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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥

॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥

पञ्चमी उमासंहितायां

सप्तविंशोऽध्यायः


कालवंचनशिवप्राप्तिवर्णनम्
अमरत्व प्राप्त करनेकी चार यौगिक साधनाएँ


देव्युवाच -
वायोस्तु पदमाप्नोति योगाकाशसमुद्‌भवम् ।
तन्मे सर्वं समाचक्ष्व प्रसन्नस्त्वं यदि प्रभो ॥ १ ॥
देवी बोलीं-योगी योगाकाशसे उत्पन्न वायुपद कैसे प्राप्त करता है, हे प्रभो ! यदि आप मुझपर प्रसन्न हैं, तो यह सब मुझे बताइये ॥ १ ॥

शङ्‌कर उवाच -
पुरा मे सर्वमाख्यातं योगिनां हितकाम्यया ।
कालं जिगाय यः सम्यग्वायोर्लिङ्‌गं यथा भवेत् ॥ २ ॥
शंकर बोले-[हे देवि !] योगियोंके हितकी कामनासे मैंने पहले सभी बातोंको कह दिया है, अब जिस प्रकार योगी कालको अच्छी तरह जीतकर वायुस्वरूप हो जाता है, उसको सुनो ॥ २ ॥

तेन ज्ञात्वा दिनं योगी प्राणायामपरः स्थितः ।
स जयत्यागतं कालं मासार्धेनैव सुंदरि ॥ ३ ॥
हे सुन्दरि ! उस [योगसामर्थ्य]-से [मृत्युके] दिनको जानकर प्राणायाममें तत्पर योगी आधे महीने में ही आये हुए कालको जीत लेता है ॥ ३ ॥

हृत्स्थो वायुः सदा वह्नेर्दीपकः सोऽनुपावकः ।
स बाह्याभ्यन्तरो व्यापी वायुः सर्वगतो महान् ॥ ४ ॥
ज्ञानविज्ञानमुत्साहः सर्वं वायोः प्रवर्तते ।
येनेह निर्जितो वायुस्तेन सर्वमिदं जगत् ॥ ५ ॥
हृदयमें स्थित रहनेवाला वायु सदा अग्निको प्रदीप्त करता है । अग्निके पीछे चलनेवाला वह महान् तथा सर्वगामी वायु भीतर और बाहर सभी जगह व्याप्त है । ज्ञान, विज्ञान एवं उत्साह-इन सबकी प्रवृत्ति वायुसे होती है, जिसने इस लोकमें वायुको जीत लिया, उसने इस सम्पूर्ण जगत्को जीत लिया ॥ ४-५ ॥

धारणायां सदा तिष्ठेज्जरामृत्युजिघांसया ।
योगी योगरतः सम्यग्धारणाध्यानतत्परः ॥ ६ ॥
योगपरायण योगी सम्यक् धारणा-ध्यानमें तत्पर रहे, उसे जरा-मृत्युके विनाशकी इच्छासे सदा धारणामें निष्ठा करनी चाहिये ॥ ६ ॥

लोहकारो यथा भस्त्रामापूर्य मुखतो मुने ।
साधयेद्वायुना कर्म तद्वद्योगी समभ्यसेत् ॥ ७ ॥
हे मुने ! जिस प्रकार लोहार मुखसे वायुके द्वारा धौंकनीको फुलाकर कार्य सिद्ध करता है, उसी प्रकार योगीको भी अभ्यास करना चाहिये ॥ ७ ॥

देवः सहस्रको नेत्रपादहस्तसहस्रकः ।
ग्रंथीन्हि सर्वमावृत्य सोऽग्रे तिष्ठेद्दशाङ्‌गुलम् ॥ ८ ॥
गायत्रीं शिरसा सार्धं जपेद् व्याहृतिपूर्विकाम् ।
त्रिवारमायतप्राणाः प्राणायामः स उच्यते ॥ ९ ॥
[प्राणायामके समय जिनका ध्यान किया जाता है] वे [आराध्य] देव [परमेश्वर] सहस्रों मस्तक, नेत्र, पैर और हाथोंसे युक्त हैं तथा समस्त ग्रन्थियोंको आवृतकर उनसे भी दस अंगुल आगे स्थित हैं । प्राणवायुको नियन्त्रितकर व्याहतिपूर्वक तीन बार गायत्रीका शिरोमन्त्रसहित जप करे, उसे प्राणायाम कहा जाता है ॥ ८-९ ॥

गतागता निवर्तन्ते चन्द्रसूर्यादयो ग्रहाः ।
अद्यापि न निवर्तन्ते योगध्यानपरायणाः ॥ १० ॥
चन्द्र, सूर्य आदि ग्रह आते-जाते रहते हैं, किंतु प्राणायामपूर्वक ध्यानमें तत्पर योगी आजतक कभी नहीं लौटे अर्थात् कैवल्यको प्राप्त हो गये ॥ १० ॥

शतमब्दं तपस्तप्त्वा कुशाग्रापः पिबेद् द्विजः ।
तदाप्नोति फलं देवि विप्राणां धारणैकया ॥ ११ ॥
यो द्विजः कल्यमुत्थाय प्राणायामैकमाचरेत् ।
सर्वं पापं निहन्त्याशु ब्रह्मलोकं स गच्छति ॥ १२ ॥
हे देवि ! सौ वर्षतक तप करके ब्राह्मण कुशाके अग्रभागके बराबर (बिन्दुमात्र) जलको पीकर जो फल प्राप्त करता है, उसे वह (योगी) एक प्राणायामके द्वारा ही प्राप्त कर लेता है । जो द्विज प्रातःकाल उठकर एक प्राणायाम करता है, वह अपने सभी पापोंको नष्टकर शीघ्र ही ब्रह्मलोकको जाता है ॥ ११-१२ ॥

योऽतंद्रितः सदैकान्ते प्रणायामपरो भवेत् ।
जरां मृत्युं विनिर्जित्य वायुगः खेचरीति सः ॥ १३ ॥
सिद्धस्य भजते रूपं कान्तिं मेधां पराक्रमम् ।
शौर्यं वायुसमो गत्या सौख्यं श्लाघ्यं परं सुखम् ॥ १४ ॥
जो सदा आलस्यरहित होकर एकान्तमें प्राणायाम करता है, वह जरा तथा मृत्युको जीतकर वायुके समान गतिशील होकर आकाशमें विचरण करता है । वह सिद्ध पुरुषका रूप; कान्ति, मेधा, पराक्रम तथा शौर्य प्राप्त कर लेता है और गतिमें वायुके समान होकर प्रशंसनीय सौख्य तथा परम सुख प्राप्त करता है ॥ १३-१४ ॥

एतत्कथितमशेषं वायोः सिद्धिं यदाप्नुते योगी ।
यत्तेजसोऽपि लभते तत्ते वक्ष्यामि देवेशि ॥ १५ ॥
हे देवेशि । जिस प्रकार योगी वायुसे सिद्धि प्राप्त करता है, वह सब मैंने तुमसे कह दिया, अब जिस प्रकार उन्हें तेजसे सिद्धिकी प्राप्ति होती है, उसे मैं तुमसे कहूँगा ॥ १५ ॥

स्थित्वा सुखासने स्वे शेते जनवचनहीने तु ।
शशिरवियुतया तेजः प्रकाशयन्मध्यमे देशे ॥ १६ ॥
वह्निगतं भ्रूमध्ये प्रकाशते यस्त्वतन्द्रितो योगी ।
दीपैर्हीनध्वान्ते पश्येन्न्यूनमसंशयं लोके ॥ १७ ॥
जहाँ दूसरोंकी बातचीतका कोलाहल न हो, ऐसे शान्त एकान्त स्थानमें सुखासनपर बैठकर चन्द्रमा और सूर्य (वाम और दक्षिण नेत्र)-की कान्तिसे प्रकाशित मध्यवर्ती देश अर्थात् भ्रूमध्यभागमें जो अग्निका तेज अव्यक्तरूपसे प्रकाशित होता है, उसे आलस्यरहित योगी प्रकाशरहित अन्धकारपूर्ण स्थानमें चिन्तन करनेपर निश्चय ही देख सकता है ॥ १६-१७ ॥

नेत्रे करशाखाभिः किंचित्संपीड्य यत्नतो योगी ।
तारं पश्यन्ध्यायेन्मुहूर्तमर्द्धं तमेकभावोऽपि ॥ १८ ॥
योगी यत्‍नपूर्वक नेत्रोंको हाथकी अँगुलियोंसे कुछ दबाकर उनके तारोंको देखते हुए एकाग्रचित्तसे आधे मुहूर्ततक उनका ध्यान करे ॥ १८ ॥

ततस्तु तमसि ध्यायन्पश्यते ज्योतिरैश्वरम् ।
श्वेतं रक्तं तथा पीतं कृष्णमिन्द्रधनुष्प्रभम् ॥ १९ ॥
उसके बाद ध्यान करता हुआ वह अन्धकारमें श्वेत, रक्त, पीत, कृष्ण तथा इन्द्रधनुषके समान कान्तिवाले ईश्वरीय तेजको देखता है ॥ १९ ॥

भुवोर्मध्ये ललाटस्थं बालार्कसमतेजसम् ।
तं विदित्वा तु कामाङ्‌गी क्रीडते कामरूपधृक् ॥ २० ॥
दोनों भौंहोंके मध्यमें ललाटस्थित बालसूर्यके समान उस तेजको जानकर वह इच्छानुसार कामरूपधारी होकर मनोवांछित शरीरसे क्रीडा करता है ॥ २० ॥

कारणप्रशमावेशं परकायप्रवेशनम् ।
अणिमादिगुणावाप्तिर्मनसा चावलोकनम् ॥ २१ ॥
दूरश्रवण विज्ञानमदृश्यं बहुरूपधृक् ।
सन्तताभ्यासयोगेन खेचरत्वं प्रजायते ॥ २२ ॥
निरन्तर अभ्यासके योगसे उसमें कारणको शान्त करना, आवेश, परकायाप्रवेश, अणिमादि सिद्धियोंकी प्राप्ति, मनसे सारी वस्तुओंका अवलोकन, दूरसे सुननेकी शक्ति, स्वयं अदृश्य हो जाना, अनेक रूप धारण करना एवं आकाशमें विचरणकी शक्ति-यह सब (सामर्थ्य) उत्पन्न हो जाता है ॥ २१-२२ ॥

श्रुताध्ययनसंपन्ना नानाशास्त्रविशारदाः ।
ज्ञानिनोऽपि विमुह्यन्ते पूर्वकर्मवशानुगाः ॥ २३ ॥
पश्यन्तोऽपि न पश्यन्ति शृण्वाना बधिरा यथा ।
यथांधा मानुषा लोके मूढाः पापविमोहिताः ॥ २४ ॥
वेदाध्ययनसे सम्पन्न तथा अनेक शास्त्रोंमें प्रवीण ज्ञानीलोग भी अपने पूर्व कर्मोक वशीभूत होकर मोहित हो जाते हैं । पापसे मोहित हुए मूढ़ मनुष्य लोकमें देखते हुए भी अन्धेके समान नहीं देखते और सुनते हुए भी बहरेके समान नहीं सुनते हैं ॥ २३-२४ ॥

वेदाहमेतं पुरुषं महान्त
    मादित्यवर्णं तमसः परस्तात् ।
तमेव विदित्वातिमृत्युमेति
    न्नान्यः पंथा विद्यते प्रायणाय ॥ २५ ॥
सूर्यके समान वर्णवाले तथा अन्धकारसे परे उस परम पुरुषको मैं जानता हूँ, इस प्रकार जानकर योगी मृत्युका अतिक्रमण कर लेता है, मुक्त होनेके लिये इसके अतिरिक्त अन्य उपाय नहीं है ॥ २५ ॥

एष ते कथितः सम्यक्तेजसो विधिरुत्तमः ।
कालं जित्वा यथा योगी चामरत्वं प्रपद्यते ॥ २६ ॥
पुनः परतरं वक्ष्ये यथा मृत्युर्न जायते ।
सावधानतया देवि शृणुष्वैकाग्रमानसा ॥ २७ ॥
[हे देवि !] मैंने तेजस्तत्वके चिन्तनकी यह उत्तम विधि तुमसे कह दी, जिसके द्वारा कालको जीतकर योगी अमरत्वको प्राप्त हो जाता है । हे देवि ! अब मैं इससे भी उत्कृष्ट बात कहूँगा, जिससे मृत्यु नहीं होती, तुम सावधानीपूर्वक एकाग्र मनसे सुनो ॥ २६-२७ ॥

तुरीया देवि भूतानां योगिनां ध्यानिनां तथा ।
सुखासने यथास्थानं योगी नियतमानसः ॥ २८ ॥
समुन्नतशरीरोऽपि स बद्ध्वा करसंपुटम् ।
चञ्च्वाकारेण वक्त्रेण पिबन्वायुं शनैः शनैः ॥ २९ ॥
प्रस्रवन्ति क्षणादापस्तालुस्था जीवदायिकाः ।
ता जिघ्रेद्वायुनादायामृतं तच्छीतलं जलम् ॥ ३० ॥
पिबन्ननुदिनं योगी न मृत्युवशगो भवेत् ।
दिव्यकायो महातेजाः पिपासा क्षुद्विवर्जितः ॥ ३१ ॥
हे देवि ! प्राणियोंकी तथा ध्यान करनेवाले योगियोंकी तुरीयावस्था होती है । स्थिर चित्तवाले योगीको सुखद आसनपर यथास्थान स्थित हो शरीरको ऊँचा उठाकर दोनों हाथ सम्पुटितकर चोंचके आकारवाले मुखसे धीरे-धीरे वायुका पान करना चाहिये । थोड़ी ही देरमें तालुमें स्थित जीवनदायी जो जलबिन्दु टपकने लगते हैं, उन अमृतके समान शीतल जलबिन्दुओंको वायुसे ग्रहण करके सूंघे । इस प्रकार प्रतिदिन उसे पीनेवाला योगी मृत्युके वशीभूत नहीं होता है और वह दिव्य शरीरवाला, महातेजस्वी और भूख-प्याससे रहित हो जाता है ॥ २८-३१ ॥

बलेन नागस्तुरगो जवेन
    दृष्ट्या सुपर्णः सुश्रुतिस्तु दूरात् ।
आकुंचिताकुंडलिकृष्णकेशो
    गंधर्वविद्याधरतुल्यवर्णः ॥ ३२ ॥
जीवन्नरो वर्षशतं सुराणां
    सुमेधसा वाक्पतिना समत्वम् ।
एवं चरन् खेचरतां प्रयाति
    यथेष्टचारी सुखितः सदैव ॥ ३३ ॥
वह मनुष्य बलमें हाथीके समान, वेगमें घोडेके समान, दृष्टिमें गरुड़के समान, दूरसे सुननेकी शक्तिवाला, कुण्डलके समान धुंघराले काले केशवाला और गन्धवों एवं विद्याधरोंके समान स्वरूपवाला होता है और बुद्धिमें बृहस्पतिके समान होकर देवताओंके सौ वर्षतक जीवित रहता है । ऐसा करता हुआ वह सुखपूर्वक स्वेच्छाचारी रहकर आकाशमें भ्रमण करता है ॥ ३२-३३ ॥

पुनरन्यत्प्रवक्ष्यामि विधानं यत्सुरैरपि ।
गोपितं तु प्रयत्नेन तच्छृणुष्व वरानने ॥ ३४ ॥
हे वरानने ! अब मैं दूसरी विधिका वर्णन करता हूँ, जिसे देवगण भी नहीं जानते, तुम प्रयत्‍नपूर्वक उसका श्रवण करो ॥ ३४ ॥

समाकुंच्याभ्यसेद्योगी रसनां तालुकं प्रति ।
किंचित्कालान्तरेणैव क्रमात्प्राप्नोति लंबिकाम् ॥ ३५ ॥
ततः प्रस्रवते सा तु संस्पृष्टा शीतलां सुधाम् ।
पिबन्नेव सदा योगी सोऽमरत्वं हि गच्छति ॥ ३६ ॥
योगी अपनी जीभको सिकोड़कर तालुमें लगानेका अभ्यास करे तो कुछ समयके बाद वह लम्बिकाको प्राप्त कर लेती है । तब तालुसे स्पृष्ट हुई वह जिहा शीतल अमृतका स्राव करने लगती है, उसको निरन्तर पीता हुआ वह योगी अमरत्व प्राप्त कर लेता है ॥ ३५-३६ ॥

रेफाग्रं लंबकाग्रं करतलघटनं
    शुभ्रपद्मस्य बिन्दो-
स्तेनाकृष्टा सुधेयं पतति परपदे
    देवतानंदकारी ।
सारं संसारतारं कृतकलुषतरं
    कालतारं सतारं
येनेदं प्लाविताङ्‌गं स भवति न मृतः
    क्षुत्पिपासाविहीनः ॥ ३७ ॥
जैसे हाथसे निचोड़नेसे गीली वस्तुसे रस टपकता है, उसी प्रकार रेफान तथा लम्बिकाप्रसे निर्मल कमलबिन्दुसे प्राप्त वह देवताओंको आनन्द देनेवाला अमृत परपदमें गिरता है । संसारको तारनेवाले, पापनाशक, कालसे बचानेवाले अमृतसारसे जिसने अपने शरीरको आप्लावित कर लिया, वह भूख-प्याससे रहित होकर अमर हो जाता है ॥ ३७ ॥

एभिर्युक्ता चतुर्भिः क्षितिधरतनये
    योगिभिर्वै धरैषा
धैर्यान्नित्यं कुतोऽन्तः सकलमपि जगद्य-     त्सुखप्रापणाय ।
स्वप्ने देही विधत्ते सकलमपि सदा
    मानयन्यच्च दुःखं
स्वर्गे ह्येवं धरित्र्याः प्रभवति च ततो
    वा स किञ्चिच्चतुर्णाम् ॥ ३८ ॥
हे पार्वति ! यह सारा संसार जिस सुखके लिये सदा लालायित रहता है, उसे ये चार प्रकारके योगीजन सदा धैर्य धारण करते हुए अपने अन्त:करणमें धारण करते हैं । प्राणी स्वप्नमें भी स्वर्गमें अथवा भूमिपर जिसे सुख मानता है, वास्तवमें वह दुःख ही है, इस प्रकारका सुख तो इन चारों योगियोंके लिये किंचिन्मात्र भी सुखकर नहीं है ॥ ३८ ॥

तस्मान्मन्त्रैस्तपोभिर्व्रतनियमयुतै-
    रौषधैर्योगयुक्ता
धात्री रक्ता मनुष्यैर्नयविनययुतै-
    र्धर्मविद्‌भिः क्रमेण ।
भूतानामादि देवो न हि भवति चलः
    संयुतो वै चतुर्णां
तस्मादेवं प्रवक्ष्ये विधिमनुगदितं
    छायिकं यच्छिवाख्यम् ॥ ३९ ॥
अतः मन्त्र, तप, व्रत, नियम, नीतिविनयसे युक्त धर्मवेत्ता मनुष्योंसे और औषधियों तथा योगसे युक्त यह रागमयी पृथ्वी उत्तम फल देती है । भूतोंके आदिदेव शिवजी इन चार प्रकारके योगोंसे युक्त होकर विचलित नहीं होते । अतः अब मैं विधिसहित शिव नामक छायापुरुषका वर्णन करता हूँ, जो साक्षात् शिवस्वरूप हैं ॥ ३९ ॥

इति श्रीशिवमहापुराणे पञ्चम्यामुमासंहितायां
कालवंचनशिवप्राप्तिवर्णनं नाम सप्तविंशोऽध्यायः ॥ २७ ॥
इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत पांचवीं उपासंहितामें कालवंचनशिवप्राप्तिवर्णन नामक सत्ताईसवा अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २७ ॥



श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु


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