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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥

॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥

पञ्चमी उमासंहितायां

द्वाविंशोऽध्यायः


देहोत्पत्तिवर्णनम्
देहकी उत्पत्तिका वर्णन


व्यास उवाच -
विधिं तात वदेदानीं जीव जन्मविधानतः ।
गर्भे स्थितिं च तस्यापि वैराग्यार्थं मुनीश्वर ॥ १ ॥
व्यासजी बोले-हे मुनीश्वर ! हे तात ! रागनिवृत्तिके लिये इस समय विधिपूर्वक जीवके जन्म तथा गर्भमें उसकी स्थितिका वर्णन कीजिये ॥ १ ॥

सनत्कुमार उवाच -
शृणु व्यास समासेन शास्त्रसारमशेषतः ।
वदिष्यामि सुवैराग्यं मुमुक्षोर्भवबंधकृत् ॥ २ ॥
सनत्कुमार बोले-हे व्यास ! अब मैं संक्षेपमें सम्पूर्ण शास्त्रोंके साररूप उत्तम वैराग्यका वर्णन करूँगा, जो मुमुक्षुजनके संसाररूप बन्धनको काटनेवाला है ॥ २ ॥

पाकपात्रस्य मध्ये तु पृथगन्नं पृथग्जलम् ।
अग्नेरूर्ध्वं जलं स्थाप्यं तदन्नं च जलोपरि ॥ ३ ॥
जलस्याधः स चाग्निर्हि स्थितोऽग्निं धमते शनैः ।
वायुनाधम्यमानोऽग्निरत्युष्णं कुरुते जलम् ॥ ४ ॥
पाकपात्रके मध्य स्थित अन्न और जल अलगअलग रहते हैं । अग्निके ऊपर जल रहता है तथा जलके ऊपर अन्न रखा जाता है । जलके नीचे स्थित अग्निको वायु धीरे-धीरे प्रज्वलित करता है, वायुसे प्रेरित हुई अग्नि जलको उष्ण करती है ॥ ३-४ ॥

तदन्नमुष्णतोयेन समन्तात्पच्यते पुनः ।
द्विधा भवति तत्पक्वं पृथक्किट्टं पृथग्रसः ॥ ५ ॥
मलैर्द्वादशभिः किट्टं भिन्नं देहाद्‌बहिर्भवेत् ।
रसस्तु देहे सरति स पुष्टस्तेन जायते ॥ ६ ॥
कर्णाक्षिनासिका जिह्वा दन्ताः शिश्नो गुदं नखाः ।
मलाश्रयः कफः स्वेदो विण्मूत्रं द्वादश स्मृताः ॥ ७ ॥
गर्म हुए जलसे उस अन्नका भलीभाँत परिपाक होता है । पका हुआ अन्न खा लेनेपर दो भागोंमें विभक्त हो जाता है, किट्ट अलग और रस अलग हो जाता है । वह किट्ट बारह मलोंके रूपमें बँटकर शरीरसे बाहर निकलता है । रस देहमें फैलता है, वह देह उससे पुष्ट होता है । कान, नेत्र, नासिका, जिह्वा, दाँत, लिंग, गुदा, नख-ये मलाश्रय हैं तथा कफ, पसीना, विष्ठा और मूत्र-ये मल हैं, सभी मिलाकर बारह कहे गये हैं ॥ ५-७ ॥

हृत्पद्मे प्रतिबद्धाश्च सर्वनाड्यः समन्ततः ।
ज्ञेया रसप्रवाहिन्यस्तत्प्रकारं ब्रुवे मुने ॥ ८ ॥
तासां मुखेषु तं सूक्ष्मं प्राणः स्थापयेत् रसम् ।
रसेन तेन नाडीस्ताः प्राणं पूरयते पुनः ॥ ९ ॥
हृदयकमलमें चारों ओरसे समस्त नाड़ियाँ बँधी हुई हैं, उन्हें रसवाहिनियाँ जानना चाहिये । हे मुने ! मैं उनकी [संचरण] विधि कहता हूँ । प्राणवायु उन नाड़ियोंके मुखोंमें उस सूक्ष्म रसको स्थापित करता है, इसके बाद प्राण रससे उन नाड़ियोंको सन्तृप्त करता है ॥ ८-९ ॥

पुनः प्रयान्ति संपूर्णास्ताश्च देहं समन्ततः ।
ततः स नाडीमध्यस्थः शरीरेणात्मना रसः ॥ १० ॥
पच्यते पच्यमानाच्च भवेत्पाकद्वयं पुनः ।
त्वक् तया वेष्ट्यते पूर्वं रुधिरं च प्रजायते ॥ ११ ॥
रक्ताल्लोमानि मांसं च केशाः स्नायुश्च मांसतः ।
स्नायुतश्च तथास्थीनि नखा मज्जास्थिसंभवाः ॥ १२ ॥
मज्जाकारणवैकल्यं शुक्रं हि प्रसवात्मकम् ।
इति द्वादशधान्नस्य परिणामः प्रकीर्तिताः ॥ १३ ॥
प्राणवायुसे समन्वित हो सभी नाड़ियाँ उस रसको सारे शरीरमें फैला देती हैं । इस प्रकार नाड़ियोंके बीच में प्रवाहित हुआ वह रस अपने शरीरद्वारा पकाया जाता है, इसके पाक हो जानेपर पुनः वह दो भागोंमें बँट जाता है । सबसे पहले उससे त्वचा बनती है, जो शरीरको वेष्टित करती है, बादमें रक्त बनता है । रक्तसे लोम और मांस बनते हैं, मांससे केश और स्नायु बनते हैं, स्नायुसे अस्थियाँ और अस्थियोंसे नख एवं मज्जा बनते हैं । मज्जासे प्रसवका कारणस्वरूप शुक्र बनता है, अन्नका यह बारह प्रकारका परिणाम कहा गया है ॥ १०-१३ ॥

शुक्रोऽन्नाज्जायते शुक्राद्दिव्यदेहस्य संभवः ।
ऋतुकाले यदा शुक्रं निर्दोषं योनिसंस्थितम् ॥ १४ ॥
तद्वा तद्वायुसंस्पृष्टं स्त्रीरक्तेनैकतां व्रजेत् ।
विसर्गकाले शुक्रस्य जीवः कारणसंयुतः ॥ १५ ॥
संवृतः प्रविशेद्योनिं कर्मभिः स्वैर्नियोजितः ।
तच्छुक्ररक्तमेकस्थमेकाहात्कलिलं भवेत् ॥ १६ ॥
पञ्चरात्रेण कलिलं बुद्‌बुदाकारतां व्रजेत् ।
बुद्‌बुदः सप्तरात्रेण मांसपेशी भवेत्पुनः ॥ १७ ॥
अन्नसे शुक्र बनता है और शुक्रसे दिव्य देहकी उत्पत्ति होती है । जब ऋतुकालमें निर्दोष शुक्र योनिमें स्थित होता है, तब वायुके द्वारा वह स्त्रीके रक्तमें मिलकर एक हो जाता है । जब शुक्र शरीरसे स्खलित होकर स्वीकी योनिमें प्रविष्ट होता है, तब उसी समय कारणदेहसे संयुक्त होकर जीव अपने कर्मवश निगूढरूपसे स्त्रीयोनिमें प्रविष्ट हो जाता है । वह शुक्र और रक्त मिलकर एक दिनमें कलल बनता है । वह कलल पाँच रातमें बुद्‌बुदके आकारका हो जाता है और बुदबुद सात रातमें मांसपेशी बन जाता है ॥ १४-१७ ॥

ग्रीवा शिरश्च स्कंधौ च पृष्ठवंशस्तथोदरम् ।
पाणिपादन्तथा पार्श्वे कटिर्गात्रं तथैव च ॥ १८ ॥
द्विमासाभ्यन्तरेणैव क्रमशः संभवेदिह ।
त्रिभिर्मासैः प्रजायन्ते सर्वे ह्यङ्‌कुरसंधयः ॥ १९ ॥
इसके बाद ग्रीवा, सिर, दोनों कन्धे, पीठ (तथा मेरुदण्ड), पेट, हाथ, पैर, दोनों पार्श्व, कमर और गात्र क्रमश: दो महीनेके भीतर बन जाते हैं । तीन महीनेमें सभी अंकुरसन्धियाँ [जोड़] बन जाती हैं ॥ १८-१९ ॥

मासैश्चतुर्भिरङ्‌गुल्यः प्रजायन्ते यथाक्रमम् ।
मुखं नासा च कर्णौ मासैः पञ्चभिरेव च ॥ २० ॥
दन्तपङ्‌क्तिस्तथा गुह्यं जायन्ते च नखाः पुनः ।
कर्णयोस्तु भवेच्छिद्रं षण्मासाभ्यन्तरेण तु ॥ २१ ॥
चार महीने में क्रमानुसार अँगुलियाँ बन जाती हैं । पाँच महीने में मुख, नासिका तथा कान उत्पन्न हो जाते हैं, तत्पश्चात् दाँतोंकी पंक्ति, गुह्यभाग और नख प्रकट हो जाते हैं । छ: महीनेके भीतर कानोंका छिद्र प्रकट हो जाता है ॥ २०-२१ ॥

पायुर्मेहमुपस्थं च नाभिश्चाभ्युपजायते ।
संधयो ये च गात्रेषु मासैर्जायन्ति सप्तभिः ॥ २२ ॥
सात महीनेमें गुदा, मेह-उपस्थेन्द्रिय, नाभि और अंगोंमें जो सन्धियाँ हैं-ये सब उत्पन्न हो जाते हैं ॥ २२ ॥

अङ्‌गप्रत्यङ्‌गसंपूर्णः परिपक्वः स तिष्ठति ।
उदरे मातुराच्छन्नो जरायौ मुनि सत्तम ॥ २३ ॥
हे मुनिश्रेष्ठ ! इस प्रकार अंग-प्रत्यंगसे पूर्ण वह जीव परिपक्व होकर जरायुसे लिपटा हुआ माताके उदरमें स्थित रहता है ॥ २३ ॥

मातुराहारचौर्येण षड्विधेन रसेन तु ।
नाभिनालनिबद्धेन वर्द्धते स दिनेदिने ॥ २४ ॥
नाभिनालमें बँधा हुआ वह [जीव] माताके आहारसे प्राप्त छ: प्रकारके रसोंसे प्रतिदिन बढ़ता रहता है ॥ २४ ॥

ततस्मृतिं लभेज्जीवः संपूर्णेऽस्मिञ्शरीरके ।
सुखं दुःखं विजानाति निद्रास्वप्नं पुराकृतम् ॥ २५ ॥
तत्पश्चात् शरीरके पूर्ण हो जानेपर उस जीवको स्मृति प्राप्त होती है । वह अपने पूर्वजन्मके किये गये कर्मों, सुख, दुःख, निद्रा एवं स्वप्नको जानने लगता है ॥ २५ ॥

मृतश्चाहं पुनर्जातो जातश्चाहं पुनर्मृतः ।
नानायोनिसहस्राणि मया दृष्टानि जायता ॥ २६ ॥
अधुना जातमात्रोऽहं प्राप्तसंस्कार एव च ।
श्रेयोऽमुना करिष्यामि येन गर्भे न संभवः ॥ २७ ॥
गर्भस्थश्चिन्तयत्येवमहं गर्भाद्विनिः सृतः ।
अन्वेष्यामि शिवज्ञानं संसारविनिवर्तकम् ॥ २८ ॥
मैं मरकर पुन: पैदा हुआ और पैदा होकर पुन: मरा, इस प्रकारसे जन्म लेते हुए मैंने हजारों योनियाँ देखीं । अब मैं उत्पन्न होते ही संस्कारयुक्त होकर इस शरीरसे उत्तम कर्म करूँगा, जिससे पुनः गर्भमें न आना पडे । गर्भमें स्थित वह जीव यही सोचता रहता है कि मैं गर्भसे निकलते ही संसारसे मुक्ति प्रदान करनेवाले शिवज्ञानका अन्वेषण करूँगा ॥ २६-२८ ॥

एवं स गर्भदुःखेन महता परिपीडितः ।
जीवः कर्मवशादास्ते मोक्षोपायं विचिन्तयन् ॥ २९ ॥
यथा गिरिवराक्रान्तः कश्चिद्दुःखेन तिष्ठति ।
तथा जरायुणा देही दुःखं तिष्ठति वेष्टितः ॥ ३० ॥
इस प्रकार कर्मवश महान् गर्भक्लेशसे सन्तप्त हुआ वह जीव मोक्षका उपाय सोचता हुआ वहाँ रहता है । जिस प्रकार बहुत बड़े पहाड़से दबा हुआ कोई मनुष्य बड़े कष्टसे स्थित रहता है, उसी प्रकार जरायुसे लिपटा हुआ जीव भी बड़े दुःखसे स्थित रहता है ॥ २९-३० ॥

पतितः सागरे यद्वद्दुःखमास्ते समाकुलः ।
गर्भोदकेन सिक्ताङ्‌गः सर्वदाकुलितस्तदा ॥ ३१ ॥
जैसे सागरमें गिरा हुआ मनुष्य व्याकुल होता है, उसी प्रकार गर्भजलसे सिक्त अंगोंवाला जीव भी सर्वदा व्याकल रहता है ॥ ३१ ॥

लोहकुंभे यथा न्यस्तः पच्यते कश्चिदग्निना ।
गर्भकुंभे तथा क्षिप्तः पच्यते जठराग्निना ॥ ३२ ॥
जिस प्रकार लोहेकी बटलोयीमें रखा गया कोई पदार्थ अग्निसे पकाया जाता है, उसी प्रकार गर्भकुम्भमें स्थित जीव भी जठराग्निसे पकाया जाता है ॥ ३२ ॥

सूचीभिरग्निवर्णाभिनिर्भिन्नस्य निरन्तरम् ।
यद्दुःखं जायते तस्य तत्र संस्थस्य चाधिकम् ॥ ३३ ॥
गर्भावासात्परं दुःखं कष्टं नैवास्ति कुत्रचित् ।
देहिनां दुःखबहुलं सुघोरमतिसङ्‌कटम् ॥ ३४ ॥
आगमें लाल की गयी सुइयोंसे निरन्तर बिंधे हुए प्राणीको जो कष्ट होता है, उससे भी अधिक कष्ट वहाँपर [गर्भाशयमें] स्थित उस जीवको सदा प्राप्त होता रहता है । शरीरधारियोंके लिये गर्भवाससे बड़ा उद्विग्न करनेवाला कष्ट अन्यत्र कहीं नहीं होता है, यह दु:ख महाघोर तथा बहुत संकट देनेवाला होता है ॥ ३३-३४ ॥

इत्येतत्सुमहद्दुःखं पापिनां परिकीर्तितम् ।
केवलं धर्मबुदीनां सप्तमासैर्भवः सदा ॥ ३५ ॥
मैंने यहाँ केवल पापियोंके अत्यधिक दुःखका वर्णन किया, धर्मात्माओंका जन्म तो सात ही मासमें हो जाता है ॥ ३५ ॥

गर्भात्सुदुर्लभं दुःखं योनियन्त्रनिपीडनात् ।
भवेत्पापात्मनां व्यास न हि धर्मयुतात्मनाम् ॥ ३६ ॥
इक्षुवत्पीड्यमानस्य यन्त्रेणैव समन्ततः ।
शिरसा ताड्यमानस्य पाप मुद्‌गरकेण च ॥ ३७ ॥
हे व्यास ! गर्भसे निकलते समय योनियन्त्रसे निपीडनके कारण महान् दुःख केवल पापियोंको होता है, धर्मात्माओंको नहीं होता है । जिस प्रकार ईखको कोल्हूमें डालकर उसे चारों ओरसे पेरा जानेपर उसका निपीडन होता है, उसी प्रकार पापरूपी मुद्‌गरसे सिरपर प्रहार होनेसे उन पापियोंको दुःख होता है ॥ ३६-३७ ॥

यन्त्रेण पीडिता यद्वन्निः साराः स्युस्तिलाः क्षणात् ।
तथा शरीरं निः सारं योनियन्त्रनिपीडनात् ॥ ३८ ॥
जिस प्रकार कोल्हूमें पेरे जानेपर तिल क्षणभरमें नि:सार हो जाते हैं, उसी प्रकार [जन्मकालमें] योनियन्त्रसे निपीडित होनेके कारण शरीर भी अशक्त हो जाता है ॥ ३८ ॥

अस्थिपादतुलास्तंभं स्नायुबन्धेन यन्त्रितम् ।
रक्तमांसमृदालिप्तं विण्मूत्रद्रव्यभाजनम् ॥ ३९ ॥
केशरोमनखच्छन्नं रोगायतनमातुरम् ।
वदनैकमहाद्वारं गवाक्षाष्टकभूषितम् ॥ ४० ॥
ओष्ठद्वयकपाटं च तथा जिह्वार्गलान्वितम् ।
भोगतृष्णातुरं मूढं रागद्वेषवशानुगम् ॥ ४१ ॥
संवर्तिताङ्‌गप्रत्यङ्‌गं जरायुपरिवेष्टितम् ।
सङ्‌कटेनाविविक्तेन योनिमार्गेण निर्गतम् ॥ ४२ ॥
विण्मूत्ररक्तसिक्ताङ्‌गं विकोशिकसमुद्‌भवम् ।
अस्थिपञ्जरविख्यातमस्मिञ्ज्ञेयं कलेवरम् ॥ ४३ ॥
इसमें इस शरीर [रूपी भवन]-को स्नायुबन्धनसे यन्त्रित अस्थिपाद-रूप तुलास्तम्भके समान रक्तमांसरूपी मिट्टीसे लिप्त विष्ठा-मूत्ररूपी द्रव्यका पात्र, केशरोम-नखोंसे ढका हुआ, रोगोंका घर, आतुरस्वरूप, मुखरूपी महाद्वारवाला, आठ छिद्ररूपी गवाक्षोंसे सुशोभित, दो ओठरूपी कपाटवाला, जीभरूपी अर्गलासे युक्त, भोग-तृष्णासे आतुर, अज्ञानमय राग-द्वेषके वशीभूत रहनेवाला, अंग-प्रत्यंगोंसे करवट लेता हुआ, जरायुसे परिवेष्टित, बड़े संकीर्ण योनिमार्गसे निर्गत, विष्ठामूत्र-रक्तसे सिक्त अंगोंवाला, विकोशिकासे उत्पन्न और अस्थि-पंजरसे युक्त जानना चाहिये ॥ ३९-४३ ॥

शतत्रयं षष्ट्यधिकं पञ्चपेशीशतानि च ।
सार्द्धाभिस्तिसृभिश्छन्नं समन्ताद्रोमकोटिभिः ॥ ४४ ॥
शरीरं स्थूलसूक्ष्माभिर्दृश्याऽदृश्या हि ताः स्मृताः ।
एतावतीभिर्नाडीभिः कोटिभिस्तत्समन्ततः ॥ ४५ ॥
अस्वेदमधुभिर्याभिरन्तस्थः स्रवते बहिः ।
द्वात्रिंशद्दशनाः प्रोक्ता विंशतिश्च नखाः स्मृताः ॥ ४६ ॥
इसमें तीन सौ पैंसठ पेशियाँ हैं और यह सभी ओरसे साढ़े तीन करोड़ रोमोंसे ढंका हुआ है । यह शरीर इतने ही करोड़ सूक्ष्म तथा स्थूल नाड़ियोंसे चारों ओरसे व्याप्त है, वे नाड़ियाँ दृश्य तथा अदृश्य कही गयी हैं । यह शरीर स्वेद एवं मधुविहीन नाड़ियोंसे रहित होकर भी [स्वेदादिके रूपमें] बाहर सवित होता रहता है । इस शरीरमें बत्तीस दाँत बताये गये हैं और बीस नख कहे गये हैं ॥ ४४-४६ ॥

पित्तस्य कुडवं ज्ञेयं कफस्याथाढकं स्मृतम् ।
वसायाश्च पलं विंशत्तदर्धं कपिलस्य च ॥ ४७ ॥
पञ्चार्द्धं तु तुला ज्ञेया पलानि दश मेदसः ।
पलत्रयं महारक्तं मज्जायाश्च चतुर्गुणम् ॥ ४८ ॥
शुक्रोर्द्धं कुडवं ज्ञेयं तद्‌बीजं देहिनां बलम् ।
मांसस्य चैकपिंडेन पलसाहस्रमुच्यते ॥ ४९ ॥
रक्तं पलशतं ज्ञेयं विण्मूत्रं यत्प्रमाणत ।
अंजलयश्च चत्वारश्चत्वारो मुनिसत्तम ॥ ५० ॥
इसमें पित्तका भाग एक कुडव (पावभर) जानना चाहिये, कफका भाग एक आड़क (चार सेर) कहा गया है । चरबीका भाग बीस पल और कपिलका भाग उसका आधा है । साढ़े पाँच पल तुला और मेदाका भाग दस पल जानना चाहिये । [इस शरीरमें] तीन पल महारक्त होता है और मज्जा इसकी चौगुनी होती है । इसमें आधा कुडव वीर्य समझना चाहिये, वही शरीरधारियोंका उत्पत्ति-बीज तथा बल है । मांसका परिमाण हजार पल कहा जाता है । हे मुनिश्रेष्ठ ! रक्तको सौ पल परिमाणका जानना चाहिये और चार-चार अंजलि विष्ठा तथा मूत्रका परिमाण होता है ॥ ४७-५० ॥

इति देहगृहं ह्येतन्नित्यस्यानित्यमात्मनः ।
अविशुद्धं विशुद्धस्य कर्मबंधाद्विनिर्मितम् ॥ ५१ ॥
इस प्रकार विशुद्ध नित्य आत्माका यह अनित्य एवं अपवित्र शरीररूपी घर कर्मबन्धनसे विनिर्मित है ॥ ५१ ॥

इति श्रीशिवमहापुराणे पञ्चम्यामुमासंहितायां
देहोत्पत्तिवर्णनं नाम द्वाविंशोऽध्यायः ॥ २२ ॥
इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत पाँचवीं उमासंहितामें देहोत्यत्तिवर्णन नामक बाईसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २२ ॥



श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु


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