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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥

॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥

पञ्चमी उमासंहितायां

षोडशोऽध्यायः


ब्रह्माण्डवर्णने नरकोद्धारवर्णनम्
विभिन्न पापकर्मोंसे प्राप्त होनेवाले नरकोंका वर्णन और शिव-नाम-स्मरणकी महिमा


सनत्कुमार उवाच -
तेषां मूर्द्धोपरिष्टाद्वै नरकांस्ताञ्छृणुष्व च ।
मत्तो मुनिवरश्रेष्ठ पच्यन्ते यत्र पापिनः ॥ १ ॥
सनत्कुमार बोले-हे मुनिश्रेष्ठ ! उन लोकोंके ऊपर स्थित नरकोंको मुझसे सुनिये, जहाँपर पापीजन दुःख भोगते हैं ॥ १ ॥

रौरवः शूकरो रोधस्तालो विवसनस्तथा ।
महाज्वालस्तप्तकुंभो लवणोपि विलोहितः ॥ २ ॥
वैतरणी पूयवहा कृमिणः कृमिभोजनः ।
असिपत्रवनं घोरं लालाभक्षश्च दारुणः ॥ ३ ॥
तथा पूयवहः प्रायो बहिर्ज्वालो ह्यधः शिराः ।
संदंशः कालसूत्रश्च तमश्चावीचिरो धनः ॥ ४ ॥
श्वभोजनोऽथ रुष्टश्च महारौरवशाल्मली ।
इत्याद्या बहवस्तत्र नरका दुःखदायकाः ॥ ५ ॥
रौरव, शूकर, रोध, ताल, विवसन या विशसन, महाज्वाल, तप्तकुम्भ, लवण, विलोहित, पूयवहा वैतरणी, कृमिश, कृमिभोजन, घोर असिपत्रवन, दारुण लालाभक्ष, पूयवह, वरिलज्वाल, अधःशिरा, संदंश, कालसूत्र, तम, अवीचिरोधन, श्वभोजन, रुष्ट, महारौरव, शाल्मली इत्यादि बहुतसे पीड़ादायक नरक हैं ॥ २-५ ॥

पच्यन्ते तेषु पुरुषाः पापकर्मरतास्तु ये ।
क्रमाद्वक्ष्ये तु तान् व्यास सावधानतया शृणु ॥ ६ ॥
हे व्यासजी ! पापकर्ममें निरत जो पुरुष उनमें दुःख भोगते हैं, मैं उनका वर्णन क्रमशः कर रहा हूँ, आप सावधान होकर सुनिये ॥ ६ ॥

कूटसाक्ष्यं तु यो वक्ति विना विप्रान् सुरांश्च गाः ।
सदाऽनृतं वदेद्यस्तु स नरो याति रौरवम् ॥ ७ ॥
जो मनुष्य ब्राह्मण, देवता एवं गौओंके पक्षको छोड़कर अन्यत्र झूठी गवाही करता है और सदा मिथ्याभाषण करता है, वह रौरव नरकमें जाता है ॥ ७ ॥

भ्रूणहा स्वर्णहर्ता च गोरोधी विश्वघातकः ।
सुरापो ब्रह्महन्ता च परद्रव्यापहारकः ॥ ८ ॥
यस्तत्सङ्‌गी स वै याति मृतो व्यास गुरोर्वधात् ।
ततः कुंभे स्वसुर्मातुर्गोश्चैव दुहितुस्तथा ॥ ९ ॥
हे व्यासजी ! भ्रूणहत्या करनेवाला, स्वर्ण चुरानेवाला, गायोंको रोकनेवाला, विश्वासघाती, सुरापान करनेवाला, ब्राह्मणका वध करनेवाला, दूसरोंके द्रव्यको चुरानेवाला तथा इनका साथ देनेवाला और गुरु, माता, गौ तथा कन्याका वध करनेवाला मरनेपर तप्तकुम्भ नामक नरकमें जाता है ॥ ८-९ ॥

साध्व्या विक्रयकृच्चाथ वार्द्धकी केशविक्रयी ।
तप्तलोहेषु पच्यन्ते यश्च भक्तं परित्यजेत् ॥ १० ॥
साध्वी स्त्रीको बेचनेवाला, [अधिक] ब्याज लेनेवाला, व्यभिचारी अथवा केशका विक्रय करनेवाला और जो अपने भक्तका त्याग कर देता है-ये सब तप्तलोह नामक नरकमें दु:ख भोगते हैं ॥ १० ॥

अवमन्ता गुरूणां यः पश्चाद्‌भोक्ता नराधमः ।
देवदूषयिता चैव देवविक्रयिकश्च यः ॥ ११ ॥
अगम्यगामी यश्चान्ते याति सप्तबलं द्विज ।
हे द्विज ! जो अधम मनुष्य गुरुओंका अपमान करनेवाला, दुर्वचन कहनेवाला, वेदनिन्दक, वेदोंको बेचनेवाला तथा अगम्या स्त्रीके साथ संसर्ग करनेवाला है, वह अन्तमें सप्तबल नामक नरकमें जाता है ॥ ११ १/२ ॥

चौरो गोघ्नो हि पतितो मर्यादादूषकस्तथा ॥ १२ ॥
देवद्विजपितृद्वेष्टा रत्नदूषयिता च यः ।
स याति कृमिभक्षं वै कृमीनत्ति दुरिष्टकृत् ॥ १३ ॥
जो चोर, गोहत्यारा, पतित, मर्यादाको तोड़नेवाला, देवता-ब्राह्मण-पितरोंसे द्वेष करनेवाला, रत्‍नोंको दूषित करनेवाला, दूषित यज्ञ करनेवाला है, वह पापी कृमिभक्ष नरकमें जाता है और वहाँ कीड़ोंका भोजन करता है ॥ १२-१३ ॥

पितृदेवसुरान् यस्तु पर्यश्नाति नराधमः ।
लालाभक्षं स यात्यज्ञो यः शस्त्रकूटकृन्नरः ॥ १४ ॥
जो नराधम पितरों एवं देवताओंको अर्पण किये बिना खाता है एवं जो शास्त्रोंमें कुतर्क करता है, वह मूर्ख लालाभक्ष नामक नरकमें जाता है ॥ १४ ॥

यश्चान्त्यजेन संसेव्यो ह्यसद्‌ग्राही तु यो द्विजः ।
अयाज्ययाजकश्चैव तथैवाभक्ष्य भक्षकः ॥ १५ ॥
रुधिरौघे पतन्त्येते सोमविक्रयिणश्च ये ।
मधुहा ग्रामहा याति क्रूरां वैतरणीं नदीम् ॥ १६ ॥
जो द्विज अन्त्यजसे सेवा कराता है, नीचोंसे प्रतिग्रह ग्रहण करता है, यज्ञके अनधिकारियोंसे यज्ञ कराता है एवं अभक्ष्य वस्तुओंका भक्षण करता है और जो सोमका विक्रय करता है-ये सब रुधिरौघ नामक नरकमें जाते हैं । मधुका हरण करनेवाला तथा ग्रामका ध्वंस करनेवाला घोर वैतरणी नदीमें जाता है ॥ १५-१६ ॥

नवयौवनमत्ताश्च मर्यादाभेदिनश्च ये ।
ते कृत्यं यान्त्यशौचाश्च कुलकाजीविनश्च ये ॥ १७ ॥
जो नव यौवनसे मदमत्त होकर मर्यादाका उल्लंघन करते हैं, अपवित्र रहते हैं और कुलटा स्त्रियोंसे जीविका चलाते हैं, वे कृमि नामक नरकमें जाते हैं ॥ १७ ॥

असिपत्रवनं याति वृक्षच्छेदी वृथैव यः ।
क्षुरभ्रका मृगव्याधा वह्निज्वाले पतन्ति ते ॥ १८ ॥
जो व्यर्थमें वृक्षोंको काटता है, वह असिपत्रवनको जाता है । चाकूसे काटकर जीविका-यापन करनेवाले अर्थात् मांसविक्रयी तथा मृगोंका वध करनेवाले वह्निञ्चाल नामक नरकमें जाते हैं ॥ १८ ॥

भ्रष्टाचारो हि यो विप्रः क्षत्रियो वैश्य एव च ।
यात्यन्ते द्विज तत्रैव यः श्वपाकेषु वह्निदः ॥ १९ ॥
हे द्विज ! भ्रष्टाचार करनेवाला ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य उसी वहिलज्वाल नरकमें जाते हैं और आग लगानेवाला श्वपाक नामक नरकमें जाता है । ॥ १९ ॥

व्रतस्य लोपका ये च स्वाश्रमाद्विच्युताश्च ये ।
संदंशयातनामध्ये पतन्ति भृशदारुणे ॥ २० ॥
जो व्रतका लोप करनेवाले हैं और जो अपने आश्रमसे च्युत हो गये हैं, वे अत्यन्त भयानक संदंश नामक नरकमें जाते हैं ॥ २० ॥

वीर्यं स्वप्नेषु स्कंदेयुर्ये नरा ब्रह्मचारिणः ।
पुत्रा नाध्यापिता यैश्च ते पतन्ति श्वभोजने ॥ २१ ॥
एते चान्ये च नरकाः शतशोऽथ सहस्रशः ।
येषु दुष्कृतकर्माणः पच्यते यातनागताः ॥ २२ ॥
जो ब्रह्मचारी मनुष्य स्वप्नमें वीर्य स्खलित करते हैं तथा जो गृहस्थ अपने पुत्रोंको नहीं पढ़ाते हैं, वे श्वभोजन नरकमें गिरते हैं । ये सब तथा अन्य भी सैकड़ों, हजारों नरक हैं, जिनमें पाप करनेवाले यातना भोगते हुए पड़े रहते हैं ॥ २१-२२ ॥

तथैव पापान्येतानि तथान्यानि सहस्रशः ।
भुज्यन्ते यानि पुरुषैर्नरकान्तरगोचरैः ॥ २३ ॥
इसी प्रकार ये सभी तथा अन्य भी हजारों पाप हैं, जिन्हें नरकोंमें पड़े हुए मनुष्य भोगते रहते हैं ॥ २३ ॥

वर्णाश्रमविरुद्धं च कर्म कुर्वन्ति ये नराः ।
कर्मणा मनसा वाचा निरये तु पतन्ति ते ॥ २४ ॥
जो मनुष्य मन, वचन तथा कर्मसे वर्णाश्रमधर्मके विपरीत आचरण करते हैं, वे नरकमें गिरते हैं ॥ २४ ॥

अधः शिरोभिर्दृश्यन्ते नारका दिवि दैवतैः ।
देवानधोमुखान्सर्वानधः पश्यन्ति नारकाः ॥ २५ ॥
देवगण उन नारकी प्राणियोंको नीचेकी ओर शिर किये हुए देखते हैं और वे भी सभी देवताओंको नीचेकी | ओर मुख किये हुए देखते रहते हैं ॥ २५ ॥

स्थावराः कृमिपाकाश्च पक्षिणः पशवो मृगाः ।
धार्मिकास्त्रिदशास्तद्वन्मोक्षिणश्च यथाक्रमम् ॥ २६ ॥
यावन्तो जन्तवः स्वर्गे तावन्तो नरकौकसः ।
पापकृद्याति नरकं प्रायश्चित्तपराङ्मुखः ॥ २७ ॥
[पापकर्मा मनुष्य] क्रमशः उन्नति करते हुए स्थावर, कृमि, जलचर, पक्षी, पशु, मनुष्य, धर्मात्मा, देवता तथा मुमुक्षु होते हैं और अन्तमें मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं । जितने प्राणी स्वर्गमें हैं, उतने ही नरकमें भी स्थित हैं । प्रायश्चित्तसे विमुख पापी नरकको जाता है ॥ २६-२७ ॥

गुरूणि गुरुभिश्चैव लघूनि लघुभिस्तथा ।
प्रायश्चित्तानि कालेय मनुः स्वायम्भुवोऽब्रवीत् ॥ २८ ॥
यानि तेषामशेषाणां कर्मार्ण्युक्तानि तेषु वै ।
प्रायश्चित्तमशेषेण हरानुस्मरणं परम् ॥ २९ ॥
हे व्यास ! स्वायम्भुव मनुने बड़े पापोंके लिये महान् प्रायश्चित्त तथा अल्प पापोंके लिये अल्प प्रायश्चित्त कहे हैं । उन सभी पापोंके जो प्रायश्चित्त कर्म कहे गये हैं, उनमें विशेष रूपसे शिवजीका नामस्मरणरूप प्रायश्चित्त सबसे श्रेष्ठ है ॥ २८-२९ ॥

प्रायश्चित्तं तु यस्यैव पापं पुंसः प्रजायते ।
कृते पापेऽनुतापोऽपि शिवसंस्मरणं परम् ॥ ३० ॥
जिस पुरुषके चित्तमें पापकर्म करनेके अनन्तर पश्चात्ताप होता है, उसके लिये तो एकमात्र शिवजीका स्मरण ही सर्वोत्तम प्रायश्चित्त है ॥ ३० ॥

माहेश्वरमवाप्नोति मध्याह्नादिषु संस्मरन् ।
प्रातर्निशि च संध्यायां क्षीणपापो भवेन्नरः ॥ ३१ ॥
मुक्तिं प्रयाति स्वर्गं वा समस्तक्लेशसङ्‌क्षयम ।
शिवस्य स्मरणादेव तस्य शंभोरुमापतेः ॥ ३२ ॥
प्रातः, रात्रि, सन्ध्या तथा मध्याह्नमें शिवका स्मरण करनेवाला मनुष्य पापरहित हो जाता है और शिवलोकको प्राप्त करता है । उन उमापति शम्भु शिवके स्मरणमात्रसे ही वह सभी प्रकारके दुःखोंसे मुक्त हो जाता है और स्वर्ग अथवा मोक्ष प्राप्त करता है ॥ ३१-३२ ॥

पापन्तरायो विप्रेन्द्र जपहोमार्चनादि च ।
भवत्येव न कुत्रापि त्रैलोक्ये मुनिसत्तम ॥ ३३ ॥
हे मुनिसत्तम ! [भगवान् शंकरके स्मरणके प्रभावसे] इस त्रिलोकीमें कहीं भी जप, होम, अर्चन आदि सत्कर्मोंमें विघ्न नहीं होता तथा [स्मरणकर्ताके चित्तमें] पाप [-का संक्रमण भी] नहीं होता ॥ ३३ ॥

महेश्वरे मतिर्यस्य जपहोमार्चनादिपु ।
यत्पुण्यं तत्कृतं तेन देवेन्द्रत्वादिकं फलम् ॥ ३४ ॥
पुमान्न नरकं याति यः स्मरन्भक्तितो मुने ।
अहर्निशं शिवं तस्मात्स क्षीणाशेषपातकः ॥ ३५ ॥
हे विप्रेन्द्र ! जिसकी बुद्धि महादेवमें लगी हो, उसे जप, होम एवं पूजा आदि करनेसे जो पुण्य मिलता है, वह पुण्य प्राप्त हो जाता है एवं देवेन्द्रत्व आदिका फल प्राप्त हो जाता है । हे मुने ! जो पुरुष दिन-रात भक्तिपूर्वक शिवका स्मरण करता है, वह समस्त पापोंसे रहित हो जाता है और इसीलिये नरकमें नहीं पड़ता है ॥ ३४-३५ ॥

नरकस्वर्गसंज्ञाये पापपुण्ये द्विजोत्तम ।
ययोस्त्वेकं तु दुःखायान्यत्सुखायोद्‌भवाय च ॥ ३६ ॥
हे द्विजश्रेष्ठ ! नरक एवं स्वर्ग नामका तात्पर्य पाप और पुण्य है, जिनमें नरक दुःखके लिये और स्वर्ग सुख तथा समृद्धिके लिये होता है ॥ ३६ ॥

तदेव प्रीतये भूत्वा पुनर्दुःखाय जायते ।
तत्स्याद्दुःखात्मकं नास्ति न च किंचित्सुखात्मकम् ॥ ३७ ॥
वही एक वस्तु प्रसन्नताके लिये होकर बादमें दुःखका कारण बन जाती है । इसलिये कोई भी वस्तु न दुःख देनेवाली है और न सुख देनेवाली ॥ ३७ ॥

मनसः परिणामोऽयं सुखदुःखोपलक्षणः ।
ज्ञानमेव परं ब्रह्म ज्ञानं तत्त्वाय कल्पते ॥ ३८ ॥
सुख-दुःखका उपलक्षणरूप यह तो केवल मनका परिणाममात्र है । ज्ञान ही परब्रह्म है, वह ज्ञान ही तत्त्वका बोध कराता है ॥ ३८ ॥

ज्ञानात्मकमिदं विश्वं सकलं सचराचरम् ।
परविज्ञानतः किंचिद्विद्यते न परं मुने ॥ ३९ ॥
हे मुने ! यह सम्पूर्ण चराचर जगत् ज्ञानस्वरूप है, वस्तुतः परतत्त्वके विज्ञानसे बढ़कर कुछ भी श्रेष्ठ पदार्थ नहीं है ॥ ३९ ॥

एवमेतन्मयाख्यातं सर्वं नरकमण्डलम् ।
अत ऊर्ध्वं प्रवक्ष्यामि सांप्रतं मंडलं भुवः ॥ ४० ॥
इस प्रकार मैंने सम्पूर्ण नरकोंका वर्णन कर दिया | है, अब इसके बाद मैं भूमण्डलका वर्णन करूँगा ॥ ४० ॥

इति श्रीशिवमहापुराणे पञ्चम्यामुमासंहितायां
ब्रह्माण्डवर्णने नरकोद्धारवर्णनं नाम षोडशोऽध्यायः ॥ १६ ॥
इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत पाँचवीं उमासंहितामें ब्रह्माण्डवर्णनमें नरकोंकावर्णन नामक सोलहवां अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १६ ॥



श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु


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