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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥

॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥

पञ्चमी उमासंहितायां

चतुर्विंशोऽध्यायः


स्त्रीस्वभाववर्णनम्
नारदके प्रति पंचचूडा अप्सराके द्वारा स्त्रीके स्वभाव का वर्णन


व्यास उवाच -
कुत्सितं योषिदर्थं यत्संप्रोक्तं पञ्चचूडया ।
तन्मे ब्रूहि समासेन यदि तुष्टोऽसि मे मुने ॥ १ ॥
व्यासजी बोले-हे मुने ! यदि आप मुझसे सन्तुष्ट हैं तो स्त्रियोंकी जिस दुष्प्रवृत्तिको पंचचूडाने कहा है, उसे संक्षेपमें मुझसे कहिये ॥ १ ॥

सनत्कुमार उवाच -
स्त्रीणां स्वभावं वक्ष्यामि शृणु विप्र यथातथम् ।
यस्य श्रवणमात्रेण भवेद्वैराग्यमुत्तमम् ॥ २ ॥
सनत्कुमार बोले-हे विप्र ! सुनिये, मैं स्त्रियोंके स्वभावका यथार्थरूपमें वर्णन कर रहा हूँ, जिसके सुननेमात्रसे उत्तम वैराग्य हो जाता है ॥ २ ॥

स्त्रियो मूलं हि दोषाणां लघुचित्ताः सदा मुने ।
तदासक्तिर्न कर्तव्या मोक्षेप्सुभिरतन्द्रितैः ॥ ३ ॥
हे मुने ! क्षुद्रचित्तवाली स्त्रियाँ सदा दोषोंकी जड़ होती हैं । इसलिये सावधान मुमुक्षुओंको उनमें आसक्ति नहीं करनी चाहिये ॥ ३ ॥

अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।
नारदस्य च संवादं पुंश्चल्या पञ्चचूडया ॥ ४ ॥
लोकान्परिचरन्धीमान्देवर्षिर्नारदः पुरा ।
ददर्शाप्सरसं बालां पञ्चचूडामनुत्तमाम् ॥ ५ ॥
इस विषयमें व्यभिचारिणी पंचचूडाके साथ नारदजीके संवादरूप इस प्राचीन इतिहासको लोग उदाहृत करते हैं । पूर्वकालमें सम्पूर्ण लोकोंमें विचरण करते हुए बुद्धिमान् देवर्षि नारदने सुन्दरी बाला पंचचूडा नामक अप्सराको देखा ॥ ४-५ ॥

पप्रच्छाप्सरसं सुभ्रूं नारदो मुनिसत्तमः ।
संशयो हृदि मे कश्चित्तन्मे ब्रूहि सुमध्यमे ॥ ६ ॥
एवमुक्ता तु सा विप्रं प्रत्युवाच वराप्सरा ।
विषये सति वक्ष्यामि समर्थां मन्यसेऽथ माम् ॥ ७ ॥
मुनिश्रेष्ठ नारदने सन्दर भौंहोंवाली उस अप्सरासे पूछा-हे सुमध्यमे ! मेरे मनमें कुछ सन्देह है, तुम उसे बताओ । इस प्रकार पूछे जानेपर उस श्रेष्ठ अप्सराने विप्र नारदजीसे कहा-यदि आप मुझे उसके योग्य समझते हों और मैं कहनेमें समर्थ हुई तो आपके प्रश्नोंका उत्तर दूंगी ॥ ६-७ ॥

नारद उवाच -
न त्वामविषये भद्रे नियोक्ष्यामि कथंचन ।
स्त्रीणां स्वभावमिच्छामि त्वत्तः श्रोतुं सुमध्यमे ॥ ८ ॥
नारदजी बोले-हे भद्रे ! मैं तुम्हें किसी ऐसे कार्यमें प्रवृत्त नहीं करूँगा, जो तुम्हारी जानकारीसे बाहर हो । हे सुमध्यमे ! मैं तुमसे स्त्रियोंके स्वभावको सुनना चाहता हूँ ॥ ८ ॥

सनत्कुमार उवाच -
एतच्छ्रुत्वा वचस्तस्य देवर्षेरप्सरोत्तमा ।
प्रत्युवाच मुनीशं तं देवर्षिं मुनिसत्तमम् ॥ ९ ॥
सनत्कुमार बोले-हे व्यासजी ! देवर्षिका यह वचन सुनकर श्रेष्ठ अप्सरा मुनीश्वर देवर्षिसे कहने लगी- ॥ ९ ॥

पञ्चचूडोवाच -
मुने शृणु न शक्या स्त्री सती वै निंदितुं स्त्रिया ।
विदितास्ते स्त्रियो याश्च यादृश्यश्च स्वभावतः ॥ १० ॥
पंचचूडा बोली-हे मुने ! कोई स्त्री सती नारीकी निन्दा नहीं कर सकती है, जो स्त्रियाँ स्वभावसे जिस प्रकारकी होती हैं, उनके विषयमें आप जानते ही हैं ॥ १० ॥

न मामर्हसि देवर्षे नियोक्तुं प्रश्नमीदृशम् ।
इत्युक्त्वा साऽभवत्तूष्णीं पञ्चचूडाप्सरोवरा ॥ ११ ॥
अथ देवर्षिवर्यो हि श्रुत्वा तद्वाक्यमुत्तमम् ।
प्रत्युवाच पुनस्तां वै लोकानां हितकाम्यया ॥ १२ ॥
अत: हे मुने ! मुझे इस प्रकारके प्रश्नके समाधानमें नियुक्त मत कीजिये । ऐसा कहकर वह श्रेष्ठ अप्सरा पंचचूडा मौन हो गयी । तब उसका उत्तम वचन सुनकर देवर्षियोंमें श्रेष्ठ नारदजी लोगोंके हितकी कामनासे उससे पुनः कहने लगे- ॥ ११-१२ ॥

नारद उवाच -
मृषावादे भवेद्दोषः सत्ये दोषो न विद्यते ।
इति जानीहि सत्यं त्वं वदातस्तत्सुमध्यमे ॥ १३ ॥
नारदजी बोले-झूठ बोलनेमें दोष होता है, सत्य बोलने में दोष नहीं है-ऐसा तुम सत्य जानो, अतः हे सुमध्यमे ! तुम उसे बताओ ॥ १३ ॥

सनत्कुमार उवाच -
इत्युक्ता सा कृतमती रभसा चारुहासिनी ।
स्त्रीदोषाञ्शाश्वतान्सत्यान्भाषितुं संप्रचक्रमे ॥ १४ ॥
सनत्कुमार बोले-इस प्रकार बतानेके लिये बलात् प्रेरित किये जानेपर मनोहर हास्यवाली वह निश्चयपूर्वक स्त्रियोंके स्वाभाविक तथा सत्य दोषोंको कहने लगी ॥ १४ ॥

पञ्चचूडोवाच -
कुलीना नाथवन्त्यश्च रूपवन्त्यश्च योषितः ।
मर्यादासु न तिष्ठन्ति स दोषः स्त्रीषु नारद ॥ १५ ॥
न स्त्रीभ्यः किंचिदन्यद्वै पापीयस्तरमस्ति हि ।
स्त्रियो मूलं हि पापानां तथा त्वमपि वेत्थ ह ॥ १६ ॥
समाज्ञातानर्थवतः प्रतिरूपान् यथेप्सितान् ।
यतीनन्तरमासाद्य नालं नार्यः प्रतीक्षितुम् ॥ १७ ॥
पंचचूडा बोली-हे नारद ! कुलीन, पतिमती एवं सुन्दर रूपवाली स्त्रियाँ [भी कभी-कपी] मर्यादामें नहीं रहती हैं, यही दोष स्त्रियोंमें है । इस प्रकारकी स्त्रियाँ अपने पतिके परोक्षमें बिना जाने हुए भी धनवान, रूपवान् एवं अपनेको चाहनेवाले पुरुषोंकी कामना करती हैं और किसीकी प्रतीक्षा नहीं करतीं ॥ १५-१७ ॥

असद्धर्मस्त्वयं स्त्रीणामस्माकं भवति प्रभो ।
पापीयसो नरान् यद्वै लज्जां त्यक्त्वा भजामहे ॥ १८ ॥
स्त्रियं च यः प्रार्थयते सन्निकर्षं च गच्छति ।
ईषच्च कुरुते सेवां तमेवेच्छति योषितः ॥ १९ ॥
हे प्रभो ! हम-जैसी स्त्रियोंका यह एक बड़ा बुरा धर्म है, जो कि हम लज्जा छोड़कर अन्य पुरुषोंका भी सेवन करती हैं । जो मनुष्य स्त्रीको चाहता है, उसके समीप जाता है एवं थोड़ा भी उसकी सेवा करता है, उसे स्त्रियाँ चाहने लगती हैं ॥ १८-१९ ॥

अनर्थित्वान्मनुष्याणां भयात्पतिजनस्य च ।
मर्यादायाममर्यादाः स्त्रियस्तिष्ठन्ति भर्तृषु ॥ २० ॥
बिना मर्यादावाली स्त्रियाँ मनुष्योंके कामलोलुप न रहनेसे एवं पति आदिके भयसे ही अपने पतियोंकी मर्यादामें रहती हैं ॥ २० ॥

नासां कश्चिदमान्योऽस्ति नासां वयसि निश्चयः ।
सुरूपं वा कुरूपं वा पुमांसमुपभुंजते ॥ २१ ॥
न भयादथ वाक्रोशान्नार्थहेतोः कथंचन ।
न ज्ञातिकुलसम्बन्धास्त्रियस्तिष्ठन्ति भर्तृषु ॥ २२ ॥
इनके लिये अमान्य कोई नहीं है और न तो इनके लिये अवस्थाका ही कोई निश्चय है, ये सुरूप अथवा कुरूप किसी भी प्रकारके पुरुषका सेवन कर लेती हैं । ऐसी स्त्रियाँ न भयसे, न आक्रोशसे, न धनके निमित्त और न जातिकुलके सम्बन्धसे ही पतियोंके वशमें रहती हैं ॥ २१-२२ ॥

यौवने वर्तमानानामिष्टाभरणवाससाम् ।
नारीणां स्वैरवृत्तीनां स्पृहयन्ति कुलस्त्रियः ॥ २३ ॥
ऐसी स्त्रियाँ युवावस्थामें इच्छानुसार वस्त्र-आभूषण प्राप्त करनेवाली व्यभिचारिणी स्त्रियोंके साथकी अभिलाषा करती हैं ॥ २३ ॥

या हि शश्वद्‌बहुमता रक्ष्यन्ते दयिताः स्त्रियः ।
अपि ताः सम्प्रसज्जन्ते कुब्जान्धजडवामने ॥ २४ ॥
पङ्‌गुष्वपि च देवर्षे ये चान्ये कुत्सिता नराः ।
स्त्रीणामगम्यो लोकेषु नास्ति कश्चिन्महामुने ॥ २५ ॥
जो प्रिय स्त्रियाँ सर्वदा बहुत सम्मानित होकर रखी जाती हैं, वे भी कुबड़े, अन्धे, मूर्ख, बौने तथा लँगड़े मनुष्योंपर आसक्त हो जाती हैं । हे देवर्षे ! हे महामुने ! संसारमें अन्य भी जो निन्दित पुरुष हैं, उनमें कोई भी ऐसी स्त्रियोंके लिये अगम्य नहीं है ॥ २४-२५ ॥

यदि पुंसां गतिर्ब्रह्मन्कथंचिन्नोपपद्यते ।
अप्यन्योन्यं प्रवर्तन्ते न च तिष्ठन्ति भर्तृषु ॥ २६ ॥
हे ब्रह्मन् । स्त्रियाँ यदि किसी प्रकार पुरुषोंको प्राप्त नहीं कर पाती तो वे आपसमें भी आसक्त हो जाती हैं, परंतु अपने पतियोंके वशमें नहीं रहतीं ॥ २६ ॥

अलाभात्पुरुषाणां च भयात्परिजनस्य च ।
वधबन्धभयाच्चैव ता भग्नाशा हि योषितः ॥ २७ ॥
चलस्वभाव दुश्चेष्टा दुर्गाह्या भवतस्तथा ।
प्राज्ञस्य पुरुषस्येह यथा रतिपरिग्रहात् ॥ २८ ॥
पुरुषोंके प्राप्त न होनेसे, परिजनोंके भयसे और वध तथा बन्धनके भयसे ही वे स्त्रियाँ कामनारहित हुआ करती हैं । चंचल स्वभाववाली तथा बुरी चेष्टाओंवाली स्त्रियाँ भावक होनेके कारण बुद्धिमान् पुरुषके द्वारा भी दुर्ग्राह्य ही होती हैं, वे तो केवल संयोगसे ही अनुकूल हो सकती हैं ॥ २७-२८ ॥

नाग्निस्तुष्यति काष्ठानां नापगानां महोदधि ।
नान्तकः सर्वभूतानां न पुंसां वामलोचनाः ॥ २९ ॥
इदमन्यच्च देवर्षे रहस्यं सर्वयोषिताम् ।
दृष्ट्वैव पुरुषं सद्यो योनिः प्रक्लिद्यते स्त्रियाः ॥ ३० ॥
हे मुने ! जिस प्रकार आग काष्ठोंसे तृप्त नहीं होती, समुद्र नदियोंसे तृप्त नहीं होता तथा काल सभी जीवोंसे भी तृप्त नहीं होता, उसी प्रकार असती स्त्रियाँ भी पुरुषोंसे तृप्त नहीं होतीं । हे देवर्षे ! यह एक विशेष बात है कि पुरुषोंका अवलोकन करनेपर असती स्त्रियोंके अवयव विह्वल हो जाते हैं ॥ २९-३० ॥

सुस्नातं पुरुषं दृष्ट्‍वा सुगन्धं मलवर्जितम् ।
योनिः प्रक्लिद्यते स्त्रीणां दृतेः पात्रादिवोदकम् ॥ ३१ ॥
कायानामपि दातारं कर्त्तारं मानसान्त्वयोः ।
रक्षितारं न मृष्यन्ति भर्तारं परमं स्त्रियः ॥ ३२ ॥
सुगन्धका लेप किये हुए एवं अच्छी तरह स्नान किये हुए निर्मल पुरुषको देखकर पानीसे भरी मशकके समान स्वियोंमें आंगिक विकार परिलक्षित होने लगते हैं । दुष्ट स्त्रियाँ तो इच्छाओंको पूर्ण करनेवाले, मान देनेवाले. सान्त्वना प्रदान करनेवाले तथा रक्षा करनेवाले प्रिय स्वामीके भी वशमें नहीं रहती हैं ॥ ३१-३२ ॥

न कामभोगात्परमान्नालङ्‌कारार्थसंचयात् ।
तथा हितं न मन्यन्ते यथा रतिपरिग्रहात् ॥ ३३ ॥
अन्तकः शमनो मृत्युः पातालं वडवामुखम् ।
क्षुरधारा विषं सर्पो वह्निरित्येकतः स्त्रियः ॥ ३४ ॥
वे न सम्पूर्ण कामोंके भोगसे और न तो अलंकार तथा धनके संचयसे वैसा सुख मानती हैं, जैसा शृंगारिकताके परिग्रहसे मानती हैं । काल, कष्ट देनेवाला मृत्यु, पाताल, बड़वानल, छूरेकी धार, विष, सर्प एवं अग्नि-ये सभी एक ओर तथा स्त्रियाँ एक ओर हैं, अर्थात् इन काल आदिका सामर्थ्य सम्मिलित रूपसे ही स्त्रीसामर्थ्यके तुल्य हो सकता है ॥ ३३-३४ ॥

यतश्च भूतानि महान्ति पञ्च यतश्च लोको विहितो विधात्रा ।
यतः पुमांसः प्रमदाश्च निर्मिताः सदैव दोषः प्रमदासु नारद ॥ ३५ ॥
हे नारद ! ब्रह्माने जहाँसे पंच महाभूतों तथा जहाँसे लोकका निर्माण किया एवं जहाँसे स्त्री-पुरुषोंका निर्माण किया, वहींसे स्त्रियोंमें सर्वदा दोषका विधान किया है अर्थात् स्त्रियोंके ये दोष स्वाभाविक हैं ॥ ३५ ॥

सनत्कुमार उवाच -
इति श्रुत्वा वचस्तस्या नारदस्तुष्टमानसः ।
तथ्यं मत्वा ततस्तद्वै विरक्तोभूद्धि तासु च ॥ ३६ ॥
इत्युक्तः स्त्री स्वभावस्ते पञ्चचूडोक्त आदरात् ।
वैराग्यकारणं व्यास किमन्यच्छ्रोतुमर्हसि ॥ ३७ ॥
सनत्कुमार बोले-उसका वचन सुनकर नारदजी प्रसन्नचित्त हो गये और उसकी बात सत्य मानकर स्त्रियोंसे विरक्त हो गये । हे व्यास ! इस प्रकार मैंने पंचचूडाद्वारा कहे गये स्त्रियोंके स्वभावको आदरपूर्वक आपसे कह दिया, जो वैराग्यका कारण है, अब आप और क्या सुनना चाहते हैं ? ॥ ३६-३७ ॥

इति श्रीशिवमहापुराणे पञ्चम्यामुमासंहितायां
स्त्रीस्वभाववर्णनं नाम चतुर्विंशोऽध्यायः ॥ २४ ॥
इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत पाँचवीं उमासंहितामें स्त्रीस्वभाववर्णन नामक चौबीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २४ ॥



श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु


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