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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥
॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥ पञ्चमी उमासंहितायां
अष्टाविंशोऽध्यायः छायापुरुषदर्शनवर्णनम्
छायापुरुषके दर्शनका वर्णन देव्युवाच - देवदेव महादेव कथितं कालवंचनम् । शब्दब्रह्मस्वरूपं च योगलक्षणमुत्तमम् ॥ १ ॥ कथितं ते समासेन छायिकं ज्ञानमुत्तमम् । विस्तरेण समाख्याहि योगिनां हितकाम्यया ॥ २ ॥ देवी बोलीं-हे देवदेव ! हे महादेव ! आपने कालकी वंचना करनेवाले शब्दब्रह्मस्वरूप उत्तम योगके लक्षणका वर्णन संक्षेपसे किया । अब योगियोंके हितकी इच्छासे छायापुरुष-सम्बन्धी उस उत्तम ज्ञानको विस्तारपूर्वक कहिये ॥ १-२ ॥ शङ्कर उवाच - शृणु देवि प्रवक्ष्यामिच्छायापुरुषलक्षणम् । यज्ज्ञात्वा पुरुषः सम्यक्सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥ ३ ॥ शंकर बोले-हे देवि ! सुनो, मैं छायापुरुषका लक्षण कह रहा हूँ, जिसे भलीभाँति जानकर मनुष्य सभी पापोंसे मुक्त हो जाता है ॥ ३ ॥ सूर्यं हि पृष्ठतः कृत्वा सोमं वा वरवर्णिनि । शुक्लाम्बरधरः स्रग्वी गंधधूपादिवासितः ॥ ४ ॥ संस्मरेन्मे महामन्त्रं सर्वकामफलप्रदम् । नवात्मकं पिंडभूतं स्वां छायां संनिरीक्षयेत् ॥ ५ ॥ दृष्ट्वा तां पुनराकाशे श्वेतवर्णस्वरूपिणीम् । स पश्यत्येकभावस्तु शिवं परमकारणम् ॥ ६ ॥ ब्रह्मप्राप्तिर्भवेत्तस्य कालविद्भिरितीरितम् । ब्रह्महत्यादिकैः पापैर्मुच्यते नात्र संशयः ॥ ७ ॥ हे वरवर्णिनि ! श्वेत वस्त्र पहनकर माला धारणकर एवं उत्तम गन्ध-धूपादिसे सुगन्धित होकर चन्द्रमा अथवा सूर्यको पीछेकर सम्पूर्ण कामनाओंका फल देनेवाले मेरे पिण्डभूत नवाक्षर महामन्त्र ["ॐ नमो भगवते रुद्राय']-का स्मरण करे और अपनी छायाको देखे । पुन: उस श्वेत वर्णकी छायाको आकाशमें देखकर वह एकचित्त हो परम कारणभूत शिवजीको देखे । ऐसा करनेसे उसे ब्रह्मकी प्राप्ति होती है और वह ब्रह्महत्या आदि पापोंसे छूट जाता है-ऐसा कालवेत्ताओंने कहा है । इसमें संशय नहीं है ॥ ४-७ ॥ शिरोहीनं यदा पश्येत्षड्भिर्मासैर्भवेत्क्षयः । समस्तं वाङ्मयं तस्य योगिनस्तु यथा तथा ॥ ८ ॥ यदि उस छायामें अपना शिर दिखायी न पड़े तो छ: महीनेमें मृत्यु जाननी चाहिये, ऐसे योगीके मुखसे जिस प्रकारका वाक्य निकलता है, उसके अनुरूप ही फल होता है ॥ ८ ॥ शुक्ले धर्मं विजानीयात्कृष्णे पापं विनिर्दिशेत् । रक्ते बंधं विजानीयात्पीते विद्विषमादिशेत् ॥ ९ ॥ शुक्लवर्णकी छाया होनेपर धर्मकी वृद्धि और कृष्णवर्णकी होनेपर पापकी वृद्धि जाननी चाहिये । रक्तवर्णकी होनेपर बन्धन जानना चाहिये तथा पीतवर्णकी होनेपर शत्रुबाधा समझनी चाहिये ॥ ९ ॥ विवाहो बंधुनाशः स्याद्वितुंडे चैव क्षुद्भयम् । विकटौ नश्यते भार्या विजंघे धनमेव हि ॥ १० ॥ पादाभावे विदेशः स्यादित्येतत्कथितं मया । तद्विचार्यं प्रयत्नेन पुरुषेण महेश्वरि ॥ ११ ॥ [छायाके] नासिकारहित होनेपर बन्धुनाश और मुखरहित होनेपर भूखका भय रहता है । कटिरहित होनेपर स्त्रीका नाश और जंघारहित होनेपर धनका नाश होता है एवं पादरहित होनेपर विदेशगमन होता है । यह छायापुरुषका फल मैंने कहा । हे महेश्वरि ! पुरुषको प्रयत्नपूर्वक इसका विचार करना चाहिये ॥ १०-११ ॥ सम्यक्तं पुरुषं दृष्ट्वा संनिवेश्यात्मनात्मनि । जपेन्नवात्मकं मन्त्रं हृदयं मे महेश्वरि ॥ १२ ॥ हे महेश्वरि ! उस छायापुरुषको भलीभाँति देखकर उसे अपने मनमें पूर्णतः सन्निविष्ट करके मनमें मेरे नवात्मक (नवाक्षर) मन्त्रका जप करना चाहिये, जो कि साक्षात् मेरा हृदय ही है ॥ १२ ॥ वत्सरे विगते मन्त्री तन्नास्ति यन्न साधयेत् । अणिमादिगुणानष्टौ खेचरत्वं प्रपद्यते ॥ १३ ॥ एक वर्ष बीत जानेपर वह मन्त्रजापक ऐसा कुछ नहीं है, जिसे सिद्ध न कर सके, वह अणिमा आदि आठों सिद्धियोंको तथा आकाशमें विचरणकी शक्तिको प्राप्त कर लेता है ॥ १३ ॥ पुनरन्यत्प्रवक्ष्यामि शक्तिं ज्ञातुं दुरासदाम् । प्रत्यक्षं दृश्यते लोके ज्ञानिनामग्रतः स्थितम् ॥ १४ ॥ अब इससे भी अधिक दुष्प्राप्य शक्तिको प्राप्त करनेवाले ज्ञानका वर्णन करता है, जिससे ज्ञानियोंके समक्ष संसारमें सब कुछ सामने रखी हुई वस्तुको भाँति प्रत्यक्ष दिखायी पड़ने लगता है ॥ १४ ॥ अज्ञेया लिख्यते लोके या सर्पीकृतकुण्डली । सा मात्रा यानसंस्थापि दृश्यते न च पठ्यते ॥ १५ ॥ सर्पाकार कुण्डली, जो लोकमें अज्ञेय कही जाती है, उसका वर्णन करता हूँ, वह मार्गमें स्थित हुई मात्रा केवल दिखती है, किंतु पढ़ी नहीं जाती ॥ १५ ॥ ब्रह्माण्डमूर्ध्निगा या च स्तुता वेदैस्तु नित्यशः । जननी सर्वविद्यानां गुप्तविद्येति गीयते ॥ १६ ॥ खेचरा सा विनिर्दिष्टा सर्वप्राणिषु संस्थिता । दृश्यादृश्याचला नित्या व्यक्ताव्यक्ता सनातनी ॥ १७ ॥ अवर्णा वर्णसंयुक्ता प्रोच्यते बिंदुमालिनी । तां पश्यन्सर्वदा योगी कृतकृत्योऽभिजायते ॥ १८ ॥ जो ब्रह्माण्डके शिरोभागपर स्थित है, वेदोंके द्वारा निरन्तर स्तुत है, सम्पूर्ण विद्याओंकी जननी है, गुप्त विद्याके नामसे कही जाती है, वह जीवोंके भीतर स्थित होकर हृदयाकाशमें विचरण करनेवाली कही गयी है । वह दृश्य, अदृश्य, अचल, नित्य, व्यक्त, अव्यक्त और सनातनी है । वह अवर्ण, वर्णसंयुक्त तथा बिन्दुमालिनी कही जाती है । उसका सर्वदा दर्शन करनेवाला योगी कृतकृत्य हो जाता है ॥ १६-१८ ॥ सर्वतीर्थकृतस्नानाद्भवेद्दानस्य यत्फलम् । सर्वयज्ञफलं यच्च मालिन्या दर्शनात्तदा ॥ १९ ॥ प्राप्नोत्यत्र न संदेहः सत्यं वै कथितं मया । सर्वतीर्थेषु यत्स्नात्वा दत्त्वा दानानि सर्वशः ॥ २० ॥ सर्वेषां देवि यज्ञानां यत्फलं तल्लभेत्पुमान् । किं बहूक्त्या महेशानि सर्वान्कामान्समश्नुते ॥ २१ ॥ सभी तीर्थोंमें स्नान करनेके बाद दानका जो फल होता है एवं सम्पूर्ण यज्ञोंसे जो फल प्राप्त होता है, वह बिन्दुमालिनीके दर्शनसे मिलता है, इसमें सन्देह नहीं है, यह मैं सत्य कह रहा हूँ । हे देवि ! सभी तीर्थोंमें स्नान करनेसे तथा सभी प्रकारके दान करनेसे जो फल मिलता है, एवं सम्पूर्ण यज्ञोंके अनुष्ठानसे जो फल मिलता है, वह फल मनुष्य [इसके दर्शनसे] प्राप्त कर लेता है । हे महेशानि ! अधिक कहनेसे क्या लाभ, उसके सभी मनोरथ पूर्ण हो जाते हैं ॥ १९-२१ ॥ तस्माज्ज्ञानं यथायोगमभ्यसेत्सततं बुधः । अभ्यासाज्जायते सिद्धिर्योगोऽभ्यासात्प्रवर्धते ॥ २२ ॥ संवित्तिर्लभ्यतेऽभ्यासादभ्यासान्मोक्षमश्नुते । अभ्यासः सततं कार्यो धीमता मोक्षकारणम् ॥ २३ ॥ अत: बुद्धिमान् पुरुषको योग-ज्ञानका नित्य अभ्यास करना चाहिये, अभ्याससे सिद्धि उत्पन्न होती है, अभ्याससे योग बढ़ता है । अभ्याससे ज्ञान प्राप्त होता है और अभ्याससे मुक्ति मिलती है, अतः बुद्धिमान्को मोक्षके कारणभूत योगका निरन्तर अभ्यास करते रहना चाहिये ॥ २२-२३ ॥ इत्येतत्कथितं देवि भुक्तिमुक्तिफलप्रदम् । किमन्यत्पृच्छ्यते तत्त्वं वद सत्यं ब्रवीमि ते ॥ २४ ॥ हे देवि ! इस प्रकार मैंने भोग एवं मोक्ष देनेवाला योगाभ्यास तुमसे कहा, अब तुम्हें और क्या पूछना है, उसे तुम बताओ, मैं तुम्हें सत्य-सत्य बताऊँगा ॥ २४ ॥ सूत उवाच - इति श्रुत्वा ब्रह्मपुत्रवचनं परमार्थदम् । प्रसन्नोऽभूदति व्यासः पाराशर्यो मुनीश्वराः ॥ २५ ॥ सूतजी बोले-हे मुनीश्वरो ! सनत्कुमारके परमार्थप्रद वचनको सुनकर पराशरपुत्र व्यासजी प्रसन्न हो गये ॥ २५ ॥ सनत्कुमारं सर्वज्ञं ब्रह्मपुत्रं कृपानिधिम् । व्यासः परमसन्तुष्टः प्रणनाम मुहुर्मुहुः ॥ २६ ॥ उसके अनन्तर व्यासजीने अत्यन्त सन्तुष्ट हो सर्वज्ञ तथा कृपालु ब्रह्मपुत्र सनत्कुमारको बारम्बार प्रणाम किया ॥ २६ ॥ ततस्तुष्टाव तं व्यासः कालेयः स मुनीश्वरः । सनत्कुमारं मुनयः सुरविज्ञानसागरम् ॥ २७ ॥ तत्पश्चात् हे मुनियो ! कालीपुत्र मुनीश्वर व्यासने स्वरविज्ञानसागर सनत्कुमारकी स्तुति की ॥ २७ ॥ व्यास उवाच - कृतार्थोऽहं मुनिश्रेष्ठ ब्रह्मत्वं मे त्वया कृतम् । नमस्तेऽस्तु नमस्तेऽतु धन्यस्त्वं ब्रह्मवित्तमः ॥ २८ ॥ व्यासजी बोले-हे मुनिश्रेष्ठ ! मैं कृतार्थ हुआ, आपने मुझे ब्रह्मतत्त्वकी प्राप्ति करायी, आप ब्रह्मवेत्ताओंमें श्रेष्ठ तथा धन्य हैं, आपको नमस्कार है, आपको नमस्कार है ॥ २८ ॥ सूत उवाच - इति स्तुत्वा स कालेयो ब्रह्मपुत्रं महामुनिम् । तूष्णीं बभूव सुप्रीतः परमानंदनिर्भरः ॥ २९ ॥ सूतजी बोले-इस प्रकार वे व्यासजी महामुनि ब्रह्मपुत्रकी स्तुतिकर अत्यन्त प्रसन्न तथा परमानन्दमें मग्न होकर मौन हो गये ॥ २९ ॥ ब्रह्मपुत्रस्तमामन्त्र्य पूजितस्तेन शौनकः । ययौ स्वधाम सुप्रीतो व्यासोऽपि प्रीतमानसः ॥ ३० ॥ हे शौनक ! उसके बाद उनके द्वारा पूजित हुए सनत्कुमारजी उनसे आज्ञा लेकर अपने स्थानको चले गये और इधर व्यासजी भी प्रसन्नचित्त होकर अपने स्थानको चले गये ॥ ३० ॥ इति मे वर्णितो विप्राः सुखदः परमार्थयुक् । सनत्कुमारकालेयसंवादो ज्ञानवर्द्धनः ॥ ३१ ॥ हे ब्राह्मणो ! मैंने इस प्रकार सनत्कुमार एवं व्यासजीका यह सुख प्रदान करनेवाला, परमार्थयुक्त तथा ज्ञानवर्धक संवाद आपलोगोंसे कहा ॥ ३१ ॥ इति श्रीशिवमहापुराणे पञ्चम्यामुमासंहितायां छायापुरुषदर्शनवर्णनं नामाष्टाविंशोऽध्यायः ॥ २८ ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत पांचवीं उपासंहितामें छायापुरुषवर्णन नामक अठ्ठाईसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २८ ॥ श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु |