![]() |
॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥
॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥ पञ्चमी उमासंहितायां
सप्तमोऽध्यायः नरकलोकमार्गयमदूतस्वरूपवर्णनम्
यमलोकका मार्ग एवं यमदूतोंके स्वरूपका वर्णन सनत्कुमार उवाच - ७अथ पापैर्नरा यान्ति यमलोकं चतुर्विधैः । सन्त्रासजननं घोरं विवशाः सर्वदेहिनः ॥ १ ॥ सनत्कुमार बोले-चार प्रकारके पापोंके कारण विवश होकर समस्त शरीरधारी मनुष्य भयको उत्पन्न करनेवाले घोर यमलोकको जाते हैं ॥ १ ॥ गर्भस्थैर्जायमानैश्च बालैस्तरुणमध्यमैः । स्त्रीपुन्नपुंसकैर्जीवैर्ज्ञातव्यं सर्वजन्तुषु ॥ २ ॥ शुभाशुभफलं चात्र देहिनां संविचार्यते । चित्रगुप्तादिभिः सर्वैर्वसिष्ठप्रमुखैस्तथा ॥ ३ ॥ यह बात गर्भस्थ, उत्पन्न बालक, युवा, मध्यम, वृद्ध, स्त्री, पुरुष, नपुंसक आदि समस्त जीवोंके विषयमें जाननी चाहिये । यहाँपर चित्रगुप्तादि सभी [यमपरिचर] एवं वसिष्ठादि प्रमुख महर्षिगण जीवोंके शुभ-अशुभ फलपर विचार करते हैं ॥ २-३ ॥ न केचित्प्राणिनः सन्ति ये न यान्ति यमक्षयम् । अवश्यं हि कृतं कर्म भोक्तव्यं तद्विचार्यताम् ॥ ४ ॥ ऐसे कोई भी प्राणी नहीं हैं, जो यमलोक नहीं जाते, इसे अच्छी तरह विचार कर लीजिये कि अपने किये कर्मका फल अवश्य ही भोगना पड़ता है ॥ ४ ॥ तत्र ये शुभकर्माणः सौम्यचित्ता दयान्विताः । ते नरा यान्ति सौम्येन पूर्वं यमनिकेतनम् ॥ ५ ॥ ये पुनः पापकर्म्माणः पापा दानविवर्जिताः । ते घोरेण पथा यान्ति दक्षिणेन यमालयम् ॥ ६ ॥ उनमें जो शुभ कर्म करनेवाले, सौम्यचित्त एवं दयालु होते हैं, वे मनुष्य यमलोकमें सौम्यमार्ग तथा पूर्वद्वारसे जाते हैं, किंतु जो पापी पापकर्ममें निरत एवं दानसे रहित हैं, वे घोर मार्गद्वारा दक्षिणद्वारसे यमलोकमें जाते हैं ॥ ५-६ ॥ षडशीतिसहस्राणि योजनानामतीत्य तत् । वैवस्वतपुरं ज्ञेयं नानारूपमवस्थितम् ॥ ७ ॥ समीपस्थमिवाभाति नराणां पुण्यकर्मणाम् । पापिनामतिदूरस्थं पथा रौद्रेण गच्छताम् ॥ ८ ॥ [मर्त्यलोकसे] छियासी हजार योजनकी दूरी पार करके अनेक रूपोंमें स्थित सूर्यपुत्र यमके पुरको जानना चाहिये । यह पुर पुण्य कर्मवाले मनुष्योंको समीपमें स्थित-सा जान पड़ता है, किंतु घोरमार्गसे जाते हुए पापियोंको बहुत दूर स्थित प्रतीत होता है ॥ ७-८ ॥ तीक्ष्णकंटकयुक्तेन शर्कराविचितेन च । क्षुरधारानिभैस्तीक्ष्णैः पाषाणै रचितेन च ॥ ९ ॥ क्वचित्पङ्केन महता उरुतोकैश्च पातकैः । लोहसूचीनिभैर्दर्भैः सम्पन्नेन पथा क्वचित् ॥ १० ॥ तटप्रायातिविषमैः पर्वतैर्वृक्षसङ्कुलैः । प्रतप्ताङ्गारयुक्तेन यान्ति मार्गेण दुःखिताः ॥ ११ ॥ तीक्ष्ण काँटोंसे युक्त, कंकड़ोंसे युक्त, छुरीकी धारके समान तीखे पाषाणोंसे बने हुए, कहीं जोंकोंसे भरे हुए तथा बहुत कीचड़से युक्त, कहीं लोहेकी सूईके समान नुकीले कुशोंसे युक्त, कहीं नदीतट-जैसे दुर्गम स्थानोंसे अति विषम तथा वृक्षोंसे परिपूर्ण, पर्वतोंसे युक्त और प्रतप्त अंगारोंसे युक्त मार्गसे दुःखित होकर [पापीलोग] जाते हैं ॥ ९-११ ॥ क्वचिद्विषमगर्तैश्च क्वचिल्लोष्टैः सुदुष्करैः । सुतप्तवालुकाभिश्च तथा तीक्ष्णैश्च शङ्कुभिः ॥ १२ ॥ अनेक शाखाविततैर्व्याप्तं वंशवनैः क्वचित् । कष्टेन तमसा मार्गे नानालम्बेन कुत्रचित् ॥ १३ ॥ अयः शृङ्गाटकैस्तीक्ष्णैः क्वचिद्दावाग्निना पुनः । क्वचित्तप्तशिलाभिश्च क्वचिद्व्याप्तं हिमेन च ॥ १४ ॥ क्वचिद्वालुकया व्याप्तमाकंठान्तः प्रवेशया । क्वचिद्दुष्टाम्बुना व्याप्तं क्वचिच्च करिषाग्निना ॥ १५ ॥ वह मार्ग कहीं भयानक गड्डोंसे, कहीं अत्यन्त दुष्कर ढेलोंसे, कहीं अत्यन्त जलती हुई रेतोंसे, कहीं तीक्ष्ण काँटोंसे, कहीं अनेक शाखाओंवाले फैले हुए बाँसके वनोंसे व्याप्त है । मार्गमें कहीं भयानक अन्धकार है और कहीं पकड़नेके लिये कोई आधार नहीं है, वह मार्ग कहीं लोहेके तीखे श्रृंगाटकोंसे, कहीं दावानलसे, कहीं प्रतप्त शिलाओंसे तथा कहीं बर्फसे व्याप्त है । वह मार्ग कहीं कण्ठतक शरीरको डुबो देनेवाली रेतसे, कहीं दुर्गन्धयुक्त जलसे तथा कहीं कण्डोंकी अग्निसे व्याप्त है ॥ १२-१५ ॥ क्वचित्सिंहैर्वृकैर्व्याघ्रैर्मशकैश्च सुदारुणैः । क्वचिन्महाजलौकाभिः क्वचिच्चाजगरैस्तथा ॥ १६ ॥ मक्षिकाभिश्च रौद्राभिः क्वचित्सर्पैर्विषोल्बणैः । मत्तमातङ्गयूथैश्च बलोन्मत्तैः प्रमाथिभिः ॥ १७ ॥ पंथानमुल्लिखद्भिश्च सूकरैस्तीक्ष्णदंष्ट्रिभिः । तीक्ष्णशृङ्गैश्च महिषैः सर्वभूतैश्च श्वापदैः ॥ १८ ॥ डाकिनीभिश्च रौद्राभिर्विकरालैश्च राक्षसैः । व्याधिभिश्च महाघोरैः पीड्यमाना व्रजन्ति हि ॥ १९ ॥ [वे नारकीय जीव] कहीं अति भयानक सिंहों, भेड़ियों, बाघों तथा मच्छरोंसे, कहीं बड़ी-बड़ी जोंकोंसे, कहीं अजगरोंसे, कहीं भयंकर मक्खियोंसे, कहीं विषधर साँसे, कहीं बलसे उन्मत्त होकर रौंद डालनेवाले मतवाले हाथियोंसे, [अपने] नुकीले दाँतोंसे मार्गको खोदते हुए सूकरोंसे, तीक्ष्ण सींगवाले भैंसोंसे, सम्पूर्ण हिंसक जन्तुओंसे, भयानक डाकिनियोंसे, विकराल राक्षसोंसे और घोर व्याधियोंसे पीड़ित होते हुए [यमलोक जाते हैं ॥ १६-१९ ॥ महाधूलिविमिश्रेण महाचण्डेन वायुना । महापाषाणवर्षेण हन्यमाना निराश्रयाः ॥ २० ॥ क्वचिद्विद्युत्प्रपातेन दह्यमाना व्रजन्ति च । महता बाणवर्षेण विध्यमानाश्च सर्वतः ॥ २१ ॥ [वे पापीजन] कहीं अत्यधिक धूलसे भरी प्रचण्ड आँधी और बड़े-बड़े पाषाणोंकी वृष्टिसे आहत किये जाते हुए, कहीं दारुण विद्युत्-पातसे जलाये जाते हुए और कहीं चारों ओरसे महती बाणवृष्टिसे बींधे जाते हुए आश्रयहीन होकर [यमलोक] जाते हैं ॥ २०-२१ ॥ पतद्भिर्वज्रपातैश्च उल्कापातैश्च दारुणैः । प्रदीप्ताङ्गारवर्षेण दह्यमानाश्च सन्ति हि ॥ २२ ॥ वे गिरते हुए वज्रपातोंसे, दारुण उल्कापातों एवं धधकते हुए अंगारोंकी वर्षासे जलाये जाते हैं ॥ २२ ॥ महता पांसुवर्षेण पूर्यमाणा रुदन्ति च । महामेघरवैर्घोरैस्त्रस्यन्ते च मुहुर्मुहुः ॥ २३ ॥ वे प्रचुर धूलिवर्षासे आच्छादित होकर रोते हैं और महामेघोंकी घोर ध्वनिसे बारम्बार भयभीत होते हैं ॥ २३ ॥ निशितायुधवर्षेण भिद्यमानाश्च सर्वतः । महाक्षाराम्बुधाराभिः सिच्यमाना व्रजन्ति च ॥ २४ ॥ वे चारों ओरसे बरसते हुए तीखे शस्त्रोंसे आहत किये जाते हुए तथा अत्यन्त क्षारीय जलधाराओंसे सिंचित किये जाते हुए [यमलोक] गमन करते हैं ॥ २४ ॥ महीशीतेन मरुता रूक्षेण परुषेण च । समन्ताद्बाध्यमानाश्च शुष्यन्ते सङ्कुचन्ति च ॥ २५ ॥ रूखी तथा कठोर स्पर्शवाली अत्यन्त शीतल वायुके द्वारा पीड़ित होकर [पापी] लोग सिकुड़ जाते हैं तथा सूख जाते हैं ॥ २५ ॥ इत्थं मार्गेण रौद्रेण पाथेयरहितेन च । निरालम्बेन दुर्गेण निर्जलेन समन्ततः ॥ २६ ॥ विषमेणैव महता निर्जनापाश्रयेण च । तमोरूपेण कष्टेन सर्वदुष्टाश्रयेण च ॥ २७ ॥ नीयन्ते देहिनः सर्वे ये मूढाः पापकर्मिणः । यमदूतैर्महाघोरैस्तदाज्ञाकारिभिर्बलात् ॥ २८ ॥ इस प्रकारके भयंकर, पाथेयरहित, निरालम्ब, कठिन, चारों ओर सर्वथा जलहीन, अत्यन्त विषम, निर्जन, आश्रयहीन घोर अन्धकारसे परिव्याप्त, कष्टकारक तथा सम्पूर्ण दुष्ट आश्रयोंसे युक्त मार्गसे जो मूढ़ तथा पापकर्मवाले जीव हैं, वे सब यमराजके आज्ञाकारी महाघोर दूतोंद्वारा बलपूर्वक [यमलोक] ले जाये जाते | हैं ॥ २६-२८ ॥ एकाकिनः पराधीना मित्रबन्धुविवर्जिताः । शोचन्तः स्वानि कर्म्माणि रुदन्तश्च मुहुर्मुहुः ॥ २९ ॥ प्रेता भूत्वा विवस्त्राश्च शुष्ककंठौष्ठतालुकाः । असौम्या भयभीताश्च दह्यमानाः क्षुधान्विताः ॥ ३० ॥ वे अकेले, पराधीन, मित्रों और बन्धुओंसे रहित होकर अपने कर्मोंको सोचते हुए बार-बार रोते हैं । वे प्रेत बनकर वस्त्रहीन, शुष्क कण्ठ, ओष्ठ एवं तालुवाले, अशान्त, भयभीत, जलते हुए एवं क्षुधासे व्याकुल [होकर चलते रहते हैं ॥ २९-३० ॥ बद्धाः शृंखलया केचिदुत्ता नपादका नराः । कृष्यन्ते कृष्यमाणाश्च यमदूतैर्बलोत्कटैः ॥ ३१ ॥ उरसाधोमुखाश्चान्ये घृष्यमाणाः सुदुःखिताः । केशपाशनि बंधेन संस्कृष्यन्ते च रज्जुना ॥ ३२ ॥ कोई मनुष्य जंजीरसे बाँधकर ऊपरकी ओर पैर करके बलवान् यमदूतोद्वारा खोंचे जाते हुए ले जाये जाते हैं । कोई छातीके बल नीचेकी ओर मुख किये हुए घसीटे जाते हैं और अति दुःखित होते हैं । कोई केशपाशमें रस्सीसे बाँधकर घसीटे जाते हैं ॥ ३१-३२ ॥ ललाटे चाङ्कुशेनान्ये भिन्ना दुष्यन्ति देहिनः । उत्तानाः कंटकपथा क्वचिदङ्गारवर्त्मना ॥ ३३ ॥ अन्य प्राणी ललाटको अंकुशसे विदीर्ण किये जानेके कारण अत्यन्त दुःखित होते हैं । उत्तान किये हुए कुछ लोग काँटोंके मार्गसे तथा अंगारोंके मार्गसे ले जाये जाते हैं ॥ ३३ ॥ पश्चाद्बाहुनिबद्धाश्च जठरेण प्रपीडिताः । पूरिताः शृंखलाभिश्च हस्तयोश्च सुकीलिताः ॥ ३४ ॥ ग्रीवापाशेन कृष्यन्ते प्रयान्त्यन्ये सुदुःखिताः । जिह्वाङ्कुशप्रवेशेन रज्ज्वाकृष्यन्त एव ते ॥ ३५ ॥ किसीके दोनों हाथ पीछेकी ओर बाँधकर, किसीके पेटको [रस्सी आदिसे] जकड़कर, किसीको जंजीरोंमें कसकर, किसीके दोनों हाथोंमें कील ठोंककर और किसीके गलेमें रस्सी लगाकर खींचते हुए दुःख देकर ले जाया जाता है । कुछ लोग जीभमें अंकुश चुभाकर रस्सीसे खींचे जाते हैं ॥ ३४-३५ ॥ नासाभेदेन रज्ज्वा च त्वाकृश्यन्ते तथापरे । भिन्नाः कपोलयो रज्ज्वाकृष्यन्तेऽन्ये तथौष्ठयोः ॥ ३६ ॥ कुछ लोग नाक छेदकर [नथुनोंमें] रस्सी [डालकर] उससे खींचे जाते हैं और गालों तथा ओठोंको छेदकर उनमें रस्सी डालकर खींचे जाते हैं ॥ ३६ ॥ छिन्नाग्रपादहस्ताश्च च्छिन्नकर्णोष्ठनासिकाः । संछिन्नशिश्नवृषणाः छिन्नभिन्नाङ्गसंधयः ॥ ३७ ॥ आभिद्यमानाः कुन्तैश्च भिद्यमानाश्च सायकैः । इतश्चेतश्च धावन्तः क्रंदमाना निराश्रयाः ॥ ३८ ॥ किसीका हाथ, किसीका पैर, किसीका कान, किसीका ओठ, किसीकी नाक, किसीका लिंग, किसीका अण्डकोश, किसीके शरीरके जोड़को काट दिया जाता है, कुछ लोग भालों तथा बाणोंसे बींधे जाते हैं और वे आश्रयरहित होकर इधर-उधर भागते तथा क्रन्दन करते हैं ॥ ३७-३८ ॥ मुद्गरैर्लोहदण्डैश्च हन्यमाना मुहुर्मुहुः । कंटकैर्विविधैर्घोरैर्ज्वलनार्कसमप्रभैः ॥ ३९ ॥ भिन्दिपालैर्विभियन्ते स्रवतः पूयशोणितम् । शकृता कृमिदिग्धाश्च नीयन्ते विवशा नराः ॥ ४० ॥ वे मुद्गरोंसे तथा लौहदण्डोंसे बार-बार पीटे जाते हैं, और अग्नि तथा सूर्यके समान तेजवाले विविध भयंकर काँटोंसे तथा भिन्दिपालोंसे बेधे जाते हैं, इस प्रकार रक्त एवं मवादका स्राव करते हुए तथा विष्ठा और कृमिसे भरे हुए [मार्गसे] मनुष्य विवश होकर [यमपुरीमें] ले जाये जाते हैं ॥ ३९-४० ॥ याचमानाश्च सलिलमन्नं वापि बुभुक्षिताः । छायां प्रार्थयमानाश्च शीतार्ताश्चानलं पुनः ॥ ४१ ॥ वे भूखसे व्याकुल होकर अन्न-पानी माँगते हैं, [धूपसे सन्तप्त हो] छायाकी याचना करते हैं और शीतसे दुखी हो अग्निके लिये प्रार्थना करते हैं । ४१ ॥ दानहीनाः प्रयान्त्येवं प्रार्थयन्तः सुखं नराः । गृहीतदान पाथेयाः सुखं यान्ति यमालयम् ॥ ४२ ॥ जिन लोगोंने दान नहीं दिया है, वे इसी प्रकार सुखकी याचना करते हुए यमालय जाते हैं, परंतु जिन लोगोंने पहलेसे ही दानरूपी पाथेय ले रखा है, वे सुखपूर्वक यमालयको जाते हैं । ४२ ॥ एवं न्यायेन कष्टेन प्राप्ताः प्रेतपुरं यदा । प्रज्ञापितास्ततो दूतैर्निवेश्यन्ते यमाग्रतः ॥ ४३ ॥ इस प्रकारकी व्यवस्थासे कष्टपूर्वक वे जब यमपुरी पहुँचते हैं, तब धर्मराजकी आज्ञासे दूतोंके द्वारा वे उनके आगे ले जाये जाते हैं । ४३ ॥ तत्र ये शुभकर्म्माणस्तांस्तु सम्मानयेद्यमः । स्वागतासनदानेन पाद्यार्घ्येण प्रियेण च ॥ ४४ ॥ धन्या यूयं महात्मानो निगमोदितकारिणः । यैश्च दिव्यसुखार्थाय भवद्भिः सुकृतं कृतम् ॥ ४५ ॥ दिव्यं विमानमारुह्य दिव्यस्त्रीभोगभूषितम् । स्वर्गं गच्छध्वममलं सर्वकामसमन्वितम् ॥ ४६ ॥ तत्र भुक्त्वा महाभोगानन्ते पुण्यस्य सङ्क्षयात् । यत्किंचिदल्पमशुभं पुनस्तदिह भोक्ष्यथ ॥ ४७ ॥ उनमें जो पुण्यात्मा होते हैं, उन्हें यमराज स्वागत, आसन-दान, पाद्य तथा अर्ध्वक द्वारा प्रेमपूर्वक सम्मानित करते हैं और कहते हैं कि शास्त्रोक्त कर्म करनेवाले आप महात्मा लोग धन्य हैं, जो कि आपलोगोंने दिव्य सुख प्राप्त करनेके लिये पुण्यकर्म किया । अब आपलोग इस दिव्य विमानपर चढ़कर दिव्य स्त्रियोंके भोगसे भूषित तथा सम्पूर्ण वांछित्तोंसे युक्त निर्मल स्वर्गको जायें । वहाँपर महान् भोगोंका उपभोग करके अन्तमें पुण्यका क्षय हो जानेपर जो कुछ अल्प अशुभ शेष रहेगा, उसे आपलोग पुनः यहाँपर भोगेंगे ॥ ४४-४७ ॥ धर्म्मात्मानो नरा ये च मित्रभूत्वा इवात्मनः । सौम्यं सुखं प्रपश्यन्ति धर्मराजत्वमेव च ॥ ४८ ॥ जो धर्मात्मा पुरुष हैं, वे धर्मराजको अपने मित्रके समान समझते हैं और उन्हें सौम्य मुखवाला देखते हैं ॥ ४८ ॥ ये पुनः क्रूरकर्म्माणस्ते पश्यन्ति भयानकम् । दंष्ट्राकरालवदनं भृकुटीकुटिलेक्षणम् ॥ ४९ ॥ ऊर्ध्वकेशं महाश्मश्रुमूर्ध्वप्रस्फुरिताधरम् । अष्टादशभुजं क्रुद्धं नीलांजनचयोपमम् ॥ ५० ॥ सर्वायुधोद्धतकरं सर्वदण्डेन तर्जयन् । महामहिषमारूढं दीप्ताग्निसमलोचनम् ॥ ५१ ॥ रक्तमाल्यांबरधरं महामेरुमिवोच्छ्रितम् । प्रलयाम्बुदनिर्घोषं पिबन्निव महोदधिम् ॥ ५२ ॥ ग्रसन्तमिव शैलेन्द्रमुद्गिरन्तमिवानलम् । जो क्रूर कर्म करनेवाले हैं, वे यमराजको भयानक, दाढ़युक्त विकराल मुखवाला, कुटिल भौहयुक्त नेत्रवाला, ऊपर उठे हुए केशोंवाला, बड़ी-बड़ी मूंछ एवं दाढ़ीवाला, [क्रोधके कारण] फड़कते ओठोंवाला, अठारह भुजाओंवाला, कुपित, काले अंजनके पहाड़के समान, सम्पूर्ण आयुधोंको धारण किये हुए हाथोंवाला, अपने दण्डसे सबको डाँटते हुए, बहुत बड़े भैसेपर आरूढ़ एवं जलती हुई अग्निके समान नेत्रवाला समझते हैं । [वे पापीजन यमराजको] रक्तवर्णकी माला तथा वस्त्र धारण किये हुए, सुमेरुपर्वतके समान ऊँचे, प्रलयकालीन महामेधके समान गर्जना करते हुए, समुद्रको पीते हुए, पर्वतराजको निगलते हुए और अग्निको उगलते हुए [मानो] देखते हैं । ४९-५२.५ ॥ मृत्युश्चैव समीपस्थः कालानलसमप्रभुः ॥ ५३ ॥ कालश्चांजनसङ्काशः कृतान्तश्च भयानकः । मारीचोग्रमहामारी कालरात्रिश्च दारुणा ॥ ५४ ॥ विविधा व्याधयः कुष्ठा नानारूपा भयावहाः । शक्तिशूलाङ्कुशधराः पाशचक्रासिपाणयः ॥ ५५ ॥ वजतुंडधरा रुद्रा क्षुरतूणधनुर्द्धराः । नानायुधधराः सर्वे महावीरा भयङ्कराः ॥ ५६ ॥ असंख्याता महावीराः कालाञ्जनसमप्रभाः । सर्वायुधोद्यतकरा यमदूता भयानकाः ॥ ५७ ॥ अनेन परिचारेण वृतं तं घोरदर्शनम् । यमं पश्यन्ति पापिष्ठाश्चित्रगुप्तं च भीषणम् ॥ ५८ ॥ कालाग्निके समान प्रभावाली मृत्यु उनके समीप स्थित है और [वहीं] काजलके समान प्रतीत होनेवाले कालदेवता तथा भयानक कृतान्त देवता भी स्थित हैं । मारी, उग्रमहामारी, भयंकर कालरात्रि, कुष्ठादि नाना प्रकारकी भयानक व्याधियाँ [भी वहाँ मूर्तिमान् होकर] तथा शक्ति, शूल, अंकुश, पाश, चक्र, खड्ग आदि शस्त्रोंको हाथोंमें लिये हुए और क्षुर, तरकस, धनुष आदि धारण किये हुए वज्रतुल्य तुण्डवाले रुद्रगण भी वहाँ विद्यमान हैं । नाना प्रकारके शस्त्रोंको धारण किये हुए भयंकर महावीर वहाँ स्थित हैं और कालांजनके समान कान्तिवाले तथा समस्त शस्त्रोंको हाथोंमें लिये हुए असंख्य भयानक तथा महावीर यमदूत वहाँ विद्यमान हैं, पापीलोग इन परिचारकोंसे घिरे हुए घोर दर्शनवाले उन यमराजको तथा भयंकर चित्रगुप्तको देखते हैं ॥ ५३-५८ ॥ निर्भर्त्सयति चात्यन्तं यमस्तान्पापकर्म्मणः । चित्रगुप्तश्च भगवान्धर्म्मवाक्यैः प्रबोधयेत् ॥ ५९ ॥ उस समय यमराज उन पापियोंको अत्यधिक धमकाते हैं और भगवान् चित्रगुप्त धर्मयुक्त वचनोंसे उन्हें समझाते हैं ॥ ५९ ॥ इति श्रीशिवमहापुराणे पञ्चम्यामुमासंहितायां नरकलोकमार्गयमदूतस्वरूपवर्णनं नाम सप्तमोऽध्यायः ॥ ७ ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत पाँचवीं उमासंहितामें नरकलोकमार्ग तथा यमदूतस्वरूपवर्णन नामक सातवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ७ ॥ श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु |