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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥
॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥ पञ्चमी उमासंहितायां
द्वादशोऽध्यायः तपोमाहात्म्यवर्णनम्
जलदान, सत्यभाषण और तपकी महिमा सनत्कुमार उवाच - पानीयदानं परमं दानानामुत्तमं सदा । सर्वेषां जीवपुंजानां तर्पणं जीवनं स्मृतम् ॥ १ ॥ सनत्कुमार बोले-[हे व्यासजी !] जलका दान | सभी दानोंमें सदा अति श्रेष्ठ है; क्योंकि वह सभी जीवसमुदायको तृप्त करनेवाला जीवन कहा गया है ॥ १ ॥ प्रपादानमतः कुर्यात्सुस्नेहादनिवारितम् । जलाश्रयविनिर्माणं महानन्दकरं भवेत् ॥ २ ॥ इह लोके परे वापि सत्यं सत्यं न संशयः । तस्माद्वापीश्च कूपांश्च तडागान्कारयेन्नरः ॥ ३ ॥ अत: बिना किसी रुकावटके प्रेमपूर्वक पौसरा चलाना चाहिये । जलाशयका निर्माण इस लोकमें तथा परलोकमें भी परम आनन्द प्रदान करनेवाला है । यह सत्य है, सत्य है, इसमें संशय नहीं है । इसलिये मनुष्यको बावली, तालाब तथा कूपोंका निर्माण कराना चाहिये ॥ २-३ ॥ अर्द्धं पापस्य हरति पुरुषस्य विकर्मणः । कूपः प्रवृत्तपानीयः सुप्रवृत्तस्य नित्यशः ॥ ४ ॥ सर्वं तारयते वंशं यस्य खाते जलाशये । गावः पिबन्ति विप्राश्च साधवश्च नराः सदा ॥ ५ ॥ जल निकलते ही कूप पापपरायण दुष्कर्मशील पुरुषके आधे पापका हरण कर लेता है तथा सत्कर्मनिरत व्यक्तिके पापोंका [तो वह] निरन्तर हरण करता ही रहता है । जिसके द्वारा खुदवाये जलाशयमें गाय, ब्राह्मण, साधु तथा अन्य मनुष्य सदा जल पीते हैं, वह [अपने] सम्पूर्ण कुलको तार देता है ॥ ४-५ ॥ निदाघकाले पानीयं यस्य तिष्ठत्यवारितम् । सुदुर्गं विषमं कृच्छ्रं न कदाचिदवाप्यते ॥ ६ ॥ जिसके जलाशयमें गर्मीके समयमें भी पर्याप्त जल रहता है, वह विषम तथा अति भयंकर दुःख कभी नहीं प्राप्त करता है ॥ ६ ॥ तडागानां च वक्ष्यामि कृतानां ये गुणाः स्मृता । त्रिषु लोकेषु सर्वत्र पूजितो यस्तडागवान् ॥ ७ ॥ अथवा मित्रसदने मैत्रं मित्रार्तिवर्जितम् । कीर्तिसंजननं श्रेष्ठं तडागानां निवेशनम् ॥ ८ ॥ [हे व्यास !] निर्मित कराये गये सरोवरोंके जो गुण कहे गये हैं, उन्हें मैं बताऊँगा । जो तालाबका निर्माण कराता है, वह तीनों लोकोंमें सर्वत्र पूजित होता है अथवा सूर्यलोकमें पूजित होता है । तालाबोंका निर्माण सूर्यके तापको दूर करनेवाला, मैत्रीकारक तथा कीर्तिका उत्तम हेतु होता है ॥ ७-८ ॥ धर्मस्यार्थस्य कामस्य फलमाहुर्मनीषिणः । तडागं सुकृते येन तस्य पुण्यमनन्तकम् ॥ ९ ॥ विद्वान् लोग धर्म, अर्थ तथा कामके [तो परिमित] फलका वर्णन करते हैं, परंतु जिसने सरोवरका निर्माण कराया, उसका पुण्य अनन्त होता है ॥ ९ ॥ चतुर्विधानां भूतानां तडागः परमाश्रयः । तडागादीनि सर्वाणि दिशन्ति श्रियमुत्तमाम् ॥ १० ॥ स्वेदज, अण्डज, उद्भिज तथा जरायुज-इन चारों प्रकारके प्राणियोंको तालाब महान् शरण [कहा गया] है । सभी प्रकारके तालाब [कूप, वापी, प्रपा] आदि [निर्माणकर्ताको] उत्तम लक्ष्मी प्रदान करते हैं ॥ १० ॥ देवा मनुष्या गन्धर्वाः पितरो नागराक्षसाः । स्थावराणि च भूतानि संश्रयन्ति जलाशयम् ॥ ११ ॥ देवता, मनुष्य, गन्धर्व, पितर, नाग, राक्षस और स्थावर प्राणी जलाशयका आश्रय ग्रहण करते हैं ॥ ११ ॥ प्रावृडृतौ तडागे तु सलिलं यस्य तिष्ठति । अग्निहोत्रफलं तस्य भवतीत्याह चात्मभूः ॥ १२ ॥ शरत्काले तु सलिलं तडागे यस्य तिष्ठति । गोसहस्रफलं तस्य भवेन्नैवात्र संशयः ॥ १३ ॥ वर्षाकालमें जिसके सरोवरमें जल रहता है, उसे अग्निहोत्रका फल मिलता है-ऐसा ब्रह्माजीने कहा है । शरत्कालमें जिसके सरोवरमें जल रहता है, उसे हजार गोदानका फल मिलता है, इसमें संशय नहीं है ॥ १२-१३ ॥ हेमन्ते शिशिरे चैव सलिलं यस्य तिष्ठति । स वै बहुसुवर्णस्य यज्ञस्य लभते फलम् ॥ १४ ॥ वसन्ते च तथा ग्रीष्मे सलिलं यस्य तिष्ठति । अतिरात्राश्वमेधानां फलमाहुर्मनीषिणः ॥ १५ ॥ हेमन्त और शिशिर ऋतुमें जिसके सरोवरमें जल रहता है, वह बहुत-सी सुवर्णदक्षिणावाले यज्ञका फल प्राप्त करता है । वसन्त और ग्रीष्मकालमें जिसके सरोवरमें जल रहता है, उसे अतिरात्र एवं अश्वमेधयज्ञका फल मिलता है-ऐसा विद्वानोंने कहा है ॥ १४-१५ ॥ मुने व्यासाथ वृक्षाणां रोपणे च गुणाञ्छृणु । प्रोक्तं जलाशयफलं जीवप्रीणनमुत्तमम् ॥ १६ ॥ हे व्यास मुने ! जीवोंको सन्तुष्ट करनेवाले जलाशयके फलका वर्णन मैंने कर दिया, अब वृक्षोंके लगानेके महत्त्वका श्रवण कीजिये ॥ १६ ॥ अतीतानागतान्सर्वान्पितृवंशांस्तु तारयेत् । कान्तारे वृक्षरोपी यस्तस्माद्वृक्षांस्तु रोपयेत् ॥ १७ ॥ तत्र पुत्रा भवन्त्येते पादपा नात्र संशयः । परं लोकं गतः सोऽपि लोकानाप्नोति चाक्षयान् ॥ १८ ॥ जो वनमें वृक्षोंको लगाता है, वह बीती हुई पीढ़ियों और आनेवाली पीढ़ियोंके सभी पितृकुलोंका उद्धार कर देता है, इसलिये वृक्षोंको अवश्य लगाना चाहिये । लगाये गये ये वृक्ष दूसरे जन्ममें उस व्यक्तिके पुत्र होते हैं, इसमें सन्देह नहीं है । वह वृक्षारोपण करनेवाला अन्तमें परलोक जानेपर अक्षय लोकोंको प्राप्त करता है ॥ १७-१८ ॥ पुष्पैः सुरगणान्सर्वान्फलैश्चापि तथा पितॄन् । छायया चातिथीन्सर्वान्पूजयन्ति महीरुहाः ॥ १९ ॥ वृक्ष पुष्पोंके द्वारा देवगणोंकी, फलोंके द्वारा पितरोंकी और छायाके द्वारा सभी अतिथियोंकी पूजा करते हैं ॥ १९ ॥ किन्नरोरगरक्षांसि देवगंधर्वमानवाः । तथैवर्षिगणाश्चैव संश्रयन्ति महीरुहान् ॥ २० ॥ पुष्पिताः फलवन्तश्च तर्पयन्तीह मानवान् । इह लोके परे चैव पुत्रास्ते धर्मतः स्मृताः ॥ २१ ॥ किन्नर, सर्प, राक्षस, देवता, गन्धर्व, मनुष्य तथा ऋषि वृक्षोंका आश्रय लेते हैं । फूले-फले वृक्ष इस लोकमें मनुष्योंको तृप्त करते हैं, वे इस लोक एवं परलोकमें धर्मसम्बन्धसे साक्षात् पुत्र ही कहे गये हैं ॥ २०-२१ ॥ तडागकृद्वृक्षरोपी चेष्टयज्ञश्च यो द्विजः । एते स्वर्गान्न हीयन्ते ये चान्ये सत्यवादिनः ॥ २२ ॥ जो द्विज सरोवरका निर्माण करनेवाला, वृक्षोंको लगानेवाला, इष्ट तथा पूर्तकर्म करनेवाला है और भी जो दूसरे सत्य बोलनेवाले लोग हैं-ये स्वर्गसे च्युत नहीं होते हैं ॥ २२ ॥ सत्यमेव परं ब्रह्म सत्यमेव परं तपः । सत्यमेव परो यज्ञः सत्यमेव परं श्रुतम् ॥ २३ ॥ सत्य ही परब्रह्म है, सत्य ही परम तप है, सत्य | ही परम यज्ञ है और सत्य ही परम शास्त्र है ॥ २३ ॥ सत्यं सुप्तेषु जागर्ति सत्यं च परमं पदम् । सत्येनैव धृता पृथ्वी सत्ये सर्वं प्रतिष्ठितम् ॥ २४ ॥ सभीके सो जानेपर एक सत्य ही जागता रहता है । सत्य ही परम पद है, सत्यके द्वारा ही पृथ्वी टिकी हुई है, अतः सत्यमें ही सब कुछ प्रतिष्ठित है ॥ २४ ॥ ततो यज्ञश्च पुण्यं च देवर्षिपितृपूजने । आपो विद्या च ते सर्वे सर्वं सत्ये प्रतिष्ठितम् ॥ २५ ॥ सत्यं यज्ञस्तपो दानं मन्त्रा देवी सरस्वती । ब्रह्मचर्यं तथा सत्यमोङ्कारः सत्यमेव च ॥ २६ ॥ तप, यज्ञ, देव, ऋषि, पितृपूजनका पुण्य, जल एवं विद्या-ये सभी तथा सब कुछ सत्यमें ही प्रतिष्ठित हैं । सत्य ही यज्ञ, तप, दान, सभी मन्त्र तथा देवी सरस्वतीरूप है । सत्य ही ब्रह्मचर्य है, सत्य ही ओंकार है ॥ २५-२६ ॥ सत्येन वायुरभ्येति सत्येन तपते रविः । सत्येनाग्निर्निर्दहति स्वर्गः सत्येन तिष्ठति ॥ २७ ॥ पालनं सर्ववेदानां सर्वतीर्थावगाहनम् । सत्येन वहते लोके सर्वमाप्नोत्यसंशयम् ॥ २८ ॥ सत्यसे ही वायु बहता है, सत्यसे ही सूर्य तपता है, सत्यसे ही अग्नि जलाती है और सत्यसे ही स्वर्ग स्थित है । सभी वेदोंका पालन तथा सभी तीर्थोंका स्नान सत्यसे ही होता है, सत्यसे ही प्राणी निःसन्देह सब कुछ प्राप्त कर लेता है ॥ २७-२८ ॥ अश्वमेधसहस्रं च सत्यं च तुलया धृतम् । लक्षाणि क्रतवश्चैव सत्यमेव विशिष्यते ॥ २९ ॥ सत्येन देवाः पितरो मानवोरगराक्षसाः । प्रीयन्ते सत्यतः सर्वे लोकाश्च सचराचराः ॥ ३० ॥ हजारों अश्वमेधयज्ञ तथा लाखों अन्य यज्ञ तराजूके एक पलड़ेपर तथा सत्यको दूसरे पलड़ेमें रखनेपर सत्य भारी पड़ता है । सत्यसे देवता, पितर, मानव, सर्प तथा राक्षस प्रसन्न रहते हैं, सत्यसे ही चर-अचरसहित सम्पूर्ण लोक प्रसन्न रहते हैं ॥ २९-३० ॥ सत्यमाहुः परं धर्मं सत्यमाहुः परं पदम् । सत्यमाहुः परं ब्रह्म तस्मात्सत्यं सदा वदेत् ॥ ३१ ॥ सत्यको परम धर्म कहा गया है, सत्यको परम पद कहा गया है और सत्यको परम ब्रह्म कहा गया है, इसलिये सदा सत्य बोलना चाहिये ॥ ३१ ॥ मुनयः सत्यनिरतास्तपस्तप्त्वा सुदुश्चरम् । सत्यधर्मरताः सिद्धास्ततः स्वर्गं च ते गताः ॥ ३२ ॥ अप्सरोगणसंविष्टैर्विमानैःपरिमातृभिः । वक्तव्यं च सदा सत्यं न सत्याद्विद्यते परम् ॥ ३३ ॥ सत्यपरायण मुनिगण तथा सत्यधर्ममें प्रवृत्त हुए सिद्धगण अत्यन्त कठिन तप करके अप्सराओंसे परिपूर्ण विस्तृत विमानोंके द्वारा स्वर्गको प्राप्त हुए हैं । [इसलिये सभी लोगोंको] सत्य बोलना चाहिये; क्योंकि सत्यसे बढ़कर कुछ भी नहीं है ॥ ३२-३३ ॥ अगाधे विपुले सिद्धे सत्यतीर्थे शुचिह्रदे । स्नातव्यं मनसा युक्तं स्थानं तत्परमं स्मृतम् ॥ ३४ ॥ अगाध, विपुल, सिद्ध तथा पवित्रतापूर्ण सत्यरूपी ह्रदमें मनोयोगसे स्नान करना चाहिये । क्योंकि वह परम पवित्र तीर्थ कहा गया है ॥ ३४ ॥ आत्मार्थे वा परार्थे वा पुत्रार्थे वापि मानवाः । अनृतं ये न भाषन्ते ते नराः स्वर्गगामिनः ॥ ३५ ॥ जो लोग स्वयंके लिये अथवा दूसरोंके लिये यहाँतक कि अपने पुत्रके लिये भी झूठ नहीं बोलते, वे स्वर्गगामी होते हैं ॥ ३५ ॥ वेदा यज्ञास्तथा मन्त्राः सन्ति विप्रेषु नित्यशः । नोभान्त्यपि ह्यसत्येषु तस्मात्सत्यं समाचरेत् ॥ ३६ ॥ ब्राह्मणोंमें वेदों, यज्ञों तथा मन्त्रोंके विद्यमान रहनेपर भी उनके असत्ययुक्त होनेपर वे सुशोभित नहीं होते, इसलिये भली प्रकारसे सत्यभाषण करना चाहिये ॥ ३६ ॥ व्यास उवाच - तपसो मे फलं ब्रूहि पुनरेव विशेषतः । सर्वेषां चैव वर्णानां ब्राह्मणानां तपोधन ॥ ३७ ॥ व्यासजी बोले-हे तपोधन ! सभी वर्गों एवं विशेष रूपसे ब्राह्मणोंकी तपस्याका फल पुनः मुझसे | कहिये ॥ ३७ ॥ सनत्कुमार उवाच - प्रवक्ष्यामि तपोऽध्यायं सर्व कामार्थसाधकम् । सुदुश्चरं द्विजातीनां तन्मे निगदतः शृणु ॥ ३८ ॥ तपो हि परमं प्रोक्तं तपसा विद्यते फलम् । तपोरता हि ये नित्यं मोदन्ते सह दैवतैः ॥ ३९ ॥ सनत्कुमार बोले-हे व्यासजी ! मैं द्विजातियोंके लिये सभी प्रकारकी कामनाओं एवं अर्थोंको सिद्ध करनेवाले अत्यन्त कठिन तपोऽध्यायका वर्णन करूँगा, उसे कहते हुए मुझसे आप सुनें । तप सर्वश्रेष्ठ कहा गया है, सभी प्रकारके फल तपस्यासे ही प्राप्त होते हैं । जो निरन्तर तपका सेवन करते हैं, वे देवगणोंके साथ आनन्द प्राप्त करते हैं ॥ ३८-३९ ॥ तपसा प्राप्यते स्वर्गस्तपसा प्राप्यते यशः । तपसा प्राप्यते कामस्तपः सर्वार्थसाधनम् ॥ ४० ॥ तपसे स्वर्ग मिलता है, तपसे यश मिलता है, तपस्यासे सभी कामनाएं पूर्ण होती हैं और तप सभी प्रकारके अर्थोका साधन है ॥ ४० ॥ तपसा मोक्षमाप्नोति तपसा विंदते महत् । ज्ञानविज्ञानसंपत्तिः सौभाग्यं रूपमेव च ॥ ४१ ॥ तपसे मोक्ष प्राप्त होता है, तपस्यासे परमात्मा प्राप्त होते हैं, तपस्यासे ज्ञान, विज्ञान, सम्पत्ति, सौभाग्य एवं रूप प्राप्त होता है ॥ ४१ ॥ नानाविधानि वस्तूनि तपसा लभते नरः । तपसा लभते सर्वं मनसा यद्यदिच्छति ॥ ४२ ॥ मनुष्य तपस्यासे नाना प्रकारकी वस्तुएँ प्राप्त करता है, वह मनसे जिस-जिस वस्तुको अभिलाषा करता है, वह सब कुछ तपस्यासे प्राप्त कर लेता है ॥ ४२ ॥ नातप्ततपसो यान्ति ब्रह्मलोकं कदाचन । नातप्ततपसां प्राप्यः शङ्करः परमेश्वरः ॥ ४३ ॥ तप न करनेवाले कभी भी ब्रह्मलोक नहीं जा सकते हैं और तप न करनेवालोंके लिये कभी परमेश्वर शिवजी प्राप्त नहीं हो सकते हैं ॥ ४३ ॥ यत्कार्यं किंचिदास्थाय पुरुषस्तपते तपः । तत्सर्वं समवाप्नोति परत्रेह च मानवः ॥ ४४ ॥ सुरापः पारदारी च ब्रह्महा गुरुतल्पगः । तपसा तरते सर्वं सर्वतश्च विमुंचति ॥ ४५ ॥ पुरुष जिस कार्यको उद्देश्य करके तप करता है, वह उसे इस लोकमें तथा परलोकमें प्राप्त कर लेता है । मदिरा पीनेवाला, परस्त्रीगमन करनेवाला, ब्रह्महत्यारा एवं गुरुपत्नीगामी भी तपस्याके प्रभावसे अपने सभी पापोंसे मुक्त हो जाता है और तर जाता है ॥ ४४-४५ ॥ अपि सर्वेश्वरः स्थाणुर्विष्णु श्चैव सनातनः । ब्रह्मा हुताशनः शक्रो ये चान्ये तपसान्विताः ॥ ४६ ॥ सर्वेश्वर शिव, सनातन विष्णु, ब्रहा, अग्नि, इन्द्र तथा अन्य लोग भी तपस्यापरायण रहते हैं ॥ ४६ ॥ अष्टाशीतिसहस्राणि मुनीनामूर्द्ध्वरेतसाम् । तपसा दिवि मोदन्ते समेता दैवतैः सह ॥ ४७ ॥ ऊध्वरेता अट्ठासी हजार [बालखिल्य आदि] महर्षि भी तपके प्रभावसे ही देवगणोंके साथ स्वर्गमें आनन्द प्राप्त करते हैं ॥ ४७ ॥ तपसा लभ्यते राज्यं स च शक्रः सुरेश्वरः । तपसाऽपालयत्सर्वमहन्यहनि वृत्रहा ॥ ४८ ॥ सूर्याचन्द्रमसौ देवौ सर्वलोकहिते रतौ । तपसैव प्रकाशन्ते नक्षत्राणि ग्रहास्तथा ॥ ४९ ॥ तपस्यासे राज्य प्राप्त होता है, तपस्यासे ही वृत्रासुरका नाशकर इन्द्र देवताओंके स्वामी बने हुए हैं और प्रतिदिन सबका पालन करते हैं । तपस्याके प्रभावसे ही सम्पूर्ण लोकोंका कल्याण करनेमें लगे हुए सूर्य, चन्द्रमा, नक्षत्र एवं ग्रह प्रकाशित होते हैं ॥ ४८-४९ ॥ न चास्ति तत्सुखं लोके यद्विना तपसा किल । तपसैव सुखं सर्वमिति वेदविदो विदुः ॥ ५० ॥ जगत्में ऐसा कोई सुख नहीं है, जो तपके बिना प्राप्त होता हो, तपसे ही सारा सुख प्राप्त होता है-ऐसा वेदवेत्ताओंने कहा है ॥ ५० ॥ ज्ञानं विज्ञानमारोग्यं रूपवत्त्वं तथैव च । सौभाग्यं चैव तपसा प्राप्यते सर्वदा सुखम् ॥ ५१ ॥ ज्ञान, विज्ञान, आरोग्य, रूप, सौभाग्य तथा सुख सर्वदा तपस्यासे ही प्राप्त होते हैं ॥ ५१ ॥ तपसा सृज्यते विश्वं ब्रह्मा विश्वं विनाश्रमम् । पाति विष्णुर्हरोऽप्यत्ति धत्ते शेषोऽखिलां महीम् ॥ ५२ ॥ तपस्याके द्वारा ही ब्रह्माजी बिना अमके सम्पूर्ण संसारकी रचना करते हैं, विष्णु रक्षा करते हैं, शिवजी संहार करते हैं और शेषनाग सम्पूर्ण पृथ्वीको धारण करते हैं ॥ ५२ ॥ विश्वामित्रो गाधिसुतस्तपसैव महामुने । क्षत्रियोऽथाभवद्विप्रः प्रसिद्धं त्रिभवेत्विदम् ॥ ५३ ॥ हे महामुने ! गाधिपुत्र [महर्षि] विश्वामित्र तपस्याके प्रभावसे ही क्षत्रियसे ब्राह्मण हो गये थे; यह बात त्रैलोक्यमें प्रसिद्ध है ॥ ५३ ॥ इत्युक्तं ते महाप्राज्ञ तपोमाहात्म्यमुत्तमम् । शृण्वध्ययनमाहात्म्यं तपसोऽधिकमुत्तमम् ॥ ५४ ॥ हे महाप्राज्ञ ! इस प्रकार मैंने तपका श्रेष्ठ माहात्म्य आपसे कहा, अब तपसे भी श्रेष्ठ [वेदोंके] अध्ययनकी महिमाको सुनिये ॥ ५४ ॥ इति श्रीशिवमहापुराणे पञ्चम्यामुमासंहितायां तपोमाहात्म्यवर्णनं नाम द्वादशोऽध्यायः ॥ १२ ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत पाँचवीं उमासंहितामें तपस्याका माहाल्यवर्णन नामक बारहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १२ ॥ श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु |