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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥
॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥ पञ्चमी उमासंहितायां
त्रयोदशोऽध्यायः पुराणमाहात्म्यवर्णनम्
पुराणमाहात्म्यनिरूपण सनत्कुमार उवाच - तपस्तपति योऽरण्ये वन्यमूलफलाशनः । योऽधीते ऋचमेकां हि फलं स्यात्तत्समं मुने ॥ १ ॥ सनत्कुमार बोले-हे मुने ! जो वनके कन्द-मूल एवं फल खाकर अरण्यमें तपस्या करता है और जो वेदकी एक ऋचामात्रका अध्ययन करता है, उन दोनोंका समान फल होता है ॥ १ ॥ श्रुतेरध्ययनात्पुण्यं यदाप्नोति द्विजोत्तमः । तदध्यापनतश्चापि द्विगुणं फलमश्नुते ॥ २ ॥ जगद्यथा निरालोकं जायतेऽशशिभास्करम् । विना तथा पुराणं ह्यध्येयमस्मान्मुने सदा ॥ ३ ॥ श्रेष्ठ ब्राह्मण वेदके अध्ययनसे जो पुण्य प्राप्त करता है, उसके अध्यापनसे उसका दूना फल प्राप्त होता है । हे मुने ! जैसे सूर्य और चन्द्रमाके बिना सम्पूर्ण संसार प्रकाशरहित हो जाता है, वैसे ही पुराणके अध्ययनके बिना लोग ज्ञानरहित हो जाते हैं, इसलिये सदा पुराणका अध्ययन करना चाहिये ॥ २-३ ॥ तप्यमानं सदाज्ञानान्निरये योऽपि शास्त्रतः । सम्बोधयति लोकं तं तस्मात्पूज्यः पुराणगः ॥ ४ ॥ सर्वेषां चैव पात्राणां मध्ये श्रेष्ठः पुराणवित् । पतनात्त्रायते यस्मात्तस्मात्पात्रमुदाहृतम् ॥ ५ ॥ पुराण जाननेवाला ही शास्त्रका उपदेश देकर अज्ञानके कारण नरकमें दुःख प्राप्त करनेवाले मनुष्यको भलीभाँति बोध कराता है, इसलिये पुराणका वक्ता [सर्वदा] पूजनीय होता है । सत्पात्रोंमें पुराण जाननेवाला ही सर्वश्रेष्ठ है; वह पतनसे रक्षा करता है, इसलिये उसे पात्र कहा गया है ॥ ४-५ ॥ मर्त्यबुद्धिर्न कर्तव्या पुराणज्ञे कदाचन । पुराणज्ञः सर्ववेत्ता ब्रह्मा विष्णुर्हरो गुरुः ॥ ६ ॥ धनं धान्यं हिरण्यं च वासांसि विविधानि च । देयं पुराणविज्ञाय परत्रेह च शर्म्मणे ॥ ७ ॥ यो ददाति महाप्रीत्या पुराणज्ञाय सज्जनः । पात्राय शुभवस्तूनि स याति परमां गतिम् ॥ ८ ॥ पुराणवेत्ताको कभी भी मनुष्यके रूपमें नहीं समझना चाहिये । पुराणका ज्ञाता सर्वज्ञ, ब्रह्मा, विष्णु, शिव एवं गुरु है । इस लोक एवं परलोकमें [अपने] कल्याणके लिये पुराणवेत्ताको धन-धान्य, सुवर्ण एवं विविध वस्त्र देना चाहिये । जो सज्जन पुराण जाननेवालेको प्रेमपूर्वक शुभ वस्तुएँ प्रदान करता है, वह परम गतिको प्राप्त होता है ॥ ६-८ ॥ महीं गां वा स्यंदनांश्च गजानश्वांश्च शोभनान् । यः प्रयच्छति पात्राय तस्य पुण्यफलं शृणु ॥ ९ ॥ अक्षयान्सर्वकामांश्च परत्रेह च जन्मनि । अश्वमेधमखस्यापि स फलं लभते पुमान् ॥ १० ॥ जो सत्पात्रको पृथ्वी, गौ, रथ, हाथी और श्रेष्ठ घोड़ा देता है, उसके पुण्यके फलका श्रवण करो । वह मनुष्य इस जन्ममें तथा परलोकमें सभी अक्षय कामनाओंको तथा अश्वमेधयज्ञके फलको प्राप्त करता है ॥ ९-१० ॥ मही ददाति यस्तस्मै कृष्टां फलवतीं शुभाम् । स तारयति वै वंश्यान्दश पूर्वान्दशापरान् ॥ ११ ॥ जो पुराणवेत्ताको हलसे जोती गयी फसलयुक्त भूमि प्रदान करता है, वह अपनेसे पूर्वकी दस पीढ़ी तथा आगे आनेवाली दस पीढ़ियोंका उद्धार कर देता है ॥ ११ ॥ इह भुक्त्वाखिलान्कामानन्ते दिव्यशरीरवान् । विमानेन च दिव्येन शिवलोकं स गच्छति ॥ १२ ॥ न यज्ञैस्तुष्टिमायान्ति देवाः प्रोक्षणकैरपि । बलिभिः पुष्पपूजाभिर्यथा पुस्तकवाचनैः ॥ १३ ॥ वह व्यक्ति इस लोकमें सभी सुखोंका भोग करके दिव्य शरीरसे युक्त होकर दिव्य विमानसे शिवलोक जाता है । देवतालोग यज्ञ, प्रोक्षण, बलि, पुष्पार्पण तथा पूजासे उतने प्रसन्न नहीं होते, जितना पुराण-ग्रन्थके वाचनसे होते हैं ॥ १२-१३ ॥ शंभोरायतने यस्तु कारयेद्धर्मपुस्तकम् । विष्णोरर्कस्य कस्यापि शृणु तस्यापि तत्फलम् ॥ १४ ॥ राजसूयाश्वमेधानां फलमाप्नोति मानवः । सूर्यलोकं च भित्त्वाशु ब्रह्मलोकं स गच्छति ॥ १५ ॥ जो शिवालय, विष्णुमन्दिर, सूर्यमन्दिर अथवा किसी भी देवमन्दिरमें धर्मशास्त्रका वाचन कराता है, उसके फलका श्रवण कीजिये । वह मनुष्य राजस्य तथा अश्वमेधयज्ञका फल प्राप्त करता है और सूर्यलोकका भेदनकर ब्रह्मलोकको जाता है ॥ १४-१५ ॥ स्थित्वा कल्पशतान्यत्र राजा भवति भूतले । भुङ्क्ते निष्कंटकं भोगान्नात्र कार्या विचारणा ॥ १६ ॥ वहाँ सैकड़ों कल्पतक निवास करके वह यहाँ पृथ्वीपर राजा होता है और निष्कण्टक सभी सुखोंका भोग करता है । इसमें सन्देह नहीं करना चाहिये ॥ १६ ॥ अश्वमेधसहस्रस्य यत्फलं समुदाहृतम् । तत्फलं समावाप्नोति देवाग्रे यो जपं चरेत् ॥ १७ ॥ इतिहासपुराणाभ्यां शम्भोरायतने शुभे । नान्यत्प्रीतिकरं शंभोस्तथान्येषां दिवौकसाम् ॥ १८ ॥ तस्मात्सर्वप्रयत्नेन कार्यं पुस्तकवाचनम् । तथास्य श्रवणं प्रेम्णा सर्वकामफलप्रदम् ॥ १९ ॥ जो किसी देवताके सान्निध्यमें जप करता है, वह हजार अश्वमेधका जो फल कहा गया है, उस फलको प्राप्त करता है । शिवमन्दिरमें एवं अन्य देवमन्दिरोंमें इतिहास-पुराणोंके वाचनके बिना शिवजीको प्रसन्न करनेका अन्य कोई उपाय नहीं है । इसलिये सम्पूर्ण प्रयत्नसे देवमन्दिरोंमें धर्मपुस्तकोंका वाचन तथा श्रवण प्रेमपूर्वक करना चाहिये, वह सभी प्रकारकी कामनाओंका फल प्रदान करनेवाला है ॥ १७-१९ ॥ पुराणश्रवणाच्छंभोर्निष्पापो जायते नरः । भुक्त्वा भोगान्सुविपुलाञ्छिवलोकमवाप्नुयात् ॥ २० ॥ शिवपुराणके सुननेसे पुरुष पापहीन हो जाता है और सम्पूर्ण सुखोंको भोगकर [अन्तमें] शिवलोकको प्राप्त करता है ॥ २० ॥ राजसूयेन यत्पुण्यमग्निष्टोमशतेन च । तत्पुण्यं लभते शंभोः कथाश्रवणमात्रतः ॥ २१ ॥ सर्वतीर्थावगाहेन गां कोटिप्रदानतः । तत् फलं लभते शंभोः कथाश्रवणतो मुने ॥ २२ ॥ सैकड़ों राजसूय एवं अग्निष्टोमयज्ञ करनेसे जो पुण्य प्राप्त होता है, उस पुण्यकी प्राप्ति शिवजीकी कथा सुनानेमात्रसे हो जाती है । हे मुने ! सभी तीर्थोमें स्नान करनेसे तथा करोड़ों गौओंका दान करनेसे जो फल मिलता है, उस फलको मनुष्य शिवकी कथा सुननेमात्रसे ही प्राप्त करता है ॥ २१-२२ ॥ ये शृण्वन्ति कथां शंभोः सदा भुवनपावनीम् । ते मनुष्या न मन्तव्या रुद्रा एव न संशयः ॥ २३ ॥ जो मनुष्य तीनों भुवनोंको पवित्र करनेवाली शिवकथाको सुनते हैं, उन्हें मनुष्य नहीं समझना चाहिये, वे साक्षात् रुद्र ही हैं, इसमें संशय नहीं है ॥ २३ ॥ शृण्वतां शिवसत्कीर्तिं सतां कीर्तयतां च ताम् । पदाम्बुजरजांस्येव तीर्थानि मुनयो विदुः ॥ २४ ॥ गन्तुं निःश्रेयसं स्थानं येऽभिवांछन्ति देहिनः । कथां पौराणिकीं शैवीं भक्त्या शृण्वन्तु ते सदा ॥ २५ ॥ मुनियोंने शिवजीके उत्तम यशका श्रवण करनेवाले तथा उसका कीर्तन करनेवाले सत्पुरुषोंके चरणकमलकी धूलिको ही तीर्थ कहा है । जो प्राणी मोक्षकी स्थिति प्राप्त करना चाहते हैं, उन्हें सदा भक्तिपूर्वक शिवपुराणकी कथा सुननी चाहिये ॥ २४-२५ ॥ कथां पौराणिकीं श्रोतुं यद्यशक्तः सदा भवेत् । नियतात्मा प्रतिदिनं शृणुयाद्वा मुहूर्तकम् ॥ २६ ॥ यदि प्रतिदिनं श्रोतुमशक्तो मानवो भवेत् । पुण्यमासादिषु मुने शृणुयाच्छाङ्करीं कथाम् ॥ २७ ॥ यदि मनुष्य पुराणकी कथाको सदा सुनने में असमर्थ हो तो संयतचित्त होकर प्रतिदिन केवल एक मुहूर्त ही कथाका श्रवण करे । हे मुने ! यदि मनुष्य प्रतिदिन कथा सुनने में असमर्थ हो तो पवित्र महीनोंमें ही शिवकी कथाका श्रवण करे ॥ २६-२७ ॥ शैवीं कथां हि शृण्वानः पुरुषो हि मुनीश्वर । स निस्तरति संसारं दग्ध्वा कर्ममहाटवीम् ॥ २८ ॥ कथां शैवीं मुहूर्तं वा तदर्द्धं क्षणं च वा । ये शृण्वxति नरा भक्त्या न तेषां दुर्गतिर्भवेत् ॥ २९ ॥ हे मुनीश्वर ! शिवकी कथाका श्रवण करता हुआ वह पुरुष कर्मरूपी महारण्यको भस्म करके संसारसे पार हो जाता है । जो मनुष्य मुहूर्तमात्र अथवा उसका आधा या क्षणमात्र भी शिवकी कथाको भक्तिपूर्वक सुनते हैं, उनकी दुर्गति नहीं होती है ॥ २८-२९ ॥ यत्पुण्यं सर्वदानेषु सर्वयज्ञेषु वा मुने । शंभोः पुराणश्रवणात्तत्फलं निश्चलं भवेत् ॥ ३० ॥ हे मुने ! सभी दानों अथवा सभी यजोंसे जो पृण्य मिलता है, वह शिवपुराणके श्रवणसे अचल हो जाता है ॥ ३० ॥ विशेषतः कलौ व्यास पुराणश्रवणादृते । परो धर्मो न पुंसां हि मुक्तिध्यानपरः स्मृतः ॥ ३१ ॥ पुराणश्रवणं शम्भोर्नामसङ्कीर्तनं तथा । कल्पद्रुमफलं रम्यं मनुष्याणां न संशयः ॥ ३२ ॥ हे व्यासजी ! विशेष रूपसे कलियुगमें मनुष्यों के लिये पुराणके श्रवणसे अतिरिक्त और कोई भी श्रेष्ठ धर्म नहीं है, वही उनके लिये मोक्ष एवं ध्यानरूपी फल देनेवाला बताया गया है । शिवपुराणका श्रवण एवं शिवनामका कीर्तन मनुष्योंके लिये कल्पवृक्षका मनोरम फल है, इसमें संशय नहीं है ॥ ३१-३२ ॥ कलौ दुर्मेधसां पुंसां धर्माचारोझ्झितात्मनाम् । हिताय विदधे शम्भुः पुराणाख्यं सुधारसम् ॥ ३३ ॥ एकोऽजरामरस्याद्वै पिबन्नेवामृतं पुमान् । शम्भोः कथामृतापानात्कुलमेवाजरामरम् ॥ ३४ ॥ कलियुगमें धर्माचरणसे रहित चित्तवाले दुर्बुद्धि मनुष्योंके हितके लिये शिवजीने शिवपुराण नामक अमृतरसका निर्माण किया है । अमृतका पान करनेवाला मात्र एक ही व्यक्ति अजर-अमर होता है, किंतु शिवकथारूपी सुधाके पानसे सम्पूर्ण कुल ही अजरअमर हो जाता है ॥ ३३-३४ ॥ या गतिः पुण्यशीलानां यज्वनां च तपस्विनाम् । सा गतिः सहसा तात पुराणश्रवणात्खलु ॥ ३५ ॥ ज्ञानवाप्तिर्यदा न स्याद्योगशास्त्राणि यत्नतः । अध्येतव्यानि पौराणं शास्त्रं श्रोतव्यमेव च ॥ ३६ ॥ हे तात ! जो गति पुण्यात्माओं, यज्ञ करनेवालों एवं तपस्वियोंकी होती है, वह गति केवल पुराणके श्रवणमात्रसे ही हो जाती है । यदि ज्ञानकी प्राप्ति न हो सके, तो यत्नपूर्वक योगशास्त्रोंका अध्ययन करना चाहिये और पुराण-शास्त्रका श्रवण करना चाहिये ॥ ३५-३६ ॥ पापं सङ्क्षीयते नित्यं धर्म्मश्चैव विवर्द्धते । पुराणश्रवणाज्ज्ञानी न संसारं प्रपद्यते ॥ ३७ ॥ अतएव पुराणानि श्रोतव्यानि प्रयत्नतः । धर्मार्थकामलाभाय मोक्षमार्गाप्तये तथा ॥ ३८ ॥ पुराणका श्रवण करनेसे पापका नाश होता है और धर्मकी अभिवृद्धि होती है एवं व्यक्ति ज्ञानवान् होकर पुनः संसारके आवागमनके बन्धनमें नहीं पड़ता है । इसलिये धर्म, अर्थ, कामकी सिद्धि तथा मोक्षमार्गकी प्राप्तिके लिये प्रयत्नपूर्वक पुराणोंको सुनना चाहिये ॥ ३७-३८ ॥ यज्ञैर्दानैस्तपोभिस्तु यत्फलं तीर्थसेवया । तत्फलम समवाप्नोति पुराणश्रवणान्नरः ॥ ३९ ॥ न भवेयुः पुराणानि धर्ममार्गे क्षणानि तु । यद्यत्र यद्व्रती स्थाता चात्र पारत्रकी कथाम् ॥ ४० ॥ यज्ञ, दान, तप एवं तीर्थसेवनसे जो फल मिलता है, उस फलको मनुष्य केवल पुराणश्रवणसे प्राप्त कर लेता है । यदि धर्ममार्गका प्रदर्शन करनेवाले पुराण न होते तो लोक तथा परलोकको कथाको सुनानेवाला कौन व्रती रहता ? ॥ ३९-४० ॥ षड्विंशतिपुराणानां मध्येऽप्येकं शृणोति यः । पठेद्वा भक्तियुक्तस्तु स मुक्तो नात्र संशयः ॥ ४१ ॥ छब्बीस पुराणोंमें एक भी पुराणको जो भक्तियुक्त होकर सुनता है या पढ़ता है, वह मुक्त हो जाता है, इसमें सन्देह नहीं है ॥ ४१ ॥ अन्यो न दृष्टः सुखदो हि मार्गः पुराणमार्गो हि सदा वरिष्ठः । शास्त्रं विना सर्वमिदं न भाति सूर्येण हीना इव जीवलोकाः ॥ ४२ ॥ अन्य कोई भी सुखप्रद मार्ग नहीं है, पुराणमार्ग ही सर्वदा श्रेष्ठ मार्ग है । [पुराणरूप इस अनुशासक] शास्त्रके बिना यह संसार आलोकित नहीं होता है, जैसे सूर्यके बिना जीवलोक आलोकयुक्त नहीं होता ॥ ४२ ॥ इति श्रीशिवमहापुराणे पञ्चम्यामुमासंहितायां पुराणमाहात्म्यवर्णनंनाम त्रयोदशोऽध्यायः ॥ १३ ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत पाँचवीं उमासंहितामें पुराणमाहात्म्यवर्णन नामक तेरहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १३ ॥ श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु |