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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥
॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥ पञ्चमी उमासंहितायां
चतुर्दशोऽध्यायः सामान्यदानवर्णनम्
दानमाहात्म्य तथा दानके भेदका वर्णन सनत्कुमार उवाच - शस्तानि घोरदानानि महादानानि नित्यशः । पात्रेभ्यस्तु प्रदेयानि आत्मानं तारयन्ति च ॥ १ ॥ सनत्कुमार बोले-हे व्यासजी ! जो घोरदान तथा महादान कहे गये हैं, उन्हें सदा सत्पात्रको ही देना चाहिये, ये आत्माका उद्धार करते हैं ॥ १ ॥ हिरण्यदानं गोदानं भूमिदानं द्विजोत्तम । गृह्णन्तो वै पवित्राणि तारयन्ति स्वमेव तम् ॥ २ ॥ हे द्विजोत्तम ! सुवर्णदान, गोदान, भूमिदान-इनको ग्रहण करनेवाला पवित्र रहता है तथा ये दान लेनेवाले और दान देनेवाले दोनोंका उद्धार करनेवाले हैं ॥ २ ॥ सुवर्णदानं गोदानं पृथिवीदानमेव च । एतानि श्रेष्ठदानानि कृत्वा पापैः प्रमुच्यते ॥ ३ ॥ सुवर्णदान, गोदान एवं भूमिदान-इन उत्तम दानोंको करके मनुष्य पापोंसे मुक्त हो जाता है ॥ ३ ॥ तुलादानानि शस्तानि गावः पृथ्वी सरस्वती । द्वे तु तुल्यबले शस्ते ह्यधिका च सरस्वती ॥ ४ ॥ तुलादान, गोदान, पृथ्वीदान तथा विद्यादान-ये प्रशस्त दान कहे गये हैं । इनमें दो दान तो समान हैं, किंतु सरस्वतीदान सबसे बढ़कर है ॥ ४ ॥ नित्य ह्यनुडुहो गावच्छत्रं वस्त्रमुपानहौ । देयानि याचमानेभ्यः पानमन्नं तथैव च ॥ ५ ॥ नित्य दुही जानेवाली गौएँ, छत्र, वस्त्र, जूता एवं अन्न-पान-ये वस्तुएँ याचकोंको देते रहना चाहिये ॥ ५ ॥ सङ्कल्पविहितोयोऽर्थो ब्राह्मणेभ्यः प्रदीयते । अर्थिभ्योऽपीडितेभ्यश्च मनस्वी तेन जायते ॥ ६ ॥ कनकं च तिला नागाः कन्या दासी गृहं रथः । मणयः कपिला गावो महादानानि वै दश ॥ ७ ॥ संकल्प किया गया जो द्रव्य ब्राह्मणों तथा अपीड़ित याचकों को दिया जाता है, उससे दान करनेवाला मनस्वी होता है । सुवर्ण, तिल, हाथी, कन्या, दासी, गृह, रथ, मणि तथा कपिला गाय-ये दस महादान हैं ॥ ६-७ ॥ गृहीत्वैतानि सर्वाणि ब्राह्मणो ज्ञानवित्सदा । वदान्यांस्तारयेत्सद्यो ह्यात्मानं च न संशयः ॥ ८ ॥ सुवर्णं ये प्रयच्छन्ति नराः शुद्धेन चेतसा । देवतास्तं प्रयच्छन्ति समन्तादिति मे श्रुवम् ॥ ९ ॥ ज्ञानी ब्राह्मण इन महादानोंको ग्रहणकर शीघ्र ही दान करनेवालोंको तथा स्वयं अपनेको तार देता है, इसमें संशय नहीं । जो मनुष्य शुद्धचित्तसे सुवर्ण दान करते हैं, उन्हें देवतालोग चारों ओरसे सब कुछ देते हैं-ऐसा मैंने सुना है ॥ ८-९ ॥ अग्निर्हि देवताः सर्वाः सुवर्णं च हुताशनः । तस्मात्सुवर्णं दत्त्वा च दत्ताः स्युः सर्वदेवताः ॥ १० ॥ पृथ्वीदानं महाश्रेष्ठं सर्वकामफलप्रदम् । सौवर्णं च विशेषेण यत्कृतं पृथुना पुरा ॥ ११ ॥ अग्नि सर्वदेवमय हैं और सुवर्ण अग्निस्वरूप है, अतः सुवर्णका दान करनेसे मानो सभी देवताओंको दान दे दिया गया । पृथ्वीदान अत्यन्त श्रेष्ठ तथा सभी कामनाओंको पूर्ण करनेवाला है, उसमें भी सुवर्णमयी भूमिका दान विशेष उत्तम है, जिसे पूर्वकालमें राजा पृथुने किया था ॥ १०-११ ॥ दीयमानां प्रपश्यन्ति पृध्वीं रुक्मसम न्विताम् । सर्वपापविनिर्मुक्तास्ते यान्ति परमां गतिम् ॥ १२ ॥ जो लोग सुवर्णसे युक्त पृथ्वीका दान होते हुए अपनी आँखोंसे देखते हैं, वे सभी पापोंसे सर्वथा मुक्त होकर परम गतिको प्राप्त करते हैं ॥ १२ ॥ अथान्यच्च प्रवक्ष्यामि दानं सर्वोत्तमं मुने । कान्तारं यन्न पश्यन्ति यमस्य बहुदुःखदम् ॥ १३ ॥ हे मुने ! अब मैं सर्वश्रेष्ठ दानका वर्णन करता हूँ, जिससे प्राणी यमराजके अति दुःखदायी असिपत्रवनको नहीं देखते हैं ॥ १३ ॥ कुर्यात्कान्तारदानं हि विधिना शुद्धमानसः । न्यायार्जितेन द्रव्येण वित्तशाठ्यविवर्जितः ॥ १४ ॥ न्यायपूर्वक अर्जित किये गये धनसे खरीदे गये वनका विधिपूर्वक शुद्धचित्त होकर तथा धनकी कृपणतासे रहित होकर दान करना चाहिये ॥ १४ ॥ तिलप्रस्थमयीं कृत्वा धेनुं सर्वगुणान्विताम् । धेनुवत्सं सुवर्णं च सुदिव्यं सर्वलक्षणम् ॥ १५ ॥ पद्ममष्टदलं कृत्वा कुङ्कुमाक्ताक्षतैः शुभैः । पूजयेत्तत्र रुद्रादीन्सर्वान्देवान्सुभक्तितः ॥ १६ ॥ एवं संपूज्य तां दद्याद्ब्राह्मणाय स्वशक्तितः । सरत्नां सहिरण्यां च सर्वाभरणभूषिताम् ॥ १७ ॥ ततो नक्तं समश्नीयाद्दीपान्दद्यात्तु विस्तरात् । कार्तिक्यामिति कर्तव्यं पूर्णिमायां प्रयत्नतः ॥ १८ ॥ प्रस्थ परिमाणमात्र तिलके द्वारा सभी गुणोंसे सम्पन्न गाय तथा सभी लक्षणोंसे युक्त दिव्य सोनेका बछड़ा बनाये और कुंकुम मिश्रित शुभ अक्षतोंसे अष्टदल कमल बनाकर उसमें भक्तिपूर्वक रुद्र आदि सभी देवताओंकी पूजा करे । इस प्रकार पूजा सम्पन्नकर अपने सामर्थ्यके अनुसार रल, सुवर्ण एवं सभी आभूषणोंसे अलंकृत उस धेनुको ब्राह्मणको दान दे । उसके बाद रातमें भोजन करे और विस्तारपूर्वक दीपोंका दान करे । कार्तिकीपूर्णिमाको प्रयत्नपूर्वक इसे करना चाहिये ॥ १५-१८ ॥ एवं यः कुरुते सम्यग्विधानेन स्वशक्तितः । यममार्गभयं घोरं नरकं च न पश्यति ॥ १९ ॥ इस प्रकार जो मनुष्य अपनी शक्तिभर शास्त्रोक्त विधि-विधानसे भलीभाँति यह दान करता है, वह यममार्गकी भयावहतासे त्रस्त नहीं होता और भीषण नरकोंको नहीं देखता ॥ १९ ॥ कृत्वा पापान्यशेषाणि सबंधुः ससुहृज्जनः । दिवि सङ्क्रीडते व्यास यावदिन्द्राश्चतुर्दश ॥ २० ॥ हे व्यासजी ! वह सभी तरहके पापोंको करके भी इस परम दानके प्रभावसे अपने बन्धु-बान्धव एवं मित्रोंके साथ चौदह इन्द्रोंके कालतक स्वर्गमें आनन्द करता है ॥ २० ॥ विधितो गोश्च दानं वै सर्वोत्तममिह स्मृतम् । न तेन सदृशं व्यास परं दानं प्रकीर्तितम् ॥ २१ ॥ हे व्यासजी ! इस लोकमें विधानके साथ गौका दान सर्वश्रेष्ठ दान कहा गया है । अन्य कोई भी दान उसके समान नहीं बताया गया है ॥ २१ ॥ प्रयच्छते यः कपिलां सवत्सां स्वर्णशृङ्गिकाम् । कांस्यपात्रां रौप्यखुरां सर्वलक्षणलक्षिताम् ॥ २२ ॥ तैस्तैर्गुणैः कामदुघा भूत्वा सा गौरुपैति तम् । प्रदातारं नरं व्यास परत्रेह च जन्मनि ॥ २३ ॥ हे व्यासजी ! जो बछड़ेसहित सोनेकी सींगवाली, चाँदीके खुरवाली तथा काँसेकी दोहनीयुक्त सभी लक्षणोंसे सम्पन्न कपिला गौका दान करता है, वह गाय उन-उन गुणोंसे युक्त होकर इस लोकमें और परलोकमें कामधेनु बनकर उस दाताके पास उपस्थित होती है ॥ २२-२३ ॥ यद्यदिष्टतमं लोके यदस्ति दयितं गृहे । तत्तद्गुणवते देयं तदेवाक्षयमिच्छता ॥ २४ ॥ जो मनुष्य अक्षय फलको प्राप्त करना चाहता है, वह इस लोकमें जो जो अत्यन्त अभीष्ट पदार्थ है तथा वह यदि घरमें हो तो उसे गुणवान् ब्राह्मणको प्रदान करे ॥ २४ ॥ तुलापुरुषदानं हि दानानां दानमुत्तमम् । तुलासंरोहणं कार्यं यदीच्छेच्छ्रेय आत्मनः ॥ २५ ॥ यत्कृत्वा मुच्यते पापैर्वधबंधकृतोद्भवैः । तुलादानं महत्पुण्यं सर्वपापक्षयङ्करम् ॥ २६ ॥ तुलापुरुषका दान सभी दानोंमें श्रेष्ठ दान है । यदि मनुष्य अपने कल्याणकी कामना करता हो तो तुलादान [अवश्य] करे । इसे करके मनुष्य वध-बन्धनके कारण उत्पन्न होनेवाले पापोंसे छुटकारा पाता है । तुलादान अतिशय पुण्यकारक और सभी तरहके पापोंको नष्ट करनेवाला है ॥ २५-२६ ॥ कृत्वा पापान्यशेषाणि तुलादानं करोति यः । सर्वैस्तु पातकैर्मुक्तः स दिवं यात्यसंशयम् ॥ २७ ॥ सभी तरहके पापोंको करनेके बाद भी जो तुलादान करता है, वह सभी पापोंसे छुटकारा पाकर निस्सन्देह स्वर्गको जाता है ॥ २७ ॥ पापं कृतं यद्दिवसे निशायां द्विसंध्योर्मध्यदिने निशान्ते । कालत्रये कायमनोवचोभिस्तुलापुमान्वै तदपाकरोति ॥ २८ ॥ जो पाप दिनमें, रातमें, दोनों सन्ध्याओंमें, दोपहरमें, रात्रिके अन्तिम भागमें, तीनों कालों, शरीर, मन एवं वाणीसे किया गया रहता है, उसे तुलापुरुष नष्ट कर देता है ॥ २८ ॥ बालेन वृद्धेन मया हि यूना विजानता ज्ञानपरेण पापम् । तत्सर्वमेवाशु कृतं मदीयं तुलापुमान्वै हरतु स्मरारिः ॥ २९ ॥ मैंने बाल्यावस्थामें, युवावस्थामें, वृद्धावस्थामें ज्ञान| पूर्वक या अज्ञानपूर्वक जो भी पाप किया है, मेरे द्वारा किये गये उन समस्त पापोंको तुलापुरुष महादेवजी शीघ्र नष्ट करें ॥ २९ ॥ पात्रे प्रयुक्तं द्रविणं मयाऽद्य प्रमाणपूर्णं निहितं तुलायाम् । तेनैव सार्धं तु ममावशेषं कृताकृतं यत्सुकृतं समेतु ॥ ३० ॥ अपने परिमाणके तुल्य जो भी द्रव्य तुलामें रखकर मैंने सत्पात्रको समर्पण किया है, उसीके साथ मेरे द्वारा किया गया तथा न किया गया सम्पूर्ण पाप पुण्यरूप हो जाय ॥ ३० ॥ सनत्कुमार उवाच - एवमुच्चार्य तं दद्यात् द्विजेभ्यः सर्वदा हितः । नैकस्यापि प्रदातव्यं न निस्तारस्ततो भवेत् ॥ ३१ ॥ सनत्कुमार बोले-अपने हितकी कामना करनेवाला मनुष्य इस प्रकारसे उच्चारणकर उस धनको ब्राह्मणोंको प्रदान करे । यह धन किसी एक व्यक्तिको प्रदान न करे, ऐसा करनेसे उद्धार नहीं होता ॥ ३१ ॥ ददात्येवं तु यो व्यास तुलापुरुषमुत्तमम् । हत्वा पापं दिवं तिष्ठेद्यावदिन्द्राश्चतुर्दश ॥ ३२ ॥ हे व्यासजी ! जो मनुष्य इस प्रकार उत्तम तुलापुरुष दान करता है, वह सभी पापोंको नष्टकर चौदह इन्द्रोंके कालतक स्वर्गलोकमें वास करता है ॥ ३२ ॥ इति श्रीशिवमहापुराणे पञ्चम्यामुमासंहितायां सामान्यदानवर्णनं नाम चतुर्दशोऽध्यायः ॥ १४ ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत पाँचवीं उमासंहितामें सामान्यदानवर्णन नामक चौदहवां अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १४ ॥ श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु |