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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥
॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥ पञ्चमी उमासंहितायां
पञ्चदशोऽध्यायः ब्रह्माण्डकथने पाताललोकवर्णनम्
ब्रह्माण्डदानकी महिमाके प्रसंगमें पाताललोकका निरूपण व्यास उवाच - येनैकेन हि दत्तेन सर्वेषां प्राप्यते फलम् । दानानां तन्ममाख्या हि मानुषाणां हितार्थतः ॥ १ ॥ व्यासजी बोले-हे सनत्कुमारजी ! जिस एक ही दानके करनेसे सभी दानोंका फल मिल जाता है, मनुष्योंके हितके लिये उस दानको आप मुझसे कहें ॥ १ ॥ सनत्कुमार उवाच - शृणु कालेः प्रदत्ताद्वै फलं विंदन्ति मानवाः । एकस्मादपि सर्वेषां दानानां तद्वदामि ते ॥ २ ॥ सनत्कुमार बोले-समयपर जिस एक ही दानके करनेसे मनुष्य सभी दानोंका फल प्राप्त कर लेता है, उसे मैं आपसे कहता हूँ, आप सुनिये ॥ २ ॥ दानानामुत्तमं दानं ब्रह्माण्डं खलु मानवैः । दातव्यं मुक्तिकामैस्तु संसारोत्तारणाय वै ॥ ३ ॥ सभी दानोंमें ब्रह्माण्डका दान निश्चय ही श्रेष्ठ है, मुक्तिकी कामना करनेवाले मनुष्योंको संसारसे पार होनेके लिये यह दान अवश्य करना चाहिये ॥ ३ ॥ ब्रह्मांडे सकलं दत्तं यत्फलं लभते नरः । तदेकभावादाप्नोति सप्तलोकाधिपो भवेत् ॥ ४ ॥ यावच्चन्द्रदिवाकरौ नभसि वै यावत्स्थिरा मेदिनी तावत्सोऽपि नरः स्वबांधवयुतः स्ववर्गौकसामोकसि । सर्वेष्वेव मनोनुगेषु ककुभिर्ब्रह्माण्डदः क्रीडते पश्चाद्याति पदं सुदुर्लभतरं देवैर्मुदे माधवम् ॥ ५ ॥ मनुष्य सभी दानोंको करनेसे जिस फलको प्राप्त करता है, उतना ही फल ब्रह्माण्डके दानसे प्राप्त करता है और वह सातों लोकोंका स्वामी भी हो जाता है । जबतक आकाशमें चन्द्रमा एवं सूर्य हैं और जबतक पृथ्वी स्थिर है, तबतक ब्रह्माण्डका दान करनेवाला वह मनुष्य अपने बन्धु-बान्धवोंके साथ सम्पूर्ण कामनाओंको प्राप्तकर देवताओंके घर स्वर्गमें आनन्दपूर्वक क्रीड़ा करता है और बादमें देवताओंके लिये भी अत्यन्त दुर्लभ विष्णुपदको प्राप्त करता है ॥ ४-५ ॥ व्यास उवाच - भगवन्ब्रूहि ब्राह्माण्डं यत्प्रमाणं यदात्मकम् । यदाधारं यथाभूतं येन मे प्रत्ययो भवेत् ॥ ६ ॥ व्यासजी बोले-हे भगवन् ! इस ब्रह्माण्डका प्रमाण, इसका स्वरूप, इसका आधार और यह जिस रूपमें उत्पन्न हुआ है-यह सब मुझे बताइये, जिससे मुझे विश्वास हो जाय ॥ ६ ॥ सनत्कुमार उवाच - मुने शृणु प्रवक्ष्यामि यदुत्सेधं तु विस्तरम् । ब्रह्माण्डं तत्तु सङ्क्षेपाच्छ्रुत्वा पापात्प्रमुच्यते ॥ ७ ॥ सनत्कुमार बोले-हे मुने ! सुनिये, मैं संक्षेपमें इस ब्रह्माण्डकी ऊँचाई तथा विस्तारको कहता हूँ । इसे सुनकर व्यक्ति पापोंसे मुक्त हो जाता है ॥ ७ ॥ यत्तत्कारणमव्यक्तं व्यक्तं शिवमनामयम् । तस्मात्संजायते ब्रह्मा द्विधाभूताद्धि कालतः ॥ ८ ॥ ब्राह्माण्डं सृजति ब्रह्मा चतुर्दशभवात्मकम् । तद्वच्मि क्रमतस्तात समासाच्छृणु यत्नतः ॥ ९ ॥ इसके कारणभूत, अव्यक्त, व्यक्त तथा निर्विकार जो शिव हैं, दो भागोंमें (प्रकृति तथा पुरुषके रूपमें) विभक्त हुए उन्हीं कालस्वरूपसे ब्रह्माजी उत्पन्न होते हैं । तब ब्रह्माजी चौदह भुवनवाले ब्रह्माण्डकी रचना करते हैं । हे तात ! मैं क्रमसे संक्षेपमें उसे कहता हूँ, आप सावधान होकर सुनिये ॥ ८-९ ॥ पातालानि तु सप्तैव भुवनानि तथोर्द्ध्वतः । उच्छ्रायो द्विगुणस्तस्य जलमध्ये स्थितस्य च ॥ १० ॥ जलके मध्यमें स्थित ब्रह्माण्डके नीचे सात पाताल हैं और ऊपर (स्वर्गादि) सात भुवन हैं । उनकी ऊँचाई क्रमशः एककी अपेक्षा दुगुनी है ॥ १० ॥ तस्याधारः स्थितो नागः स च विष्णुः प्रकीर्तितः । ब्रह्मणो वचसो हेतोर्बिभर्ति सकलं त्विदम् ॥ ११ ॥ सम्पूर्ण ब्रह्माण्डके आधार शेषनाग हैं, उन्हींको विष्णु कहा गया है । ब्रह्माकी आज्ञाके अनुसार वे इस सम्पूर्ण जगत्को धारण करते हैं ॥ ११ ॥ शेषस्यास्य गुणान् वक्तुं न शक्ता देवदानवाः । योनन्तः पठ्यते सिद्धैर्देवर्षिगणपूजितः ॥ १२ ॥ शेषनागके इन गुणोंका वर्णन करनेमें देवता तथा दानव भी समर्थ नहीं हैं, उन्हें अनन्त भी कहा जाता है । सिद्ध, देवता तथा ऋषिगण उनकी पूजा करते हैं ॥ १२ ॥ शिरःसाहस्रयुक्तः स सर्वा विद्योतयन्दिशः । फणामणिसहस्रेण स्वस्तिकामलभूषणः ॥ १३ ॥ मदाघूर्णितनेत्रोऽसौ साग्निः श्वेत इवाचलः । स्रग्वी किरीटी ह्याभाति यः सदैवैक कुंडलः ॥ १४ ॥ हजार फोंसे युक्त वे शेषनाग अपने हजार फणोंकी मणियोंसे सम्पूर्ण दिशाओंको प्रकाशित करते रहते हैं, वे फॉपर निर्मल स्वस्तिकका आभूषण धारण करते हैं । वे मदसे घूमते हुए नेत्रोंवाले तथा अग्निसे युक्त श्वेतपर्वतके समान हैं । वे माला, मुकुट तथा सर्वदा ही एक कुण्डलको धारणकर शोभायमान हैं ॥ १३-१४ ॥ सायं गङ्गाप्रवाहेण श्वेतशैलोपशोभितः । नीलवासा मदोद्रिक्तः कैलासाद्रिरिवापरः ॥ १५ ॥ लाङ्गलासक्तहस्ताग्रो बिभ्रन्मुसलमुत्तमम् । योऽर्च्यते नागकन्याभिः स्वर्णवर्णाभिरादरात् ॥ १६ ॥ वे आकाशगंगाके प्रवाहसे युक्त श्वेतवर्णके पहाड़के समान सुशोभित होते हैं । मदसे परिव्याप्त वे नील वस्त्रको धारणकर दूसरे कैलासपर्वतकी भाँति शोभित होते हैं । वे अपने आयुध हलमें हाथका अग्रभाग लगाये रहते हैं तथा उत्तम मूसल धारण किये रहते हैं । स्वर्णके समान वर्णवाली नागकन्याएँ आदरपूर्वक उनकी पूजा करती हैं ॥ १५-१६ ॥ सङ्कर्षणात्मको रुद्रो विषानलशिखोज्ज्वलः । कल्पान्ते निष्क्रमन्ते यद्वक्त्रेभ्योऽग्निशिखा मुहुः । दग्ध्वा जगत्त्रयं शान्ता भवन्तीत्यनुशुश्रुम ॥ १७ ॥ आस्ते पातालमूलस्थः स शेषः क्षितिमण्डलम् । बिभ्रत्स्वपृष्ठे भूतेशः शेषोऽशेषगुणार्चितः ॥ १८ ॥ वे संकर्षण नामके रुद्र विषाग्निकी ज्वालाओंसे अत्यन्त देदीप्यमान हैं । कल्पके अन्तमें उनके मुखोंसे अग्निकी लपटें बार-बार निकलती हैं, जो तीनों लोकोंको भस्म करके ही शान्त होती हैं-ऐसा हमने सुना है । सभी गुणोंसे अलंकृत तथा सभी प्राणियोंके स्वामी वे शेष अपनी पीठपर क्षितिमण्डलको धारण करते हुए पातालके मूल स्थानमें स्थित हैं ॥ १७-१८ ॥ तस्य वीर्यप्रभावश्च साकाङ्क्षैस्त्रिदशैरपि । न हि वर्णयितुं शक्यः स्वरूपं ज्ञातुमेव वा ॥ १९ ॥ आस्ते कुसुममालेव फणामणिशिलारुणा । यस्यैषा सकला पृथ्वी कस्तद्वीर्यं वदिष्यति ॥ २० ॥ देवगण इच्छा करते हुए भी उनके पराक्रमके प्रभावका वर्णन करनेमें तथा उनके स्वरूपको जानने में समर्थ नहीं हैं । जिनके फणोंमें स्थित मणियोंकी अरुणकान्तिसे रंजित यह सम्पूर्ण पृथ्वी [उनके शिर:पृष्ठमें] पुष्योंकी मालाके समान विराजमान है, उनके पराक्रमका वर्णन कौन करेगा ! ॥ १९-२० ॥ यदा विजृम्भतेऽनन्तो मदाघूर्णितलोचनः । तदा चलति भूरेषा साद्रितोयाधिकानना ॥ २१ ॥ जब मदसे चूर्णित नेत्रवाले शेषनागजी जम्भाई लेते हैं, तब पर्वत, समुद्र तथा वनोंसहित यह पृथ्वी डगमगा जाती है ॥ २१ ॥ दशसाहस्रमेकैकं पातालं मुनि सत्तम । अतलं वितलं चैव सुतलं च रसातलम् ॥ २२ ॥ तलं तलातलं चाग्र्यं पातालं सप्तमं मतम् । भूमेरधः सप्त लोका इमे ज्ञेया विचक्षणैः ॥ २३ ॥ हे मुनिश्रेष्ठ ! प्रत्येक पाताल दस हजार योजन विस्तारवाला है । अतल, वितल, सुतल, रसातल, तल, तलातल एवं सातवाँ पाताल माना गया है, विद्वानोंको पृथ्वीके नीचे स्थित इन सात लोकोंको जानना चाहिये ॥ २२-२३ ॥ उच्छ्रायो द्विगुणश्चैषां सर्वेषां रत्नभूमयः । रत्नवन्तोऽथ प्रासादा भूमयो हेमसंभवाः ॥ २४ ॥ तेषु दानवदैतेया नागानां जातयस्तथा । निवसन्ति महानागा राक्षसा दैत्यसंभवाः ॥ २५ ॥ इनकी ऊँचाई एक-दूसरेसे दूनी है । इन सातों लोकोंकी भूमियाँ स्वर्णमय हैं तथा भवन रत्नमय हैं और आँगन भी स्वर्णमय हैं । उनमें दानव, दैत्य, नागोंकी जातियाँ, महानाग, राक्षस तथा दैत्योंसे उत्पन्न अन्य उपजातियाँ निवास करती हैं ॥ २४-२५ || प्राह स्वर्गसदोमध्ये पातालानीति नारदः । स्वर्लोकादति रम्याणि तेभ्योऽसावागतो दिवि ॥ २६ ॥ उन पातालादि लोकोंसे लौटकर स्वर्ग आये हुए नारदजीने स्वर्गकी सभामें ऐसा कहा था कि ये पाताल स्वर्गसे भी अधिक रमणीय हैं ॥ २६ ॥ नानाभूषणभूषासु मणयो यत्र सुप्रभाः । आह्लादकानि शुभ्राणि पातालं केन तत्समम् ॥ २७ ॥ जहाँ विविध प्रकारके आभूषणों में विभूषित करनेवाली स्वच्छ एवं कान्तिमय मणियाँ लगी हैं, उस पातालके समान कौन लोक है ! ॥ २७ ॥ पाताले कस्य न प्रीतिरितश्चेतश्च शोभितम् । देवदानवकन्याभिर्विमुक्तस्याभिजायते ॥ २८ ॥ दैत्यकन्याएँ एवं दानवकन्याएँ जिस पाताललोकमें इधर-उधर शोभायमान हो रही हैं, उस लोकमें [निवासके लिये] किस मुक्तपुरुषकी अभिरुचि नहीं होगी ? ॥ २८ ॥ दिवार्करश्मयो यत्र न भवन्ति विधो निशि । न शीतमातपो यत्र मणितेजोऽत्र केवलम् ॥ २९ ॥ यहाँ दिनमें सूर्यकी तथा रातमें चन्द्रमाकी किरणें नहीं होती हैं और यहाँ शीत तथा आतप भी नहीं रहता है, यहाँ केवल मणियोंके तेज विद्यमान हैं ॥ २९ ॥ भक्ष्यभोज्यान्नपानानि भुज्यन्ते मुदितैर्भृशम् । यत्र न जायते कालो गतोऽपि मुनिसत्तम ॥ ३० ॥ हे मुनिश्रेष्ठ ! यहाँ आनन्दमग्न लोग भक्ष्य-भोज्य, अन्नपान आदि ग्रहण करते हैं । यहाँ बीते हुए समयका ज्ञान भी नहीं रहता है ॥ ३० ॥ पुंस्कोकिलरुतं यत्र पद्मानि कमलाकराः । नद्यः सरांसि रम्याणि ह्यन्योन्यविचराणि च ॥ ३१ ॥ भूषणान्यतिशुभ्राणि गंधाढ्यं चानुलेपनम् । वीणावेणुमृदङ्गानां स्वना गेयानि च द्विज ॥ ३२ ॥ दैत्योरगैश्च भुज्यन्ते पाताले वै सुखानि च । तपसा समवाप्नोति दानवैः सिद्धमानवैः ॥ ३३ ॥ हे द्विज ! यहाँ नरकोकिलोंका शब्द सुनायी देता है । कमल तथा कमलोंकी खान नदियाँ, रमणीक सरोवर, मनोहर वस्त्र, अतिशय मनोरम अलंकार तथा अनुलेपन, वीणा-वेणु-मृदंगोंकी ध्वनियाँ, गीत तथा नानाविध सुख हैं, जिनका भोग दैत्य, दानव, सिद्ध, मानव एवं नागगण करते हैं, उस पातालका आनन्द [बहुत बड़ी] तपस्यासे प्राप्त किया जाता है ॥ ३१-३३ ॥ इति श्रीशिवमहापुराणे पञ्चम्यामुमासंहितायां ब्रह्माण्डकथने पाताललोकवर्णनं नाम पञ्चदशोऽध्यायः ॥ १५ ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत पाँचवीं उमासंहितामें ब्रह्माण्डकथनमें पाताललोकवर्णन नामक पन्द्रहवां अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १५ ॥ श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु |