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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥
॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥ पञ्चमी उमासंहितायां
एकादशोऽध्यायः अन्नदानमाहात्म्यवर्णनम्
दानके प्रभावसे यमपुरके दुःखका अभाव तथा अन्नदानका विशेष माहात्म्यवर्णन व्यास उवाच - कृतपापा नरा यान्ति दुःखेन महतान्विताः । यममार्गे सुखं यैश्च तान्धर्मान्वद मे प्रभो ॥ १ ॥ व्यासजी बोले-हे प्रभो ! पाप करनेवाले मनुष्य बड़े दुःखसे युक्त होकर यममार्गमें गमन करते हैं, अब आप उन धर्मोको कहिये, जिनके द्वारा वे सुखपूर्वक यममार्गमें गमन करते हैं ॥ १ ॥ सनत्कुमार उवाच - अवश्यं हि कृतं कर्म भोक्तव्यमविचारतः । शुभाशुभमथो वक्ष्ये तान्धर्म्मान्सुखदायकान् ॥ २ ॥ अत्र ये शुभकर्माणः सौम्यचित्ता दयान्विताः । सुखेन ते नरा यान्ति यममार्गं भयावहम् ॥ ३ ॥ सनत्कुमार बोले-निश्चय ही अपने द्वारा किये गये शुभाशुभ कर्मका फल बिना विचारे विवश होकर भोगना पड़ता है, अब मैं सुख प्रदान करनेवाले धोका वर्णन करूँगा । इस लोकमें जो लोग शुभ कर्म करनेवाले, शान्तचित्त एवं दयालु मनुष्य हैं, वे बड़े सुखके साथ भयानक यममार्गमें जाते हैं ॥ २-३ ॥ यः प्रदद्याद् द्विजेन्द्राणामुपानत्काष्ठपादुके । स नरोऽश्वेन महता सुखं याति यमालयम् ॥ ४ ॥ छत्रदानेन गच्छन्ति यथा छत्रेण देहिनः । शिबिकायाः प्रदानेन तद्रथेन सुखं व्रजेत् ॥ ५ ॥ जो मनुष्य श्रेष्ठ ब्राह्मणों को जूता एवं खड़ाऊँका दान करते हैं, वे उत्तम घोड़ेपर बैठकर सुखपूर्वक यमपुरीको जाते हैं । छाताका दान करनेसे मनुष्य यहाँ की भाँति छाता लगाकर यमलोक जाते हैं । शिविका प्रदान करनेसे प्राणी सुखपूर्वक रथसे गमन करता है ॥ ४-५ ॥ शयासनप्रदानेन सुखं याति सुविश्रमम् । आरामच्छायाकर्तारो मार्गे वा वृक्षरोपकाः । व्रजन्ति यमलोकं च आतपेऽति गतक्लमाः ॥ ६ ॥ शव्या, आसन प्रदान करनेसे प्राणी विश्राम करता हुआ सुखपूर्वक जाता है । जो लोग उद्यान लगानेवाले, छाया करनेवाले तथा मार्गमें वृक्षका आरोपण करनेवाले हैं, वे धूपमें भी कष्टरहित होकर यमपुरीको जाते हैं ॥ ६ ॥ यान्ति पुष्पगयानेन पुष्पारामकरा नराः । देवायतनकर्तारः क्रीडन्ति च गृहोदरे ॥ ७ ॥ कर्तारश्च तथा ये च यतीनामाश्रमस्य च । अनाथमण्डपानां तु क्रीडन्ति च गृहोदरे ॥ ८ ॥ फूलोंके बगीचे लगानेवाले मनुष्य पुष्पक विमानसे | जाते हैं और देवमन्दिरका निर्माण करानेवाले [उस मार्गपर] [उत्तम] भवनोंके भीतर क्रीड़ा करते हैं । जो लोग संन्यासियोंके लिये आश्रम तथा अनाथोंके लिये अनाथालय बनवाते हैं, वे भी [उत्तमोत्तम] भवनोंमें क्रीड़ा करते हैं ॥ ७-८ ॥ देवाग्निगुरुविप्राणां मातापित्रोश्च पूजकाः । पूज्यमाना नरा यान्ति कामुकेन यथासुखम् ॥ ९ ॥ देवता, अग्नि, गुरु, ब्राह्मण एवं माता-पिताकी पूजा करनेवाले मनुष्य पूजित होते हुए यथेच्छ सुखपूर्वक [यमपुरीको] जाते हैं ॥ ९ ॥ द्योतयन्तो दिशः सर्वा यान्ति दीपप्रदायिनः । प्रतिश्रयप्रदानेन सुखं यान्ति निरामयाः ॥ १० ॥ दीपदान करनेवाले सभी दिशाओंको प्रकाशित करते हुए जाते हैं एवं आश्रयस्थान (गृह आदि) प्रदान करनेवाले नीरोग होकर सुखपूर्वक जाते हैं ॥ १० ॥ विश्राम्यमाणा गच्छन्ति गुरुशुश्रूषका नराः । आतोद्यविप्रदातारः सुखं यान्ति स्वके गृहे ॥ ११ ॥ गुरुकी सेवा करनेवाले मनुष्य विश्राम करते हुए जाते हैं और वाद्य-यन्त्रोंका दान देनेवाले अपने घरके समान सुखपूर्वक [यमलोक] जाते हैं ॥ ११ ॥ सर्वकामसमृद्धेन यथा गच्छन्ति गोप्रदाः । अत्र दत्तान्नपानानि 'तान्याप्नोति नरः पथि ॥ १२ ॥ गौ प्रदान करनेवाले सभी कामनाओंसे सम्पन्न होकर जाते हैं । मनुष्य इस लोकमें जो भी अन्न, पान आदि दिये रहता है, वही [परलोकके] मार्गमें वह प्राप्त करता है ॥ १२ ॥ पादशौचप्रदानेन सजलेन पथा व्रजेत् । पादाभ्यङ्गं च यः कुर्यादश्वपृष्ठेन गच्छति ॥ १३ ॥ पैर धोनेके लिये जल प्रदान करनेसे प्राणी जलवाले मार्गसे जाता है । पैरोंमें लगानेके लिये उबटनका दान करनेवाले घोड़ोंकी पीठपर चढ़कर जाते हैं ॥ १३ ॥ पादशौचं तथाभ्यङ्गं दीपमन्नं प्रतिश्रयम् । यो ददाति सदा व्यास नोपसर्पति तं यमः ॥ १४ ॥ हे व्यासजी ! जो पैर धोनेके लिये जल, उबटन [तेल आदि], दीपक, अन्न एवं प्रतिश्रय (गृह आदि) प्रदान करता है, उसके पास यमराज नहीं जाते हैं ॥ १४ ॥ हेमरत्नप्रदानेन याति दुर्गाणि निस्तरन् । रौप्यानडुत्स्रग्दानेन यमलोकं सुखेन सः ॥ १५ ॥ इत्येवमादिभिर्दानैः सुखं यान्ति यमालयम् । स्वर्गे तु विविधान्भोगान्प्राप्नुवन्ति सदा नराः ॥ १६ ॥ सोना एवं रत्नका दान करनेसे मनुष्य घोर कष्टोंको पार करता हुआ तथा चाँदी, बैल आदिका दान करनेसे वह सुखसे यमलोकको जाता है और इन सभी दानोंके कारण मनुष्य सुखपूर्वक यमलोक जाते हैं और स्वर्गमें सदा अनेक प्रकारके भोग प्राप्त करते हैं ॥ १५-१६ ॥ सर्वेषामेव दानानामन्नदानं परं स्मृतम् । सद्यः प्रीतिकरं हृद्यं बलबुद्धिविवर्धनम् ॥ १७ ॥ सभी दानोंमें अन्नदान श्रेष्ठ कहा गया है; क्योंकि यह तत्काल प्रसन्न करनेवाला, हृदयको प्रिय लगनेवाला एवं बल तथा बुद्धिको बढ़ानेवाला है ॥ १७ ॥ नान्नदानसमं दानं विद्यते मुनिसत्तम । अन्नाद्भवन्ति भूतानि तदभावे म्रियन्ति च ॥ १८ ॥ हे मुनिश्रेष्ठ ! अन्नदानके समान कोई दूसरा दान नहीं है, क्योंकि अन्नसे ही प्राणी उत्पन्न होते हैं और उसके अभावमें मर जाते हैं ॥ १८ ॥ रक्तं मांसं वसा शुक्रं क्रमादन्नात्प्रवर्धते । शुक्राद्भवन्ति भूतानि तस्मादन्नमयं जगत् ॥ १९ ॥ रक्त, मांस, चर्बी एवं शुक्र-[ये] क्रमश: अन्नसे ही बढ़ते हैं । शुक्रसे प्राणी उत्पन्न होते हैं, इसलिये जगत् अन्नमय है अर्थात् अन्नका ही परिणाम है ॥ १९ ॥ हेमरत्नाश्वनागेन्द्रैर्नारीस्रक्चंदनादिभिः । समस्तैरपि संप्राप्तैर्न रमन्ति बुभुक्षिताः ॥ २० ॥ गर्भस्था जायमानाश्च बालवृद्धाश्च मध्यमाः । आहारमभिकाङ्क्षन्ति देवदानवराक्षसाः ॥ २१ ॥ भूखे लोग सुवर्ण, रत्न, घोड़ा, हाथी, स्त्री, माला, चन्दन आदि समस्त भोगोंके प्राप्त होनेपर भी आनन्दित नहीं होते हैं । गर्भस्थ, उत्पन्न हुए शिशु, बालक, युवा, वृद्ध, देवता, दानव तथा राक्षस-ये सब आहारकी ही विशेष आकांक्षा रखते हैं ॥ २०-२१ ॥ क्षुधा निः शेषरोगाणां व्याधिः श्रेष्ठतमः स्मृतः । स चान्नौषधिलेपेन नश्यतीह न संशयः ॥ २२ ॥ इस जगत्में भूखको सभी रोगोंमें सबसे बड़ा रोग कहा गया है, वह [रोग] अन्नरूपी औषधिके लेपसे नष्ट होता है, इसमें संशय नहीं है ॥ २२ ॥ नास्ति क्षुधासमं दुःखं नास्ति रोगः क्षुधासमः । नास्त्यरोगसमं सौख्यं नास्ति क्रोधसमो रिपुः ॥ २३ ॥ अतएव महत्पुण्यमन्नदाने प्रकीर्तितम् । तथा क्षुधाग्निना तप्ता म्रियन्ते सर्वदेहिनः ॥ २४ ॥ क्षुधाके समान कोई दुःख नहीं है, क्षुधाके समान कोई व्याधि नहीं है, आरोग्यलाभके समान कोई सुख नहीं है एवं क्रोधके समान कोई शत्रु नहीं है । अत: अन्नदान करने में महापुण्य कहा गया है; क्योंकि क्षुधारूपी अग्निसे तप्त हुए सभी प्राणी मर जाते हैं ॥ २३-२४ ॥ अन्नदः प्राणदः प्रोक्तः प्राणदश्चापि सर्वदः । तस्मादन्नप्रदानेन सर्वदानफलं लभेत् ॥ २५ ॥ यस्यान्नपानपुष्टाङ्गः कुरुते पुण्यसंचयम् । अन्नप्रदातुस्तस्यार्द्धं कर्तुश्चार्द्धं न संशयः ॥ २६ ॥ अन्नका दान करनेवाला, प्राणदाता और प्राणदान करनेवाला सर्वस्वका दान करनेवाला कहा गया है, अत: मनुष्य अन्नदानसे सभी प्रकारके दानका फल प्राप्त करता है । जिसके अन्नसे पालित पुरुष पुष्ट होकर पुण्य संचय करता है, उसका आधा पुण्य अन्नदाताको और आधा पुण्य [स्वयं उस] कर्ताको प्राप्त होता है, इसमें संशय नहीं है ॥ २५-२६ ॥ त्रैलोक्ये यानि रत्नानि भोगस्त्रीवाहनानि च । अन्नदानप्रदः सर्वमिहामुत्र च तल्लभेत् ॥ २७ ॥ धर्म्मार्थकाममोक्षाणां देहः परमसाधनम् । तस्मादन्नेन पानेन पालयेद्देहमात्मनः ॥ २८ ॥ तीनों लोकोंमें जो भी रत्न, भोग, स्त्री, वाहन आदि हैं, उन सबको अन्नदान करनेवाला इस लोकमें तथा परलोकमें प्राप्त करता है । यह शरीर धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्षका परम साधन है । अतः अन्न एवं पानसे अपने शरीरकी रक्षा करनी चाहिये ॥ २७-२८ ॥ अन्नमेव प्रशंसन्ति सर्वमेव प्रतिष्ठितम् । अन्नेन सदृशं दानं न भूतं न भविष्यति ॥ २९ ॥ सभी लोग अन्नकी प्रशंसा करते हैं; क्योंकि सब कुछ अन्नमें प्रतिष्ठित है । अन्नदानके समान न कोई दान हुआ है और न होगा ॥ २९ ॥ अन्नेन धार्यते सर्वं विश्वं जगदिदं मुने । अन्नमूर्जस्करं लोके प्राणा ह्यन्ने प्रतिष्ठिताः ॥ ३० ॥ हे मुने ! अन्नके द्वारा ही यह सम्पूर्ण विश्व धारण किया जाता है, अन्न ही लोकमें ऊर्जा प्रदान करनेवाला है और अन्नमें ही प्राण भी प्रतिष्ठित हैं ॥ ३० ॥ दातव्यं भिक्षवे चान्नं ब्राह्मणाय महात्मने । कुटुंबं पीडयित्वापि ह्यात्मनो भूतिमिच्छता ॥ ३१ ॥ ऐश्वर्यकी कामना करनेवालेको चाहिये कि वह अपने कुटुम्बको [यत्किंचित् दुःख देकर भी भिक्षुक तथा महात्मा ब्राह्मणको अन्नका दान करे ॥ ३१ ॥ विददाति निधिश्रेष्ठं यो दद्यादन्नमर्थिने । ब्राह्मणायार्तरूपाय पारलौकिकमात्मनः ॥ ३२ ॥ जो व्यक्ति याचक तथा दुखी ब्राह्मणको अन्नका दान करता है, वह अपनी पारलौकिक श्रेष्ठ निधिको संचित कर लेता है ॥ ३२ ॥ अर्चयेद्भूतिमन्विच्छन्काले द्विजमुपस्थितम् । श्रान्तमध्वनि वृत्त्यर्थं गृहस्थो गृहमागतम् ॥ ३३ ॥ अन्नदः पूजयेद्व्यासः सुशीलस्तु विमत्सरः । क्रोधमुत्पतितं हित्वा दिवि चेह महत्सुखम् ॥ ३४ ॥ ऐश्वर्यकी कामना करनेवाले गृहस्थ व्यक्तिको चाहिये कि आजीविकाहेतु यथासमय उपस्थित हुए तथा रास्तेमें थककर घर आये हुए ब्राह्मणका सत्कार करे । हे व्यासजी ! जो शीलसम्पन्न तथा ईर्ष्याशून्य होकर भोजन देनेवाला पुरुष उत्पन्न हुए क्रोधका त्यागकर [अभ्यागतकी] पूजा करता है, वह इस लोक तथा परलोकमें बहुत सुख प्राप्त करता है ॥ ३३-३४ ॥ नाभिनिंदेदधिगतं न प्रणुद्यात्कथंचन । अपि श्वपाके शुनि वा नान्नदानं प्रणश्यति ॥ ३५ ॥ कभी भी प्राप्त हुए अन्नकी निन्दा न करे और न उसे किसी तरह फेंके ही; क्योंकि चाण्डाल तथा कुत्तेके लिये भी दिया गया अन्नदान निष्फल नहीं होता है ॥ ३५ ॥ श्रान्तायादृष्टपूर्वाय ह्यन्नमध्वनि वर्तते । यो दद्यादपरिक्लिष्टं स समृद्धिमवाप्नुयात ॥ ३६ ॥ थके हुए तथा अपरिचित पथिकको जो प्रसन्नतापूर्वक अन्न प्रदान करता है, वह ऐश्वर्य प्राप्त करता है ॥ ३६ ॥ पितॄन्देवांस्तथा विप्रानतिथींश्च महामुने । यो नरः प्रीणयत्यन्नैस्तस्य पुण्यफलं महत् ॥ ३७ ॥ हे महामुने ! जो मनुष्य पितरों, देवताओं, ब्राह्मणों एवं अतिथियोंको अन्नोंके द्वारा सन्तुष्ट करता है, उस व्यक्तिको बहुत पुण्य मिलता है ॥ ३७ ॥ अन्नं पानं च शूद्रेऽपि ब्राह्मणे च विशिष्यते । न पृच्छेद्गोत्रचरणं स्वाध्यायं देशमेव च ॥ ३८ ॥ अन्न तथा जलका दान तो ब्राह्मणके लिये ही नहीं बल्कि शूद्रके लिये भी विशेष महत्त्व रखता है, [अतएव अन्नके इच्छुकसे] गोत्र, शाखा, स्वाध्याय तथा देश नहीं पूछना चाहिये ॥ ३८ ॥ भिक्षितो ब्राह्मणेनेह दद्यादन्नं च यः पुमान् । स याति परमं स्वर्ग यावदाभूतसंप्लवम् ॥ ३९ ॥ अन्नदस्य च वृक्षाश्च सर्वकामफलान्विताः । भवन्तीह यथा विप्रा हर्षयुक्तास्त्रिविष्टपे ॥ ४० ॥ इस लोकमें ब्राह्मणके द्वारा याचना किये जानेपर जो व्यक्ति अन्नदान करता है, वह प्रलयकालतक उत्तमस्थान स्वर्गमें निवास करता है । हे विप्रो ! जिस प्रकार कल्पवृक्ष आदि वृक्ष सभी कामनाओंको देने में समर्थ होते हैं, उसी प्रकार अन्नदान अन्नदाताको सभी कामनाओंका फल प्रदान करता है और अन्न देनेवाले लोग आनन्दपूर्वक स्वर्गमें निवास करते हैं ॥ ३९-४० ॥ अन्नदानेन ये लोकाः स्वर्गे विरचिता मुने । अन्नदातुर्महादिव्यास्ताञ्छृणुष्व महामुने ॥ ४१ ॥ भवनानि प्रकाशन्ते दिवि तेषां महात्मनाम् । नानासंस्थानरूपाणि नाना कामान्वितानि च ॥ ४२ ॥ हे महामुने ! अन्न प्रदान करनेवाले व्यक्तिके लिये अन्नदानके कारण स्वर्गमें जो अतिशय दिव्य लोक बनाये गये हैं, उन्हें सुनिये । उन महात्माओंके लिये अनेक सुखोपभोगोंसे परिपूर्ण तथा स्थापत्यकलाके विविध चमत्कारोंवाले शोभायुक्त भवन स्वर्गमें प्रकाशित होते हैं ॥ ४१-४२ ॥ सर्वकामफलाश्चापि वृक्षा भवनसंस्थिताः । हेमवाप्यः शुभाः कूपा दीर्घिकाश्चैव सर्वशः ॥ ४३ ॥ घोषयन्ति च पानानि शुभान्यथ सहस्रशः । भक्ष्यभोज्यमयाः शैला वासांस्याभरणानि च ॥ ४४ ॥ क्षीरं स्रवन्त्यः सरितस्तथैवाज्यस्य पर्वताः । प्रासादाः पाण्डुराभासाः शयाश्च कनकोज्ज्वलाः ॥ ४५ ॥ तानन्नदाश्च गच्छन्ति तस्मादन्नप्रदो भवेत् । यदीच्छेदात्मनो भव्यमिह लोके परत्र च ॥ ४६ ॥ एते लोकाः पुण्यकृतामन्नदानां महाप्रभाः । तस्मादन्नं विशेषेण दातव्यं मानवैर्ध्रुवम् ॥ ४७ ॥ उनके भवनोंमें उनकी कामनाके अनुरूप फल प्रदान करनेवाले वृक्ष, सोनेकी बावली, सुन्दर कूप तथा सरोवर विद्यमान रहते हैं । वहाँ हजारों शोभामय जलप्रपात कलकल ध्वनि करते रहते हैं । खानेयोग्य भोज्य वस्तुओंके पर्वत, वस्त्र, आभूषण, दुग्ध प्रवाहित करती हुई नदियाँ, घीके पहाड़, श्वेत-पीत कान्तिवाले महल तथा सोनेके समान देदीप्यमान शय्याएँ-ये सब विद्यमान रहते हैं । अन्न प्रदान करनेवाले उन लोकोंमें जाते हैं । इसलिये यदि मनुष्य इस लोक तथा परलोकमें ऐश्वर्यकी इच्छा करता हो, तो उसे अन्नका दान [अवश्य करना चाहिये । अन्न प्रदान करनेवाले पुण्यात्माओंको ये परम कान्तिमय लोक प्राप्त होते हैं, इसलिये अवश्य ही मनुष्योंको विशेष रूपसे अन्नका दान करना चाहिये ॥ ४३-४७ ॥ अन्नं प्रजापतिः साक्षादन्नं विष्णुः स्वयं हरः । तस्मादन्नसमं दानं न भूतं न भविष्यति ॥ ४८ ॥ कृत्वापि सुमहत्पापं यः पश्चादन्नदो भवेत् । विमुक्तः सर्वपापेभ्यः स्वर्गलोकं स गच्छति ॥ ४९ ॥ अन्न ही साक्षात् ब्रह्मा, विष्णु और महेश है, इसलिये अन्नदानके समान न कोई दान हुआ है और न होगा । बहुत बड़ा पाप करके भी जो बादमें अन्नका दान करता है, वह सभी पापोंसे मुक्त होकर स्वर्गलोकको जाता है ॥ ४८-४९ ॥ अन्नपानाश्वगोवस्त्रशयाच्छत्रासनानि च । प्रेतलोके प्रशस्तानि दानान्यष्टौ विशेषतः ॥ ५० ॥ अन्न, पान, अश्व, गौ, वस्त्र, शय्या, छत्र एवं आसन-ये आठ प्रकारके दान यमलोकके लिये विशेषरूपसे श्रेष्ठ कहे गये हैं ॥ ५० ॥ एवं दानविशेषेण धर्मराजपुरं नरः । यस्माद्याति विमानेन तस्माद्दानं समाचरेत् ॥ ५१ ॥ चूँकि इस प्रकारके विशेष दान से मनुष्य विमानद्वारा धर्मराजके लोकको जाता है, इसलिये [अन्नादिका] दान करना चाहिये ॥ ५१ ॥ एतदाख्यानमनघमन्नदानप्रभावतः । यः पठेत्पाठयेदन्यान्स समृद्धः प्रजायते ॥ ५२ ॥ अन्नदानके प्रभाव वर्णनसे युक्त यह आख्यान [सर्वथा] पापरहित है । जो इसे पढ़ता है या दूसरोंको पड़ाता है, वह समृद्धिशाली हो जाता है ॥ ५२ ॥ शृणुयाच्छ्रावयेच्छ्राद्धे ब्राह्मणान्यो महामुने । अक्षयमन्नदानं च पितॄणामुपतिष्ठति ॥ ५३ ॥ हे महामुने ! जो श्राद्धकालमें इस प्रसंगको सुनता है अथवा ब्राह्मणोंको सुनाता है, उसके पितरोंको अक्षय अन्नदान [-का फल] प्राप्त होता है ॥ ५३ ॥ इति श्रीशिवमहापुराणे पञ्चम्यामुमासंहितायां अन्नदानमाहात्म्यवर्णनं नामैकादशोऽध्यायः ॥ ११ ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत पाँचवीं उमासंहितामें अन्नदानमाहात्म्यवर्णन नामक ग्यारहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ११ ॥ श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु |