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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥
॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥ पञ्चमी उमासंहितायां
पञ्चविंशोऽध्यायः कालज्ञानवर्णनम्
मृत्युकाल निकट आनेके लक्षण व्यास उवाच - सनत्कुमार सर्वज्ञ त्वत्सकाशान्मया मुने । स्त्रीस्वभावः श्रुतः प्रीत्या कालज्ञानं वदस्व मे ॥ १ ॥ व्यासजी बोले-हे सनत्कुमार ! हे सर्वज्ञ ! हे मुने ! मैंने आपसे स्त्रियोंके स्वभावका वर्णन सुना, अब आप प्रेमपूर्वक मुझसे काल-ज्ञानका वर्णन कीजिये ॥ १ ॥ सनत्कुमार उवाच - इदमेव पुराऽपृच्छत्पार्वती परमेश्वरम् । श्रुत्वा नानाकथां दिव्यां प्रसन्ना सुप्रणम्य तम् ॥ २ ॥ सनत्कुमार बोले-हे व्यास ! पूर्वकालमें अनेक प्रकारकी दिव्य कथाका श्रवण करके प्रसन्न हुई पार्वतीने भी शंकरको प्रणामकर उनसे यही पूछा था ॥ २ ॥ पार्वत्युवाच - भगवंस्त्वत्प्रसादेन ज्ञातं मे सकलं मतम् । यथार्चनं तु ते देव यैर्मन्त्रैश्च यथाविधि ॥ ३ ॥ अद्यापि संशयस्त्वेकः कालचक्रं प्रति प्रभो । मृत्युचिह्नं यथा देव किं प्रमाणं यथायुषः ॥ ४ ॥ तथा कथय मे नाथ यद्यहं तव वल्लभा । इति पृष्टस्तया देव्या प्रत्युवाच महेश्वरः ॥ ५ ॥ पार्वती बोलीं-हे भगवन् ! हे देव ! विधिविधानसे जिन मन्त्रोंके द्वारा आपकी पूजा होती है, वह सब आपकी कृपासे मैंने जान लिया, किंतु हे प्रभो ! मुझे कालज्ञानके प्रति आज भी एक संशय बना हुआ है, हे देव ! मृत्युका चिह्न तथा आयुका प्रमाण क्या है ? हे नाथ ! यदि मैं आपकी प्रिया हूँ तो यह सब मुझसे कहिये । तब उन देवीके ऐसा पूछनेपर महेश्वर कहने लगे ॥ ३-५ ॥ ईश्वर उवाच - सत्यं ते कथयिष्यामि शास्त्रं सर्वोत्तमं प्रिये । येन शास्त्रेण देवेशि नरैः कालः प्रबुध्यते ॥ ६ ॥ अहः पक्षं तथा मासमृतुं चायनवत्सरौ । स्थूलसूक्ष्मगतैश्चिह्नैर्बहिरन्तर्गतैस्तथा ॥ ७ ॥ तत्तेहं सम्प्रवक्ष्यामि शृणु तत्त्वेन सुन्दरि । लोकानामुपकारार्थं वैराग्यार्थमुमेऽधुना ॥ ८ ॥ ईश्वर बोले-हे प्रिये ! हे देवेशि ! मैं सर्वश्रेष्ठ शास्त्रको तुमसे सत्य-सत्य कहूँगा, जिस शास्त्रके द्वारा मनुष्योंको कालका ज्ञान हो जाता है । हे उमे ! भीतरी एवं बाहरी, स्थूल एवं सूक्ष्म चिह्नोंद्वारा जिस प्रकार उसकी शेष आयुके दिन, पक्ष, मास, ऋतु, अयन एवं वर्षका ज्ञान हो जाता है; वह सब मैं लोककल्याण एवं वैराग्यके लिये तुमसे तत्त्वपूर्वक कहूँगा । हे सुन्दरि ! अब तुम श्रवण करो ॥ ६-८ ॥ अकस्मात्पांडुरं देहमूर्द्ध्वरागं समन्ततः । तदा मृत्युं विजानीयात्षण्मासाभ्यन्तरे प्रिये ॥ ९ ॥ हे प्रिये ! यदि मनुष्यका शरीर सभी ओरसे अचानक पीला पड़ जाय और ऊपरसे लाल दिखायी पड़ने लगे तो छ: मासके भीतर मृत्युको जानना चाहिये ॥ ९ ॥ मुखं कर्णौ तथा चक्षुर्जिह्वास्तम्भो यदा भवेत् । तदा मृत्युं विजानीयात्षण्मासाभ्यन्तरे प्रिये ॥ १० ॥ हे प्रिये । जब मुख, कान, आँख एवं जिह्वाका [अचानक] स्तम्भन हो जाय तो भी छः मासके भीतर मृत्युको जान लेना चाहिये ॥ १० ॥ रौरवानुगतं भद्र ध्वनिं नाकर्णयेद्द्रुतम् । षण्मासाभ्यन्तरे मृत्युर्ज्ञातव्यः कालवेदिभिः ॥ ११ ॥ हे भद्रे ! यदि पीछेसे आती हुई भयावह ध्वनि शीघ्र न सुनायी पड़े, तो भी कालवेत्ताओंको छ: मासके भीतर मृत्यु जान लेना चाहिये ॥ ११ ॥ रविसोमाग्निसंयोगाद्यदोद्योतं न पश्यति । कृष्णं सर्वं समस्तं च षण्मासं जीवितं तथा ॥ १२ ॥ सूर्य, चन्द्रमा एवं अग्निके रहनेपर भी यदि प्रकाश न दिखायी पड़े और सब कुछ काला दिखायी पड़े तो उसका जीवन छ: मासतक ही रहता है ॥ १२ ॥ वामहस्तो यदा देवि सप्ताहं स्पंदते प्रिये । जीवितं तु तदा तस्य मासमेकं न संशयः ॥ १३ ॥ हे देवि ! हे प्रिये ! जब बायाँ हाथ एक सप्ताहतक फड़कता रहे, तब उसका जीवन केवल एक महीनेभर रहता है, इसमें सन्देह नहीं है ॥ १३ ॥ उन्मीलयति गात्राणि तालुकं शुष्यते यदा । जीवितं तु तदा तस्य मासमेकं न संशयः ॥ १४ ॥ जब देहमें टूटन हो एवं तालु सूख जाय, तब उसका जीवन एक मासतक रहता है, इसमें सन्देह नहीं है ॥ १४ ॥ नासा तु स्रवते यस्य त्रिदोषे पक्षजीवितम् । वक्त्रं कंठं च शुष्येत षण्मासान्ते गतायुषः ॥ १५ ॥ त्रिदोष हो जानेपर जिसकी नासिका बहती रहे, उसका जीवन एक पक्षभर रहता है और जिसका कण्ठ एवं मुख सूखने लगे, वह छ: मासमें मृत्युको प्राप्त हो जाता है ॥ १५ ॥ स्थूलजिह्वा भवेद्यस्य द्विजाः क्लिद्यन्ति भामिनि । षण्मासाज्जायते मृत्युश्चिह्नैस्तैरुपलक्षयेत् ॥ १६ ॥ हे भामिनि ! जिसकी जीभ मोटी हो जाय और दाँतोंसे लार बहने लगे तो उन चिह्नोंसे जान लेना चाहिये कि छ: मासमें उसकी मृत्यु हो जायगी ॥ १६ ॥ अंबुतैलघृतस्थं तु दर्पणे वरवर्णिनि । न पश्यति यदात्मानं विकृतं पलमेव च ॥ १७ ॥ षण्मासायुः स विज्ञेयः कालचक्रं विजानता । अन्यच्च शृणु देवेशि येन मृत्युर्विबुद्ध्यते ॥ १८ ॥ शिरोहीनां यदा छायां स्वकीयामुपलक्षयेत् । अथवा छायया हीनं मासमेकं न जीवति ॥ १९ ॥ हे वरवर्णिनि ! जब मनुष्य जल, तेल, घी तथा दर्पणमें अपनी छाया न देख सके अथवा विकृत छाया दिखायी पड़े तो कालचक्रके जाननेवालोंको उसे छ: मासपर्यन्त आयुवाला जानना चाहिये । हे देवेशि । अब अन्य चिह्नोंको सुनिये, जिससे मृत्युका ज्ञान हो जाता है । जब मनुष्य अपनी छायाको सिरविहीन देखे अथवा [अपनेको] छायासे रहित देखे, तब वह एक मास भी जीवित नहीं रहता है ॥ १७-१९ ॥ आङ्गिकानि मयोक्तानि मृत्युचिह्नानि पार्वति । बाह्यस्थानि ब्रुवे भद्रे चिह्नानि शृणु सांप्रतम् ॥ २० ॥ हे पार्वति ! हे भद्रे ! मैंने इन अंगसम्बन्धी मृत्युचिहोंका वर्णन किया । हे भद्रे ! अब मैं बाहरी चिह्नोंको कह रहा हूँ, तुम सुनो ॥ २० ॥ रश्मिहीनं यदा देवि भवेत्सोमार्कमण्डलम् । दृश्यते पाटलाकारं मासार्दे्धेन विपद्यते ॥ २१ ॥ हे देवि ! जब सूर्यमण्डल अथवा चन्द्रमण्डल किरणोंसे रहित प्रतीत हो अथवा लाल वर्णवाला दिखायी पड़े, तब वह [व्यक्ति] आधे महीनेमें मर जाता है ॥ २१ ॥ अरुंधती महायानमिंदुलक्षणवर्जितम् । अदृष्टतारको योऽसौ मासमेकं स जीवति ॥ २२ ॥ जो [प्राणी] अरुन्धती तारा, महायान तथा चन्द्रमाको लक्षणोंसे हीन देखे या कि इनको देख न सके और तारोंको भी न देख सके तो वह एक मासपर्यन्त जीवित रहता है । ॥ २२ ॥ दृष्टे ग्रहे च दिङ्मोहः षण्मासाज्जायते ध्रुवम् । उतथ्यं न ध्रुवं पश्येद्यदि वा रविमण्डलम् ॥ २३ ॥ रात्रौ धनुर्यदापश्येन्मध्याह्ने चोल्कपातनम् । वेष्ट्यते गृध्रकाकैश्च षण्मासायुर्न संशयः ॥ २४ ॥ ग्रहोंके दिखायी पड़नेपर भी यदि दिशाभ्रम हो जाय |अथवा उतथ्य [नामक तारा], ध्रुव एवं सूर्यमण्डलको न देख सके तो उसकी मृत्यु छ: महीनेके भीतर हो जाती है । यदि [व्यक्ति] रात्रिमें इन्द्रधनुष एवं मध्याह्नमें उल्कापात देखे अथवा उसे काक और गीध घेरने लगें, तो छ: महीनेके भीतर मर जायगा, इसमें सन्देह नहीं है ॥ २३-२४ ॥ ऋषयः स्वर्गपंथाश्च दृश्यन्ते नैव चाम्बरे । षण्मासायुर्विजनीयात्पुरुषैः कालवेदिभिः ॥ २५ ॥ यदि [व्यक्तिको] आकाशमण्डलमें स्वर्गमार्ग [छायापथ] और सप्तर्षिगण न दिखायी पड़ें, तो कालवेत्ता पुरुष उसे छ: मासको आयुवाला समझें ॥ २५ ॥ अकस्माद्राहुणा ग्रस्तं सूर्यं वा सोममेव च । दिक्चक्रं भ्रान्तवत्पश्येत्षण्मासान्म्रियते स्फुटम् ॥ २६ ॥ यदि वह अचानक सूर्य अथवा चन्द्रमाको राहुके द्वारा ग्रस्त अथवा दिशाओंको घूमता हुआ देखे तो वह अवश्य ही छ: मासके भीतर मर जाता है ॥ २६ ॥ नीलाभिर्मक्षिकाभिश्च ह्यकस्माद्वेष्ट्यते पुमान् । मासमेकं हि तस्यायुर्ज्ञातव्यं परमार्थतः ॥ २७ ॥ गृध्रः काकः कपोतश्च शिरश्चाक्रम्य तिष्ठति । शीघ्रं तु म्रियते जन्तुर्मासैकेन न संशयः ॥ २८ ॥ यदि मनुष्यको अचानक नीले रंगकी मक्खियाँ घेर लें तो उसकी आयु निश्चितरूपसे एक मास जाननी चाहिये । यदि गीध, कौआ अथवा कबूतर सिरपर आकर बैठ जाय तो वह प्राणी शीघ्र ही एक मासके भीतर मर जाता है, इसमें सन्देह नहीं है ॥ २७-२८ ॥ एवं चारिष्टभेदस्तु बाह्यस्थः समुदाहृतः । मानुषाणां हितार्थाय सङ्क्षेपेण वदाम्यहम् ॥ २९ ॥ हस्तयोरुभयोर्देवि यथा कालं विजानते । वामदक्षिणयोर्मध्ये प्रत्यक्षं चेत्युदाहृतम् ॥ ३० ॥ इस प्रकार मनुष्योंके हितके लिये बाहरी अरिष्टलक्षणोंको कह दिया, अब अन्य लक्षण भी संक्षेपमें कहता हूँ । हे सुन्दरि ! जिस प्रकार मनुष्यको अपने बायें एवं दाहिने हाथमें प्रत्यक्ष आता हुआ काल दिखायी पड़ सके, वे सब लक्षण कहे जा रहे हैं ॥ २९-३० ॥ एवं पक्षौ स्थितौ द्वौ तु समासात्सुरसुंदरि । शुचिर्भूत्वा स्मरन्देवं सुस्नातः संयतेन्द्रियः ॥ ३१ ॥ हस्तौ प्रक्षाल्य दुग्धेनालक्तकेन विमर्दयेत् । गंधैः पुष्पैः करौ कृत्वा मृगयेच्च शुभाशुभम् ॥ ३२ ॥ हे सुरसुन्दरि ! इस प्रकार वे दोनों पक्ष स्थित हैं, ऐसा संक्षेपमें जानना चाहिये । उस समय पवित्र होकर शिवनामस्मरण करते हुए जितेन्द्रिय व्यक्ति भलीभांति स्नान करके दोनों हाथोंको दूधसे धोकर आलतासे रगड़े, पुनः हाथोंमें गन्ध एवं पुष्प लेकर शुभाशुभका विचार करे ॥ ३१-३२ ॥ कनिष्ठामादितः कृत्वा यावदङ्गुष्ठकं प्रिये । पर्वत्रयक्रमेणैव हस्तयोरुभयोरपि ॥ ३३ ॥ प्रतिपदादिविन्यस्य तिथिं प्रतिपदादितः । संपुटाकारहस्तौ तु पूर्वदिङ्मुखसंस्थितः ॥ ३४ ॥ स्मरेन्नवात्मकं मन्त्रं यावदष्टोत्तरं शतम् । निरीक्षयेत्ततो हस्तौ प्रतिपर्वणि यत्नतः ॥ ३५ ॥ तस्मिन्पर्वणि सा रेखा दृश्यते भृङ्गसन्निभा । तत्तिथौ हि मृतिर्ज्ञेया कृष्णे शुक्ले तथा प्रिये ॥ ३६ ॥ हे प्रिये ! कनिष्ठिकासे लेकर अंगुष्ठपर्यन्त दोनों हाथोंके तीन पोरोंपर क्रमसे प्रतिपदा आदिका न्यास करके प्रतिपदा आदि तिथियोंसे दोनों हाथोंको सम्पुटितकर पूर्वाभिमुख हो एक सौ आठ बार नवाक्षर मन्त्रका जप करे । इसके बाद यत्नपूर्वक दोनों हाथोंके प्रत्येक पर्वको देखे । हे प्रिये ! जिस पर्वपर भौरेके समान काली रेखा दिखायी पड़े, कृष्णपक्ष अथवा शुक्लपक्षमें उसी तिथिको मृत्यु जानना चाहिये ॥ ३३-३६ ॥ अधुना नादजं वक्ष्ये सङ्क्षेपात्काललक्षणम् । गमागमं विदित्वा तु कर्म कुर्याञ्छृणु प्रिये ॥ ३७ ॥ हे प्रिये ! अब मैं नादसे प्रकट होनेवाले काललक्षणको संक्षेपमें कहूँगा, उसका श्रवण करो, इसमें श्वासके गमन-आगमनको जानकर कर्म करना चाहिये ॥ ३७ ॥ आत्मविज्ञानं सुश्रोणि चारं ज्ञात्वा तु यत्नतः । क्षणं त्रुटिर्लवं चैव निमेषं काष्ठकालिकम् ॥ ३८ ॥ मुहूर्तकं त्वहोरात्रं पक्षमासर्तुवत्सरम् । अब्दं युगं तथा कल्पं महाकल्पं तथैव च ॥ ३९ ॥ एवं स हरते कालः परिपाट्या सदाशिवः । वामदक्षिणमध्ये तु पथि त्रयमिदं स्मृतम् ॥ ४० ॥ हे सुश्रोणि ! उस नादके दैनन्दिन संचारको जानकर यत्नसे अपना भी ज्ञान कर लेना चाहिये । क्षण, त्रुटि, लव, निमेष, काष्ठा, मुहूर्त, दिन-रात, पक्ष, मास, ऋतु, वत्सर, अब्द, युग, कल्प एवं महाकल्प-यही काल कहा जाता है, कालस्वरूप सदाशिव इसी परिपाटीसे संहरण करते हैं । वाम, दक्षिण एवं मध्य-ये संचारके तीन मार्ग कहे गये हैं ॥ ३८-४० ॥ दिनानि पञ्च चारभ्य पञ्चविंशद्दिनावधि । वामाचारगतौ नादः प्रमाणं कथितं तव ॥ ४१ ॥ भूतरंध्रदिशश्चैव ध्वजश्च वरवर्णिनि । वामचारगतौ नादः प्रमाणं कालवेदिनः ॥ ४२ ॥ पाँच दिनसे लेकर पच्चीस दिनपर्यन्त वामाचार गतिमें नाद होता है । यह नादप्रमाण मैंने आपसे कह दिया । हे वरवर्णिनि ! कालवेत्ताओंको भूत, रन्ध्र, दिशा, ध्वजारूप नादप्रमाण वामाचार गतिमें जानना चाहिये ॥ ४१-४२ ॥ ऋतोर्विकारभूताश्च गुणास्तत्रैव भामिनि । प्रमाणं दक्षिणं प्रोक्तं ज्ञातव्यं प्राणवेदिभिः ॥ ४३ ॥ भूतसंख्या यदा प्राणान्वहन्ते च इडादयः । वर्षस्याभ्यन्तरे तस्य जीवितं हि न संशयः ॥ ४४ ॥ हे भामिनि ! यदि उसमें ऋतुके विकारभूत गुण प्रतीत हों, तो उसे दक्षिण प्रमाणवाला नाद कहा गया है-ऐसा प्राणवेत्ताओंको जानना चाहिये और जब भूतसंख्यक इडादि नाड़ियाँ प्राणोंका वहन करती हैं, तो वर्षके भीतर मृत्यु हो जाती है, इसमें संशय नहीं है ॥ ४३-४४ ॥ दशघस्रप्रवाहेण ह्यब्दमानं स जीवति । पञ्चदशप्रवाहेण ह्यब्दमेकं गतायुषम् ॥ ४५ ॥ विंशद्दिनप्रवाहेण षण्मासं लक्षयेत्तदा । पञ्चविंशद्दिनमितं वहते वामनाडिका ॥ ४६ ॥ जीवितं तु तदा तस्य त्रिमासं हि गतायुषः । षड्विंशद्दिनमानेन मासद्वयमुदाहृतम् ॥ ४७ ॥ सप्तविंशद्दिनमितं वहतेत्यतिविश्रमा । मासमेकं समाख्यातं जीवितं वामगोचरे ॥ ४८ ॥ नाड़ियोंके दस दिनपर्यन्त चलनेसे वह वर्षभर जीता है और पन्द्रह दिनोंतक चलनेसे वह एक वर्षके भीतर ही मर जाता है । बीस दिनतक प्रवाहित होते रहनेसे छ: महीनेतक जीवित समझना चाहिये । यदि बायीं नाड़ी पन्द्रह दिनोंतक चलती रहे तो उस मरणोन्मुख व्यक्तिका जीवन तीन महीनेतक शेष रहता है । छब्बीस दिनतक प्रवाहित रहनेसे उसकी आयु दो मास कही गयी है । यदि नाड़ी सत्ताईस दिनतक बायीं ओर अविश्रान्त चलती रहे तो उसका जीवन एक मास शेष कहा गया है ॥ ४५-४८ ॥ एतत्प्रमाणं विज्ञेयं वामवायुप्रमाणतः । सव्येतरे दिनान्येव चत्वारश्चानुपूर्वशः ॥ ४९ ॥ चतुः स्थाने स्थिता देवि षोडशैताः प्रकीर्तिताः । तेषां प्रमाणं वक्ष्यामि साम्प्रतं हि यथार्थतः ॥ ५० ॥ इस प्रकार वाम वायुके प्रमाणसे नादका प्रमाण जानना चाहिये । दाहिनी ओर लगातार चलते रहनेसे चार दिनतक जीवन शेष रहता है । हे देवि ! नाड़ियाँ चार स्थानों में स्थित रहती हैं, सब मिलाकर ये सोलह नाड़ियाँ कही गयी हैं । अब मैं उनका ठीक-ठीक प्रमाण कहूँगा ॥ ४९-५० ॥ षड्दिनान्यादितः कृत्वा संख्यायाश्च यथाविधि । एतदन्तर्गते चैव वामरंध्रे प्रकाशितम् ॥ ५१ ॥ छ: दिनोंसे लेकर संख्याकी समाप्तितक अर्थात् नौ दिनतक वाम नासारन्ध्रमें प्राणवायुकी स्थितिका शास्वविधिसे विचार किया जाता है ॥ ५१ ॥ षड्दिनानि यदा रूढं द्विवर्षं च स जीवति । मासानष्टौ विजानीयाद्दिनान्यष्ट च तानि तु ॥ ५२ ॥ प्राणः सप्तदशे चैव विद्धि वर्षं न संशयः । सप्तमासान्विजानीयाद्दिनैः षड्भिर्न संशयः ॥ ५३ ॥ अष्टघस्रप्रभेदेन द्विवर्षं हि स जीवति । चतुर्मासा हि विज्ञेयाश्चतुर्विंशद्दिनावधिः ॥ ५४ ॥ यदि छः दिनतक नाद प्राणवायुपर चढ़ा रहे तो वह मनुष्य दो वर्ष आठ महीने आठ दिन जीता है ऐसा जानना चाहिये । यदि सत्रह दिनतक प्राण आरूढ़ रहे तो वह एक वर्ष सात महीने छः दिनतक जीता है, इसमें संशय नहीं है । आठ दिनतक निरन्तर प्राणवायुके चलनेसे वह दो वर्ष चार महीने चौबीस दिनतक जीता है ऐसा जानना चाहिये ॥ ५२-५४ ॥ यदा नवदिनं प्राणा वहन्त्येव त्रिमासकम् । मासद्वयं च द्वे मासे दिना द्वादश कीर्तिताः ॥ ५५ ॥ पूर्ववत्कथिता ये तु कालं तेषां तु पूर्वकम् । अवान्तरदिना ये तु तेन मासेन कथ्यते ॥ ५६ ॥ जब नौ दिन प्राणवायु चले तो सात महीने बारह दिनतक आयु कही गयी है । जो प्राण पहलेके समान कहे गये हैं, उनके अन्तर्गत उतने महीने और उतने दिनोंकी संख्या भी जान लेनी चाहिये ॥ ५५-५६ ॥ एकादश प्रवाहेण वर्षमेकं स जीवति । मासा नव तथा प्रोक्ता दिनान्यष्टमितान्यपि ॥ ५७ ॥ द्वादशेन प्रवाहेण वर्षमेकं स जीवति । मासान् सप्त विजानीयात्षड्घस्रांश्चाप्युदाहरेत् ॥ ५८ ॥ ग्यारह दिन लगातार प्राणवायु चलते रहनेपर वह एक वर्ष नौ महीने आठ दिनतक जीवित रहता है । बारह दिनतक प्रवाहित रहनेसे वह एक वर्ष सात महीने छः दिनतक जीता है-ऐसा जानना चाहिये ॥ ५७-५८ ॥ नाडी यदा च वहति त्रयोदशदिनावधि । सम्वत्सरं भवेत्तस्य चतुर्मासाः प्रकीर्तिताः ॥ ५९ ॥ चतुर्विशद्दिनं शेषं जीवितं च न संशयः । प्राणवाहा यदा वामे चतुर्दशदिनानि तु ॥ ६० ॥ सम्वत्सरं भवेत्तस्य मासाः षट् च प्रकीर्तिताः । चतुर्विंशद्दिनान्येव जीवितं च न संशयः ॥ ६१ ॥ यदि तेरह दिनतक नाड़ी चले तो [व्यक्तिकी आयु] एक वर्ष चार महीने चौबीस दिन [शेष] जानना चाहिये, इसमें संशय नहीं है । यदि प्राणवाही नाड़ियाँ चौदह दिन लगातार बायीं ओरसे चलें तो उसका जीवन एक वर्ष छः मास चौबीस दिनपर्यन्त शेष जानना चाहिये, इसमें संशय नहीं है ॥ ५९-६१ ॥ पञ्चदशप्रवाहेण नव मासान्स जीवति । चतुर्विशद्दिनान्येव कथितं कालवेदिभिः ॥ ६२ ॥ षोडशाहप्रवाहेण दशमासान्स जीवति । चतुर्विशद्दिनाधिक्यं कथितं कालवेदिभिः ॥ ६३ ॥ पन्द्रह दिनतक प्रवाहित रहनेसे वह नौ महीने चौबीस दिनतक जीवित रहता है-ऐसा कालवेत्ताओंने कहा है । सोलह दिनतक नाड़ीप्रवाहसे वह दस महीने चौबीस दिन जीवित रहता है-ऐसा कालविदोंने कहा है ॥ ६२-६३ ॥ सप्तदशप्रवाहेण नवमासैर्गतायुषम् । अष्टादशदिनान्यत्र कथितं साधकेश्वरि ॥ ६४ ॥ हे साधकेश्वरि ! सत्रह दिनतक प्रवाहसे नौ महीने अठारह दिनतक जीवन शेष कहा गया है ॥ ६४ ॥ वामचारं यदा देवि ह्यष्टादशदिनावधिः । जीवितं चाष्टमासं तु घस्रा द्वादश कीर्तिताः ॥ ६५ ॥ चतुर्विंशद्दिनान्यत्र निश्चयेनावधारय । हे देवि ! जब प्राणवायु बायीं ओर अठारह दिनोंतक चलता रहे तो आठ महीने बारह दिन अथवा चौबीस दिनतक जीवन शेष कहा गया है-ऐसा निश्चय समझिये ॥ ६५ १/२ ॥ प्राणवाहो यदा देवि त्रयोविंशद्दिनावधिः ॥ ६६ ॥ चत्वारः कथिता मासाः षड्दिनानि तथोत्तरे । चतुर्विंशप्रवाहेण त्रीन्मासांश्च स जीवति ॥ ६७ ॥ दिनान्यत्र दशाष्टौ च संहरन्त्येव चारतः । अवान्तरदिने यस्तु सङ्क्षेपात्ते प्रकीर्तितः ॥ ६८ ॥ हे देवि ! जब तेईस दिनतक प्राण प्रवाहित रहे तो चार महीने, छः दिनतक जीवन शेष कहा गया है । चौबीस दिनके प्रवाहसे वह तीन माह अठारह दिनतक जीवित रहता है । इस प्रकार मैंने प्राणवायुके संचारसे अवान्तर दिनके जीवनकालकी संख्या तुमसे कही ॥ ६६-६८ ॥ वामचारः समाख्यातो दक्षिणं शृणु सांप्रतम् । अष्टाविंशप्रवाहेण तिथिमानेन जीवति ॥ ६९ ॥ प्रवाहेण दशाहेन तत्संस्थेन विपद्यते । त्रिंशद्धस्रप्रवाहेन पञ्चाहेन विपद्यते ॥ ७० ॥ एकत्रिंशद्यदा देवि वहते च निरन्तरम् । दिनत्रयं तदा तस्य जीवितं हि न संशयः ॥ ७१ ॥ द्वात्रिंशत्प्राणसंख्या च यदा हि वहते रविः । तदा तु जीवितं तस्य द्विदिनं हि न संशयः ॥ ७२ ॥ इस प्रकार मैंने वामसंचार कह दिया, अब दक्षिण प्राणसंचारका श्रवण करो । अट्ठाईस दिनके प्रवाहसे वह पन्द्रह दिनोंतक जीता है । दस दिनके प्रवाहसे वह उतने ही [दस] दिनोंमें मर जाता है और तीस दिनके प्रवाहसे पाँच दिनोंमें मर जाता है । हे देवि ! जब इकतीस दिन लगातार प्राणवायु प्रवाहित होता रहे, तब उस व्यक्तिका जीवन तीन दिन रहता है, इसमें सन्देह नहीं है । जब सूर्य बत्तीस प्राणसंख्याका वहन करता है, तब उसका जीवन दो दिनतक रहता है, इसमें सन्देह नहीं है ॥ ६९-७२ ॥ दक्षिणः कथितः प्राणो मध्यस्थं कथयामि ते । एकभागगतो वायुप्रवाहो मुखमण्डले ॥ ७३ ॥ धावमानप्रवाहेण दिनमेकं स जीवति । चक्रमे तत्परासोर्हि पुराविद्भिरुदाहृतम् ॥ ७४ ॥ मैंने दक्षिण प्राणवायुका वर्णन किया, अब तुमसे मध्यस्थ प्राणका वर्णन करता हूँ । जब वायुका प्रवाह मुखमण्डलमें एक ओर हो, तब उस दौड़ते हुए प्रवाहसे वह एक दिन जीवित रहता है । इस प्रकार प्राचीन विद्वानोंने मरणोन्मुख व्यक्तिके कालचक्रका वर्णन किया है ॥ ७३-७४ ॥ एतत्ते कथितं देवि कालचक्रं गतायुषः । लोकानां च हितार्थाय किमन्यच्छ्रोतुमिच्छसि ॥ ७५ ॥ हे देवि ! मैंने लोकहितके निमित्त तुमसे समाप्त आयुवाले व्यक्तिके कालचक्रका वर्णन कर दिया । अब और क्या सुनना चाहती हो ? ॥ ७५ ॥ इति श्रीशिवमहापुराणे पञ्चम्यामुमासंहितायां कालज्ञानवर्णनं नाम पञ्चविंशोऽध्यायः ॥ २५ ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत पाँचवीं उमासंहितामें कालज्ञानवर्णन नामक पच्चीसवां अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २५ ॥ श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु |