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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥
॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥ पञ्चमी उमासंहितायां
षड्विंशोऽध्यायः कालवंचनवर्णनम्
योगियोंद्वारा कालकी गतिको टालनेका वर्णन देव्युवाच - कथितं तु त्वया देव कालज्ञानं यथार्थतः । कालस्य वंचनं ब्रूहि यथा तत्त्वेन योगिनः ॥ १ ॥ कालस्तु सन्निकृष्टो हि वर्तते सर्वजन्तुषु । यथा चास्य न मृत्युश्च वंचते कालमागतम् ॥ २ ॥ तथा कथय मे देव प्रीतिं कृत्वा ममोपरि । योगिनां च हिताय त्वं ब्रूहि सर्वसुखप्रद ॥ ३ ॥ देवी बोलीं-हे देव ! आपने यथार्थरूपसे कालज्ञानका वर्णन किया, योगिजन जिस प्रकार कालका वंचन करते हैं, आप उसे विधिपूर्वक कहिये । काल सभी प्राणियोंके सन्निकट घूमता है, किंतु योगी आये हुए कालको भी वंचित कर देता है, जिससे उसकी मृत्यु नहीं होती है । हे देव ! मेरे ऊपर कृपा करके आप इसका वर्णन करें । हे सर्वसुखद ! योगियोंके हितके लिये इसका वर्णन करें ॥ १-३ ॥ शङ्कर उवाच - शृणु देवि प्रवक्ष्यामि पृष्टोहं यत्त्वया शिवे । समासेन च सर्वेषां मानुषाणां हितार्थतः ॥ ४ ॥ पृथिव्यापस्तथा तेजो वायुराकाशमेव च । एतेषां हि समायोगः शरीरं पांचभौतिकम् ॥ ५ ॥ शिवजी बोले-हे देवि ! हे शिवे ! तुमने मुझसे जो पूछा है, उसे मैं सभी मनुष्योंके हितार्थ संक्षेपमें कहूँगा, तुम सुनो । पृथ्वी, जल, तेज, वायु एवं आकाशइनका समायोग ही पांचभौतिक शरीर है ॥ ४-५ ॥ आकाशस्तु ततो व्यापी सर्वेषां सर्वगः स्थितः । आकाशे तु विलीयन्ते संभवन्ति पुनस्ततः ॥ ६ ॥ वियोगे तु सदा कस्य स्वं धाम प्रतिपेदिरे । तस्या स्थिरता चास्ति सन्निपातस्य सुंदरि ॥ ७ ॥ आकाशतत्त्व सर्वव्यापी है तथा सभीमें सर्वत्र स्थित है । आकाशमें ही सभी लय हो जाते हैं एवं पुन: उसीसे प्रकट भी हो जाते हैं । हे सुन्दरि ! आकाशसे वियुक्त हो जानेपर पंचभूत अपने-अपने स्थानमें मिल जाते हैं, उस सन्निपातकी स्थिरता नहीं है ॥ ६-७ ॥ ज्ञानिनोऽपि तथा तत्र तपोमन्त्रबलादपि । ते सर्वे सुविजानन्ति सर्वमेतन्न संशयः ॥ ८ ॥ सभी ज्ञानी लोग तपस्या एवं मन्त्रके बलसे यह सब भलीभाँति जान लेते हैं । इसमें संशय नहीं है ॥ ८ ॥ देव्युवाच - खं तेन यन्नश्यति घोररूपः कालः करालस्त्रिदिवैकनाथः । दग्धस्त्वया त्वं पुनरेव तुष्टः स्तोत्रै स्तुतः स्वां प्रकृतिं स लेभे ॥ ९ ॥ देवी बोलीं-आकाशतत्त्व उस घोररूप कालके द्वारा नष्ट हो जाता है; क्योंकि काल कराल एवं त्रिलोकीका स्वामी है । आपने उस कालको भी जला दिया था, किंतु स्तोत्रोंद्वारा स्तुति किये जानेपर आप उसपर सन्तुष्ट हो गये और उसने पुनः अपना स्वरूप प्राप्त कर लिया ॥ ९ ॥ त्वया स चोक्तः कथया जनाना- मदृष्टरूपः प्रचरिष्यसीति । दृष्टस्त्वया तत्र महाप्रभावः प्रभोर्वरात्ते पुनरुत्थितश्च ॥ १० ॥ आपने वार्तालापके माध्यमसे उससे कहा कि तुम लोगोंसे अदृश्य रहकर विचरण करोगे । उस समय आपने उसे महान् प्रभाववाला देखा और आप प्रभुके वरके प्रभावसे वह पुनः उठ खड़ा हुआ ॥ १० ॥ तदद्य भोः काल इहास्थि किंचित् निहन्यते येन वदस्व तन्मे । त्वं योगिवर्यः प्रभुरात्मतन्त्रः परोपकारात्ततनुर्महेश ॥ ११ ॥ हे महेश ! क्या इस जगत्में कोई साधन है, जिससे काल मारा जा सके, उसे मुझको बताइये; आप योगियोंमें श्रेष्ठ, प्रभावशाली तथा स्वतन्त्र हैं और परोपकारके लिये शरीर धारण किये हुए हैं ॥ ११ ॥ शङ्कर उवाच - न हन्यते देववरैस्तु दैत्यैः सयक्षरक्षोरगमानुषैश्च । ये योगिनो ध्यानपराः सदेहा भवन्ति ते घ्नन्ति सुखेन कालम् ॥ १२ ॥ शंकरजी बोले-हे देवि ! बड़े-बड़े देवताओं, दैत्यों, यक्षों, राक्षसों, सौ एवं मनुष्योंसे भी काल नहीं मारा जा सकता है, किंतु जो ध्यानपरायण देहधारी योगी होते हैं, वे सरलतापूर्वक कालको मार डालते हैं ॥ १२ ॥ सनत्कुमार उवाच - एतच्छ्रुत्वा त्रिभुवनगुरोः प्राह गौरी विहस्य सत्यं त्वं मे वद कथमसौ हन्यते येन कालः । शम्भुस्तामाह सद्यो हिमकरवदने योगिनो ये क्षिपन्ति कालव्यालं सकलमनघा स्तच्छृणुष्वैकचित्ता ॥ १३ ॥ सनत्कुमार बोले-तीनों लोकोंके गुरु शिवकी बात सुनकर पार्वतीने हँसकर कहा-आप मुझे सच-सच बताइये कि योगी किस प्रकार इस कालको अपने वशमें कर लेते हैं ? तब शिवजीने उनसे कहा-हे चन्द्रमुखी ! निष्पाप तथा एकाग्रचित्त जो योगीजन हैं, वे जिस प्रकार [निमेषादि] कलाओंवाले कालरूपी सर्पको शीघ्र ही नष्ट कर देते हैं, उसे तुम सुनो ॥ १३ ॥ शङ्कर उवाच - पञ्चभूतात्मको देहः सदायुक्तस्तु तद्गुणैः । उत्पाद्यते वरारोहे तद्विलीनो हि पार्थिवः ॥ १४ ॥ शंकरजी बोले-हे वरारोहे ! यह पंचभूतात्मक शरीर सदा उनके रूप-रसादि गुणोंसे युक्त होकर उत्पन्न होता है और पुन: यह पार्थिव शरीर उन्होंमें विलीन भी हो जाता है ॥ १४ ॥ आकाशाज्जायते वायुर्वायोस्तेजश्च जायते । तेजसोऽम्बु विनिर्द्दिष्टं तस्माद्धि पृथिवी भवेत् ॥ १५ ॥ पृथिव्यादीनि भूतानि गच्छन्ति क्रमशः परम् । धरा पञ्चगुणा प्रोक्ता ह्यापश्चैव चतुर्गुणाः ॥ १६ ॥ त्रिगुणं च तथा तेजो वायुर्द्विगुण एव च । शब्दैकगुणमाकाशं पृथिव्यादिषु कीर्तितम् ॥ १७ ॥ आकाशसे वायु उत्पन्न होता है, वायुसे तेज उत्पन्न होता है, तेजसे जल उत्पन्न होता है और जलसे पृथ्वी उत्पन्न होती है । ये क्रमशः पृथ्वी आदि पंचभूत एक-दूसरेमें पूर्व-पूर्वके क्रमसे विलीन होते हैं । पृथ्वी पाँच गुणोंवाली कही गयी है । जल चार गुणोंवाला, तेज तीन गुणोंवाला तथा वायु दो गुणोंवाला है । इन पृथिवी आदिमें आकाशतत्त्व एकमात्र शब्द गुणवाला कहा गया है ॥ १५-१७ ॥ शब्दः स्पर्शश्च रूपं च रसो गन्धश्च पञ्चमः । विजहाति गुणं स्वं स्वं तदा भूतं विपद्यते ॥ १८ ॥ तदा गुणं विगृह्णाति प्रादुर्भूतं तदुच्यते । एवं जानीहि देवेशि पञ्चभूतानि तत्त्वतः ॥ १९ ॥ जब पंचमहाभूत शब्द, स्पर्श, रूप, रस और पाँचवाँ गन्ध-अपने-अपने इन गुणोंको त्याग देते हैं तो प्राणीको मृत्यु हो जाती है और जब अपने-अपने गुणोंको ग्रहण करते हैं, तब उसीको जीवका प्रकट होना कहा जाता है । हे देवेशि ! इस प्रकार पाँचों भूतोंको ठीक-ठीक जानो ॥ १८-१९ ॥ तस्माद्धि योगिना नित्यं स्वस्वकालेंऽशजा गुणाः । चिन्तनीयाः प्रयत्नेन देवि कालजिगीषुणा ॥ २० ॥ अतः हे देवेशि ! कालको जीतनेकी इच्छावाले योगीको यत्नपूर्वक अपने-अपने कालमें उसके अंशभूत हुए गुणोंपर विचार करना चाहिये ॥ २० ॥ देव्युवाच - कथं जेजीयते कालो योगिभिर्योगवित्प्रभो । ध्यानेन चाथ मन्त्रेण तत्सर्वं कथयस्व मे ॥ २१ ॥ पार्वतीजी बोलीं-हे योगवेत्ता प्रभो ! योगी लोग ध्यानसे अथवा मन्त्रसे किस प्रकार कालको जीतते हैं, वह सब मुझसे कहिये ? ॥ २१ ॥ शङ्कर उवाच - शृणु देवि प्रवक्ष्यामि योगिनां हितकाम्यया । परज्ञानप्रकथनं न देयं यस्य कस्यचित् ॥ २२ ॥ श्रद्दधानाय दातव्यं भक्तियुक्ताय धीमते । अनास्तिकाय शुद्धाय धर्मनित्याय भामिनि ॥ २३ ॥ शंकरजी बोले-हे देवि ! सुनो, मैं योगियोंके हितके लिये इसे कहूँगा, जिस किसीको इस उत्कृष्ट ज्ञानका उपदेश प्रदान नहीं करना चाहिये । हे भामिनि ! इसका उपदेश श्रद्धालु, भक्त, बुद्धिमान्, आस्तिक, पवित्र तथा धर्मपरायण व्यक्तिको ही करना चाहिये ॥ २२-२३ ॥ सुश्वासेन सुशय्यायां योगं युञ्जीत योगवित् । दीपं विनांधकारे तु प्रजाः सुप्तेषु धारयेत् ॥ २४ ॥ योगीको चाहिये कि उत्तम आसनपर विराजमान हो प्राणायामके द्वारा योगका अभ्यास करे, विशेषकर सब लोगोंके सो जानेपर बिना दीपके अन्धकारमें ही योगाभ्यास करना चाहिये ॥ २४ ॥ तर्जन्या पिहितौ कर्णौ पीडयित्वा मुहूर्त्तकम् । तस्मात्संश्रूयते शब्दस्तुदन्वह्निसमुद्भवः ॥ २५ ॥ एक मुहूर्ततक तर्जनी अंगुलीसे दोनों कान दबाकर बन्द रखे, ऐसा करनेसे [कुछ देर बाद] अग्निप्रेरित शब्द सुनायी पड़ने लगता है ॥ २५ ॥ सन्ध्यातो भुक्तमेवं हि चावसन्नं क्षणादपि । सर्वरोगान्निहन्त्याशु ज्वरोपद्रवकान्बहून् ॥ २६ ॥ इससे सन्ध्याके बाद खाया हुआ अन्न क्षणभरमें पच जाता है और वह ज्वर आदि समस्त रोग-उपद्रवोंको शीघ्र नष्ट कर देता है ॥ २६ ॥ यश्चोपलक्षयेन्नित्यमाकारं घटिकाद्वयम् । जित्वा मृत्युं तथा कामं स्वेच्छया पर्यटेदिह ॥ २७ ॥ सर्वज्ञः सर्वदर्शी च सर्वसिद्धिमवाप्नुयात् । यथा नदति खेऽब्दो हि प्रावृडद्भिः सुसंयतः ॥ २८ ॥ तं श्रुत्वा मुच्यते योगी सद्यः संसारबन्धनात् । ततः स योगिभिर्नित्यं सूक्ष्मात्सूक्ष्मतरो भवेत् ॥ २९ ॥ जो योगी नित्य दो घड़ीपर्यन्त इस तरहके आकारका ध्यान करता है, वह काम तथा मृत्युको जीतकर अपनी इच्छासे इस लोकमें विचरण करता है और सर्वज्ञ तथा सर्वदर्शी होकर सम्पूर्ण सिद्धियोंको प्राप्त कर लेता है । वर्षाकालमें जिस प्रकार मेघ आकाशमें शब्द करते हैं, उसी प्रकारका यह शब्द है । उसे सुनकर योगी शीघ्र ही संसारबन्धनसे मुक्त हो जाता है । इसके बाद वह योगियोंद्वारा प्रतिदिन [चिन्तन किया जाता हुआ शब्द] सूक्ष्मसे भी सूक्ष्म होता जाता है ॥ २७-२९ ॥ एष ते कथितो देवि शब्दब्रह्मविधिक्रमः । पलालमिव धान्यार्थी त्यजेद्बन्धमशेषतः ॥ ३० ॥ शब्दब्रह्मत्विदं प्राप्य ये केचिदन्यकाङ्क्षिणः । घ्नन्ति ते मुष्टिनाकाशं कामयन्ते क्षुधां तृषाम् ॥ ३१ ॥ हे देवि ! इस प्रकार मैंने शब्दब्रह्मके ध्यानकी यह विधि तुमसे कह दी । जिस प्रकार धानको चाहनेवाला पुआलका त्याग कर देता है, वैसे योगीको सांसारिक बन्धनका पूर्णरूपसे त्याग कर देना चाहिये । इस शब्दब्रह्मको प्राप्तकर जो कोई भी लोग अन्य पदार्थोकी इच्छा रखते हैं, वे मानो अपनी मुट्ठीसे आकाशका भेदन करना चाहते हैं और [इस अमृतोपम योगको पा करके भी] भूखप्यासकी अपेक्षा रखते हैं ॥ ३०-३१ ॥ ज्ञात्वा परमिदं ब्रह्म सुखदं मुक्तिकारणम् । अबाह्यमक्षरं चैव सर्वोपाधिविवर्जितम् ॥ ३२ ॥ मोहिताः कालपाशेन मृत्युपाशवशङ्गताः । शब्दब्रह्म न जानन्ति पापिनस्ते कुबुद्धयः ॥ ३३ ॥ तावद्भवन्ति संसारे यावद्धाम न विन्दते । विदिते तु परे तत्त्वे मुच्यते जन्मबन्धनात् ॥ ३४ ॥ [शब्दब्रह्म नामसे कहे गये] परम सुख देनेवाले, मुक्तिके कारणस्वरूप, अन्तःकरणमें स्थित, अविनाशी तथा सभी उपाधियोंसे रहित इस परब्रह्मको जानकर मनुष्य मुक्त हो जाते हैं । जो इस शब्दब्रह्मको नहीं जानते, वे कालके पाशसे मोहित होकर मृत्युके वशमें होते हैं एवं वे पापी तथा कुबुद्धि हैं । वे संसारचक्रमें तभीतक भटकते रहते हैं, जबतक उन्हें धाम (सबका आश्रय) प्राप्त नहीं हो जाता । परमतत्त्वके ज्ञात हो जानेपर मनुष्य जन्ममृत्युरूपी बन्धनसे छूट जाते हैं ॥ ३२-३४ ॥ निद्रालस्यं महा विघ्नं जित्वा शत्रुं प्रयत्नतः । सुखासने स्थितो नित्यं शब्दब्रह्माभ्यसन्निति ॥ ३५ ॥ शतवृद्धः पुमाँल्लब्ध्वा यावदायुः समभ्यसेत् । मृत्युञ्जयवपुस्तम्भ आरोग्यं वायुवर्द्धनम् ॥ ३६ ॥ योगीको चाहिये कि वह निद्रा-आलस्यरूपी महाविघ्नकारी शत्रुको यत्नपूर्वक जीतकर सुखद आसनपर बैठ करके नित्यप्रति शब्दब्रह्मका अभ्यास करे । सौ वर्षकी आयुवाला वृद्ध मनुष्य इसे प्राप्त करके जीवनपर्यन्त इसका अभ्यास करे तो उसे आरोग्यलाभ होता है । उसकी वीर्यवृद्धि होती है और वह मृत्युको जीतकर अपने शरीरको स्थिर रखता है ॥ ३५-३६ ॥ प्रत्ययो दृश्यते वृद्धे किं पुनस्तरुणे जने । न चोङ्कारो न मन्त्रोऽपि नैव बीजं न चाक्षरम् ॥ ३७ ॥ अनाहतमनुच्चार्यं शब्दब्रह्म शिवं परम् । ध्यायन्ते देवि सततं सुधियो यत्नतः प्रिये ॥ ३८ ॥ इस प्रकारका विश्वास जब वृद्ध में देखा जाता है, तब युवकजनमें इसकी बात ही क्या ? यह शब्दब्रह्मन ॐकार है, न मन्त्र है, न बीज तथा न अक्षर ही है । हे देवि ! यह शब्दब्रह्म अनाहत तथा उच्चारणसे रहित होता है और यह परम कल्याणकारी है, हे प्रिये ! उत्तम बुद्धिवाले यत्नपूर्वक निरन्तर इसका ध्यान करते हैं ॥ ३७-३८ ॥ तस्माच्छब्दा नव प्रोक्ताः प्राणविद्भिस्तु लक्षिताः । तान्प्रवक्ष्यामि यत्नेन नादसिद्धिमनुक्रमात् ॥ ३९ ॥ घोषं कांस्यं तथा शृङ्गं घण्टां वीणा दिवंशजान् । दुन्दुभिं शंखशब्दं तु नवमं मेघगर्जितम् ॥ ४० ॥ नव शब्दान्परित्यज्य तुङ्कारं तु समभ्यसेत् । ध्यायन्नेवं सदा योगी पुण्यैः पापैर्न लिप्यते ॥ ४१ ॥ उसी अनाहत नादसे [प्रकट होनेवाले] नौ प्रकारके शब्द कहे गये हैं, जिन्हें प्राणवेत्ताओंने परिलक्षित किया है । हे देवि ! उन्हें तथा नादसिद्धिको यत्नपूर्वक कहता हूँ-घोष, कांस्य, शृंग, घण्टा, वीणा, बाँसुरी, दुन्दुभि, शंखशब्द और नौवाँ मेघगर्जन-[ये अनाहतसे प्रकट होनेवाले शब्द हैं । योगी] इन नौ शब्दोंका त्यागकर तुंकारशब्दका अभ्यास करे । इस प्रकार ध्यान करनेवाला योगी पुण्यों एवं पापोंसे लिप्त नहीं होता है ॥ ३९-४१ ॥ न शृणोति यदा शृण्वन्योगाभ्यासेन देविके । म्रियतेभ्यसमानस्तु योगी तिष्ठेद्दिवानिशम् ॥ ४२ ॥ तस्मादुत्पद्यते शब्दो मृत्युजित्सप्तभिर्दिनैः । स वै नवविधो देवि तं ब्रवीमि यथार्थतः ॥ ४३ ॥ हे देवि ! जब योगाभ्याससे युक्त योगी सुननेका यत्न करते हुए भी नहीं सुन पाये तो भी मृत्युके समीप आनेपर भी योगी रात-दिन इसी प्रकारका अभ्यास करता रहे, तब उससे सात दिनोंमें मृत्युको जीतनेवाला शब्द उत्पन्न होता है । हे देवि ! वह नौ प्रकारका होता है । मैं यथार्थरूपसे उसका वर्णन करता हूँ ॥ ४२-४३ ॥ प्रथमं नदते घोषमात्मशुद्धिकरं परम् । सर्वव्याधिहरं नादं वश्याकर्षणमुत्तमम् ॥ ४४ ॥ पहला घोषात्मक नाद होता है, वह आत्माको शुद्ध करनेवाला, श्रेष्ठ, सभी प्रकारकी व्याधियोंको दूर करनेवाला, मनको वशीभूतकर अपने प्रति आकृष्ट करनेवाला तथा उत्तम होता है ॥ ४४ ॥ द्वितीयं नादते कांस्य स्तम्भयेत्प्राणिनां गतिम् । विषं भूतग्रहान् सर्वान् बध्नीयान्नात्र संशयः ॥ ४५ ॥ तृतीयं नादते शृङ्गमभिचारि नियोजयेत् । विद्विडुच्चाटने शत्रोर्मारणे च प्रयोजयेत् ॥ ४६ ॥ द्वितीय कांस्यका शब्द होता है, जो जीवोंकी गतिको रोकता है और विष तथा सभी भूतग्रहोंको दूर करता है, इसमें सन्देह नहीं है । तीसरा शृंगनाद है, उसका आभिचारिक कर्ममें प्रयोग करना चाहिये, शत्रुके उच्चाटन | तथा मारणमें वह प्रयोग करनेयोग्य है ॥ ४५-४६ ॥ घंटानादं चतुर्थं तु वदते परमेश्वरः । आकर्षः सर्वदेवानां किं पुनर्मानुषा भुवि ॥ ४७ ॥ यक्षगन्धर्वकन्याश्च तस्याकृष्टा ददन्ति हि । यथेप्सितां महासिद्धिं योगिने कामतोऽपि वा ॥ ४८ ॥ चौथा घण्टानाद होता है, जिसका साक्षात् परमेश्वर उच्चारण करते हैं । वह सभी देवगणोंको भी आकर्षित करनेवाला है, फिर भूलोकके मनुष्योंकी तो बात ही क्या है ? यक्षों तथा गन्धर्वोकी कन्याएँ उस नादसे आकृष्ट होकर उस योगीको यथेच्छ महासिद्धि प्रदान करती हैं ॥ ४७-४८ ॥ वीणा तु पञ्चमो नादः श्रूयते योगिभिः सदा । तस्मादुत्पद्यते देवि दूरादर्शनमेव हि ॥ ४९ ॥ पाँचवाँ नाद वीणा है, जिसे योगीलोग निरन्तर सुनते रहते हैं । हे देवि ! उससे दूर-दर्शनकी शक्ति प्राप्त होती है ॥ ४९ ॥ ध्यायतो वंशनादं तु सर्वतत्त्वं प्रजायते । दुन्दुभिं ध्यायमानस्तु जरामृत्युविवर्जितः ॥ ५० ॥ वंशीनादका ध्यान करनेवाले योगीको सभी तत्व प्राप्त हो जाते हैं । दुन्दुभिनादका ध्यान करनेवाला जरा एवं मृत्युसे रहित हो जाता है ॥ ५० ॥ शंखशब्देन देवेशि कामरूपं प्रपद्यते । योगिनो मेघनादेन न विपत्सङ्गमो भवेत् ॥ ५१ ॥ हे देवेशि ! शंखनादका अनुसन्धान करनेसे इच्छानुसार रूपधारणका सामर्थ्य प्राप्त होता है और मेघके नादका ध्यान करनेसे योगीको कोई विपत्ति नहीं होती है ॥ ५१ ॥ यश्चैकमनसा नित्यं तुङ्कारं ब्रह्मरूपिणम् । किमसाध्यं न तस्यापि यथामति वरानने ॥ ५२ ॥ सर्वज्ञः सर्वदर्शी च कामरूपी व्रजत्यसौ । न विकारैः प्रयुज्येत शिव एव न संशयः ॥ ५३ ॥ हे वरानने ! जो एकाग्र मनसे नित्यप्रति ब्रह्मरूपी तुंकारका ध्यान करता है, उसे इच्छानुसार सब वस्तुएँ प्राप्त होती हैं और उसके लिये कुछ भी असाध्य नहीं होता है । वह सर्वज्ञ, सर्वदर्शी तथा कामरूपी होकर [सर्वत्र] भ्रमण करता है और विकारोंसे युक्त नहीं होता है, वह [साक्षात्] शिव ही है, इसमें सन्देह नहीं ॥ ५२-५३ ॥ एतत्ते परमेशानि शब्दब्रह्मस्वरूपकम् । नवधा सर्वमाख्यातं किं भूयः श्रोतुमिच्छसि ॥ ५४ ॥ हे परमेश्वरि ! मैंने यह नौ प्रकारका शब्दब्रहास्वरूप तुमसे कहा, अब और क्या सुनना चाहती हो ? ॥ ५४ ॥ इति श्रीशिवमहापुराणे पञ्चम्यामुमासंहितायां कालवंचनवर्णनं नाम षड्विंशोऽध्यायः ॥ २६ ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत पाँचवीं उमासहितामें कालवंचनवर्णन नामक छब्बीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २६ ॥ श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु |