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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥

॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥

पञ्चमी उमासंहितायां

एकोनत्रिंशोऽध्यायः


आदिसर्गवर्णनम्
आदिसर्गवर्णन


शौनक उवाच -
श्रुतं मे महदाख्यानं यत्त्वया परिकीर्तितम् ।
सनत्कुमारकालेयसंवादं परमार्थदम् ॥ १ ॥
अतोहं श्रोतुमिच्छामि यथा सर्गस्तु ब्रह्मणः ।
समुत्पन्नं तु मे ब्रूहि यथा व्यासाच्च ते श्रुतम् ॥ २ ॥
ब्रह्माकी आदिसृष्टिका वर्णन शौनक बोले-आपने परमार्थ प्रदान करनेवाला सनत्कुमार एवं व्यासजीका संवादरूप जो महान् आख्यान कहा, उसे मैंने सुन लिया । अब जिस प्रकार ब्रह्माकी सृष्टि उत्पन्न हुई, उसे मैं सुनना चाहता हूँ, जैसा आपने व्यासजीसे सुना है, उसे मुझसे कहिये ॥ १-२ ॥

सूत उवाच -
मुने शृणु कथां दिव्यां सर्वपापप्रणाशिनीम् ।
कथ्यमानां मया चित्रां बह्वर्थां श्रुतविस्तराम् ॥ ३ ॥
सूतजी बोले-हे मुने ! मेरे द्वारा कही जाती हुई श्रुतियोंमें विस्तारसे वर्णित, अनेक अर्थोंवाली, सभी प्रकारके पापोंका नाश करनेवाली, दिव्य तथा अद्‌भुत कथाको आप सुनिये ॥ ३ ॥

यश्चैनां पाठयेत्तां च शृणुयाद्वाऽप्यभीक्ष्णशः ।
स्ववंशधारणं कृत्वा स्वर्गलोके महीयते ॥ ४ ॥
प्रधानं पुरुषो यत्तन्नित्यं सदसदात्मकम् ।
प्रधानपुरुषो भूत्वा निर्ममे लोकभावनः ॥ ५ ॥
जो [मनुष्य] इसे पढ़ाता है अथवा बार-बार सुनता है, वह अपनी वंशपरम्पराको स्थिर रखते हुए स्वर्गलोकमें प्रतिष्ठा प्राप्त करता है । जो [परमात्मा] प्रधान तथा पुरुषस्वरूप हैं, जो नित्य और सदसदात्मक हैं, उन्हीं पुरुषरूप लोकस्रष्टाके द्वारा प्रधान अर्थात् प्रकृतिके माध्यमसे सृष्टि की गयी है ॥ ४-५ ॥

स्रष्टारं सर्वभूतानां नारायणपरायणम् ।
तं वै विद्धि मुनिश्रेष्ठ ब्रह्माणममितौजसम् ॥ ६ ॥
यस्मादकल्पयत्कल्पाः समग्राः शुचयो यतः ।
भवन्ति मुनिशार्दूल नमस्तस्मै स्वयम्भुवे ॥ ७ ॥
तस्मै हिरण्यगर्भाय पुरुषायेश्वराय च ।
नमस्कृत्य प्रवक्ष्यामि भूयः सर्गमनुत्तमम् ॥ ८ ॥
हे मुनिश्रेष्ठ ! नारायणपरायण तथा अमित तेजस्वी उन ब्रह्माको सभी प्राणियोंकी सृष्टि करनेवाला जानिये । हे मुनिश्रेष्ठ ! जिनसे सभी पवित्र कल्पों (पदार्थों)-की सृष्टि हुई तथा जिनसे सब कुछ पवित्र होता है, उन स्वयम्भूको नमस्कार है । उन हिरण्यगर्भ पुरुष परमेश्वरको नमस्कार करके मैं इस सर्वश्रेष्ठ सृष्टिका वर्णन कर रहा हूँ ॥ ६-८ ॥

ब्रह्मा स्रष्टा हरिः पाता संहर्ता च महेश्वरः ।
तस्य सर्गस्य नान्योऽस्ति काले काले तथा गते ॥ ९ ॥
समय-समयपर ब्रह्मा इस सृष्टिके सृजनकर्ता, विष्णु पालनकर्ता एवं शिवजी संहर्ता रहे हैं, इनके अतिरिक्त स्रष्टा अथवा लय करनेवाला अन्य कोई नहीं है ॥ ९ ॥

सोऽपि स्वयंभूर्भगवान् सिसृक्षुर्विविधाः प्रजाः ।
अप एव ससर्जादौ तासु वीर्यमवासृजत् ॥ १० ॥
नाना प्रकारकी प्रजाओंकी सृष्टिको इच्छासे भगवान् स्वयम्भूने सर्वप्रथम जलको उत्पन्न किया, और उसमें ओजका आधान किया ॥ १० ॥

आपो नारा इति प्रोक्ता आपो वै नरसूनवः ।
अयनं तस्य ताः पूर्वं तेन नारायणः स्मृतः ॥ ११ ॥
जलको नार कहा जाता है; क्योंकि वह नरसे उत्पन्न हुआ है, वह जल पूर्व समयमें भगवान्का आश्रय हुआ था, अतः वे नारायण कहे गये हैं ॥ ११ ॥

हिरण्यवर्णमभवत्तदण्डमुदकेशयम् ।
तत्र जज्ञे स्वयं ब्रह्मा स्वयंभूरिति विश्रुतः ॥ १२ ॥
भगवान्के द्वारा जलमें आधान किये गये ओजसे एक सुवर्णमय अण्ड प्रकट हुआ, उससे स्वयं ब्रह्मा | उत्पन्न हुए, अतः वे स्वयम्भू कहे गये हैं ॥ १२ ॥

हिरण्यगर्भो भगवानुषित्वा परिवत्सरम् ।
तदंडमकरोद्वैधं दिवं भूमि च निर्ममे ॥ १३ ॥
अधोऽधोर्ध्वं प्रयुक्तानि भुवनानि चतुर्दश ।
तयोः शकलयोर्मध्य आकाशममृजत्प्रभुः ॥ १४ ॥
अप्सु परिप्लवां पृथ्वीं दिशश्च दशधा दिवि ।
तत्र काले मनो वाचं कामक्रोधावथो रतिम् ॥ १५ ॥
भगवान् हिरण्यगर्भने एक वर्षतक वहाँ निवासकर उस अण्डेको दो भागोंमें विभक्त किया और उनसे स्वर्ग तथा भूलोकका निर्माण किया । उन्होंने उसमें नीचे और ऊपर कुल चौदह भुवनोंकी रचना की । प्रभुने दोनों खण्डोंके बीचमें आकाशका सृजन किया । उन्होंने जलमें तैरती हुई पृथ्वी तथा दस दिशाओंकी रचना की और वहीं काल, मन, वाणी, काम, क्रोध एवं रतिको बनाया ॥ १३-१५ ॥

मरीचिमत्र्यङ्‌गिरसौ पुलस्त्यं पुलहं क्रतुम् ।
वसिष्ठं तु महतेजाः सोऽसृजत्सप्त मानसान् ॥ १६ ॥
सप्त ब्रह्माण इत्येते पुराणे निश्चयं गताः ।
ततोऽसृजत्पुनर्ब्रह्मा रुद्रान्क्रोधसमुद्‌भवान् ॥ १७ ॥
सनत्कुमारं च ऋषिं सर्वेषामपि पूर्वजम् ।
सप्त चैते प्रजायन्ते पश्चाद्‌रुद्राश्च सर्वतः ॥ १८ ॥
अतः सनत्कुमारस्तु तेजः सङ्‌क्षिप्य तिष्ठति ।
तेषां सप्तमहावंशा दिव्या देवर्षिपूजिताः ॥ १९ ॥
तत्पश्चात् उन महातेजस्वीने मरीचि, अत्रि, अंगिरा, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु एवं वसिष्ठ-इन सात मानस ऋषियोंको उत्पन्न किया । पुराणमें ये ही सात ऋषि ब्रह्माके नामसे प्रसिद्ध हैं, उसके बाद पुन: ब्रह्माजीने क्रोधसे उत्पन्न होनेवाले रुद्रोंकी एवं सबके पूर्वज ऋषि सनत्कुमारकी रचना की । इस प्रकार ये सप्तर्षि पहले एवं रुद्र उनके बाद उत्पन्न होते हैं । सनत्कुमार तो अपने तेजका संवरणकर स्थित रहते हैं, किंतु उन सप्तर्षियोंके सात महावंश उत्पन्न होते हैं, जो दिव्य देवर्षियोंसे पूजित, क्रियाशील तथा महर्षियोंसे अलंकृत हैं ॥ १६-१९ ॥

प्रजायन्ते क्रियावन्तो महर्षिभिरलङ्‌कृताः ।
विद्युतोऽशनिमेघांश्च रोहितेन्द्रधनूंषि च ॥ २० ॥
पयांसि च ससर्जादौ पर्जन्यं च ससर्ज ह ।
ऋचो यजूंषि सामानि निर्ममे यज्ञसिद्धये ॥ २१ ॥
पूज्यांस्तैरयजन्देवानित्येवमनुशुश्रुम ।
मुखाद्देवानजनयत्पितॄंश्चैवाथ वक्षसः ।
प्रजायत मनुष्यान्वै जघनान्निर्ममेऽसुरान् ॥ २२ ॥
उसके बाद उन्होंने विद्युत्, वड, मेघ, रोहित, इन्द्रधनुष, जल एवं पर्जन्यको उत्पन्न किया । तदनन्तर उन्होंने यज्ञसम्पादनके लिये ऋक्, यजुः तथा सामवेदकी रचना की । उन वेदोंके द्वारा ही पूज्य देवगणोंका यजन किया गया-ऐसा हम सुनते हैं । उन्होंने अपने मुखसे देवताओंको, वक्षःस्थलसे पितरोंको, उपस्थेन्द्रियसे मनुष्योंको और जघनसे दैत्योंको उत्पन्न किया । इस प्रकार प्रजाकी सृष्टि करते हुए उन आपब (अर्थात् जलमं प्रकट हुए) प्रजापति ब्रह्माजीके अंगोंमेंसे उच्च तथा साधारण श्रेणीके बहुत-से प्राणी प्रकट हुए ॥ २०-२२ ॥

उच्चावचानि भूतानि गात्रेभ्यस्तस्य जज्ञिरे ।
आपवस्य प्रजासर्गं सृजतो हि प्रजापतेः ॥ २३ ॥
सृज्यमानाः प्रजाश्चैव नावर्धन्त यदा तदा ।
द्विधा कृत्वात्मनो देहं स्त्री चैव पुरुषोऽभवत् ॥ २४ ॥
ब्रह्माजीके द्वारा सृजन की जाती हुई सृष्टि जब नहीं बढ़ी, तब वे अपने शरीरको दो भागोंमें विभक्तकर एक भागसे पुरुष और दूसरे भागसे नारी हो गये ॥ २३-२४ ॥

ससृजेऽथ प्रजाः सर्वा महिम्ना व्याप्य विश्वतः ।
विराजमसृजद्विष्णुः स सृष्टः पुरुषो विराट् ॥ २५ ॥
द्वितीयं तं मनुं विद्धि मनोरन्तरमेव च ।
स वैराजः प्रजाः सर्वाः ससर्ज पुरुषः प्रभुः ॥ २६ ॥
इसके अनन्तर अपनी महिमासे सारे संसारमें व्याप्त होकर उन्होंने सम्पूर्ण प्रजाको उत्पन्न किया । भगवान् विष्णुने विराट् (आपब, ब्रह्माजी)-को उत्पन्न किया । उन विराट्ने पुरुषको उत्पन्न किया । उस पुरुषको ही द्वितीय [सृष्टिकर्ता] मनु समझिये तथा यहींसे मन्वन्तरका आरम्भ भी मानना चाहिये । उन्हीं प्रभावशाली वैराज पुरुष मनुने समस्त प्रजाओंकी सृष्टि की थी ॥ २५-२६ ॥

नारायणविसर्गस्य प्रजास्तस्याप्ययोनिजाः ।
आयुष्मान्कीर्तिमान्धन्यः प्रजावांश्चाभवत्ततः ॥ २७ ॥
भगवान् नारायणका [आपव प्रजापति ब्रह्माजीके रूपमें हुआ] प्रजासर्ग अयोनिज था । वह सर्ग आयुष्मान्, कीर्तिमान्, धन्य तथा प्रजावान् हुआ ॥ २७ ॥

इत्येवमादिसर्गस्ते वर्णितो मुनिसत्तम ।
आदिसर्गं विदित्वैवं यथेष्टां प्राप्नुयाद्‌गतिम् ॥ २८ ॥
हे मुनिश्रेष्ठ ! इस प्रकार मैंने आपसे आदिसर्गका वर्णन कर दिया । मनुष्य इस आदिसर्गको जानकर यथेष्ट गतिको प्राप्त कर लेता है ॥ २८ ॥

इति श्रीशिवमहापुराणे पञ्चम्यामुमासंहितायां
आदिसर्गवर्णनं नाम एकोनत्रिंशोऽध्यायः ॥ २९ ॥
इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत पांचवीं उमासंहितामें आदिसर्गवर्णन नामक उनतीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २९ ॥



श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु


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