥ १७ ॥ सनत्कुमार बोले-ब्राह्मणके धनका अपहरण, पैतृक सम्पत्तिके बँटवारेमें उलट-फेर करना, अत्यन्त अहंकार, अत्यन्त क्रोध, पाखण्ड, कृतघ्नता, विषयों में अत्यधिक आसक्ति, कृपणता, सज्जनोंसे द्वेष, परस्त्रीगमन, कुलीन सच्चरित्र कन्याओंको दूषित करना, परिवित्ति, परिवेत्ता* एवं जिस कन्यासे ये दोनों दोष उत्पन्न होते हैं, उन्हींको कन्यादान करना एवं उन्हींका यज्ञ कराना, शिवजीके लिये बनाये गये आश्रममें स्थित वृक्षों, पुष्पों एवं बगीचोंको नष्ट करना, आश्रममें रहनेवालोंको थोड़ी भी पीड़ा पहुँचाना, भृत्य-सहित परिवार, पशु, धान्य, धन, ताँबा आदि धातुओं और पशुओंकी चोरी करना, जलको अपवित्र करना, यज्ञ, वाटिका, तडाग, स्त्री, पुत्रका सौदा करना, तीर्थयात्रा, उपवास, व्रत, उपनयन आदि करके उसका विक्रय करना, जो स्त्रियोंके धनसे आजीविका चलाते हैं, जो स्त्रियोंके वशीभूत हैं (ऐसा होना), स्त्रियोंकी रक्षा न करना, छलपूर्वक स्त्रीका सेवन करना, धन लेकर समयसे ऋण न चुकाना, धान्यको वृद्धिपर देकर उससे निर्वाह करना, निन्दितसे धन ग्रहण करना, व्यापारमें कपटपूर्ण व्यवहार करना, विष देना तथा मारण मन्त्रोंका प्रयोग करना, बैलकी सवारी करना, उच्चाटन आदि अभिचार कर्म करना, धान्योंका हरण करना, वैद्यवृत्तिसे निर्वाह करना, जिला एवं कामोपभोगके लिये सत्कर्मोमें जिसकी प्रवृत्ति हो (ऐसा होना), वेदज्ञानको पढ़ाकर उसके मूल्यसे आजीविका चलाना, ब्राह्मणोचित आचारका त्याग करना, दूसरोंके आचारका सेवन करना, असत् शास्त्रोंका अध्ययन करना, व्यर्थ तर्कका आश्रय लेना, देवता, अग्नि, गुरु, साधु, ब्राह्मण तथा चक्रवर्ती राजाओंकी प्रत्यक्ष या परोक्षमें निन्दा करना, जो पितृयज्ञ, देवयज्ञ तथा अपने कर्मका त्याग करनेवाले हैं, जो दुःशील, नास्तिक, पापी तथा सदा असत्य भाषण करनेवाले हैं, जो पर्व समयमें, दिनमें, जलमें, विकृत योनिमें, पशुयोनियोंमें तथा रजस्वला स्त्रीसे संसर्ग करता है, जो स्त्री, पुत्र, मित्रकी प्राप्तिविषयक आशाको नष्ट करते हैं, लोगोंसे कटु वचन बोलते हैं, क्रूर हैं, प्रतिज्ञाको भंग करते हैं, तालाब तथा कूप आदिको विनष्ट करते हैं एवं रसोंको बेचते हैं, इसी प्रकार जो पंक्तिमें बैठे हुए लोगोंमें भोजनका भेद करते हैं, इन पापोंसे युक्त स्त्री एवं पुरुष उपपातकी कहे गये हैं । अन्य उपपातकी भी हैं । [हे व्यासजी !] मैं उन्हें आपको बता रहा हूँ, आप सुनें ॥ १-१७ ॥ ये गोब्राह्मणकन्यानां स्वामिमित्रतपस्विनाम् । विनाशयन्ति कार्याणि ते नरा नारकाः स्मृताः ॥ १८ ॥ जो लोग गौ, ब्राह्मण, कन्या, स्वामी, मित्र एवं तपस्वियोंके कार्योंको बिगाड़ते हैं, वे नारकी मनुष्य कहे गये हैं ॥ १८ ॥ परस्त्रियाभितप्यन्ते ये परद्रव्यसूचकाः । परद्रव्यहरा नित्यं तौलमिथ्यानुसारकाः ॥ १९ ॥ द्विजदुःखकरा ये च प्रहारं चोद्धरन्ति ये । सेवन्ते तु द्विजाः शूद्रां सुरां बध्नन्ति कामतः ॥ २० ॥ ये पापनिरताः क्रूराः येऽपि हिंसाप्रिया नराः । वृत्त्यर्थं येऽपि कुर्वन्ति दानयज्ञादिकाः क्रियाः ॥ २१ ॥ गोष्ठाग्निजलरथ्यासु तरुच्छायानगेषु च । त्यजन्ति ये पुरीषाद्यानारामायतनेषु च ॥ २२ ॥ लज्जाश्रमप्रासादेषु मयपानरताश्च ये । कृतकेलिभुजङ्गाश्च रन्ध्रान्वेषणतत्पराः ॥ २३ ॥ वंशेष्टका शिलाकाष्ठैः शृङ्गैः शङ्कुभिरेव च । ये मार्गमनुरुंधन्ति परसीमां हरन्ति ये ॥ २४ ॥ कूटशासनकर्तारः कूटकर्मक्रियारताः । कूटपाकान्नवस्त्राणां कूटसंव्यवहारिणः ॥ २५ ॥ धनुषः शस्त्रशल्यानां कर्ता यः क्रयविक्रयी । निर्दयोऽतीवभृत्येषु पशूनां दमनश्च यः ॥ २६ ॥ मिथ्या प्रवदतो वाच आकर्णयति यः शनैः । स्वामिमित्रगुरुद्रोही मायावी चपलः शठः ॥ २७ ॥ ये भार्यापुत्रमित्राणि बालवृद्धकृशातुरान् । भृत्यानतिथिबंधूंश्च त्यक्त्वाश्नन्ति बुभुक्षितान् ॥ २८ ॥ यः स्वयं मिष्टमश्नाति विप्रेभ्यो न प्रयच्छति । वृथापाकः स विज्ञेयो ब्रह्मवादिषु गर्हितः ॥ २९ ॥ नियमान् स्वयमादाय ये त्यजन्त्यजितेन्द्रियाः । प्रव्रज्यावासिता ये च हरस्यास्यप्रभेदकाः ॥ ३० ॥ ये ताडयन्ति गां क्रूरा दमयन्ते मुहुर्मुहुः । दुर्बलान्ये न पुष्णन्ति सततं ये त्यजन्ति च ॥ ३१ ॥ पीडयन्त्यतिभारेणासहन्तं वाहयन्ति च । योजयन्नकृताहारान्न विमुंचन्ति संयतान् ॥ ३२ ॥ ये भारक्षतरोगार्तान् गोवृषांश्च क्षुधातुरान् । न पालयन्ति यत्नेन गोघ्नास्ते नारकाः स्मृताः ॥ ३३ ॥ जो परस्त्री [की अभिलाषा]-से दुखी रहते हैं, जो दूसरेके द्रव्यपर दृष्टि रखते हैं, दूसरेके द्रव्यका हरण करते हैं, मिथ्या तौल करते हैं, जो ब्राह्मणोंको पीड़ा देते हैं, जो उन्हें मारनेके लिये शस्त्र उठाये रहते हैं, जो द्विज होकर शूद्र-स्त्रीका सेवन करते हैं, स्वेच्छासे जो सुराका सेवन करते हैं, जो मनुष्य क्रूर एवं पापपरायण हैं, जो हिंसाप्रिय हैं, जो अपनी आजीविकाके लिये दान, यज्ञ आदि क्रियाएँ करते हैं, जो गोशाला, अग्नि, जल, मार्ग, वृक्षकी छाया, पर्वत, वाटिका एवं देवमन्दिरोंमें मलमूत्रादिका त्याग करते हैं, जो लज्जाके स्थान, आश्रम एवं मन्दिरोंमें मद्यपान करते हैं, चोरीसे दूसरोंकी स्त्रीसे रमण करते हैं, दूसरोंका छिद्रान्वेषण करते हैं, जो बाँस, ईंट, पत्थर, काष्ठ, सींग एवं काँटों [अथवा कीलों-से मार्गमें अवरोध उत्पन्न करते हैं, जो दूसरोंकी सीमा (मेड़) नष्ट करते हैं, जो फूट डालकर शासन करते हैं, मिथ्या छलप्रपंचमें संलग्न रहते हैं और कपट करके लाये हुए पाक, अन्न तथा वस्त्रोंका छलपूर्वक व्यवहार करते हैं, जो धनुष, शस्त्र तथा बाणका निर्माण करते हैं एवं उनका क्रय-विक्रय करते हैं, जो अपने नौकरोंके प्रति दयाहीन हैं, पशुओंका दमन करते हैं, जो झूठ बोलनेवालोंकी बात धीरे-धीरे सुनता है, स्वामी, मित्र, गुरुसे द्रोह करता है, मायावी है, धूर्त है, जो अपनी स्त्री, पुत्र, मित्र, बालक, वृद्ध, कमजोर, रोगी, भृत्य, अतिथि एवं बान्धवोंको भूखा छोड़कर [स्वयं] भोजन करते हैं, जो स्वयं मिष्टान्नका भोजन करते हैं, किंतु ब्राह्मणोंको नहीं देते हैं, उसका वह भोजन निरर्थक जानना चाहिये, वह ब्रह्मवादियोंमें निन्दित है, जो अजितेन्द्रिय स्वयं नियमोंको ग्रहण करनेके बाद उनका त्याग कर देते हैं, जो संन्यास ले करके भी घरमें निवास करते हैं, शिवमूर्तियोंको तोड़ते हैं, जो लोग क्रूर होकर गायोंको मारते हैं एवं बार-बार उनका दमन करते हैं, जो दुर्बलोंका पोषण नहीं करते तथा सदा त्याग करते हैं, जो अत्यधिक भारसे [भारवाहक] पशुओंको पीड़ित करते हैं, भार सहन न कर पानेवाले पशुको जोतते हैं, बिना उनको खिलाये कार्यमें जोत देते हैं, जुते हुएको चरनेके लिये नहीं छोड़ते, जो भारसे आहत, रोगी, क्षुधापीड़ित, गाय-बैलोंका भलीभाँति पालन नहीं करते, वे गोहत्यारे तथा नरक जानेके योग्य कहे गये हैं । १९-३३ ॥ वृषाणां वृषणान्ये च पापिष्ठा गालयन्ति च । वाहयन्ति च गां वंध्यां महानारकिनो नराः ॥ ३४ ॥ जो पापी बैलोंके अण्डकोष कुटवा देते हैं और वन्ध्या गायको जोतते हैं, वे महानारकी मनुष्य कहे गये हैं ॥ ३४ ॥ आशया समनुप्राप्तान् क्षुत्तृष्णाश्रमकर्शितान् । अतिथींश्च तथानाथान् स्वतन्त्रान् गृहमागतान् ॥ ३५ ॥ अन्नाभिलाषान् दीनान्वा बालवृद्धकृशातुरान् । नानुकंपन्ति ये मूढास्ते यान्ति नरकार्णवम् ॥ ३६ ॥ भूख-प्यास-श्रमसे पीड़ित तथा [भोजनकी] आशासे घरपर आये हुए अतिथियों, अनाथों, स्वेच्छासे विचरण करनेवालों, अन्नके इच्छुकों, दीनों, बालकों, वृद्धों, दुबैलों तथा रोगियोंपर जो लोग दया नहीं करते, वे मूढ़ नरकसमुद्र में जाते हैं ॥ ३५-३६ ॥ गृहेष्वर्था निवर्तन्ते स्मशानादपि बांधवाः । सुकृतं दुष्कृतं चैव गच्छन्तमनुगच्छति ॥ ३७ ॥ [मनुष्यके मरनेपर] धन घरमें ही पड़ा रह जाता है, भाई एवं बन्धु श्मशानसे [पुनः घर] लौट आते हैं, किंतु पुण्य एवं पाप अन्तमें जाते हुए जीवके पीछे-पीछे जाता है ॥ ३७ ॥ अजाविको माहिषिकः सामुद्रो वृषलीपतिः । शूद्रवत्क्षत्रवृत्तिश्च नारकी स्याद् द्विजाधमः ॥ ३८ ॥ बकरी-भेड़ तथा भैसके क्रय-विक्रयसे अपनी जीविका चलानेवाला, नमक बेचनेवाला, शूद्राका पति, शूद्रके समान आचरण करनेवाला तथा क्षत्रियवृत्तिसे जीवन-यापन करनेवाला अधम द्विज नरक जानेयोग्य होता है ॥ ३८ ॥ शिल्पिनः कारवो वैद्या हेमकारा नृपध्वजाः । भृतकाः कूटसंयुक्ताः सर्वे ते नारकाः स्मृताः ॥ ३९ ॥ शिल्पी, बढ़ई, वैद्य, स्वर्णकार, अपनेको राजाके रूपमें प्रदर्शित करनेवाले, कपटसे युक्त होकर नौकरी करनेवाले-ये सभी नारकी कहे गये हैं ॥ ३९ ॥ यश्चोचितमतिक्रम्य स्वेच्छयैवाहरेत्करम् । नरके पच्यते सोऽपि योऽपि दण्डरुचिर्नरः ॥ ४० ॥ उत्कोचकै रुचिक्रीतैस्तस्करैश्च प्रपीड्यते । यस्य राज्ञः प्रजा राष्ट्रे पच्यते नरकेषु सः ॥ ४१ ॥ जो [शासक] औचित्यका अतिक्रमण करके मनमानी रीतिसे कर ग्रहण करता है और जो दण्ड देने में रुचि रखता है, वह [राजा] भी नरकोंमें दुःख भोगता है । जिस राजाके राज्यमें प्रजा घूस लेनेवालों, इच्छानुसार [वस्तुका] क्रय करनेवालों तथा चोरोंसे पीड़ित की जाती है, वह राजा भी नरकोंमें दुःख भोगता है ॥ ४०-४१ ॥ ये द्विजाः परिगृह्णन्ति नृपस्यान्यायवर्तिनः । ते प्रयान्ति तु घोरेषु नरकेषु न संशयः ॥ ४२ ॥ जो ब्राह्मण अन्यायपरायण राजासे दान ग्रहण करते हैं, वे घोर नरकोंमें जाते हैं, इसमें संशय नहीं है ॥ ४२ ॥ अन्यायात्समुपादाय द्विजेभ्यो यः प्रयच्छति । प्रजाभ्यः पच्यते सोऽपि नरकेषु नृपो यथा ॥ ४३ ॥ जो राजा प्रजाओंसे अन्यायपूर्वक धन ग्रहणकर ब्राह्मणोंको दान देता है, वह राजा भी नरकोंमें यातना प्राप्त करता है, इसमें संशय नहीं है ॥ ४३ ॥ पारदारिकचौराणां चंडानां विद्यते त्वघम् । परदाररतस्यापि राज्ञो भवति नित्यशः ॥ ४४ ॥ परदारगमन करनेवाले, चोर तथा क्रूर पुरुषोंको जो पाप लगता है, परायी स्त्रीमें निरत रहनेवाले राजाको भी वही पाप लगता है ॥ ४४ ॥ अचौरं चौरवत्पश्येच्चौरं वाचौररूपिणम् । अविचार्य नृपस्तस्माद् घातयन्नरकं व्रजेत् ॥ ४५ ॥ जो राजा बिना विचार किये ही चोरीसे रहित पुरुषको चोरके समान और चोरको चोरीसे रहित समझे, इस प्रकार [निरपराध व्यक्तिको] दण्ड देनेवाला वह राजा नरकगामी होता है ॥ ४५ ॥ घृततैलान्नपानानि मधुमांससुरासवम् । गुडेक्षुशाकदुग्धानि दधिमूलफलानि च ॥ ४६ ॥ तृणं काष्ठं पत्रपुष्पमौषधं चात्मभोजनम् । उपानत्छत्रशकटमासनं च कमण्डलुम् ॥ ४७ ॥ ताम्रसीसत्रपुः शस्त्रं शंखाद्यं च जलोद्भवम् । वैद्यं च वैणवं चान्यद्गृहोपस्करणानि च ॥ ४८ ॥ और्ण्णकार्पासकौशेयपट्टसूत्रोद्भवानि च । स्थूलसूक्ष्माणि वस्त्राणि ये लोभाद्धि हरन्ति च ॥ ४९ ॥ एवमादीनि चान्यानि द्रव्याणि विविधानि च । नरकेषु ध्रुवं यान्ति चापहृत्याल्पकानि च ॥ ५० ॥ तद्वा यद्वा परद्रव्यमपि सर्षपमात्रकम् । अपहृत्य नरा यान्ति नरकं नात्र संशयः ॥ ५१ ॥ जो लोग लोभपूर्वक घी, तेल, अन्न, पीनेकी वस्तु, मधु, मांस, सुरा, आसव, गुड़, ईख, शाक, दूध, दही, मूल, फल, तृण, काष्ठ, पत्र, पुष्प, ओषधि, अपना भोजन, जूता, छाता, गाड़ी, आसन, कमण्डलु, ताँबा, सीसा, राँगा, शस्त्र, जलसे उत्पन्न शंख आदि वस्तुएँ, बाँसके बने हुए वाद्य, ऊनी-सूती-रेशमी-पट्टसूत्रसे बने हुए स्थूल तथा सूक्ष्म वस्वोंका हरण करते हैं और इसी प्रकार अन्य विविध वस्तुओंका थोड़ा भी हरण करते हैं, वे निश्चित रूपसे नरकोंमें जाते हैं । इतना ही नहीं, सरसोंके बराबर भी दूसरेकी वस्तुका अपहरण करके मनुष्य नरकमें पड़ते हैं, इसमें संशय नहीं है ॥ ४६-५१ ॥ एवमाद्यैर्नरः पापैरुत्क्रान्तिसमनन्तरम् । शरीरयातनार्थाय सर्वाकारमवाप्नुयात् ॥ ५२ ॥ इस प्रकारके पापोंके द्वारा मनुष्य प्राणोत्क्रमणके बाद शारीरिक यातना प्राप्त करनेके लिये सभी अवयवोंसे युक्त नूतन शरीर प्राप्त करता है ॥ ५२ ॥ यमलोकं व्रजन्त्येते शरीरेण यमाज्ञया । यमदूतैर्महाघोरैनीयमानाः सुदुःखिताः ॥ ५३ ॥ यमराजकी आज्ञासे महाभयानक यमदूतोंद्वारा ले जाये जाते हुए ये पापी अत्यन्त दुःखित होकर यातना शरीरके साथ यमलोकको जाते हैं ॥ ५३ ॥ देवतिर्यङ्मनुष्याणामधर्मनिरतात्मनाम् । धर्मराजः स्मृतः शास्ता सुघोरैर्विविधैर्वधैः ॥ ५४ ॥ नियमाचारयुक्तानां प्रमादात्स्खलितात्मनाम् । प्रायश्चित्तैर्गुरुः शास्ता न बुधैरिष्यते यमः ॥ ५५ ॥ यमराज अनेक प्रकारके भयानक दण्डोंके द्वारा अधर्मपरायण मनवाले देवता, तिर्यग् योनियों एवं मनुष्योंके शास्ता कहे गये हैं । नियम तथा सदाचारमें तत्पर होनेपर भी प्रमादवश विचलित चित्तवाले लोगोंके लिये प्रायश्चित्तके द्वारा गुरु ही शास्ता हैं, यमराज नहीं; ऐसा विद्वानोंका अभिमत है ॥ ५४-५५ ॥ पारदारिकचौराणामन्यायव्यवहारिणाम् । नृपतिः शासकः प्रोक्तः प्रच्छन्नानां स धर्म्मराट् ॥ ५६ ॥ तस्मात्कृतस्य पापस्य प्रायश्चित्तं समाचरेत् । नाभुक्तस्यान्यथानाशः कल्पकोटिशतैरपि ॥ ५७ ॥ परस्त्रीगामियों, चोरों तथा अन्यायसे व्यवहार करनेवालोंका शास्ता राजा कहा गया है, किंतु प्रच्छन्न पाप करनेवालोंके शासक धर्मराज ही हैं । इसलिये [अपने द्वारा किये गये पापका प्रायश्चित्त कर लेना चाहिये; अन्यथा बिना भोगे हुए पापका नाश करोड़ों कल्पोंमें भी नहीं होता है ॥ ५६-५७ ॥ यः करोति स्वयं कर्म कारयेच्चानुमोदयेत् । कायेन मनसा वाचा तस्य पापगतिः फलम् ॥ ५८ ॥ जो अपने शरीर, वाणी तथा मनसे पापोंको स्वयं करता है, कराता है अथवा उसका अनुमोदन करता है, उसका फल पापगति ही है ॥ ५८ ॥ इति श्रीशिवमहापुराणे पञ्चम्या मुमासंहितायां पापभेदवर्णनं नाम षष्ठोऽध्यायः ॥ ६ ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत पाँचवीं उमासंहितामें पापभेदवर्णन नामक छठा अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ६ ॥ श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु |