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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥
॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥ पञ्चमी उमासंहितायां
एकविंशोऽध्यायः रणफलवर्णनम्
कर्मानुसार जन्मका वर्णनकर क्षत्रियके लिये संग्रामके फलका निरूपण व्यास उवाच - ब्राह्मणत्वं हि दुष्प्राप्यं निसर्गाद्ब्राह्मणो भवेत् । ईश्वरस्य मुखात्क्षत्रं बाहुभ्यामूरुतो विशः ॥ १ ॥ पद्भ्यां शूद्रः समुत्पन्न इति तस्य मुखाच्छ्रुतिः । किमु स्थितिमधःस्थानादाप्नुवन्ति ह्यतो वद ॥ २ ॥ व्यासजी बोले-स्वभावतः ब्राह्मणत्वकी प्राप्ति बहुत कठिन है । ईश्वरके मुखसे ब्राह्मण, भुजाओंसे क्षत्रिय और जंघासे वैश्य उत्पन्न हुए हैं, उनके चरणोंसे शूद्र उत्पन्न हुआ है-ऐसी बात उनके मुखसे सुनी गयी है । किंतु ऊपरसे नीचे मनुष्य क्यों जाते हैं, यह मुझे बतायें ॥ १-२ ॥ सनत्कुमार उवाच - दुष्कृतेन तु कालेय स्थानाद्भ्रश्यन्ति मानवाः । श्रेष्ठं स्थानं समासाद्य तस्माद्रक्षेत पण्डितः ॥ ३ ॥ यस्तु विप्रत्वमुत्सृज्य क्षत्रयोन्यां प्रसूयते । ब्राह्मण्यात्स परिभ्रष्टः क्षत्रियत्वं निषेवते ॥ ४ ॥ सनत्कुमार बोले-हे व्यास ! मानव बुरा आचरण करनेसे भ्रष्ट हो जाते हैं, अतः विद्वान्को चाहिये कि श्रेष्ठ स्थान प्राप्तकर उसकी रक्षा करे । जो विप्रत्वका परित्यागकर क्षत्रियामें पुत्रोत्पत्ति करता है, वह ब्राह्मणत्वसे भ्रष्ट होकर क्षत्रियत्वका सेवन करता है ॥ ३-४ ॥ अधर्मसेवनान्मूढस्तथैव परिवर्तते । जन्मान्तरसहस्राणि तमस्याविशते यतः ॥ ५ ॥ तस्मात्प्राप्य परं स्थानं प्रमाद्यन्न तु नाशयेत् । स्वस्थानं सर्वदा रक्षेत्प्राप्यापि विपदो नरः ॥ ६ ॥ मूर्ख प्राणी अधर्मका आचरण करनेसे हजारों जन्मोंतक जन्म-मरणके चक्रमें घूमता रहता है और उसी अधर्मके कारण अन्धकारमें पड़ा रहता है, अतः मनुष्य श्रेष्ठ स्थानको प्राप्तकर प्रमाद न करे और उसे विनष्ट न करे, विपत्तियोंको सहकर भी सर्वदा अपने स्थानकी रक्षा करे ॥ ५-६ ॥ ब्राह्मणत्वं शुभं प्राप्य ब्राह्मण्यं योऽवमन्यते । भोज्याभोज्यं न जानाति स पुमान्क्षत्रियो भवेत् ॥ ७ ॥ जो मनुष्य श्रेष्ठ ब्राह्मणका जन्म प्राप्त करके भी ब्राह्मणत्वका तिरस्कार करता है एवं भक्ष्य-अभक्ष्य (गम्यागम्य, कार्याकार्यादि)-का विचार नहीं करता है, वह पुनः क्षत्रिय हो जाता है ॥ ७ ॥ कर्मणा येन मेधावी शूद्रो वैश्यो हि जायते । तत्ते वक्ष्यामि निखिलं येन वर्णोत्तमो भवेत् ॥ ८ ॥ बुद्धिसम्पन्न शूद्र जिस कर्मसे वैश्य हो जाता है और जिस कर्मसे वह क्रमशः उत्तम वर्णमें जन्म प्राप्त करता है, मैं वह सब आपसे कहता हूँ ॥ ८ ॥ शूद्रकर्म यथोद्दिष्टं शूद्रो भूत्वा समाचरेत् । यथावत्परिचर्यां तु त्रिषु वर्णेषु नित्यदा ॥ ९ ॥ कुरुते कामयानस्तु शूद्रोऽपि वैश्यतां व्रजेत् । यो योजयेद्धनैर्वैश्यो जुह्वानश्च यथाविधि ॥ १० ॥ अग्निहोत्रमुपादाय शेषान्न कृतभोजनः । स वैश्यः क्षत्रियकुले जायते नात्र संशयः ॥ ११ ॥ शूद्रकुलमें जन्म ग्रहणकर शास्वमें जैसा उसका कर्म बताया गया है, उसे करना चाहिये । जो [वर्णाभ्युदयकी] इच्छा रखता हुआ तीनों वर्गों की सेवारूप अपने कर्मका नित्य आचरण करता है, वह शूद्र भी वैश्यकुलमें जन्म प्राप्त कर लेता है । वैश्यकुलमें उत्पन्न जो व्यक्ति अपने धनोंसे विधिपूर्वक हवन करता और अग्निहोत्र सम्पन्नकर उससे बचे हुए अन्नका भोजन करता है, वह क्षत्रियकुलमें जन्म प्राप्त करता है, इसमें सन्देह नहीं है ॥ ९-११ ॥ क्षत्त्रियो जायते यज्ञैसंस्कृतैरात्तदक्षिणैः । अधीते स्वर्गमन्विच्छंस्त्रेताग्निशरणं सदा ॥ १२ ॥ आर्द्रहस्तपदो नित्यं क्षितिं धर्मेण पालयेत् । ऋतुकालाभिगामी च स्वभार्याधर्मतत्परः ॥ १३ ॥ सर्वातिथ्यं त्रिवर्गस्य भूतेभ्यो दीयतामिति । गोब्राह्मणात्मनोऽर्थं हि सङ्ग्रामाभिहतो भवेत् ॥ १४ ॥ तेनाग्निमन्त्रपूतात्मा क्षत्त्रियो ब्राह्मणो भवेत् । विधितो ब्राह्मणो भूत्वा याजकस्तु प्रजायते ॥ १५ ॥ स्वकर्मनिरतो नित्यं सत्यवादी जितेन्द्रियः । प्राप्यते विपुलः स्वर्गो देवानामपि वल्लभः ॥ १६ ॥ जो क्षत्रिय विपुल दक्षिणावाले संस्कारयुक्त यज्ञोंके द्वारा यजन करता है, स्वर्गकी कामना करता हुआ स्वाध्याय तथा [गार्हपत्यादि] तीनों अग्नियोंकी शुश्रूषा करता है, हाथ-पैर धोकर शुद्ध हो [भोजनादि क्रिया सम्पादित करता है तथा धर्मपूर्वक नित्य पृथ्वीका पालन करता है, धर्मपरायण होकर ऋतुकालमें ही अपनी भार्याके साथ समागम करता है, [धर्मादि] तीनों वर्गोका सेवन तथा अभ्यागतमात्रका आतिथ्य-सत्कार करता है, पंचभूत बलि प्रदान करता है और गौ, ब्राह्मण तथा अपने [राष्ट्रके] हितके लिये संग्राममें प्राणोंका त्याग कर देता है, उस कर्मक द्वारा अग्नि एवं मन्त्रसे पवित्र वह क्षत्रिय ब्राह्मणकुलमें जन्म ग्रहण करता है, इस प्रकार विधानपूर्वक ब्राह्मण होकर वह याजक हो जाता है । सदा अपने कर्मोमें संलग्न, सत्यवादी एवं जितेन्द्रिय वह ब्राह्मण देवताओंके लिये भी प्रिय होकर स्वर्गको प्राप्त कर लेता है ॥ १२-१६ ॥ ब्रह्मणत्वं हि दुष्प्राप्यं कृच्छ्रेण साध्यते नरैः । ब्राह्मण्यात्सकलं प्राप्य मोक्षश्चापि मुनीश्वर ॥ १७ ॥ तस्मात्सर्वप्रयत्नेन ब्राह्मणो धर्मतत्परः । साधनं सर्ववर्गस्य रक्षेद्ब्राह्मण्यमुत्तमम् ॥ १८ ॥ हे मुनीश्वर ! ब्राह्मणत्व अतिशय दुर्लभ है; मनुष्योंके द्वारा यह बहुत कष्टसे प्राप्त किया जाता है । ब्राह्मणत्वसे सब कुछ प्राप्त होता है, यहाँतक कि मनुष्य मोक्षतक प्राप्त कर लेता है । इसलिये ब्राह्मणको धर्मपरायण होकर पूर्ण प्रयत्नके साथ सभी पुरुषार्थोंके साधनस्वरूप उत्तम ब्राह्मणत्वकी रक्षा करनी चाहिये ॥ १७-१८ ॥ व्यास उवाच - सङ्ग्रामस्येह माहात्म्यं त्वयोक्तं मुनिसत्तम । एतदिच्छाम्यहं श्रोतुं ब्रूहि त्वं वदतां वर ॥ १९ ॥ व्यासजी बोले-हे मुनिश्रेष्ठ ! आपने [इस लोकमें क्षत्रियके लिये] युद्धका बहुत माहात्म्य कहा है, मैं इसे [विस्तारसे] सुनना चाहता हूँ । हे वक्ताओंमें श्रेष्ठ ! आप उसका वर्णन कीजिये ॥ १९ ॥ सनत्कुमार उवाच - अग्निष्टोमादिभिर्यज्ञैरिष्ट्वा विपुलदक्षिणैः । न तत्फलमवाप्नोति सङ्ग्रामे यदवाप्नुयात् ॥ २० ॥ इति तत्त्वविदः प्राहुर्यज्ञकर्मविदः सदा । तस्मात्तत्ते प्रवक्ष्यामि यत्फलं शस्त्रजीविनाम् ॥ २१ ॥ सनत्कुमार बोले- क्षत्रिय बहुत दक्षिणावाले अग्निष्टोम आदि यज्ञोंका अनुष्ठान करके भी उस फलको प्राप्त नहीं करता है, जो उसे युद्धमें मिलता है । यज्ञकर्मको जाननेवाले तत्त्वज्ञानियोंने ऐसा कहा है । अतः शस्वजीवियोंको जो फल प्राप्त होता है, उसका वर्णन मैं आपसे करता हूँ ॥ २०-२१ ॥ धर्मलाभोऽर्थलाभश्च यशोलाभस्तथैव च । यः शूरो वांछते युद्धं विमृन्दन्परवाहिनीम् ॥ २२ ॥ तस्य धर्मार्थ कामाश्च यज्ञश्चैव सदक्षिणः । परं ह्यभिमुखं दत्त्वा तद्यानं योऽधिरोहति ॥ २३ ॥ जो शूरवीर क्षत्रिय शत्रुकी सेनाको मसल डालता हुआ [निरन्तर धर्मपूर्वक] युद्धकी कामना करता है, उसे धर्म, अर्थ और कीर्तिकी प्राप्ति होती है । जो अपने शत्रुके सम्मुख उपस्थित होकर संग्राम करता है और उसकी गतिका अतिक्रमण करता है, उसे धर्म, अर्थ, काम और दक्षिणासहित किये गये यज्ञका फल प्राप्त होता है ॥ २२-२३ ॥ विष्णुलोके स जायेत यश्च युद्धेऽपराजितः । अश्वमेधानवाप्नोति चतुरो न मृतः स चेत् ॥ २४ ॥ यस्तु शस्त्रमनुत्सृज्य म्रियते वाहिनी मुखे । सम्मुखो वर्तते शूरः स स्वर्गान्न निवर्तते ॥ २५ ॥ जो क्षत्रिय युद्धमें अपराजित होता है, वह विष्णुलोकको जाता है । यदि वह संग्राममें मृत्युको प्राप्त नहीं हुआ, तो चार अश्वमेध यज्ञोंका फल प्राप्त करता है । जो शस्त्र धारण करके रणभूमिमें और सेनाके अभिमुख हो बुद्ध करते हुए प्राणत्याग कर देता है, वह वीर स्वर्गसे नहीं लौटता है ॥ २४-२५ ॥ राजा वा राजपुत्रो वा सेनापतिरथापि वा । हतक्षात्रेण यः शूरस्तस्य लोकोऽक्षयो भवेत् ॥ २६ ॥ यावन्ति तस्य रोमाणि भिद्यन्तेऽस्त्रैर्महाहवे । तावतो लभते लोकान्सर्वकामदुघाऽक्षयान् ॥ २७ ॥ वीरासनं वीरशया वीरस्थानस्थितिः स्थिरा । सर्वदा भवति व्यास इह लोके परत्र च ॥ २८ ॥ राजा, राजपुत्र अथवा सेनापति जो भी शूर क्षत्रिय-धर्मसे प्राणत्याग कर देता है, उसे अक्षय लोककी प्राप्ति होती है । महासंग्राममें अस्त्रोंसे उसके जितने रोमोंका भेदन होता है, वह सभी कामनाओंको पूर्ण करनेवाले उतने ही अक्षय लोकोंको प्राप्त करता है । हे व्यास ! वीरासन, वीरशय्या और वीरस्थानकी स्थिति उसके लिये इस लोकमें और परलोकमें सर्वथा स्थिर रहती है ॥ २६-२८ ॥ गवार्थे ब्राह्मणार्थे च स्थानस्वाम्यर्थमेव च । ये मृतास्ते सुखं यान्ति यथा सुकृतिनस्तथा ॥ २९ ॥ यः कश्चिद्ब्राह्मणं हत्वा पश्चात्प्राणान्परित्यजेत् । तत्रासौ स्वपतेर्युद्धे स स्वर्गान्न निवर्तते ॥ ३० ॥ गौ, ब्राह्मण, राष्ट्र एवं स्वामीके लिये जो प्राणोंका त्याग करते हैं, वे पुण्यात्माओंकी भाँति [परलोक जाकर] सुख प्राप्त करते हैं । जो अपने राजाके लिये युद्धमें [धर्मपूर्वक लड़ता हुआ] ब्राह्मणको भी मारकर बादमें स्वयं प्राणत्याग करता है, वह स्वर्गसे नहीं लौटता है ॥ २९-३० ॥ क्रव्यादैर्दतिभिश्चैव हतस्य गतिरुत्तमा । द्विजगोस्वामिनामर्थे भवेद्विपुलदाक्षया ॥ ३१ ॥ शक्नोत्विह समर्थश्च यष्टुं क्रतुशतैरपि । आत्मदेहपरित्यागः कर्तुं युधि सुदुष्करः . ॥ ३२ ॥ संग्राममें मांसका भक्षण करनेवाले जन्तुओं एवं हाथियोंके द्वारा मारे गये व्यक्तिकी भी उत्तम गति होती है और ब्राह्मण, गौ तथा अपने स्वामीके लिये प्राणका परित्याग करनेवालेको विपुल पुण्यदायिनी अक्षय गतिकी प्राप्ति होती है । व्यक्ति सैकड़ों यज्ञोंका अनुष्ठान करनेमें समर्थ हो सकता है, किंतु युद्ध में अपने शरीरका परित्याग करना बहुत ही कठिन है ॥ ३१-३२ ॥ युद्धं पुण्यतमं स्वर्ग्यं रूपज्ञं सर्वतोमुखम् । सर्वेषामेव वर्णानां क्षत्रियस्य विशेषतः ॥ ३३ ॥ भृशं चैव प्रवक्ष्यामि युद्धधर्मं सनातनम् । यादृशाय प्रहर्तव्यं यादृशं परिवर्जयेत् ॥ ३४ ॥ संग्राम सभी वर्गों के लिये, विशेषकर क्षत्रियके लिये सब प्रकारसे पुण्यप्रद, स्वर्गप्रद तथा स्वरूप प्रदान करनेवाला है । अब मैं सनातन युद्धधर्मको विस्तारके साथ कहता हूँ । जिस तरहके व्यक्तिपर प्रहार करना चाहिये और जिसे छोड़ देना चाहिये ॥ ३३-३४ ॥ आततायिनमायान्तमपि वेदान्तगं द्विजम् । जिघांसन्तं जिघांसेत्तु न तेन ब्रह्महा भवेत् ॥ ३५ ॥ मारनेके लिये आते हुए वेदान्तपारंगत आततायी ब्राह्मणको भी मार देना चाहिये, इससे व्यक्ति ब्रह्महत्यारा नहीं होता है ॥ ३५ ॥ हन्तव्योऽपि न हन्तव्यः पानीयं यश्च याचते । रणे हत्वातुरान्व्यास स नरो ब्रह्महा भवेत् ॥ ३६ ॥ हे व्यास ! मारनेके योग्य मनुष्य भी यदि [प्याससे पीड़ित होकर] जल माँगे, तो उसका वध नहीं करना चाहिये; संग्राममें रोगियों (जलादिकी कामनासे व्याकुल)को मारनेसे वह मनुष्य ब्रह्मघाती हो जाता है ॥ ३६ ॥ व्याधितं दुर्बलं बालं स्त्र्यनाथौ कृपणं ध्रुवम् । धनुर्भग्नं छिन्नगुणं हत्वा वै ब्रह्महा भवेत् ॥ ३७ ॥ रोगग्रस्त, दुर्बल, बालक, स्त्री, अनाथ, कृपण, टूटे हुए धनुषवाले, टूटी हुई धनुषकी डोरीवाले व्यक्तिको [युद्धमें] मारनेसे निश्चितरूपसे ब्रह्महत्याका पाप लगता है ॥ ३७ ॥ एवं विचार्य सद्धीमान्भवेत्प्रीत्याः रणप्रियः । सजन्मनः फलं प्राप्य परत्रेह प्रमोदते ॥ ३८ ॥ इस प्रकार विचार करके जो बुद्धिमान् व्यक्ति उत्साहसे युद्ध करता है, वह [इस] जन्मका फल प्राप्त करके इस लोक तथा परलोकमें आनन्दित होता है ॥ ३८ ॥ इति श्रीशिवमहापुराणे पञ्चम्यामुमासंहितायां रणफलवर्णनं नामैकविंशोऽध्यायः ॥ २१ ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत पाँचवीं उमासंहितामें रणफलवर्णन नामक इक्कीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २१ ॥ श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु |