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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥

॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥

पञ्चमी उमासंहितायां

सप्तदशोऽध्यायः


ब्रह्माण्डकथने जम्बूद्वीपवर्षवर्णनम्
ब्रह्माण्डके वर्णन-प्रसंगमें जम्बूद्वीपका निरूपण


सनत्कुमार उवाच -
पाराशर्य सुसङ्‌क्षेपाच्छृणु त्वं वदतो मम ।
मण्डलं च भुवः सम्यक् सप्तद्वीपादिसंयुतम् ॥ १ ॥
सनत्कुमार बोले-हे पराशरपुत्र [व्यासजी !] आप सातों द्वीपोंसे समन्वित भूमण्डलका संक्षेपमें वर्णन करते हुए मुझसे भलीभाँति सुनिये ॥ १ ॥

जंबू प्लक्षः शाल्मलिश्च कुशः क्रौञ्चश्च शाककः ।
पुष्पकः सप्तमः सर्वे समुद्रैः सप्तभिर्वृताः ॥ २ ॥
भूमण्डलमें जम्बूद्वीप, प्लक्षद्वीप, शाल्मलिद्वीप, कुशद्वीप, क्रौंचद्वीप, शाकद्वीप और सातवाँ पुष्करद्वीप है-ये सभी द्वीप सात समुद्रोंसे घिरे हुए हैं ॥ २ ॥

लवणेक्षुरसौ सर्पिर्दविदुग्धजलाशयाः ।
जम्बुद्वीपः समस्तानामेतेषां मध्यतः स्थितः ॥ ३ ॥
लवण, इक्षुरस, घी, दही, दूध और जलके जो समुद्र हैं, इन सभीके मध्यमें जम्बूद्वीप स्थित है ॥ ३ ॥

तस्यापि मेरुः कालेयमध्ये कनकपर्वतः ।
प्रविष्टः षोडशाधस्ताद्योजनैस्तस्य चोच्छ्रयः ॥ ४ ॥
चतुरशीतिमानैस्तैर्द्वात्रिंशन्मूर्ध्नि विस्तृतः ।
भूमिपृष्ठस्थशैलोऽयं विस्तरस्तस्य सर्वतः ॥ ५ ॥
मूले षोडशसाहस्रः कर्णिकाकार संस्थितः ।
हिमवान् हेमकूटश्च निषधश्चास्य दक्षिणे ॥ ६ ॥
नीलः श्वेतश्च शृङ्गी च उत्तरे वर्षपर्वताः ।
दशसाहस्रिकं ह्येते रत्नवन्तोऽरुणप्रभाः ॥ ७ ॥
हे व्यासजी ! उसके भी मध्यमें कनकमय सुमेरु पर्वत वर्तमान है, जो पृथ्वीके नीचे सोलह हजार योजन धंसा हुआ है और चौरासी हजार योजन ऊँचा है । उसका शिखर बत्तीस हजार योजन विस्तृत है । पृथ्वीतलपर स्थित इस पर्वतका मूलभाग सोलह हजार योजन विस्तृत है, यह [मेरुपर्वत पृथ्वीरूपी कमलकी] कर्णिकाके आकारमें स्थित है । इसके दक्षिणमें हिमवान्, हेमकूट और निषधपर्वत और उत्तर भागमें नील, श्वेत और शृंगी पर्वत हैं । इन पर्वतोंकी लम्बाई दस हजार योजन है । ये रत्‍नोंसे युक्त और अरुण कान्तिवाले हैं । ये हजार योजन ऊँचे हैं और उतने ही विस्तारवाले हैं ॥ ४-७ ॥

सहस्रयोजनोत्सेधास्तावद्विस्तारिणश्च ते ।
भारतं प्रथमं वर्षं ततः किंपुरुषं स्मृतम् ॥ ८ ॥
हरिवर्षं ततो ऽन्यद्वै मेरोर्दक्षिणतो मुने ।
रम्यकं चोत्तरे पार्श्वे तस्यांशे तु हिरण्मयम् ॥ ९ ॥
उत्तरे कुरवश्चैव यथा वै भारतं तथा ।
नवसाहस्रमेकैकमेतेषां मुनिसत्तम ॥ १० ॥
हे मुने ! मेरुके दक्षिणमें प्रथम भारतवर्ष और इसके बाद किम्पुरुष और हरिवर्ष है । इसके उत्तर भागमें रम्यक और उसीके पास हिरण्मयवर्ष है । उत्तरमें कुरुदेश है । हे मुनिश्रेष्ठ ! भारतवर्षकी भाँति इन सभीका विस्तार नौ नौ हजार योजन है ॥ ८-१० ॥

इलावृतं तु तन्मध्ये तन्मध्ये मेरुरुच्छ्रितः ।
मेरोश्चतुर्दिशं तत्र नवसाहस्रमुच्छ्रितम् ॥ ११ ॥
इलावृतमृषिश्रेष्ठ चत्वारश्चात्र पर्वताः ।
विष्कंभा रचिता मेरोर्योजिताः पुनरुच्छ्रिताः ॥ १२ ॥
उनके मध्य में इलावृतवर्ष है, जिसके मध्य में उन्नत सुमेरुपर्वत है । इस सुमेरुके चारों ओर नौ हजार योजन विस्तृत इलावृतवर्ष है । हे ऋषिश्रेष्ठ ! वहाँ चार पर्वत सुमेरुपर्वतके शिखरके रूपमें अवस्थित हैं । ये ऊँचाईमें सुमेरुपर्वतसे मिले हुए हैं ॥ ११-१२ ॥

पूर्वे हि मन्दरो नाम दक्षिणे गन्धमादनः ।
विपुलः पश्चिमे भागे सुपार्श्वश्चोत्तरे स्थितः ॥ १३ ॥
पूर्वमें मन्दर, दक्षिणमें गन्धमादन, पश्चिममें विपुल और उत्तरमें सुपार्श्व नामक पर्वत स्थित हैं ॥ १३ ॥

कदंबो जंबुवृक्षश्च पिप्पलो वट एव च ।
एकादशशतायामाः पादपा गिरिकेतवः ॥ १४ ॥
कदम्ब, जामुन, पीपल तथा बटके वृक्ष इन पर्वतोंकी ध्वजाके रूपमें ग्यारह सौ योजन विस्तारमें फैले हुए हैं ॥ १४ ॥

जम्बूद्वीपस्य नाम्नो वै हेतुं शृणु महामुने ।
विराजन्ते महावृक्षास्तत्स्वभावं वदामि ते ॥ १५ ॥
हे महामुने ! जम्बूद्वीपका नाम पड़नेका कारण आप सुनें । यहाँपर [जामुन, कदम्ब, पीपल तथा वटके] बड़ेबड़े वृक्ष हैं, मैं उनका स्वभाव आपको बताता हूँ ॥ १५ ॥

महागज प्रमाणानि जम्ब्वास्तस्याः फलानि च ।
पतन्ति भूभृतः पृष्ठे शीर्यमाणानि सर्वतः ॥ १६ ॥
उस जामुनके बड़े-बड़े हाथीके परिमाणवाले फल पर्वतके ऊपर गिरकर फूट जाते हैं और चारों ओर फैल जाते हैं ॥ १६ ॥

रसेन तेषां विख्याता जम्बूनदीति वै ।
परितो वर्तते तत्र पीयते तन्निवासिभिः ॥ १७ ॥
उनके रससे जम्बू नामक विख्यात नदी चारों ओर बहती है, जिसके रसको वहाँकै निवासी पीते हैं ॥ १७ ॥

न स्वेदो न च दौर्गंध्यं न जरा चेन्द्रियग्रहः ।
तस्यास्तटे स्थितानान्तु जनानां तन्न जायते ॥ १८ ॥
तीरमृत्स्नां च सम्प्राप्य मुखवायुविशोषिताम् ।
जाम्बूनदाख्यं भवति सुवर्णं सिद्धभूषणम् ॥ १९ ॥
उसके तटपर रहनेवाले लोगोंको पसीना, दुर्गन्ध, बुढ़ापा एवं किसी प्रकारकी इन्द्रियपीड़ा आदि नहीं होते हैं । सुखद वायुसे सुखायी गयी उसके तटकी मिट्टीसे जाम्बूनद नामक सुवर्ण बन जाता है, जो सिद्धोंके द्वारा भूषणके रूपमें धारण किया जाता है ॥ १८-१९ ॥

भद्राश्वं पूर्वतो मेरोः केतुमालं च पश्चिमे ।
वर्षे द्वे तु मुनिश्रेष्ठ तयोर्मध्य इलावृतम् ॥ २० ॥
वनं चैत्ररथं पूर्वे दक्षिणे गन्धमादनः ।
विभ्राजं पश्चिमे तद्वदुत्तरे नन्दनं स्मृतम् ॥ २१ ॥
हे मुनिश्रेष्ठ ! सुमेरुपर्वतके पूर्वमें भद्राश्व तथा पश्चिममें केतुमाल नामक दो अन्य वर्ष हैं, उनके मध्य में इलावृतवर्ष है । उसके पूर्वमें चैत्ररथ, दक्षिणमें गन्धमादन, पश्चिममें विभ्राज और उसके उत्तरमें नन्दनवन बताया गया है ॥ २०-२१ ॥

अरुणोदं महाभद्रं शीतोदं मानसं स्मृतम् ।
सरांस्येतानि चत्वारि देवभोग्यानि सर्वशः ॥ २२ ॥
शीतांजनः कुरुङ्‌गश्च कुररो माल्यवांस्तथा ।
चैकैकप्रमुखा मेरोः पूर्वतः केसराचलाः ॥ २३ ॥
अरुणोद, महाभद्र, शीतोद तथा मानस नामक ये चार सरोवर कहे गये हैं, जो सब प्रकारसे देवताओंके भोगनेयोग्य हैं । शीतांजन, कुरंग, कुरर एवं माल्यवान्ये प्रत्येक प्रमुख पर्वत मेरुके पूर्वमें कर्णिकाके केसरके समान स्थित हैं ॥ २२-२३ ॥

त्रिकूटः शिशिरश्चैव पतङ्‌गो रुचकस्तथा ।
निषधः कपिलायाश्च दक्षिणे केसराचलाः ॥ २४ ॥
त्रिकूट, शिशिर, पतंग, रुचक, निषध, कपिल आदि पर्वत दक्षिणमें केसराचलके रूपमें स्थित हैं ॥ २४ ॥

सिनी वासः कुसुंभश्च कपिलो नारदस्तथा ।
नागादयश्च गिरयः पश्चिमे केसराचलाः॥ २५ ॥
सिनीवास, कुसुम्भ, कपिल, नारद, नाग आदि पर्वत पश्चिम भागमें केसराचलके रूपमें स्थित हैं ॥ २५ ॥

शंखचूडोऽथ ऋषभो हंसो नाम महीधरः ।
कालंजराद्याश्च तथा उत्तरे केसराचलाः ॥ २६ ॥
शंखचूड़, ऋषभ, हंस, कालंजर आदि पर्वत उत्तरमें केसराचलके रूपमें स्थित हैं ॥ २६ ॥

मेरोरुपरि मध्ये हि शातकौंभं विधेः पुरम् ।
चतुर्दशसहस्राणि योजनानि च संख्यया ॥ २७ ॥
अष्टानां लोकपालानां परितस्तदनुक्रमात् ।
यथादिशं यथारूपं पुरोऽष्टावुपकल्पिताः ॥ २८ ॥
सुमेरुके ऊपर मध्य भागमें ब्रह्माका सुवर्णमय नगर है, जो चौदह हजार योजन विस्तृत है । उसके चारों ओर क्रमसे आठों लोकपालोंके आठ पुर उनकी दिशाओंके अनुसार तथा उनके अनुरूप निर्मित किये गये हैं ॥ २७-२८ ॥

तस्यां च ब्रह्मणः पुर्यां पातयित्वेन्दुमण्डलम् ।
विष्णुपादविनिष्क्रान्ता गङ्‌गा पतति वै नदी ॥ २९ ॥
सीता चालकनंदा च चक्षुर्भद्रा च वै क्रमात् ।
सा तत्र पतिता दिक्षु चतुर्द्धा प्रत्यपद्यत ॥ ३० ॥
भगवान् विष्णुके चरणोंसे निकली वे गंगाजी चन्द्रमण्डलको आप्लावित करती हुई ब्रह्माजीकी उस पुरीमें [चारों ओर] गिरती हैं । वे वहाँ गिरकर क्रमश: सीता, अलकनन्दा, चक्षु और भद्रा नामक चार धाराओंके रूपमें चारों दिशाओंमें प्रवाहित होती हैं ॥ २९-३० ॥

सीता पूर्वेण शैलं हि नन्दा चैव तु दक्षिणे ।
सा चक्षुः पश्चिमे चैव भद्रा चोत्तरतो व्रजेत् ॥ ३१ ॥
सुमेरुपर्वतके पूर्वमें सीता, दक्षिणमें अलकनन्दा, पश्चिममें चक्षु और उत्तरमें भद्रा नदी बहती है ॥ ३१ ॥

गिरीनतीत्य सकलांश्चतुर्दिक्षु महांबुधिम् ।
सा ययौ प्रयता सूता गङ्‌गा त्रिपथगामिनी ॥ ३२ ॥
सुनीलनिषधौ यौ तौ माल्यवद्‌गन्धमादनौ ।
तेषां मध्यगतो मेरुः कर्णिकाकारसंस्थितः ॥ ३३ ॥
वे त्रिपथगामिनी गंगा सम्पूर्ण पर्वतोंको लाँघकर [अपने चारों धारारूपोंसे] चारों दिशाओंके महासमुद्र में जाकर मिल जाती हैं । जो सुनील तथा निषध नामक दो पर्वत हैं और जो माल्यवान् एवं गन्धमादन नामक दो पर्वत हैं, उनके मध्यमें स्थित सुमेरुपर्वत कर्णिकाके आकारमें विराजमान है ॥ ३२-३३ ॥

भारतः केतुमालश्च भद्राश्वः कुरवस्तथा ।
पत्राणि लोकपद्मस्य मर्यादालोकपर्वताः ॥ ३४ ॥
जठरं देवकूटश्च आयामे दक्षिणोत्तरे ।
गन्धमादनकैलासौ पूर्वपश्चिमतो गतौ ॥ ३५ ॥
पूर्वपश्चिमतो मेरोर्निषधो नीलपर्वतः ।
दक्षिणोत्तरमायातौ कर्णिकान्तर्व्यवस्थितौ ॥ ३६ ॥
भारत, केतुमाल, भद्राश्व एवं कुरुवर्ष-ये लोकरूपी पाके पत्र हैं । इस लोकपद्मके ये मर्यादापर्वत-जठर तथा देवकूट दक्षिणसे उत्तरकी ओर फैले हैं, गन्धमादन तथा कैलास पूर्व-पश्चिममें फैले हैं । मेरुके पूर्व तथा पश्चिमकी ओर निषध तथा नीलपर्वत दक्षिणसे उत्तरकी और फैले हुए हैं और वे कर्णिकाके मध्य भागमें स्थित हैं ॥ ३४-३६ ॥

जठराद्याः स्थिता मेरोर्येषां द्वौ द्वौ व्यवस्थितौ ।
केसराः पर्वता एते श्वेताद्याः सुमनोरमाः ॥ ३७ ॥
मेरुपर्वतके चारों ओर ये जठर, कैलास आदि मनोहर केसर पर्वत भलीभाँति अवस्थित हैं ॥ ३७ ॥

शैलानामुत्तरे द्रोण्यः सिद्धचारणसेविताः ।
सुरम्याणि तथा तासु काननानि पुराणि च ॥ ३८ ॥
सर्वेषां चैव देवानां यक्षगंधर्वरक्षसाम् ।
क्रीडन्ति देवदैतेयाः शैलप्रायेष्वहर्निशम् ॥ ३९ ॥
उन पर्वतोंके मध्यमें सिद्ध तथा चारणोंसे सेवित अनेक द्रोणियाँ हैं और उनमें देवताओं, गन्धर्वो एवं राक्षसोंके मनोहर नगर तथा वन विद्यमान हैं । देवता तथा दैत्य इन पर्वतनगरोंमें रात-दिन क्रीड़ा करते हैं ॥ ३८-३९ ॥

धर्मिणामालया ह्येते भौमाः स्वर्गाः प्रकीर्तिताः ।
न तेषु पापकर्तारो यान्ति पश्यन्ति कुत्रचित् ॥ ४० ॥
[हे मुने !] ये धर्मात्माओंके निवासस्थान हैं और पृथ्वीके स्वर्ग कहे गये हैं । उनमें पापीजन नहीं जा सकते और न तो कहीं कुछ देख ही सकते हैं ॥ ४० ॥

यानि किंपुरुषादीनि वर्षाण्यष्टौ महामुने ।
न तेषु शोको नापत्त्यो नोद्वेगः क्षुद्‌भयादिकम् ॥ ४१ ॥
स्वस्थाः प्रजा निरातङ्‌काः सर्वदुःखविवर्जिताः ।
दशद्वादशवर्षाणां सहस्राणि स्थिरायुषः ॥ ४२ ॥
हे महामुने ! जो किम्पुरुष आदि आठ वर्ष हैं, उनमें न शोक, न विपत्ति, न उद्वेग, न भूख तथा न भय आदि ही रहता है । यहाँकी प्रजाएँ स्वस्थ, निर्द्वन्द्व, सभी दुःखोंसे रहित तथा दस-बारह हजार वर्षोंकी स्थिर आयुवाली होती हैं ॥ ४१-४२ ॥

कृतत्रेतादिकाश्चैव भौमान्यंभांसि सर्वतः ।
न तेषु वर्षते देवस्तेषु स्थानेषु कल्पना ॥ ४३ ॥
सप्तस्वेतेषु नद्यश्च सुजाताः स्वर्णवालुकाः ।
शतशः सन्ति क्षुद्राश्च तासु क्रीडारता जनाः ॥ ४४ ॥
वहाँ कृतयुग एवं त्रेतायुग ही होते हैं, वहाँ सर्वत्र पृथ्वीका ही जल है और उनमें मेघ वर्षा नहीं करते हैं । इन सातों द्वीपोंमें निर्मल जल तथा सुवर्णमय वालुकावाली सैकड़ों क्षुद्र नदियाँ भी बहती हैं; उनमें उत्तम लोग विहार करते हैं ॥ ४३-४४ ॥

इति श्रीशिवमहापुराणे पञ्चम्यामुमासंहितायां
ब्रह्माण्डकथने जम्बूद्वीपवर्षवर्णनं नाम सप्तदशोध्यायः ॥ १७ ॥
इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत पांचवीं उमासंहितामें ब्रह्माण्डकथनमें जम्बद्रीपवर्षवर्णन नामक सत्रहवां अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १७ ॥



श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु


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