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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥

॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥

पञ्चमी उमासंहितायां

एकोनविंशोऽध्यायः


लोकवर्णनम्
सूर्यादि ग्रहोंकी स्थितिका निरूपण करके जन आदि लोकोंका वर्णन


सनत्कुमार उवाच -
रविचन्द्रमसोर्यावन्मयूखा भासयन्ति हि ।
तावत्प्रमाणा पृथिवी भूलोकः स तु गीयते ॥ १ ॥
सनत्कुमार बोले-[हे व्यासजी !] जहाँतक सूर्य एवं चन्द्रमाकी किरणें प्रकाश करती हैं, वहाँतक पृथ्वी है, उसीको भूलोक कहा जाता है ॥ १ ॥

भूमेर्योजनलक्षे तु संस्थितं रविमण्डलम् ।
योजनानां सहस्राणि सदैव परिसंख्यया ॥ २ ॥
शशिनस्तु प्रमाणाय जगतः परिचक्षते ।
रवेरूर्ध्वं शशी तस्थौ लक्षयोजनसंख्यया ॥ ३ ॥
पृथ्वीसे एक लाख योजनकी दूरीपर सर्वदा एक हजार योजनके घेरेमें सूर्यमण्डल स्थित है । अब संसारमें चन्द्रमाके प्रमाणकी स्थिति कही जा रही है । सूर्यमण्डलसे एक लाख योजनकी दूरीपर चन्द्रमा स्थित है ॥ २-३ ॥

ग्रहाणां मण्डलं कृत्स्नं शशेरुपरि संस्थितम् ।
सनक्षत्रं सहस्राणि दशैव परितोपरि ॥ ४ ॥
बुधस्तस्मादथो काव्यस्तस्माद्‌भौमस्य मण्डलम् ।
बृहस्पतिस्तदूर्ध्वं तु तस्योपरि शनैश्चरः ॥ ५ ॥
सप्तर्षिमण्डलं तस्माल्लक्षेणैकेन संस्थितम् ।
ऋषिभ्य तु सहस्राणां शतादूर्ध्वं ध्रुवः स्थितः ॥ ६ ॥
चन्द्रमाके ऊपर दस हजार योजनकी दूरीपर चारों ओर नक्षत्रोंके सहित ग्रहमण्डल स्थित है । उसके आगे बुध, उसके आगे शुक्र और उसके ऊपर भौममण्डल है । फिर उसके ऊपर बृहस्पति और उसके ऊपर शनैश्चर स्थित है । उसके एक लाख योजन दूरीपर सप्तर्षिमण्डल है और सप्तर्षियोंसे सौ हजार योजन ऊपर ध्रुव स्थित है ॥ ४-६ ॥

मेढीभूतः स यस्तस्य ज्योतिश्चक्रस्य वै ध्रुवः ।
भूर्भुवःस्वरिति ज्ञेयं भुव ऊर्ध्वं ध्रुवादवाक् ॥ ७ ॥
यह ध्रुव [समस्त] ज्योतिश्चक्रका मेढीभूत अर्थात् केन्द्र होकर स्थित है । पृथ्वीके ऊपर तथा ध्रुवके नीचे भूर्लोक, भुवर्लोक तथा स्वर्लोक स्थित हैं, ऐसा जानना चाहिये ॥ ७ ॥

एकयोजनकोटिस्तु यत्र ते कल्पवासिनः ।
ध्रुवादूर्ध्वं महर्लोकः सप्तैते ब्रह्मणः सुताः ॥ ८ ॥
सनकश्च सनन्दश्च तृतीयश्च सनातनः ।
कपिलश्चासुरिश्चैव वोढुः पञ्चशिखस्तथा ॥ ९ ॥
ध्रुवके ऊपर एक करोड़ योजनपर महर्लोक है, जहाँ ब्रह्माजीके कल्पान्तवासी सनक, सनन्दन, सनातन, कपिल, आसुरि, वोढु एवं पंचशिख-ये सात पुत्र निवास करते हैं ॥ ८-९ ॥

उपरिष्टात्ततः शुक्रो द्विलक्षाभ्यन्तरे स्थितः ।
द्विलक्षयोजनं तस्मादधः सोमसुतः स्मृतः ॥ १० ॥
द्विलक्षयोजनं तस्मादूर्ध्वं भौमः स्थितो मुने ।
द्विलक्षयोजनं तस्मादूर्ध्वं जीवः स्थितो गुरु ॥ ११ ॥
द्विलक्षयोजनं जीवादूर्ध्वं सौरिर्व्यवस्थितः ।
एते सप्तग्रहाः प्रोक्ताः स्वस्वराशिव्यवस्थिता ॥ १२ ॥
उसके ऊपर दो लाख योजनपर शुक्र स्थित है, शुक्रसे दो लाख योजन नीचे चन्द्रमापुत्र बुध बताया गया है । हे मुने ! उससे दो लाख योजन ऊपर मंगल स्थित है और उससे दो लाख योजन ऊपर गुरु बृहस्पति स्थित हैं । बृहस्पतिसे दो लाख योजन ऊपर शनैश्चर स्थित है, ये सातों ग्रह अपनी-अपनी राशियोपर स्थित रहते हैं ॥ १०-१२ ॥

रुद्रलक्षैर्योजनतः सप्तोर्ध्वमृषयः स्थिताः ।
विश्वलक्षैर्योजनतो ध्रुवस्थितिरुदाहृता ॥ १३ ॥
चतुर्गुणोत्तरे चार्द्धे जनलोकात्तपः स्मृतम् ।
वैराजा यत्र देवा वै स्थिता दाहविवर्जिताः ॥ १४ ॥
उनसे ग्यारह लाख योजन ऊपर सप्तर्षि स्थित हैं और उनसे दस लाख योजनपर ध्रुवको स्थिति बतायी गयी है । जनलोकसे आगे साढ़े चार गुनी दूरीपर तपलोक कहा गया है, जहाँपर वैराज देवता तापरहित होकर रहते हैं ॥ १३-१४ ॥

षड्गुणेन तपोलोकात्सत्यलोको व्यवस्थितः ।
ब्रह्मलोकः स विज्ञेयो वसन्त्यमलचेतसः ॥ १५ ॥
सत्यधर्मरताश्चैव ज्ञानिनो ब्रह्मचारिणः ।
यद्‌गामिनोऽथ भूलोकान्निवसन्ति हि मानवाः ॥ १६ ॥
तपलोकसे छ: गुनी दूरीपर सत्यलोक स्थित है. उसे ब्रह्मलोक जानना चाहिये । यहाँपर निर्मल आत्मावाले लोग रहते हैं और भूलोकसे ब्रह्मलोक जानेवाले, सत्यधर्ममें तत्पर, ज्ञानी तथा ब्रह्मचारी मनुष्य निवास करते हैं ॥ १५-१६ ॥

भुवर्लोके तु संसिद्धा मुनयो देवरूपिणः ।
स्वर्गलोके सुरादित्या मरुतो वसवोऽश्विनौ ॥ १७ ॥
विश्वेदेवास्तथा रुद्राः साध्या नागाः खगादयः ।
नवग्रहास्ततस्तत्र ऋषयो वीतकल्मषाः ॥ १८ ॥
भुवर्लोकमें सिद्ध तथा देवस्वरूप मुनि रहते हैं । स्वर्गलोकमें देवता, आदित्य, मरुद्‌गण, वसुगण, दोनों अश्विनीकुमार, विश्वेदेव, रुद्र, साध्य, नाग, नक्षत्र आदि, नवग्रह तथा निष्पाप ऋषिगण निवास करते हैं ॥ १७-१८ ॥

एते सप्त महालोकाः कालेय कथितास्तव ।
पातालानि च सप्तैव ब्रह्माण्डस्य च विस्तरः ॥ १९ ॥
दधिवृक्षफलं यद्वद्वृत्तिश्चोर्ध्वमधस्तथा ।
एतदंडकटाहेन सर्वतो वै समावृतम् ॥ २० ॥
दशगुणेन पयसा सर्वतस्तत्समावृतम् ।
वह्निना वायुना चापि नभसा तमसा तथा ॥ २१ ॥
भूतादिनापि महता दिग्गुणोत्तरवेष्टितः ।
महान्तं च समावृत्य प्रधानं पुरुषः स्थितः ॥ २२ ॥
हे व्यासजी ! मैंने इन सातों महालोकोंका, सातों पातालोंका तथा ब्रह्माण्डके विस्तारका वर्णन आपसे किया । जिस प्रकार कैथका फल ऊपर-नीचे चारों | ओरसे आवत रहता है, उसी प्रकार यह ब्रह्माण्ड भी अण्डकटाहसे सभी ओरसे घिरा हुआ है । यह दस गुने जलसे, तेजसे, वायुसे, आकाशसे एवं अन्धकारसे चारों ओरसे व्याप्त है । ये महाभूत आदिके सहित महत्तत्त्वसे भी दस गुना घिरा हुआ है और इस प्रधान महत्तत्त्वको घेरकर पुरुष स्थित है ॥ १९-२२ ॥

अनन्तस्य न तस्यास्ति संख्यापि परमात्मनः ।
तेनानन्त इति ख्यातः प्रमाणं नास्ति वै यतः ॥ २३ ॥
उन अनन्त परमात्माकी कोई संख्या नहीं है और उनका परिमाण भी नहीं है, अतः वे अनन्त कहे गये हैं ॥ २३ ॥

हेतुभूतः समस्तस्य प्रकृतिः सा परा मुने ।
अंडानां तु सहस्राणां सहस्राण्ययुतानि च ॥ २४ ॥
ईदृशानां प्रभूतानि तस्मादव्यक्तजन्मनः ।
दारुण्यग्निस्तिले तैलं पयः सु च यथा घृतम् ॥ २५ ॥
तथासौ परमात्मा वै सर्वं व्याप्यात्मवेदनः ।
आदिबीजात्प्रसुवते ततस्तेभ्यः परेण्डजाः ॥ २६ ॥
तेभ्यः पुत्रास्तथान्येषां बीजान्यन्यानि वै ततः ।
महदादयो विशेषान्तास्तद्‌भवन्ति सुरादयः ॥ २७ ॥
वे सबके कारण हैं और परा उनकी प्रकृति है । इस प्रकारके हजारों-लाखों ब्रह्माण्डसमुदाय उन अव्यक्त परमात्मासे उत्पन्न हुए हैं । जिस प्रकार काष्ठमें आग, तिलमें तेल तथा दूध घी व्याप्त रहता है, उसी प्रकार वे आत्मवेत्ता परमात्मा सम्पूर्ण ब्रह्माण्डमें व्याप्त होकर स्थित हैं । सृष्टि आदि-बीजसे होती है, उसके बाद उनसे अण्डज होते हैं । फिर उनसे पुत्रादि होते हैं, पुनः उनसे अन्य उत्पन्न होते हैं । इसके बाद उनसे महत्से लेकर विशेषपर्यन्त तत्त्व उत्पन्न होते हैं, उसके बाद देवता आदिकी उत्पत्ति होती है ॥ २४-२७ ॥

बीजाद्वृक्षप्ररोहेण यथा नापचयस्तरोः ।
सूर्यकान्तमणेः सूर्याद्यद्वद्वह्निः प्रजायते ॥ २८ ॥
तद्वत्संजायते सृष्टिः शिवस्तत्रः न कामयेत् ।
शिवशक्तिसमायोगे देवाद्याः प्रभवन्ति हि ॥ २९ ॥
तथा स्वकर्मणैकेन प्ररोहमुपयान्ति वै ।
ब्रह्मा विष्णुश्च रुद्राश्च स शिवः परिगीयते ॥ ३० ॥
तस्मादुद्धरते सर्वं यस्मिंश्च लयमेष्यति ।
कर्ता क्रियाणां सर्वासां स शिवः परिगीयते ॥ ३१ ॥
जिस प्रकार बीजसे वृक्ष तथा वृक्षसे बीज होता है और इससे वृक्षकी हानि नहीं होती है, जैसे सूर्यके सन्नियोगसे सूर्यकान्तमणिद्वारा अग्नि प्रकट होती है, उसी प्रकार [परमात्माके संयोगसे] सृष्टि होती है, उसमें शिवकी कोई कामना नहीं है । शिव तथा शक्तिका समायोग होनेपर देवता आदि उत्पन्न होते हैं । वे अपने एकमात्र कर्मसे ही उत्पन्न होते हैं, वे शिव ही ब्रह्मा, विष्णु तथा रुद्ररूपमें कहे जाते हैं । उन्हींसे सारा जगत् उत्पन्न होता है और उन्होंमें लयको भी प्राप्त होता है । वे शिव ही सभी क्रियाओंके कर्ता कहे जाते हैं ॥ २८-३१ ॥

व्यास उवाच -
सनत्कुमार सर्वज्ञ छिंधि मे संशयं महत् ।
सन्ति लोका हि ब्रह्मांडादुपरिष्टान्न वा मुने ॥ ३२ ॥
व्यासजी बोले-हे सर्वज्ञ ! सनत्कुमार ! मेरे इस महान् संशयको दूर कीजिये । हे मुने ! ब्रह्माण्डके ऊपर अन्य कोई लोक हैं अथवा नहीं ॥ ३२ ॥

सनत्कुमार उवाच -
ब्रह्मांडादुपरिष्टाच्च सन्ति लोका मुनीश्वर ।
ताञ्छृणु त्वं विशेषेण वच्मि तेऽहं समागतः ॥ ३३ ॥
सनत्कुमार बोले-हे मुनीश्वर ! ब्रह्माण्डके ऊपर भी लोक हैं, उन्हें विस्तारपूर्वक आप सुनिये, यहाँ आया हुआ मैं आपसे उनका वर्णन कर रहा हूँ ॥ ३३ ॥

विधिलोकात्परो लोको वैकुंठ इति विश्रुतः ।
विराजते महादीप्त्या यत्र विष्णुः प्रतिष्ठितः ॥ ३४ ॥
तस्योपरिष्टात्कौमारो लोको हि परमाद्‌भुतः ।
सेनानीः शंभुतनयो राजते यत्र सुप्रभः ॥ ३५ ॥
ततः परमुमालोको महादिव्यो विरा जते ।
यत्र शक्तिर्विभात्येका त्रिदेवजननी शिवा ॥ ३६ ॥
परात्परा हि प्रकृती रजः सत्त्वतमोमयी ।
निर्गुणा च स्वयं देवी निर्विकारा शिवात्मिका ॥ ३७ ॥
ब्रह्मलोकसे ऊपर श्रेष्ठ वैकुण्ठ नामक परम दीप्तियुक्त लोक विराजमान है, जहाँ विष्णु निवास करते हैं । उसके ऊपर अत्यन्त अद्‌भुत कौमारलोक है, जहाँ महातेजस्वी शम्भुपुत्र कार्तिकेय निवास करते हैं । उसके ऊपर परम दिव्य उमालोक विराजमान है, जहाँ तीनों देवताओंकी जननी एकमात्र महाशक्ति शिवा विराजती हैं । वे देवी [शिवा] स्वयं परात्पर प्रकृति, सत्त्व, रज, तमोमयी, निर्गुण, निर्विकार एवं शिवात्मिका हैं ॥ ३४-३७ ॥

तस्योपरिष्टाद्विज्ञेयः शिवलोकः सनातनः ।
अविनाशी महादिव्यो महाशोभान्वितः सदा ॥ ३८ ॥
विराजते परं ब्रह्म यत्र शंभुर्महेश्वरः ।
त्रिदेवजनकस्वामी सर्वेषां त्रिगुणात्परः ॥ ३९ ॥
उसके ऊपर सनातन, अविनाशी, परम दिव्य तथा सर्वदा महान् शोभासे युक्त शिवलोकको जानना चाहिये, जहाँ तीनों देवताओंको उत्पन्न करनेवाले, सबके स्वामी तथा त्रिगुणातीत परब्रह्म महेश्वर निवास करते हैं ॥ ३८-३९ ॥

तत ऊर्ध्वं न लोकाश्च गोलोकस्तत्समीपतः ।
गोमातरः सुशीलाख्यास्तत्र सन्ति शिवप्रिया ॥ ४० ॥
उसके ऊपर कोई भी लोक नहीं है । उसके समीपमें गोलोक है, जहाँपर सुशीला नामवाली शिवप्रिया गोमाताएँ निवास करती हैं ॥ ४० ॥

तत्पालः कृष्णनामा हि राजते शङ्‌कराज्ञया ।
प्रतिष्ठितः शिवेनैव शक्त्या स्वच्छन्दचारिणा ॥ ४१ ॥
उन गौओंका पालन करनेवाले श्रीकृष्ण शिवजीकी आज्ञासे वहाँ निवास करते हैं । परम स्वतन्त्र शिवजीने ही अपनी शक्तिसे वहाँ उन्हें प्रतिष्ठित किया है ॥ ४१ ॥

शिवलोकोऽद्‌भुतो व्यास निराधारो मनोहरः ।
अतिनिर्वचनीयश्च नानावस्तुविराजितः ॥ ४२ ॥
शिवस्तु तदधिष्ठाता सर्वदेवशिरोमणिः ।
विष्णुब्रह्महरैः सेव्यः परमात्मा निरञ्जनः ॥ ४३ ॥
इति ते कथिता तात सर्वब्रह्मांडसंस्थितिः ।
तदूर्ध्वं लोकसंस्थानं किमन्यच्छ्रोतुमिच्छसि ॥ ४४ ॥
हे व्यासजी ! वह शिवलोक अद्‌भुत, निराधार, मनोहर, अनिर्वचनीय तथा अनेक वस्तुओंसे सुशोभित है । सभी देवताओंमें श्रेष्ठ, ब्रह्मा-विष्णु-हरसे सेवित, परमात्मा तथा निर्विकार शिवजी उस लोकके अधिष्ठाता हैं । हे तात ! इस प्रकार मैंने सारे ब्रह्माण्डकी स्थिति तथा उसके ऊपर स्थित लोकोंका वर्णन क्रमसे कर दिया, अब आप और क्या सुनना चाहते हैं ? ॥ ४२-४४ ॥

इति श्रीशिवमहापुराणे पञ्चम्यामुमासंहितायां
लोकवर्णनंनामैकोनविंशोऽध्यायः ॥ १९ ॥
इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत पाँचवीं उमासंहितामें लोकवर्णन नामक उन्नीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १९ ॥



श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु


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