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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥
॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥ पञ्चमी उमासंहितायां
नवमोऽध्यायः सामान्यतो नरकगतिवर्णनम्
नरककी यातनाओंका वर्णन सनत्कुमार उवाच - एषु पापाः प्रपच्यन्ते शोष्यन्ते नरकाग्निषु । यातनाभिर्विचित्राभिरास्वकर्म्मक्षयाद्भृशम् ॥ १ ॥ सनत्कुमार बोले-[हे व्यास !] इन नरकाग्नियोंमें पापीजन अनेक प्रकारकी विचित्र यातनाओंके द्वारा कर्मोके विनष्ट होनेतक सताये तथा सुखाये जाते हैं ॥ १ ॥ स्वमलप्रक्षयाद्यद्वदग्नौ धास्यन्ति धातवः । तत्र पापक्षयात्पापा नराः कर्मानुरूपतः ॥ २ ॥ जिस प्रकार मल दूर होनेतक धातुएँ अग्निमें तपायी जाती हैं, उसी प्रकार पापके क्षयपर्यन्त पापी मनुष्य भी अपने कर्मोके अनुरूप सन्तप्त किये जाते हैं ॥ २ ॥ सुगाढं हस्तयोर्बद्ध्वा ततः शृंखलया नराः । महावृक्षाग्रशाखासु लम्ब्यन्ते यमकिङ्करैः ॥ ३ ॥ यमराजके दूत लोहेकी जंजीरों [पापी मनुष्योंके दोनों हाथ दृढ़तापूर्वक बाँधकर महावृक्षकी शाखाओंमें लटका देते हैं ॥ ३ ॥ ततस्ते सर्वयत्नेन क्षिप्ता दोलन्ति किङ्करैः । दोलन्तश्चातिवेगेन विसंज्ञा यान्ति योजनम् ॥ ४ ॥ उसके बाद यत्नपूर्वक यमकिंकरोंद्वारा फेंके गये मनुष्य बड़े वेगसे कांपते हुए मूच्छित होकर योजनों दूरीतक [उनके द्वारा] ले जाये जाते हैं ॥ ४ ॥ अन्तरिक्षस्थितानां च लोहभारशतं पुनः । पादयोर्बध्यते तेषां यमदूतैर्महाबलैः ॥ ५ ॥ तेन भारेण महता प्रभृशं ताडिता नराः । ध्यायन्ति स्वानि कर्माणि तूष्णीं तिष्ठन्ति निश्चलाः ॥ ६ ॥ इसके बाद महाबलवान् यमराजके दूत आकाशमें स्थित उन मनुष्योंके पैरोंमें सौ भारका लोहा बाँध देते हैं । उस महान् भारसे अत्यधिक पीड़ित मनुष्य अपने कर्मोका स्मरण करते हैं और चेष्टाविहीन होकर चुपचाप खड़े रहते हैं ॥ ५-६ ॥ ततोंऽकुशैरग्निवर्णैर्लोह दण्डैश्च दारुणैः । हन्यन्ते किङ्करैघोरैः समन्तात्पापकर्म्मिणः ॥ ७ ॥ ततः क्षारेण दीप्तेन वह्नेरपि विशेषतः । समन्ततः प्रलिप्यन्ते तीवेण तु पुनः पुनः ॥ ८ ॥ तदनन्तर अतिभयंकर यमदूत उन पापियोंको चारों ओरसे भयानक अंकुशों एवं अग्निके समान वर्णवाले लोहदण्डोंसे मारते हैं । उसके पश्चात् अग्निसे भी तेज खारे नमकसे चारों ओरसे उनके ऊपर बार-बार लेप करते हैं । ७-८ ॥ द्रुतेनात्यन्तलिप्तेन कृत्ताङ्गा जर्जरीकृताः । पुनर्विदार्य चाङ्गानि शिरसः प्रभृति क्रमात् ॥ ९ ॥ वृताकवत्प्रपच्यन्ते तप्तलोहकटाहकैः । विष्ठापूर्णे तथा कूपे कृमीणां निचये पुनः ॥ १० ॥ मेदोऽसृक्पूयपूर्णायां वाप्यां क्षिप्यन्ति ते पुनः । भक्ष्यन्ते कृमिभिस्तीक्ष्णैर्लोंहतुंडैश्च वायसैः ॥ ११ ॥ श्वभिर्दंशैर्वृकैर्व्याघ्रैर्रौद्रैश्च विकृताननैः । पच्यन्ते मत्स्यवच्चापि प्रदीप्ताङ्गारराशिषु ॥ १२ ॥ उस लेपसे शीघ्र उनका शरीर जर्जर होकर छिन्नभिन्न हो जाता है, पुन: सिरसे लेकर क्रमशः सारे अंग काट-काटकर अत्यन्त प्रतप्त लोहेके कड़ाहोंमें बैगनके समान पकाये जाते हैं । इसके बाद विष्ठासे पूरित कूपमें, कीड़ोंके ढेरों तथा पुनः चर्वी, रक्त तथा मवादसे भरी हुई बावलीमें [पापियोंके शरीरावयव] फेंक दिये जाते | हैं । वहाँपर कीड़े तथा लौहके समान तीक्ष्ण चोंचोंवाले कौए, कुत्ते, मच्छर, भेड़िये एवं भयानक तथा विकृत मुखवाले व्याघ्र उनका भक्षण करते हैं और वे जलते अंगारोंकी राशिमें मछलीके समान भंजे जाते हैं ॥ ९-१२ ॥ भिन्नाः शूलैस्तु तीक्ष्णैश्च नराः पापेन कर्म्मणा । तैलयन्त्रेषु चाक्रम्य घोरैः कर्म्मभिरात्मनः ॥ १३ ॥ तिला इव प्रपीड्यन्ते चक्राख्ये जनपिंडकाः । भ्रज्यन्ते चातपे तप्ते लोहभाण्डेष्वनेकधा ॥ १४ ॥ तैलपूर्णकटाहेषु सुतप्तेषु पुनःपुनः । बहुधा पच्यते जिह्वा प्रपीड्योरसि पादयोः ॥ १५ ॥ वे मनुष्य अपने पापकर्मके फलस्वरूप अत्यन्त तीक्ष्ण भालोंसे वेधे जाते हैं । मनुष्योंके [वे] यातनाशरीर अपने घोर ककि कारण तेलयन्त्रोंमें डालकर तिलोंके समान पीसे जाते हैं । पुनः [अत्यन्त तीक्ष्ण] धूपमें तथा तपे हुए लोहेके पात्रोंमें अनेक प्रकारसे भंजे जाते हैं । इसके बाद तेलसे पूर्ण अत्यन्त तप्त कड़ाहोंमें हृदय तथा पैरोंको दबाकर उनकी जीभको पकाया जाता है ॥ १३-१५ ॥ यातनाश्च महत्योऽत्र शरीरस्याति सर्वतः । निः शेषनरकेष्वेवं क्रमन्ति क्रमशो नराः ॥ १६ ॥ नरकेषु च सर्वेषु विचित्रा यमयातना । याम्यैश्च दीयते व्यास सर्वाङ्गेषु सुकष्टदा ॥ १७ ॥ इस प्रकार शरीरसे नाना प्रकारकी भयंकर यातना प्राप्त करते हुए [पापी] मनुष्य क्रमशः सभी नरकोंमें घूमते रहते हैं । हे व्यासजी ! यमदूत सभी नरकोंमें [पापियोंके] सभी अंगोंमें विचित्र एवं अत्यन्त पीड़ादायिनी यातनाएं देते हैं ॥ १६-१७ ॥ ज्वलदङ्गारमादाय मुखमापूर्य ताड्यते । ततः क्षारेण दीप्तेन ताम्रेण च पुनःपुनः ॥ १८ ॥ घृतेनात्यन्ततप्तेन तदा तैलेन तन्मुखम् । इतस्ततः पीडयित्वा भृशमापूर्य हन्यते ॥ १९ ॥ जलता हुआ अंगार लेकर उनके मुख में भरकर उन्हें पीटा जाता है, इसके बाद क्षारद्रव्यसे तथा तप्त [पिघले हुए] ताम्रसे उन्हें बार-बार पीड़ित किया जाता है । तत्पश्चात् अत्यधिक तपे हुए घी तथा तेलको उनके मुखमें भरकर इधर-उधर पीड़ा देकर बहुत मारा जाता है ॥ १८-१९ ॥ विष्ठाभिः कृमिभिश्चापि पूर्यमाणाः क्वचित्क्वचित् । परिष्वजन्ति चात्युग्रां प्रदीप्तां लोहशाल्मलीम् ॥ २० ॥ [यमदूत] कभी-कभी उनके मुख में कीड़े तथा विष्ठा भरकर अति भयानक तथा प्रदीप्त लोहशलाकासे उन्हें दागते हैं ॥ २० ॥ हन्यन्ते पृष्ठदेशे च पुनर्दीप्तैर्महाघनैः । दन्तुरेणादिकंठेन क्रकचेन बलीसया ॥ २१ ॥ शिरःप्रभृति पीड्यन्ते घोरैः कर्मभिरात्मजैः । खाद्यन्ते च स्वमांसानि पीयते शोणितं स्वकम् ॥ २२ ॥ वे पीठपर जलते हुए विशाल घनोंसे मारे जाते हैं और अपने घोर पापकर्मोंके कारण दाँतोंवाले, वेदनाप्रद तथा सुदृढ़ आरेसे सिरतक चीरे जाते हैं । वे अपना ही मांस खाते हैं तथा अपना ही रक्त पीते हैं ॥ २१-२२ ॥ अन्नं पानं न दत्तं यैः सर्वदा स्वात्मपोषकैः । इक्षुवत्ते प्रपीड्यन्ते जर्जरीकृत्य मुद्गरैः ॥ २३ ॥ सर्वदा अपने ही पोषणमें तत्पर रहनेवाले जिन्होंने अन्न अथवा पेय वस्तुका दान नहीं किया है, वे मुद्गरोद्वारा जर्जर बनाकर ईखके समान पेरे जाते हैं ॥ २३ ॥ असितालवने घोरे छिद्यन्ते खण्डशस्ततः । सूचीभिर्भिन्नसर्वाङ्गास्तप्तशूलाग्ररोपिताः ॥ २४ ॥ संचाल्यमाना बहुशः क्लिश्यन्ते न म्रियन्ति च । तथा च तच्छरीराणि सुखदुःखसहानि च ॥ २५ ॥ उसके अनन्तर वे घोर असितालवनमें खण्ड-खण्ड करके छिन्न-भिन्न किये जाते हैं और उनके सारे अंगोंमें सुइयाँ चुभोयी जाती हैं एवं वे तप्त शूलीके अग्रभागपर लटकाये जाते हैं । उसपर हिला-डुलाकर वे बहुत पीड़ित देहादुत्पाट्य मांसानि भिद्यन्ते स्वैश्च मुद्गरैः । दन्तुराकृतिभिर्र्घोरैर्यमदूतैर्बलोत्कटैः ॥ २६ ॥ निरुच्छ्वासे निरुछ्वासास्तिष्ठन्ति नरके चिरम् । उत्ताड्यन्ते तथोछ्वासे वालुकासदने नराः ॥ २७ ॥ किये जाते हैं, किंतु मरते नहीं, इस प्रकार उनके वे [यातना] शरीर सुख-दुःखको सहन करते हैं ॥ २४-२५ ॥ रौरवे रोदमानाश्च पीड्यन्ते विविधै वधैः । महारौरवपीडाभिर्महान्तोऽपि रुदन्ति च ॥ २८ ॥ महाबलशाली तथा बड़े-बड़े दाँतोंवाले भयंकर यमदूत उनके शरीरसे मांस निकालकर उन्हें मुद्गरोंसे पीटते हैं । उन मनुष्योंको निरुच्छ्वास नामक नरकमें बहुत समयतक बिना श्वासके रहना पड़ता है और उच्छ्वास नामक नरकमें बालूके घरमें उन्हें अत्यधिक पीटा जाता है ॥ २६-२७ ॥ पत्सु वक्त्रे गुदे मुंडे नेत्रयोश्चैव मस्तके । निहन्यन्ते घनैस्तीक्ष्णैः सुतप्तैर्लोह शङ्कुभिः ॥ २९ ॥ सुतप्तावालुकायां तु प्रयोज्यन्ते मुहुर्मुहुः । जन्तुपङ्के भृशं तप्ते क्षिप्ताः क्रन्दन्ति विस्वरम् ॥ ३० ॥ रौरव नरकमें रोते हुए जीव अनेक आघातोंसे पीड़ित किये जाते हैं और महारौरव नरककी यातनाओंसे बड़े-बड़े [धैर्यवान्] भी रोने लगते हैं ॥ २८ ॥ कुंभीपाकेषु च तथा तप्ततैलेषु वै मुने । पापिनः कूरकर्म्माणोऽसह्येषु सर्वथा पुनः ॥ ३१ ॥ चरण, मुख, गुदा, सिर, नेत्रों और मस्तकपर वे तीक्ष्ण घनोंसे तथा अत्यधिक तपी हुई लोहेकी छड़ोंसे मारे जाते हैं । वे अत्यन्त तपती हुई रेतोंमें बार-बार गिराये जाते हैं और अत्यन्त तपे हुए जन्तुपंकमें फेंके जानेपर वे विकृत स्वरमें क्रन्दन करने लगते हैं ॥ २९-३० ॥ लालाभक्षेषु पापास्ते पात्यन्ते दुःखदेषु वै । नानास्थानेषु पच्यन्ते नरकेषु पुनःपुनः ॥ ३२ ॥ हे मुने ! क्रूर कर्म करनेवाले पापी कुम्भीपाक नरकोंमें असह्य तप्त तेलोंमें पूर्णरूपसे पकाये जाते हैं । उन पापियोंको दुःखदायक लालाभक्ष नामक नरकोंमें गिराया जाता है । इसी प्रकार वे अनेक प्रकारके नरकोंमें बार-बार गिराये जाते हैं ॥ ३१-३२ ॥ सूचीमुखे महाक्लेशे नरके पात्यते नरः । पापी पुण्यविहीनश्च ताड्यते यमकिङ्करैः ॥ ३३ ॥ लौहकुम्भे विनिःक्षिप्ताः श्वसन्तश्च शनैःशनैः । महाग्निना प्रपच्यन्ते स्वपापैरेव मानवाः ॥ ३४ ॥ यमदूतोंद्वारा पुण्यहीन पापी मनुष्य अत्यन्त कष्टदायक सूचीमुख नरकमें गिराया जाता है तथा मारा जाता है । अपने पापोंके कारण लोहकुम्भ नरकमें डाले गये मनुष्य धीरे-धीरे श्वास लेते हुए महान् अग्निसे पकाये जाते हैं ॥ ३३-३४ ॥ दृढं रज्ज्वादिभिर्बद्ध्वा प्रपीड्यन्ते शिलासु च । क्षिप्यन्ते चान्धकूपेषु दश्यन्ते भ्रमरैर्भृशम् ॥ ३५ ॥ रस्सी आदिसे दृढ़तापूर्वक बाँधकर उन्हें पत्थरोंपर पटका जाता है, अन्धकूप नरकोंमें फेंका जाता है, जहाँ भरि उन्हें बहुत डॅंसते हैं ॥ ३५ ॥ कृमिभिर्भिन्नसर्वाङ्गाः शतशो जर्जरीकृताः । सुतीक्ष्णक्षारकूपेषु क्षिप्यन्ते तदनन्तरम् ॥ ३६ ॥ कीड़ोंके द्वारा काटे गये सभी अंगोवाले तथा पूर्णरूपसे जर्जर कर दिये गये वे बादमें अत्यन्त तीक्ष्ण क्षारकूपोंमें फेंक दिये जाते हैं ॥ ३६ ॥ महाज्वालेऽत्र नरके पापाः क्रन्दन्ति दुःखिताः । इतश्चेतश्च धावन्ति दह्यमानास्तदर्चिषा ॥ ३७ ॥ पापीलोग महाज्वाल नामक इस नरकमें दुखी होकर क्रन्दन करते रहते हैं और उसकी ज्वालासे दग्ध होते हुए इधर-उधर भागते हैं ॥ ३७ ॥ पृष्ठे चानीय तुण्डाभ्यां विन्यस्त स्कंधयोजिते । तयोर्मध्येन वाकृष्य बाहुपृष्ठेन गाढतः ॥ ३८ ॥ बद्ध्वा परस्परं सर्वे सुभृशं पापरज्जुभिः । बद्धपिंडास्तु दृश्यन्ते महा ज्वाले तु यातनाः ॥ ३९ ॥ तुण्डोंके द्वारा पीठपर लाकर कन्धोंका सहारा लेकर बाहु तथा पीठके बीचसे दृढ़तापूर्वक खींचकर पाश तथा रस्सियोंसे अति कठोरतापूर्वक बाँधे गये सभी पापी महाज्वाल नामक नरकमें एक-दूसरेकी यातना देखते रहते हैं ॥ ३८-३९ ॥ रज्जुभिर्वेष्टिताश्चैव प्रलिप्ताः कर्दमेन च । करीषतुषवह्नौ च पच्यन्ते न म्रियन्ति च ॥ ४० ॥ सुतीक्ष्णं चरितास्ते हि कर्कशासु शिलासु च । आस्फाल्य शतशः पापाः पच्यन्ते तृणवत्ततः ॥ ४१ ॥ रस्सियोंसे बँधे हुए तथा कीचड़से लिपटे हुए वे कण्डा तथा भूसीको आगमें पकाये जाते हैं, किंतु मरते नहीं । अति दुश्चरित्र पापियोंको कठोर शिलाओंपर बड़े जोरसे पटककर तृणके समान सैकड़ों खण्डोंमें फाड़ दिया जाता है ॥ ४०-४१ ॥ शरीराभ्यन्तरगतैः प्रभूतैः कृमिभिर्नराः । भक्ष्यन्ते तीक्ष्णवदनैरात्मदेहक्षयाद्भृशम् ॥ ४२ ॥ शरीरके भीतर प्रविष्ट हुए तीखे मुखवाले बहुतसे कीड़ोंके द्वारा वे मनुष्य यातना-शरीरके नाशपर्यन्त निरन्तर भक्षण किये जाते हैं ॥ ४२ ॥ कृमीणां निचये क्षिप्ताः पूयमांसास्थिराशिषु । तिष्ठन्त्युद्विग्नहृदयाः पर्वताभ्यां निपीडिताः ॥ ४३ ॥ कीड़ोंके समूहमें और पीब, मांस एवं हड़ियोंके समूहमें फेंके गये वे पापी दो पत्थरोंके बीचमें दबे हुए व्यथितचित्त होकर वहाँ पड़े रहते हैं ॥ ४३ ॥ तप्तेन वज्रलेपेन शरीरमनुलिप्यते । अधोमुखोर्ध्वपादाश्च तातप्यन्ते स्म वह्निना ॥ ४४ ॥ उनका शरीर कभी तपे हुए वज्रलेपसे लिप्त होता है और वे कभी नीचेकी ओर मुख तथा ऊपरको पैर करके अग्निसे तपाये जाते हैं ॥ ४४ ॥ वदनान्तः प्रविन्यस्तां सुप्रतप्तामयोगदाम् । ते खादन्ति पराधीनास्तैस्ताड्यन्ते समुद्गरैः ॥ ४५ ॥ वे मुखके भीतर डाली हुई अतिशय तप्त लोहेकी गदाको विवश होकर निगलते रहते हैं और यमदूत उन्हें मुद्गरोंसे पीटते रहते हैं ॥ ४५ ॥ इत्थं व्यास कुकर्माणो नरकेषु पचन्ति हि । वर्णयामि विवर्णत्वं तेषां तत्त्वाय कर्मिणाम् ॥ ४६ ॥ हे व्यासजी ! इस प्रकार पापकर्म करनेवाले लोग नरकोंमें दुःख भोगते हैं, अब मैं आपके जाननेके लिये उन पापियोंके विकृतस्वरूपका वर्णन करता हूँ ॥ ४६ ॥ इति श्रीशिवमहापुराणे पञ्चम्यामुमासंहितायां सामान्यतो नरकगतिवर्णनंनाम नवमोऽध्यायः ॥ ९ ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत पाँचवीं उमासंहितामें सामान्य नरकगतिवर्णन नामक नौवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ९ ॥ श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु |