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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥
॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥ पञ्चमी उमासंहितायां
विंशोऽध्यायः मनुविशेषकथनम्
तपस्यासे शिवलोककी प्राप्ति, सात्त्विक आदि तपस्याके भेद, मानवजन्मकी प्रशस्तिका कथन व्यास उवाच - सनत्कुमार सर्वज्ञ तत्प्राप्तिं वद सत्तम । यद्गत्वा न निवर्तन्ते शिवभक्तियुता नराः ॥ १ ॥ व्यासजी बोले-हे सर्वज्ञ ! सनत्कुमार ! हे सत्तम ! अब आप उस [शिवलोक]-की प्राप्तिका वर्णन करें, जहाँ जाकर शिवभक्त मनुष्य फिर नहीं लौटते हैं ॥ १ ॥ सनत्कुमार उवाच - पराशरसुत व्यास शृणु प्रीत्या शुभां गतिम् । व्रतं हि शुद्धभक्तानां तथा शुद्धं तपस्विनाम् ॥ २ ॥ सनत्कुमार बोले-हे पराशरपुत्र व्यास ! अब आप शुद्ध शिवभक्तजनों तथा तपस्वियोंकी शुभ गति तथा पवित्र व्रतको प्रीतिपूर्वक सुनिये ॥ २ ॥ ये शिवं शुद्धकर्माणः सुशुद्धतपसान्विताः । समर्चयन्ति तं नित्यं वन्द्यास्ते सर्वथान्वहम् ॥ ३ ॥ शुद्ध कर्म करनेवाले एवं अत्यन्त शुद्ध तपस्यासे युक्त जो मनुष्य प्रतिदिन शिवजीकी पूजा करते हैं, वे सब प्रकारसे सर्वदा वन्दनीय हैं ॥ ३ ॥ नातप्ततपसो यान्ति शिवलोकमनामयम् । शिवानुग्रहसद्धेतुस्तप एव महामुने ॥ ४ ॥ तपसा दिवि मोदन्ते प्रत्यक्षं देवतागणाः । ऋषयो मुनयश्चैव सत्यं जानीह मद्वचः ॥ ५ ॥ हे महामुने ! तपस्या नहीं करनेवाले उस निर्विकार शिवलोकमें नहीं जा सकते हैं, शिवजीकी कृपाका मूल हेतु तपस्या ही है । यह प्रत्यक्ष है कि तपके प्रभावसे ही देवता, ऋषि और मुनिलोग स्वर्गमें आनन्द प्राप्त करते हैं, मेरे इस वचनको सत्य जानिये ॥ ४-५ ॥ सुदुर्द्धरं दुरासाध्यं सुधुरं दुरतिक्रमम् । तत्सर्वं तपसा साध्यं तपो हि दुरतिक्रमम् ॥ ६ ॥ सुस्थितस्तपसि ब्रह्मा नित्यं विष्णुर्हरस्तथा । देवा देव्योऽखिलाः प्राप्तास्तपसा दुर्लभं फलम् ॥ ७ ॥ जो अत्यन्त कठिन, दुराराध्य, अत्यन्त दूर एवं पार न पानेयोग्य है, वह सब तपस्यासे सिद्ध हो जाता है, निश्चय ही तपस्याका अतिक्रमण नहीं किया जा सकता । ब्रह्मा, विष्णु तथा हर नित्य तपमें स्थित रहते हैं । सम्पूर्ण देवताओं तथा देवियोंने भी तपस्यासे ही दुर्लभ फल प्राप्त किया है ॥ ६-७ ॥ येन येन हि भावेन स्थित्वा यत्क्रियते तपः । ततः संप्राप्यतेऽसौ तैरिह लोके न संशयः ॥ ८ ॥ सात्त्विकं राजसं चैव तामसं त्रिविधं स्मृतम् । विज्ञेयं हि तपो व्यास सर्वसाधनसाधनम् ॥ ९ ॥ जिस-जिस भावमें स्थित होकर लोग जो तपस्या करते हैं, वे उस तपसे उसी प्रकारका फल इस लोकमें प्राप्त करते हैं, इसमें सन्देह नहीं है । हे व्यासजी ! सात्विक, राजस तथा तामस-यह तीन प्रकारका तप कहा गया है, तपको सम्पूर्ण साधनोंका साधन जानना चाहिये ॥ ८-९ ॥ सात्त्विकं दैवतानां हि यतीनामूर्द्ध्वरेतसाम् । राजसं दानवानां हि मनुष्याणां तथैव च । तामसं राक्षसानां हि नराणां क्रूरकर्मणाम् ॥ १० ॥ देवताओं, संन्यासियों एवं ब्रह्मचारियोंका तप सात्त्विक होता है । दैत्यों एवं मनुष्योंका तप राजस होता है तथा राक्षसों एवं क्रूर कर्म करनेवाले मनुष्योंका तप तामस होता है ॥ १० ॥ त्रिविधं तत्फलं प्रोक्तं मुनिभिस्तत्त्वदर्शिभिः । जपो ध्यानं तु देवानामर्चनं भक्तितः शुभम् ॥ ११ ॥ सात्त्विकं तद्धि निर्दिष्टमशेषफलसाधकम् । इह लोके परे चैव मनोभिप्रेतसाधनम् ॥ १२ ॥ तत्त्वदर्शी महर्षियोंने उनका फल भी तीन प्रकारका बताया है । भक्तिपूर्वक देवगोका जप, ध्यान एवं अर्चन शुभ होता है । वह सात्त्विक कहा गया है, जो सभी फलोंको प्रदान करता है । यह तप इस लोकमें और परलोकमें भी मनोरथोंको सिद्ध करनेवाला है ॥ ११-१२ ॥ कामनाफलमुद्दिश्य राजसं तप उच्यते । निजदेहं सुसंपीड्य देहशोषकदुः सहैः ॥ १३ ॥ तपस्तामसमुद्दिष्टं मनोभिप्रेतसाधनम् ॥ १४ ॥ किसी प्रकारको कामनाकी सिद्धिको उद्देश्य करके जो तप किया जाता है, वह राजस तप कहा जाता है । देहको सुखानेवाले और दुस्सह तपोंसे शरीरको पीड़ितकर जो तप किया जाता है, वह तामस तप कहा जाता है, वह भी मनोरथ सिद्ध करनेवाला है ॥ १३-१४ ॥ उत्तमं सात्त्विकं विद्याद्धर्मबुद्धिश्च निश्चला । स्नानं पूजा जपो होमः शुद्धशौचमहिंसनम् ॥ १५ ॥ व्रतोपवासचर्या च मौनमिन्द्रियनिग्रहः । धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दानं क्षान्तिर्दमो दया ॥ १६ ॥ वापीकूपतडागादेः प्रसादस्य च कल्पना । कृच्छ्रं चांद्रायणं यज्ञः सुतीर्थान्याश्रमाः पुनः ॥ १७ ॥ धर्मस्थानानि चैतानि सुखदानि मनीषिणाम् । सुधर्मः परमो व्यासः शिवभक्तेश्च कारणम् ॥ १८ ॥ सङ्क्रातिविषुवद्योगो नादमुक्ते नियुज्यताम् । ध्यानं त्रिकालिकं ज्योतिरुन्मनीभावधारणा ॥ १९ ॥ रेचकः पूरकः कुम्भः प्राणायामस्त्रिधा स्मृतः । नाडीसंचारविज्ञानं प्रत्याहारनिरोधनम् ॥ २० ॥ सात्त्विक तपको सर्वोत्तम जानना चाहिये । निश्चल धर्मबुद्धि, स्नान, पूजा, जप, होम, शुद्धता, शौच, अहिंसा, व्रत-उपवास, मौन, इन्द्रियनिग्रह, बुद्धि, विद्या, सत्य, अक्रोध, दान, क्षमा, दम, दया, बावली-कूपसरोवर एवं प्रासादका निर्माण, कृच्छ, चान्द्रायण आदि व्रत, यज्ञ, श्रेष्ठ तीर्थ और आश्रमका निवास-ये सभी धर्मके स्थान हैं और बुद्धिमानोंको सुख देनेवाले हैं । हे व्यास ! इस प्रकार विषुव संक्रान्ति (मेष-तुला संक्रान्ति)में सम्पन्न ये सद्धर्म शिवभक्तिके परम कारण हैं । किसी शब्दरहित स्थानमें उन्मनी भावसे ज्योतिका तीनों कालोंमें ध्यान करना ही धारणा है । रेचक, पूरक और कुम्भक-यह तीन प्रकारका प्राणायाम कहा गया है । प्रत्याहारद्धारा इन्द्रियोंका निरोध एवं नाड़ीसंचारका ज्ञान होता है ॥ १५-२० ॥ तुरीयं तदधो बुद्धिरणिमाद्यष्टसंयुतम् । पूर्वोत्तमं समुद्दिष्टं परज्ञानप्रसाधनम् ॥ २१ ॥ काष्ठावस्था मृतावस्था हरितावेति कीर्तिताः । नानोपलब्धयो ह्येताः सर्वपापप्रणाशनाः ॥ २२ ॥ यह तुरीयावस्था होती है । अणिमादि अष्टसिद्धियोंको प्राप्त करना अधोबुद्धि है । इसमें पूर्व-पूर्व उत्तम भेद कहे गये हैं, जो ज्ञानविशेषके साधन हैं । काष्ठावस्था, मृतावस्था और हरितावस्था-ये तीन अवस्थाएँ कही गयी हैं । ये अवस्थाएँ अनेक उपलब्धियोंवाली तथा सभी पापोंको विनष्ट करनेवाली हैं ॥ २१-२२ ॥ नारी शया तथा पानं वस्त्रधूपविलेपनम् । ताम्बूलभक्षणं पञ्च राजैश्वर्यविभूतयः ॥ २३ ॥ हेमभारस्तथा ताम्रं गृहाश्च रत्नधेनवः । पांडित्यं वेदशास्त्राणां गीतनृत्यविभूषणम् ॥ २४ ॥ शंखवीणामृदङ्गाश्च गजेन्द्रश्छत्रचामरे । भोगरूपाणि चैतानि एभिः शक्तोऽनुरज्यते ॥ २५ ॥ नारी, शय्या, पान, वस्त्र, धूप, सुगन्धित चन्दन आदिका लेप, ताम्बूलभक्षण, पाँच राजैश्वर्य विभूतियाँ, सुवर्णकी अधिकता, ताँबा, घर, रत्न, धेनु, वेद-शास्त्रोंका पाण्डित्य, गीत, नृत्य, आभूषण, शंख, वीणा, मृदंग, गजेन्द्र, छत्र एवं चामर-ये सभी भोगस्वरूप हैं । इनमें [विषयोंमें] | आसक्त प्राणी ही अनुरक्त होता है ॥ २३-२५ ॥ आदर्शवन्मुनेस्नेहैस्तिलवत्स निपीड्यते । अरं गच्छेति चाप्येनं कुरुते ज्ञानमोहितः ॥ २६ ॥ हे मुने ! ये सभी पदार्थ दर्पणमें पड़े प्रतिबिम्बके समान अवास्तविक तथा आभासमात्र हैं तथापि इनमें यथार्थबुद्धि करके संसारीपुरुष तेलके लिये तिलके समान बारंबार इस संसारचक्रमें पेरा जाता है और माया उसे अज्ञानसे मोहित कर लेती है ॥ २६ ॥ जानन्नपीह संसारे भ्रमते घटियन्त्रवत् । सर्वयोनिषु दुःखार्तः स्थावरेषु चरेषु च ॥ २७ ॥ एवं योनिषु सर्वासु प्रतिक्रम्य भ्रमेण त । कालान्तरवशाद्याति मानुष्यमतिदुर्लभम् ॥ २८ ॥ व्युत्क्रमेणापि मानुष्यं प्राप्यते पुण्यगौरवात् । विचित्रा गतयः प्रोक्ताः कर्मणां गुरुलाघवात् ॥ २९ ॥ वह सब कुछ जानते हुए भी घड़ीके यन्त्रके समान स्थावर, जंगम आदि सभी योनियोंमें दुखी होकर घूमता रहता है । इस प्रकार समस्त योनियोंमें भ्रमणकर बहुत समयके बाद अत्यन्त दुर्लभ मनुष्य जन्म प्राप्त करता है और कभी-कभी पुण्यकी महिमासे बीचमें ही मानवशरीर प्राप्त कर लेता है । क्योंकि कर्मोक गौरव तथा लाघवके कारण उनकी गतियाँ बड़ी विचित्र कही गयी हैं ॥ २७-२९ ॥ मानुष्यं च समासाद्य स्वर्गमोक्षप्रसाधनम् । नाचरत्यात्मनः श्रेयः स मृतः शोचते चिरम् ॥ ३० ॥ देवासुराणां सर्वेषां मानुष्यं चाति दुर्लभं । तत्संप्राप्य तथा कुर्यान्न गच्छेन्नरकं यथा ॥ ३१ ॥ जो पुरुष स्वर्ग एवं मोक्षके साधनभूत इस मनुष्यजन्मको पाकर अपना परम कल्याण नहीं करता है, वह मरनेके बाद बहुत कालतक शोक करता रहता है । सभी देवताओं एवं असुरोंके लिये भी यह मनुष्यजन्म अति दुर्लभ है । अतः उसे प्राप्त करके वैसा कर्म करना चाहिये, जिससे नरकमें न जाना पड़े ॥ ३०-३१ ॥ स्वर्गापवर्गलाभाय यदि नास्ति समुद्यमः । दुर्लभं प्राप्य मानुष्यं वृथा तज्जन्म कीर्तितम् ॥ ३२ ॥ दुर्लभ मनुष्ययोनि प्राप्त करके यदि स्वर्ग तथा मोक्षके लिये प्रयत्न नहीं किया जाता है तो उस जन्मको व्यर्थ कहा गया है ॥ ३२ ॥ सर्वस्य मूलं मानुष्यं चतुर्वर्गस्य कीर्तितम् । संप्राप्य धर्मतो व्यास तद्यत्तादनुपालयेत् ॥ ३३ ॥ धर्ममूलं हि मानुष्यं लब्ध्वा सर्वार्थसाधकम् । यदि लाभाय यत्नः स्यान्मूलं रक्षेत्स्वयं ततः ॥ ३४ ॥ हे व्यासजी ! धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष-इन सम्पूर्ण पुरुषार्थीका मूल मनुष्यजन्म कहा गया है, अत: मनुष्यजन्मको प्राप्तकर धर्मानुसार उसका यत्नपूर्वक पालन करते रहना चाहिये । धर्मके आधार तथा समस्त अर्थोंके साधनभूत इस मनुष्यजन्मको प्राप्त करके यदि [परमार्थ-] लाभके लिये यत्न होता है तभी उससे मूल अर्थात् मनुष्य जीवन सुरक्षित समझना चाहिये ॥ ३३-३४ ॥ मानुष्येऽपि च विप्रत्वं यः प्राप्य खलु दुर्लभम् । नाचरत्यात्मनः श्रेयः कोऽन्यस्तस्मादचेतनः ॥ ३५ ॥ द्वीपानामेव सर्वेषां कर्मभूमिरियमुच्यते । इतः स्वर्गश्च मोक्षश्च प्राप्यते समुपार्जितः ॥ ३६ ॥ मनुष्यजन्ममें भी अति दुर्लभ ब्राह्मणत्वको पाकर जो अपना पारलौकिक कल्याण नहीं करता है, उससे अधिक जड़ और कौन है ? सभी द्वीपोंमें यह [भारतभूमि ही] कर्मभूमि कही जाती है, यहींपर कर्म करके स्वर्ग और मोक्ष प्राप्त किया जाता है ॥ ३५-३६ ॥ देशेऽस्मिन्भारते वर्षे प्राप्य मानुष्यमध्रुवम् । न कुर्यादात्मनः श्रेयस्तेनात्मा खलु वंचितः ॥ ३७ ॥ इस भारतवर्षमें अस्थिर मनुष्यजन्मको प्राप्तकर जिसने अपना कल्याण नहीं किया, उसने मानो अपनी ही आत्माको ठगा है ॥ ३७ ॥ कर्मभूमिरियं विप्र फलभूमिरसौ स्मृता । इह यत्क्रियते कर्म स्वर्गे तदनुभुज्यते ॥ ३८ ॥ यावत्स्वास्थ्यं शरीरस्य तावद्धर्मं समाचरेत् । अस्वस्थश्चोदितोऽप्यन्यैर्न किंचित्कर्तुमुत्सहेत् ॥ ३९ ॥ हे विप्र ! यही कर्मभूमि और यही फलभूमि भी कही गयी है । यहाँ जो कर्म किया जाता है, उसीका फलभोग स्वर्गमें किया जाता है । जबतक शरीर स्वस्थ रहे, तबतक धर्माचरण करते रहना चाहिये । क्योंकि अस्वस्थ हो जानेपर दूसरोंके द्वारा प्रेरित किये जानेपर भी मनुष्य कुछ भी करनेमें समर्थ नहीं होता है ॥ ३८-३९ ॥ अध्रुवेण शरीरेण ध्रुवं यो न प्रसाधयेत् । ध्रुवं तस्य परिभ्रष्टमध्रुवं नष्टमेव च ॥ ४० ॥ अस्थिर शरीरसे जो स्थिर [मोक्ष]-को सिद्ध नहीं करता, उसका स्थिर [मोक्ष] भी नष्ट हो जाता है और यह अध्रुव शरीर तो नष्ट होनेवाला ही है ॥ ४० ॥ आयुषः खंडखंडानि निपतन्ति तदग्रतः । अहोरात्रोपदेशेन किमर्थं नावबुध्यते ॥ ४१ ॥ यदा न ज्ञायते मृत्युः कदा कस्य भविष्यति । आकस्मिके हि मरणे धृतिं विंदति कस्तथा ॥ ४२ ॥ [मनुष्यकी] आयुके एक-एक क्षण रात-दिनके रूपमें उसके आगे ही नष्ट होते जाते हैं, फिर भी उसे बोध क्यों नहीं होता है ? जब यह ज्ञात नहीं है कि किसकी मृत्यु कब होगी, तब सहसा मृत्यु होनेपर कौन धैर्य धारण कर सकता है ? ॥ ४१-४२ ॥ परित्यज्य यदा सर्वमेकाकी यास्यति ध्रुवम् । न ददाति कदा कस्मात्पाथेयार्थमिदं धनम् ॥ ४३ ॥ जब यह निश्चित है कि सब कुछ छोड़कर अकेले ही जाना है, तब मनुष्य जानेके समय मार्गके खर्चके लिये इस धनका दान क्यों नहीं करता ? ॥ ४३ ॥ गृहीतदानपाथेयः सुखं याति यमालयम् । अन्यथा क्लिश्यते जन्तुः पाथेयरहिते पथि ॥ ४४ ॥ येषां कालेय पुण्यानि परिपूर्णानि सर्वतः । गच्छतां स्वर्गदेशं हि तेषां लाभः पदेपदे ॥ ४५ ॥ जिसने दानफलरूप पाथेयको प्राप्त कर लिया है, वह सुखपूर्वक यमलोकको जाता है, यदि ऐसा न हुआ तो प्राणी पाथेयरहित मार्गमें दुःख प्राप्त करता है । हे व्यास ! सभी प्रकारसे जिनके पुण्य परिपूर्ण हैं, उनको स्वर्गमार्गमें जाते समय पग-पगपर लाभ होता है ॥ ४४-४५ ॥ इति ज्ञात्वा नरः पुण्यं कुर्यात्पापं विवर्जयेत् । पुण्येन याति देवत्वमपुण्यो नरकं व्रजेत् ॥ ४६ ॥ ऐसा जानकर मनुष्यको पुण्य करते रहना चाहिये और पापको सर्वथा छोड़ देना चाहिये । पुण्यसे वह देवत्व प्राप्त करता है और पुण्यरहित होनेपर नरकको जाता है ॥ ४६ ॥ ये मनागपि देवेशं प्रपन्नाः शरणं शिवम् । तेऽपि घोरं न पश्यन्ति यमं न नरकं तथा ॥ ४७ ॥ किन्तु पापैर्महामोहैः किंचित्काले शिवाज्ञया । वसन्ति तत्र मानुष्यास्ततो यान्ति शिवास्पदम् ॥ ४८ ॥ ये पुनः सर्वभावेन प्रतिपन्ना महेश्वरम् । न ते लिम्पन्ति पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा ॥ ४९ ॥ जो लोग थोड़ा भी देवेश शिवकी शरणमें चले जाते हैं, वे घोर यमको और नरकको नहीं देखते हैं, किंतु महान् व्यामोह उत्पन्न करनेवाले पापोंके कारण शिवजीकी आज्ञासे मनुष्य कुछ दिनके लिये वहाँ निवास करते हैं और उसके बाद शिवलोकमें चले जाते हैं । जो लोग सर्वभावसे महेश्वर शिवके शरणागत हैं, वे जलसे कमलपत्रकी भाँति पापसे लिप्त नहीं होते हैं ॥ ४७-४९ ॥ उक्तं शिवेति यैर्नाम तथा हरहरेति च । न तेषां नरकाद्भीतिर्यमाद्धि मुनिसत्तम ॥ ५० ॥ हे मुनिसत्तम ! जिन्होंने 'शिव-शिव' तथा 'हरहर' इस नामका उच्चारण किया है, उन्हें नरक और यमराजसे भय नहीं होता है ॥ ५० ॥ परलोकस्य पाथेयं मोक्षोपायमनामयम् । पुण्यसंघैकनिलयं शिव इत्यक्षरद्वयम् ॥ ५१ ॥ शिव-ये दो अक्षर परलोकके लिये पाथेय, अनामय, मोक्ष-साधन एवं पुण्यसमूहका एकमात्र स्थान हैं ॥ ५१ ॥ शिवनामैव संसारमहारोगेकशामकम् । नान्यत्संसाररोगस्य शामकं दृश्यते मया ॥ ५२ ॥ संसाररूपी महारोगोंका नाश करनेवाला [एकमात्र] शिव नाम ही है । मुझे संसाररूपी रोगका नाश करनेवाला अन्य कोई उपाय नहीं दिखायी देता है ॥ ५२ ॥ ब्रह्महत्यासहस्राणि पुरा कृत्वा तु पुल्कसः । शिवेति नाम विमलं श्रुत्वा मोक्षं गतः पुरा ॥ ५३ ॥ तस्माद्विवर्द्धयेद्भक्तिमीश्वरे सततं बुधः । शिवभक्त्या महाप्राज्ञ भुक्तिं मुक्तिं च विंदति ॥ ५४ ॥ प्राचीनकालमें पुल्कस हजारों ब्रह्महत्याएँ करके भी विमल शिवनामको सुनकर मुक्त हो गया । इसलिये बुद्धिमान्को चाहिये कि सदा ईश्वरके प्रति [अपनी] भक्ति बढ़ाये । हे महाप्राज्ञ ! शिवभक्तिसे प्राणी भोग तथा मोक्ष प्राप्त कर लेता है । ॥ ५३-५४ ॥ इति श्रीशिवमहापुराणे पञ्चम्यामुमासंहितायां मनुविशेषकथनं नाम विंशोऽध्यायः ॥ २० ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत पाँचवीं उमासंहितामें मनुविशेषकचन नामक बीसवां अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २० ॥ श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु |