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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥

॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥

पञ्चमी उमासंहितायां

त्रयोविंशोऽध्यायः


संसारचिकित्सायां देहा शुचित्वबाल्याद्यवस्थादुःखवर्णनम्
शरीरकी अपवित्रता तथा उसके बालादि अवस्थाओंमें प्राप्त होनेवाले दुःखोंका वर्णन


सनत्कुमार उवाच -
शृणु व्यास महाबुद्धे देहस्याशुचितां मुने ।
महत्त्वं च स्वभावस्य समासात्कथयाम्यहम् ॥ १ ॥
शुक्रशोणितसंयोगाद्देहः संजायते यतः ।
नित्यं विण्मूत्रसंपूर्णस्तेनायमशुचिः स्मृतः ॥ २ ॥
सनत्कुमार बोले-हे मुने ! हे महाबुद्धे ! हे व्यासजी ! सुनिये, अब मैं शरीरकी अपवित्रता तथा उसके आत्मभावके महत्त्वका संक्षिप्त रूपसे वर्णन कर रहा हूँ । चूँकि देह शुक्र और शोणितके मेलसे बनता है और यह विष्ठा तथा मूत्रसे सदा भरा रहता है, इसलिये इसे अपवित्र कहा गया है ॥ १-२ ॥

यथान्तर्विष्ठया पूर्णः शुचिमान्न बहिर्घटः ।
शोध्यमानो हि देहोऽयं तेनायमशुचिस्ततः ॥ ३ ॥
संप्राप्यातिपवित्राणि पञ्चगव्यहवींषि चा ।
अशुचित्वं क्षणाद्यान्ति किमन्यदशुचिस्ततः ॥ ४ ॥
जिस प्रकार भीतर विष्ठासे परिपूर्ण घट बाहरसे शुद्ध होता हुआ भी अपवित्र ही होता है, उसी प्रकार शुद्ध किया हुआ यह शरीर भी अपवित्र कहा गया है । अत्यन्त पवित्र पंचगव्य एवं हव्य आदि भी जिस शरीरमें जानेपर क्षणभरमें अपवित्र हो जाते हैं, उस शरीरसे अधिक अपवित्र और क्या हो सकता है ? ॥ ३-४ ॥

हृद्यान्यप्यन्नपानानि यं प्राप्य सुरभीणि च ।
अशुचित्वं प्रयान्त्याशु किमन्यदशुचिस्ततः ॥ ५ ॥
हे जनाः किन्न पश्यन्ति यन्निर्याति दिनेदिने ।
स्वदेहात्कश्मलं पूतिस्तदाधारः कथं शुचिः ॥ ६ ॥
अत्यन्त सुगन्धित एवं मनोहर अन्नपान भी जिसे प्राप्तकर शीघ्र ही अपवित्र हो जाते हैं, उससे अपवित्र और क्या हो सकता है ? हे मनुष्यो ! क्या तुमलोग नहीं देखते हो कि इस शरीरसे प्रतिदिन दुर्गन्धित मल-मूत्र बाहर निकलता है, फिर उसका आधार [यह देह] किस प्रकार शुद्ध हो सकता है ? ॥ ५-६ ॥

देहः संशोध्यमानोऽपि पञ्चगव्यकुशांबुभिः ।
घृष्यमाण इवाङ्‌गारो निर्मलत्वं न गच्छति ॥ ७ ॥
स्रोतांसि यस्य सततं प्रभवन्ति गिरेरिव ।
कफमूत्रपुरीषाद्यैः स देहः शुध्यते कथम् ॥ ८ ॥
पंचगव्य एवं कुशोदकसे भलीभाँति शुद्ध किया जाता हुआ देह भी मौजे जाते हुए कोयलेके समान निर्मल नहीं हो सकता है । पर्वतसे निकले हुए झरनेके समान जिससे कफ, मूत्र, विष्ठा आदि निरन्तर निकलते रहते हैं, वह शरीर भला शुद्ध किस प्रकार हो सकता है ? ॥ ७-८ ॥

सर्वाशुचिनिधानस्य शरीरस्य न विद्यते ।
शुचिरेकः प्रदेशोऽपि विण्मूत्रस्य दृतेरिव ॥ ९ ॥
सृष्ट्‍वात्मदेहस्रोतांसि मृत्तोयैः शोध्यते करः ।
तथाप्यशुचिभांडस्य न विभ्रश्यति किं करः ॥ १० ॥
विष्ठा-मूत्रकी थैलीकी भाँति सब प्रकारकी अपवित्रताके निधानरूप इस शरीरका कोई एक भी स्थान पवित्र नहीं है । अपने देहके स्रोतोंसे मल निकालकर जल और मिट्टीके द्वारा हाथ शुद्ध किया जाता है, किंतु सर्वथा अशुद्धिपूर्ण इस शरीररूपी पात्रका अवयव होनेसे हाथ किस प्रकार पवित्र रह सकता है ? ॥ ९-१० ॥

कायः सुगंधधूपाद्यैर्य न्नेनापि सुसंस्कृतः ।
न जहाति स्वभावं स श्वपुच्छमिव नामितम् ॥ ११ ॥
यथा जात्यैव कृष्णोर्थः शुक्लः स्यान्न ह्युपायतः ।
संशोद्ध्यमानापि तथा भवेन्मूर्तिर्न निर्मला ॥ १२ ॥
यत्‍नपूर्वक उत्तम गन्ध, धूप आदिसे भलीभाँति सुसंस्कृत भी यह शरीर कुत्तेकी पूँछकी तरह अपना स्वभाव नहीं छोड़ता है । जिस प्रकार स्वभावसे काली वस्तु अनेक उपाय करनेपर भी उज्ज्वल नहीं हो सकती, उसी प्रकार यह काया भी भलीभाँति शुद्ध करनेपर भी निर्मल नहीं हो सकती है ॥ ११-१२ ॥

जिघ्रन्नपि स्वदुर्गंधं पश्यन्नपि स्वकं मलम् ।
न विरज्येत लोकोऽयं पीडयन्नपि नासिकाम् ॥ १३ ॥
अपनी दुर्गन्धको सूंघता हुआ, अपने मलको देखता हुआ तथा अपनी नाकको दबाता हुआ भी यह संसार इससे विरक्त नहीं होता है ॥ १३ ॥

अहो मोहस्य माहात्म्यं येनेदं छादितं जगत् ।
शीघ्रं पश्यन्स्वकं दोषं कायस्य न विरज्यते ॥ १४ ॥
स्वदेहस्य विगंधेन न विरज्येत यो नरः ।
विरागकारणं तस्य किमेतदुपदिश्यते ॥ १५ ॥
अहो, महामोहकी महिमा है, जिसने इस संसारको आच्छादित कर रखा है । शरीरके अपने दोषको देखते हुए भी मनुष्य शीघ्र विरक्त नहीं होता है । जो मनुष्य अपने शरीरकी दुर्गन्धसे विरक्त नहीं होता, उसे वैराग्यका कौन-सा कारण बताया जा सकता है ? ॥ १४-१५ ॥

सर्वस्यैव जगन्मध्ये देह एवाशुचिर्भवेत् ।
तन्मलावयवस्पर्शाच्छुचिरप्यशुचिर्भवेत् ॥ १६ ॥
गंधलेपापनोदार्थ शौचं देहस्य कीर्तितम् ।
द्वयस्यापगमाच्छुद्धिः शुद्धस्पर्शाद्विशुध्यति ॥ १७ ॥
इस जगत्में सभीका शरीर अपवित्र है; क्योंकि उसके मलिन अवयवोंके स्पर्शसे पवित्र वस्तु भी अपवित्र हो जाती है । केवल इसके गन्धके लेपको दूर करनेके लिये देहशुद्धिकी विधि कही गयी है । गन्ध तथा लेपके दूर हो जानेसे शुद्धि हो जाती है, इसीलिये शुद्ध पदार्थक स्पर्श होनेसे शरीर शुद्ध होता है ॥ १६-१७ ॥

गङ्‌गातोयेन सर्वेण मृद्‌भारैः पर्वतोपमैः ।
आमृत्योराचरेच्छौचं भावदुष्टो न शुध्यति ॥ १८ ॥
गंगाके सम्पूर्ण जलसे एवं पर्वतके समान मिट्रीके ढेरसे भले ही कोई मरणपर्यन्त शुद्धि करता रहे, किंतु भावदुष्ट होनेपर वह शुद्ध नहीं होता है ॥ १८ ॥

तीर्थस्नानैस्तपोभिर्वा दुष्टात्मा नैव शुध्यति ।
श्वदृतिः क्षालिता तीर्थे किं शुद्धिमधिगच्छति ॥ १९ ॥
दुष्टात्मा तीर्थस्नानोंसे अथवा तपोंसे कदापि शुद्ध नहीं होता है । क्या तीर्थमें धोयी गयी कुत्तेकी खाल कभी शुद्ध हो सकती है ? ॥ १९ ॥

अन्तर्भावप्रदुष्टस्य विशतोऽपि हुताशनम् ।
न स्वर्गो नापवर्गश्च देहनिर्दहनं परम् ॥ २० ॥
सर्वेण गाङ्‌गेन जलेन सम्यङ् मृत्पर्वतेनाप्यथ भावदुष्टः ।
आजन्मनः स्नानपरो मनुष्यो न शुध्यतीत्येव वयं वदामः ॥ २१ ॥
दूषित मनोभाववाला [शुद्ध होनेके लिये भले ही अग्निमें प्रवेश करे तो उसका शरीर भस्म अवश्य हो जाता है, किंतु उसे स्वर्ग या अपवर्ग कुछ भी प्राप्त नहीं होता है । भावदुष्ट मनुष्य भले ही सम्पूर्ण गंगाजलसे तथा पर्वतके बराबर मिट्टीसे भलीभाँति जन्मभर स्नान करता रहे, फिर भी शुद्ध नहीं होता-ऐसा हमलोग कहते हैं ॥ २०-२१ ॥

प्रज्वाल्य वह्निं घृततैलसिक्तं प्रदक्षिणावर्तशिखं महान्तम् ।
प्रविश्य दग्धस्त्वपि भावदुष्टो न धर्ममाप्नोति फलं न चान्यत ॥ २२ ॥
गङ्‌गादितीर्थेषु वसन्ति मत्स्या देवालये पक्षिगणाश्च नित्यम् ।
भावोज्झितास्ते न फलं लभन्ते तीर्थावगाहाच्च तथैव दानात् ॥ २३ ॥
स्वभावदुष्ट व्यक्ति घी अथवा तेलसे विधिपूर्वक प्रज्वलित की गयी, दक्षिणावर्त चालाओंवाली प्रशस्त अग्निमें प्रविष्ट होकर भले ही भस्म हो जाय, किंतु उसे धर्म अथवा किसी अन्य फलकी प्राप्ति सम्भव नहीं है । गंगा आदि तीर्थों में मछलियाँ तथा देवालयोंमें पक्षी नित्य निवास करते हैं, किंतु वे भावहीन होनेके कारण फल नहीं पाते, उसी प्रकार भावदुष्टको तीर्थस्नान एवं दानसे कोई फल प्राप्त नहीं होता है ॥ २२-२३ ॥

भावशुद्धिः परं शौचं प्रमाणे सर्वकर्मसु ।
अन्यथाऽऽलिङ्‌ग्यते कान्ता भावेन दुहितान्यथा ॥ २४ ॥
मनसो भिद्यते वृत्तिरभिन्नेष्वपि वस्तुषु ।
अन्यथैव सुतं नारी चिन्तयत्यन्यथा पतिम् ॥ २५ ॥
सभी प्रकारके कर्मों में, भावशुद्धिको महान् शौच कहा गया है; क्योंकि कान्ताका आलिंगन अन्य भावसे किया जाता है और पुत्रीका आलिंगन अन्य भावसे किया जाता है । अभिन्न अर्थात् समान रूपवाली वस्तुओंमें भी मनके भेदके कारण भावभेद हो जाता है । स्त्री [अपने] पतिमें अन्य भाव रखती है और पुत्रके प्रति अन्य भाव रखती है ॥ २४-२५ ॥

पश्यध्वमस्य भावस्य महाभाग्यमशेषतः ।
परिष्वक्तोपि यन्नार्या भावहीनं न कामयेत् ॥ २६ ॥
नाद्याद्विविधमन्नाद्यं भक्ष्याणि सुरभीणि च ।
यदि चिन्तां समाधत्ते चित्ते कामादिषु त्रिषु ॥ २७ ॥
इस भावकी अपार महिमाको पूर्णरूपसे देखिये, स्त्रीसे आलिंगित होनेपर भी भावहीन स्त्रीके प्रति उसकी कामना नहीं होती । यदि चित्तमें काम, क्रोध एवं लोभइन तीनोंकी चिन्ता विद्यमान रहे, तो अनेक प्रकारके अन्नादि तथा स्वादिष्ट भोज्य पदार्थोंको मनुष्य [रुचिपूर्वक] नहीं खा सकता है ॥ २६-२७ ॥

गृह्यते तेन भावेन नरो भावाद्विमुच्यते ।
भावतः शुचि शुद्धात्मा स्वर्गं मोक्षं च विंदति ॥ २८ ॥
भावेनैकात्मशुद्धात्मा दहञ्जुह्वन्स्तुवन्मृतः ।
ज्ञानावाप्तेरवाप्याशु लोकान्सुबहुयाजिनाम् ॥ २९ ॥
भावना करनेसे ही मनुष्य बन्धनमें पड़ता है और उसमें भाव न रहनेसे उससे छुटकारा भी प्राप्त हो जाता है । भावसे शुद्ध आत्मावाला ही स्वर्ग और मोक्ष प्राप्त करता है । एकमात्र भावसे शुद्ध आत्मावाला जलता हुआ, होम करता हुआ तथा स्तुति करता हुआ यदि मर भी जाय तो उसे शीघ्रतासे ज्ञानप्राप्तिके पश्चात् याज्ञिकोंको मिलनेवाले लोक प्राप्त होते हैं ॥ २८-२९ ॥

ज्ञानामलांभसा पुंसां सद्वैराग्यमृदा पुनः ।
अविद्यारागविण्मूत्रलेपगंधविशोधनम् ॥ ३० ॥
एवमेतच्छरीरं हि निसर्गादशुचि स्मृतम् ।
त्वङ्मात्रसारं निःसारं कदलीसारसन्निभम् ॥ ३१ ॥
ज्ञानरूपी निर्मल जलसे और वैराग्यरूपी मृत्तिकासे मनुष्योंकी अविद्या रागरूपी मल-मत्रके लेपकी दुर्गन्ध दूर हो जाती है । यह शरीर तो स्वभावसे ही अपवित्र कहा गया है । जिसमें केवल त्वचा ही सार होती है, ऐसे केलेके वृक्षकी भाँति यह नि:सार है ॥ ३०-३१ ॥

ज्ञात्वैवं दोषवद्देहं यः प्राज्ञः शिथिलो भवेत् ।
देह भोगोद्‌भवाद्‌भावाच्छमचित्तः प्रसन्नधीः ॥ ३२ ॥
जो बुद्धिमान् पुरुष देहको इस प्रकारका दोषयुक्त जानकर विरक्त हो जाता है, वह शरीरके भोगोंसे उत्पन्न होनेवाले भावसे उपराम हुए चित्तवाला एवं निर्मल बुद्धिसे युक्त हो जाता है ॥ ३२ ॥

सोऽतिक्रामति संसारं जीवन्मुक्तः प्रजायते ।
संसारं कदलीसारदृढग्राह्यवतिष्ठते ॥ ३३ ॥
वह संसारसे पार हो जाता है और जीवन्मुक्त हो जाता है, किंतु जिसे संसारकी असारताका ज्ञान नहीं होता, वह केलेके खम्भेके समान [भंगुर संसारको नित्य मानकर] इसे दृढ़तासे पकड़े रहता है ॥ ३३ ॥

एवमेतन्महाकष्टं जन्म दुःखं प्रकीर्तितम् ।
पुंसामज्ञानदोषेण नानाकार्मवशेन च ॥ ३४ ॥
[हे व्यास !] इस प्रकार मनुष्योंके अज्ञानदोष तथा नाना प्रकारके कर्मोंके कारण होनेवाले उनके इस महाकष्टदायक जन्म-दुःखका वर्णन मैंने कर दिया ॥ ३४ ॥

श्लोकार्धेन तु वक्ष्यामि यदुक्तं ग्रन्थकोटिभिः ।
ममेति परमं दुःखं न ममेति परं सुखम् ॥ ३५ ॥
बहवोपीह राजानः परं लोक मितो गताः ।
निर्ममत्वसमेतास्तु बद्धाः शतसहस्रशः ॥ ३६ ॥
जो करोड़ों ग्रन्थोंमें कहा गया है, उसे मैं आधे श्लोकमें कहता हूँ । यह मेरा है' यह परम दुःख है और 'यह मेरा नहीं है'-यह परम सुख है । ममतासे रहित बहुत-से राजा यहाँसे परलोक चले गये, किंतु ममतावश लाखों लोग इसमें बँधे रह गये ॥ ३५-३६ ॥

गर्भस्थस्य स्मृतिर्यासीत्सा च तस्य प्रणश्यति ।
संमूर्छितेन दुःखेन योनियन्त्रनिपीडनात् ॥ ३७ ॥
गर्भ में स्थित जीवकी जो स्मृति थी, वह [जन्म लेते समय] योनियन्त्रके निपीडनके कारण मूञ्छित कर देनेवाले दुःखसे नष्ट हो जाती है ॥ ३७ ॥

बाह्येन वायुना वास्य मोहसङ्गेन देहिनः ।
स्पृष्टमात्रेण घोरेण ज्वरः समुपजायते ॥ ३८ ॥
तेन ज्वारेण महता सम्मोहश्च प्रजायते ।
सम्मूढस्य स्मृतिभ्रंशः शीघ्रं संजायते पुनः ॥ ३९ ॥
स्मृतिभ्रंशात्ततस्तस्य स्मृतिर्न्नोऽपूर्वकर्मणः ।
रतिः संजायते तूर्णं जन्तोस्तत्रैव जन्मनि ॥ ४० ॥
बाहरी वायुके स्पर्शसे अथवा चित्तके विकल होनेसे उसे घोर ज्वर हो जाता है । उस महाज्वरसे उसे सम्मोह उत्पन्न होता है और पुनः शीघ्र ही उस सम्मूढ़की स्मृतिका नाश हो जाता है । इसके बाद स्मृतिके नष्ट होते ही उसे अपने पूर्व कर्मोंका स्मरण नहीं रह जाता है और उस जीवको शीघ्र ही इसी जन्मसे अनुराग हो जाता है ॥ ३८-४० ॥

रक्तो मूढश्च लोकोऽयं न कार्ये सम्प्रवर्तते ।
न चात्मानं विजानाति न परं न च दैवतम् ॥ ४१ ॥
न शृणोति परं श्रेयः सति कर्णेऽपि सन्मुने ।
न पश्यति परं श्रेयः सति चक्षुषि तत्क्षमे ॥ ४२ ॥
अनुरागयुक्त वह मूढ जीव शुभ कार्यमें प्रवृत्त नहीं होता है, तब वह अपनेको परायेको तथा परमेश्वरको भी जान नहीं पाता है । हे मुनिश्रेष्ठ ! कानके होनेपर भी वह परम कल्याणकी बात नहीं सुनता और आँखोंमें देखनेकी शक्ति होनेपर भी अपना परम कल्याण नहीं देखता है ॥ ४१-४२ ॥

समे पथि शनैर्गच्छन् स्खलतीव पदेपदे ।
सत्यां बुद्धौ न जानाति बोध्यमानो बुधैरपि ॥ ४३ ॥
संसारे क्लिश्यते तेन गर्भलोभवशानुगः ।
गर्भस्मृतेन पापेन समुज्झितमतिः पुमान् ॥ ४४ ॥
वह समतल मार्गमें शनैः-शनैः चलता हुआ भी पद पदपर फिसलता रहता है और विद्वानोंके द्वारा समझाया जानेपर तथा बुद्धिके रहनेपर भी समझ नहीं पाता है । गर्भवासके समय स्मरण किये गये पापोंसे बुद्धिको हटाकर अर्थात् जन्म-मरणादिके कारणभूत असत्कर्मोको भूलकर [सांसारिक सुखोंके] लोभवश विषयोंमें आबद्ध हुआ मनुष्य संसारमें आकर पुनः गर्भक्लेश प्राप्त करता है ॥ ४३-४४ ॥

इत्थं महत्परं दिव्यं शास्त्रमुक्तं शिवेन तु ।
तपसः कथनार्थाय स्वर्गमोक्षप्रसाधनम् ॥ ४५ ॥
इस प्रकार शिवजीने तपस्याका निरूपण करनेके लिये स्वर्ग एवं मोक्षके साधनभूत इस महान् तथा परम दिव्य शास्त्रको कहा है ॥ ४५ ॥

ये सत्यस्मिच्छिवे ज्ञाने सर्वकामार्थ साधने ।
न कुर्वन्त्यात्मनः श्रेयस्तदत्र महदद्‌भुतम् ॥ ४६ ॥
ये [संसारी] लोग सभी प्रकारके मनोरथोंको सिद्ध करनेवाले इस शिवज्ञानके रहते हुए भी अपना कल्याण नहीं कर पाते, यह तो महान् आश्चर्य है ! ॥ ४६ ॥

अव्यक्तेन्द्रियवृत्तित्वाद्‌बाल्ये दुःखं महत्पुनः ।
इच्छन्नपि न शक्नोति वक्तुं कर्त्तुं प्रतिक्रियाम् ॥ ४७ ॥
दन्तोत्थाने महद्दुःखमल्पेन व्याधिना तथा ।
बालरोगैश्च विविधै पीडा बालग्रहैरपि ॥ ४८ ॥
बाल्यावस्थामें इन्द्रियोंकी शक्ति प्रकट न होनेसे बहुत कष्ट उठाना पड़ता है, क्योंकि चाहते हुए भी वह कुछ कहनेमें तथा प्रतिक्रिया करनेमें समर्थ नहीं होता है । उस समय दाँतोंके निकलते समय उसे बहुत कष्ट होता है और थोड़ी-बहुत व्याधिसे अनेक प्रकारके बालरोगोंसे तथा बालग्रहोंसे भी पीड़ा होती है ॥ ४७-४८ ॥

क्वचित्क्षुत्तृट्परीताङ्‌गः क्वचित्तिष्ठति संरटन् ।
विण्मूत्रभक्षणाद्यं च मोहाद्‌बालः समाचरेत् ॥ ४९ ॥
बालक कभी भूख-प्याससे व्याकुल रहता है, कभी रोता रहता है और अज्ञानवश मल-मूत्र आदिका भक्षण भी करता रहता है ॥ ४९ ॥

कौमारे कर्णपीडायां मातापित्रोश्च साधनः ।
अक्षराध्ययनाद्यैश्च नानादुःखं प्रवर्तते ॥ ५० ॥
बाल्ये दुःखमतीत्यैव पश्यन्नपि विमूढधीः ।
न कुर्वीतात्मनः श्रेयस्तदत्र महदद्‌भुतम् ॥ ५१ ॥
कुमारावस्थामें कानोंकी पीड़ा एवं माता-पिताद्वारा अक्षराभ्यास-अध्ययनादि साधनोंमें लगाये जानेके कारण उसे अनेक प्रकारका कष्ट होता है । बाल्यकालके दुःखको जानकर एवं उसे देखकर भी वह मूढबुद्धि अपना कल्याण नहीं करता, यह तो महान् आश्चर्य है ! ॥ ५०-५१ ॥

प्रवृत्तेन्द्रियवृत्तित्वात्कामरोगप्रपीडनात् ।
तदप्राप्ते तु सततं कुतः सौख्यं तु यौवने ॥ ५२ ॥
यौवनावस्थामें इन्द्रियोंके सुखोंको भोगनेकी इच्छाके कारण तथा कामरोगसे पीड़ित होनेके कारण और बादमें उसके निरन्तर प्राप्त न होनेपर सुख कहाँ ? ॥ ५२ ॥

ईर्ष्यया च महद्दुःखं मोहाद्रक्तस्य तस्य च ।
नेत्रस्य कुपितस्येव त्यागी दुःखाय केवलम् ॥ ५३ ॥
ईर्ष्या, मोह आदि दोषोंसे रँगे हुए चित्तको तो क्लेश होता ही है, पर इन दोषोंका शमन भी बिना कष्टके नहीं हो सकता । जिस प्रकार [नेत्रव्याधिके कारण] लाल हुए नेत्रकी उपेक्षा तो यावज्जीवन कष्ट देती ही है, पर उपचार भी बिना कष्ट सहे हो नहीं सकता (अत: उचित तो यही है कि इन मनोविकारोंको मनमें आने ही न दिया जाय) ॥ ५३ ॥

न रात्रौ विंदते निद्रां कामाग्निपरिवेदितः ।
दिवापि च कुतः सौख्यमर्थोपार्जनचिन्तया ॥ ५४ ॥
स्त्रीष्वध्यासितचित्तस्य ये पुंसः शुक्रबिन्दवः ।
ते सुखाय न मन्यन्ते स्वेदजा इव ते तथा ॥ ५५ ॥
कामाग्निसे सन्तप्त रहनेके कारण उस कामी पुरुषको रातमें निद्रा नहीं आती और दिनमें अर्थोपार्जनको चिन्ताके कारण उसे सुख कहाँ ? स्त्रीमें आसक्त चित्तवाले पुरुषके जो वीर्यबिन्दु हैं, वे सुखके हेतु नहीं माने जा सकते, वे तो पसीनेकी बूंदोंके समान हैं ॥ ५४-५५ ॥

कृमिभिस्तुद्यमानस्य कुष्ठिनो वानरस्य च ।
कंडूयनाभितापेन यद्‌भवेत्स्त्रिषु तद्विदः ॥ ५६ ॥
कीड़ोंसे काटे जाते हुए कुष्ठी वानरको खुजलीके सन्ताप (जलन)-से जो सुख होता है, वही स्त्रियोंमें व्यक्तिको भी होता है, ऐसा विद्वज्जन कहते हैं ॥ ५६ ॥

यादृशं मन्यते सौख्यं गंडे पूतिविनिर्गमात् ।
तादृशं स्त्रीषु मन्तव्यं नाधिकं तासु विद्यते ॥ ५७ ॥
पके हुए फोड़ेसे मवादके निकल जानेपर जैसा सुख माना जाता है, उसी प्रकारका सुख विषयोपभोगमें मानना चाहिये, उनमें उससे अधिक सुख नहीं है ॥ ५७ ॥

विण्मूत्रस्य समुत्सर्गात्सुखं भवति यादृशम् ।
तादृशं स्त्रीषु विज्ञेयं मूढैः कल्पितमन्यथा ॥ ५८ ॥
नारीष्ववस्तुभूतासु सर्वदोषाश्रयासु वा ।
नाणुमात्रं सुखं तासु कथितं पञ्चचूडया ॥ ५९ ॥
विष्ठा और मूत्रके त्यागसे जैसा सुख होता है, वैसा ही सुख स्त्रीप्रसंगमें जानना चाहिये, किंतु मूोंने उसकी दूसरी ही कल्पना की है । अवस्तुस्वरूप तथा समस्त दोषोंकी आश्रयभूता उन नारियोंमें अणुमात्र भी सुख नहीं है-ऐसा पंचचूडाने कहा था ॥ ५८-५९ ॥

सम्माननावमानाभ्यां वियोगेनेष्टसङ्‌गमात् ।
यौवनं जरया ग्रस्तं क्व सौख्यमनुपद्रवम् ॥ ६० ॥
वलीपत्‍नितखालित्यैः शिथिलिकृतविग्रहम् ।
सर्वक्रियास्वशक्तिं च जरया जर्जरीकृतम् ॥ ६१ ॥
सम्मान, तिरस्कार, वियोग, अपने प्रियके संयोग तथा बुढ़ापेसे यौवन ग्रस्त है, अतः बाधारहित सुख कहाँ ? झुर्रियों, श्वेत केशों तथा गंजापनसे युक्त, शिथिल और बुढ़ापेसे शरीर जर्जर हो जानेपर सभी कार्यों में अक्षम हो जाता है ॥ ६०-६१ ॥

स्त्रीपुंसयौवनं हृद्यमन्योऽन्यस्य प्रियं पुरा ।
तदेव जरयाग्रस्तमनयोरपि न प्रियम् ॥ ६२ ॥
स्त्री-पुरुषका मनोहर यौवन जो पहले एकदूसरेको प्रिय था, वही बुढ़ापेसे ग्रस्त होनेपर इन दोनोंको आपसमें भी प्रिय नहीं रह जाता है ॥ ६२ ॥

अपूर्ववत्स्वमात्मानं जरया परिवर्तितम् ।
यः पश्यन्नपि रज्येत कोऽन्यस्तस्मादचेतनः ॥ ६३ ॥
जराभिभूतः पुरुषः पुत्रीपुत्रादिबांधवैः ।
आसक्तत्वाद्दुराधर्षैर्भृत्यैश्च परिभूयते ॥ ६४ ॥
बुढ़ापेके कारण परिवर्तित अपने शरीरको देखता हुआ भी [जो] नूतनके समान उससे अनुराग रखता है, उससे अधिक अज्ञानी और कौन होगा ? बुढ़ापेसे ग्रस्त हुआ मनुष्य असमर्थताके कारण पुत्री, पुत्र, भाई-बन्धु तथा कठोर स्वभाववाले भृत्योंसे तिरस्कृत किया जाता है ॥ ६३-६४ ॥

धर्ममर्थं च कामं वा मोक्षं वातिजरातुरः ।
अशक्तः साधितुं तस्माद्युवा धर्मं समाचरेत् ॥ ६५ ॥
बुढ़ापेसे ग्रस्त हुआ मनुष्य धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्षको सिद्ध करनेमें असमर्थ रहता है, अत: यौवनावस्थामें ही धर्माचरण कर लेना चाहिये ॥ ६५ ॥

इति श्रीशिवमहापुराणे पञ्चम्यामुमासंहितायां
संसारचिकित्सायां देहा शुचित्वबाल्याद्यवस्था-
दुःखवर्णनं नाम त्रयोविंशोऽध्यायः ॥ २३ ॥
इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत पाँचवीं उमासंहितामें संसारचिकित्सा में देहाशुचित्ववाल्याद्यवस्थादुःखवर्णन नामक तेईसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २३ ॥



श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु


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