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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥

॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥

पञ्चमी उमासंहितायां

पञ्चत्रिंशोऽध्यायः


मन्वन्तरकीर्तने वैवस्वतवर्णनम्
विवस्वान् एवं संज्ञाका वृत्तान्तवर्णनपूर्वक अश्विनीकुमारोंकी उत्पत्तिका वर्णन


सूत उवाच -
विवस्वान्कश्यपाज्जज्ञे दाक्षायण्यां महाऋषेः ।
तस्य भार्याऽभवत्संज्ञा त्वाष्ट्री देवी सुरेणुका ॥ १ ॥
सूतजी बोले-महर्षि कश्यपसे दक्षपुत्री [अदिति]में विवस्वान् उत्पन्न हुए; उनकी पत्‍नी त्वष्टापुत्री देवी संज्ञा हुईं, जो सुरेणुका नामसे भी विख्यात हैं ॥ १ ॥

मुनेऽसहिष्णुना तेन तेजसा दुःसहेन च ।
भर्तृरूपेण नातुष्यद्‌रूपयौवनशालिनी ॥ २ ॥
रूप-यौवनसे समन्वित वह [संज्ञा] अपने पतिके असहिष्णु तथा दुःसह तेजसे सन्तुष्ट नहीं हुई ॥ २ ॥

आदित्यस्य हि तद्‍रूपमसहिष्णुस्तु तेजसः ।
दह्यमाना तदोद्वेगमकरोद्वरवर्णिनी ॥ ३ ॥
तब अत्यन्त तेजस्वी सूर्यके उस तेजको सहनेमें असमर्थ वह सुन्दरी जलती हुई [अत्यन्त] उद्विग्न हो गयी ॥ ३ ॥

ऋषेऽस्यां त्रीण्यपत्यानि जनयामास भास्करः ।
संज्ञायां तु मनुः पूर्वं श्राद्धदेवः प्रजापतिः ॥ ४ ॥
यमश्च यमुना चैव यमलौ संबभूवतुः ।
एवं हि त्रीण्यपत्यानि तस्यां जातानि सूर्यतः ॥ ५ ॥
हे ऋषे ! आदित्यने इस संज्ञासे तीन सन्तानें उत्पन्न की । सर्वप्रथम श्राद्धदेव प्रजापति मनु हुए, उसके अनन्तर यम और यमुना-ये दोनों जुड़वें पैदा हुए । इस प्रकार सूर्यसे संज्ञामें तीन सन्तानें उत्पन्न हुई ॥ ४-५ ॥

संवर्तुलं तु तद्‌रूपं दृष्ट्‍वा संज्ञा विवस्वतः ।
असहन्ती ततः छायामात्मनः सासृजच्छुभाम् ॥ ६ ॥
उसके बाद सूर्यके उस संवर्तुल अर्थात् उत्पीडक रूपको देखकर उसे सहन न करती हुई उस संज्ञाने अपनी सुन्दर छायाका निर्माण किया ॥ ६ ॥

मायामयी तु सा संज्ञामवोचद्‌भक्तितः शुभे ।
किं करोमीह कार्यं ते कथयस्व शुचिस्मिते ॥ ७ ॥
तब उस मायामयी छायाने संज्ञासे भक्तिपूर्वक कहा-हे शुभे ! हे शुचिस्मिते ! मैं यहाँ आपका कौनसा कार्य करूं, बताओ ? ॥ ७ ॥

संज्ञोवाच -
अहं यास्यामि भद्रं ते ममैव भवनं पितुः ।
त्वयैतद्‌भवने सत्यं वस्तव्यं निर्विकारतः ॥ ८ ॥
इमौ मे बालकौ साधू कन्या चेयं सुमध्यमा ।
पालनीयाः सुखेनैव मम चेदिच्छसि प्रियम् ॥ ९ ॥
संज्ञा बोली-तुम्हारा कल्याण हो, मैं अपने पिताके घर जा रही हूँ, तुम इस भवनमें निर्विकार भावसे निवास करो । यदि तुम मेरा हित चाहती हो, तो मेरे इन दोनों साधुस्वभाव पुत्रोंका और इस सुन्दरी कन्याका सुखपूर्वक पालन करना ॥ ८-९ ॥

छायोवाच -
आकेशग्रहणाद्देवि सहिष्येऽहं सुदुष्कृतम् ।
नाख्यास्यामि मतं तुभ्यं गच्छ देवि यथासुखम् ॥ १० ॥
छाया बोली-हे देवि ! मैं अपना केश पकड़े जानेतक अत्याचार सहन करूँगी और तबतक आपका रहस्य सूर्यसे नहीं कहूँगी, आप सुखपूर्वक जाइये ॥ १० ॥

सूत उवाच -
इत्युक्ता सागमद्देवी व्रीडिता सन्निधौ पितुः ।
पित्रा निर्भर्त्सिता तत्र नियुक्ता सा पुनः पुनः ॥ ११ ॥
अगच्छद्वडवा भूत्वाच्छाद्य रूपं ततः स्वकम् ।
कुरूंस्तदोत्तरान्प्राप्य नृणां मध्ये चचार ह ॥ १२ ॥
सूतजी बोले-ऐसा कहे जानेपर वह संज्ञा लजित हो अपने पिताके पास चली गयी । वहाँपर पिताने उसे बहुत फटकारा और वहाँ जानेके लिये उसे बारंबार विवश किया । तब वह अपने स्वरूपको छिपाकर घोड़ीका रूप धारण करके उत्तर कुरुदेशमें जाकर तृणोंके बीच [गुप्त रूपसे] विचरण करने लगी ॥ ११-१२ ॥

संज्ञां तां तु रविर्मत्वा छायायां सुसुतं तदा ।
जनयामास सावर्णिं मनुं वै सविता किल ॥ १३ ॥
उसके बाद सूर्यने छायाको ही संज्ञा समझकर उससे सावर्णि मनु नामक सुन्दर पुत्रको उत्पन्न किया ॥ १३ ॥

संज्ञानु प्रार्थिता छाया सा स्वपुत्रेऽपि नित्यशः ।
चकाराभ्यधिकं स्नेहं न तथा पूर्वजे सुते ॥ १४ ॥
संज्ञाद्वारा प्रार्थना किये जानेपर भी वह छाया अपने पुत्र सावर्णिसे अधिक स्नेह करती थी, किंतु संज्ञापुत्रोंसे उतना स्नेह नहीं करती थी ॥ १४ ॥

अनुजश्चाक्षमस्तत्तु यमस्तं नैव चक्षमे ।
स सरोषस्तु बाल्याच्च भाविनोऽर्थस्य गौरवात् ॥ १५ ॥
छायां सन्तर्जयामास यदा वैवस्वतो यमः ।
तं शशाप ततः क्रोधाच्छाया तु कलुषीकृता ॥ १६ ॥
चरणः पततामेष तवेति भृशरोषितः ।
यमस्ततः पितुः सर्वं प्राञ्जलिः प्रत्यवेदयत् ॥ १७ ॥
भृशं शापभयोद्विग्नः संज्ञावाक्यैर्विचेष्टितः ।
मात्रा स्नेहेन सर्वेषु वर्तितव्यं सुतेषु वै ॥ १८ ॥
स्नेहमस्मास्वपाकृत्य कनीयांसं बिभर्ति सा ।
तस्मान्मयोद्यतः पादस्तद्‌भवान् क्षन्तुमर्हति ॥ १९ ॥
शप्तोहमस्मि देवेश जनन्या तपतांवर ।
तव प्रसादाच्चरणो न पतेन्मम गोपते ॥ २० ॥
श्राद्धदेव मनुने तो इसे सह लिया, किंतु यमको यह सहन नहीं हुआ । इसलिये जब बचपनेके कारण तथा भवितव्यताके वश हो क्रोधित होकर उन वैवस्वत यमने छायाको पैर उठाकर धमकाया, तब पापिनी छायाने क्रोधपूर्वक उसे शाप दे दिया कि तुम्हारा यह चरण पृथ्वीपर गिर जाय । उसके बाद यमने हाथ जोड़कर सारा समाचार अपने पितासे निवेदन किया । शापके भयसे अत्यन्त व्याकुल एवं संज्ञाके वचनोंसे प्रेरित हुए यमने कहा कि माताको चाहिये कि वह अपने सभी पुत्रोंमें स्नेहपूर्वक समताका व्यवहार करे । किंतु वह छाया तो हमलोगोंसे स्नेह हटाकर केवल छोटे भाईका लालन-पालन करती है, इसीलिये मैंने उसे मारनेके लिये पैर उठाया, इसे आप क्षमा कीजिये । हे देवेश ! हे तेजस्वियोंमें श्रेष्ठ ! हे गोपते ! माताने मुझे शाप दिया है, अतः आपकी कृपासे मेरा चरण न गिरे ॥ १५-२० ॥

सवितोवाच -
असंशयं पुत्र महद्‌भविष्यत्यत्र कारणम् ।
येन त्वामाविशत्क्रोधो धर्मज्ञं सत्यवादिनम् ॥ २१ ॥
न शक्यते तन्मिथ्या वै कर्तुं मातृवचस्तव ।
कृमयो मांसमादाय गमिष्यन्ति महीतले ॥ २२ ॥
तद्वाक्यं भविता सत्यं त्वं च त्रातो भविष्यसि ।
कुरु तात न संदेहं मनश्चाश्वास्य स्वं प्रभो ॥ २३ ॥
सविता बोले-हे पुत्र ! इसमें निःसन्देह कोई कारण होगा, जिससे तुम्हारे जैसे धर्मज्ञ तथा सत्यवादीको क्रोध उत्पन्न हुआ । तुम्हारी माताका वचन तो मिथ्या नहीं किया जा सकता है । कीड़े तुम्हारे चरणोंका मांस लेकर पृथ्वीमें चले जायेंगे । इससे उसकी बात भी सत्य हो जायगी और तुम्हारी रक्षा भी हो जायगी । हे तात ! हे प्रभो ! अपने मनको आश्वस्त कर लो और सन्देह मत करो ॥ २१-२३ ॥

सूत उवाच -
इत्युक्त्वा तनयं सूर्यो यमसंज्ञं मुनीश्वर ।
आदित्यश्चाब्रवीत्तान्त्तु छायां क्रोधसमन्वितः ॥ २४ ॥
सूतजी बोले-हे मुनीश्वर ! यम नामक पुत्रसे ऐसा कहकर आदित्य सूर्यने क्रोधित हो उस छायासे कहा- ॥ २४ ॥

सूर्य उवाच -
हे प्रिये कुमते चंडि किं त्वयाचरितं किल ।
किं तु मेऽभ्यधिकः स्नेह एतदाख्यातुमर्हसि ॥ २५ ॥
सूर्य बोले-हे प्रिये ! हे कुमते ! हे चण्डि ! तुमने यह क्या किया ? तुम अपने पुत्रोंमें न्यूनाधिक स्नेह क्यों करती हो, इसे मुझको बताओ ॥ २५ ॥

सूत उवाच -
सा रवेर्वचनं श्रुत्वा यथा तथ्यं न्यवेदयत् ।
निर्दग्धा कामरविणा सान्त्वयामास वै तदा ॥ २६ ॥
तस्यास्तद् वचनं श्रुत्वा सूर्योऽगात्त्वष्टुरन्तिकम् ।
पपच्छ तं क्व संज्ञेति त्वष्टा सूर्यमथाब्रवीत् ॥ २७ ॥
सूतजी बोले-अपनी इच्छासे प्रज्वलित हुए सूर्यदेवके द्वारा जलायी जाती हुई छायाने उनका कथन सुनकर तथ्यपूर्ण उत्तर दिया, तब सूर्यदेवने उसे सान्त्वना प्रदान की । उसकी बात सुनकर सूर्य त्वष्टाके पास गये और उन्होंने उनसे पूछा कि संज्ञा कहाँ है ? तब त्वष्टाने सूर्यसे कहा- ॥ २६-२७ ॥

त्वष्टोवाच -
तवातितेजसा दग्धा इदं रूपं न शोभते ।
असहन्ती च तत्संज्ञा वने वसति शाद्वले ॥ २८ ॥
श्लाघ्या योगबलोपेता योगमासाद्य गोपते ।
अनुकूलस्तु देवेश संदिश्यात्ममयं मतम् ॥ २९ ॥
त्वष्टा बोले-आपके अत्यन्त तेजसे जलती रहनेके कारण उसे आपका यह रूप अच्छा नहीं लगता है, अत: उसे सहन न करती हुई वह तृणोंसे भरे वनमें निवास करती है । हे गोपते ! योगबलसे युक्त तथा योगका आश्रय लेकर स्थित वह संज्ञा प्रशंसनीय है । हे देवेश ! अपनी बात कहकर आप अनुकूल हो जाइये । अब मैं आपके रूपको मनोहर बना देता हूँ ॥ २८-२९ ॥

रूपं निवर्तयाम्यद्य तव कान्तं करोम्यहम् ।
सूत उवाच -
तच्छ्रुत्वापगतः क्रोधो मार्तण्डस्य विवस्वतः ॥ ३० ॥
भ्रमिमारोप्य तत्तेजः शातयामास वै मुनिः ।
ततो विभ्राजितं रूपं तेजसा संवृतेन च ॥ ३१ ॥
कृतं कान्ततरं रूपं त्वष्ट्रा तच्छुशुभे तदा ।
ततोऽधियोगमास्थाय स्वां भार्यां हि ददर्श ह ॥ ३२ ॥
अधृष्यां सर्वभूतानां तेजसा नियमेन च ।
सोऽश्वरूपं समास्थाय गत्वा तां मैथुनेच्छया ॥ ३३ ॥
मैथुनाय विचेष्टन्तीं परपुंसोभिशङ्‌कया ।
मुखतो नासिकायां तु शुक्रं तद्‌व्यदधान्मुने ॥ ३४ ॥
सूतजी बोले-यह सुनकर विवस्वान् सूर्यका क्रोध दूर हो गया । तब त्वष्टा मुनिने सानपर स्थापितकर उनके तेजको छील दिया । इसके बाद तेजके छील दिये जानेसे उनका रूप मनोहारी हो गया । जब त्वष्टाने उनके रूपको अत्यधिक सुन्दर बना दिया, तब वे अति शोभित होने लगे । इस प्रकार सूर्यदेवने योगमें स्थित होकर अपने नियम और तेजके कारण सम्पूर्ण प्राणियोंद्वारा अपराजेय अपनी भार्याको देखा । तब अश्वका रूप धारणकर सूर्य संगकी इच्छासे वहाँ पहुँचे । हे मुने ! तब संगके लिये चेष्टा करते हुए सूर्यको देखकर परपुरुषकी शंकासे युक्त संज्ञाने उनका शुक्र मुखसे लेकर नासिकामें धारण कर लिया ॥ ३०-३४ ॥

देवौ ततः प्रजायेतामश्विनौ भिषजां वरौ ।
नासत्यौ तौ च दस्रौ च स्मृतौ द्वावश्विनावपि ॥ ३५ ॥
उससे वैद्योंमें श्रेष्ठ युगल अश्विनीकुमार देवता उत्पन्न हुए । वे दोनों अश्विनीकुमार नासत्य अथवा दस्त्र कहे गये हैं ॥ ३५ ॥

तौ तु कान्तेन रूपेण दर्शयामास भास्करः ।
आत्मानं सा तु तं दृष्ट्‍वा प्रहृष्टा पतिमादरात् ॥ ३६ ॥
पत्या तेन गृहं प्रागात्स्वं सती मुदितानना ।
मुमुदातेऽथ तौ प्रीत्या दंपती पूर्वतोऽधिकम् ॥ ३७ ॥
उसके बाद सूर्यने उसको अपने मनोहर रूपका दर्शन कराया । तब आत्मस्वरूप अपने पतिदेवको आदरपूर्वक देखकर वह (संज्ञा) प्रसन्न हो गयी । इसके बाद प्रसन्नमुखवाली वह सती पतिके साथ अपने घर चली गयी । इस प्रकार दोनों स्त्री-पुरुष प्रीतिसे युक्त हो पहलेसे अधिक प्रसन्न हो गये ॥ ३६-३७ ॥

यमस्तु कर्मणा तेन भृशं पीडितमानसः ।
धर्मेण रञ्जयामास धर्मराज इमा प्रजाः ॥ ३८ ॥
लेभे स कर्मणा तेन धर्मराजो महाद्युतिः ।
पितॄणामाधिपत्यं च लोकपालत्वमेव च ॥ ३९ ॥
[माताके तिरस्काररूप] उस कर्मसे अत्यन्त व्यथित धर्मराज यम धर्मपूर्वक प्रजाओंको प्रसन्न करने लगे । उस कर्मसे महातेजस्वी धर्मराजको पितरोंका आधिपत्य तथा लोकपालका पद प्राप्त हुआ ॥ ३८-३९ ॥

मनुः प्रजापतिस्त्वासीत्सावर्णिः स तपोधनः ।
भाव्यः स कर्मणा तेन मनोः सावर्णिकेऽन्तरे ॥ ४० ॥
तपोधन सावर्णिको भी प्रजापति मनुका पद प्राप्त हुआ । वे अपने उस कर्मसे वैवस्वत मनुके बाद सावर्णि मन्वन्तरके मनु होंगे ॥ ४० ॥

मेरुपृष्ठे तपो घोरमद्यापि चरते प्रभुः ।
यवीयसी तयोर्या तु यमी कन्या यशस्विनी ॥ ४१ ॥
अभवत्सा सरिच्छ्रेष्ठा यमुना लोकपावनी ।
मनुरित्युच्यते लोके सावर्णिरिति चोच्यते ॥ ४२ ॥
वे प्रभु आज भी सुमेरुपर्वतपर घोर तप कर रहे हैं । लोकमें उन्हें मनु कहा जाता है और सावर्णि भी कहा जाता है । उन दोनोंसे छोटी जो यशस्विनी कन्या यमी थी, वह नदियोंमें श्रेष्ठ लोकपावनी यमुना हुई ॥ ४१-४२ ॥

य इदं जन्म देवानां शृणुयाद्धारयेत्तु वा ।
आपदं प्राप्य मुच्येत प्राप्नुयात्सुमहद्यशः ॥ ४३ ॥
जो देवगणोंके जन्मके इस आख्यानका श्रवण करता है अथवा स्मरण करता है, वह आपद्‌ग्रस्त होनेपर भी उससे मुक्त हो जाता है और महान् यश प्राप्त करता है ॥ ४३ ॥

इति श्रीशिवमहापुराणे पञ्चम्यामुमासंहितायां
मन्वन्तरकीर्तने वैवस्वतवर्णनं नाम पञ्चत्रिंशोऽध्यायः ॥ ३५ ॥
इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत पाँचवीं उमासंहितामें मन्वन्तरकीर्तन में वैवस्वतवर्णन नामक पैंतीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ३५ ॥



श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु


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