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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥
॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥ पञ्चमी उमासंहितायां
अष्टत्रिंशोऽध्यायः सत्यव्रतादिसगरपर्यन्त वंशवर्णनम्
सत्यव्रत-त्रिशंकु-सगर आदिके जन्मके निरूपणपूर्वक उनके चरित्रका वर्णन सूत उवाच - सत्यव्रतस्तु तद्भक्त्या कृपया च प्रतिज्ञया । विश्वामित्रकलत्रं च पोषयामास वै तदा ॥ १ ॥ सूतजी बोले-तदनन्तर सत्यव्रत उनकी सेवाके उद्देश्यसे तथा कृपासे और अपनी प्रतिज्ञासे विश्वामित्रकी पत्नीका [भरण-] पोषण करने लगा ॥ १ ॥ हत्वा मृगान्वराहांश्च महिषांश्च वनेचरान् । विश्वामित्राश्रमाभ्याशे तन्मांसं चाक्षिपन्मुने ॥ २ ॥ हे मुने ! वह मृग, वाराह, महिष तथा अन्य वनेचर जन्तुओंका वधकर उनका मांस नित्य विश्वामित्रके आश्रमके समीप रख देता था ॥ २ ॥ तीर्थं गां चैव रात्रं च तथैवान्तःपुरं मुनिः । याज्योपाध्यायसंयोगाद्वसिष्ठः पर्यरक्षत ॥ ३ ॥ इधर [त्रय्यारुणिके वन चले जानेपर] मुनि वसिष्ठ यजमान तथा पुरोहितके सम्बन्धसे उनके तीर्थ, पृथ्वी, राज्य तथा अन्तःपुरकी रक्षा करने लगे ॥ ३ ॥ सत्यव्रतस्य वाक्याद्वा भाविनोर्थस्य वै बलात् । वसिष्ठोऽभ्यधिकं मन्युं धारयामास नित्यशः ॥ ४ ॥ पित्रा तु तं तदा राष्ट्रात्परित्यक्तं स्वमात्मजम् । न वारयामास मुनिर्वसिष्ठः कारणेन च ॥ ५ ॥ सत्यव्रतके वचनसे अथवा होनहारकी प्रेरणासे वसिष्ठजी उसके प्रति अधिक क्रोध रखते थे । इसी कारणसे पिताके द्वारा राज्यसे अपने पुत्रके निकाल दिये जानेपर भी मुनि वसिष्ठने मना नहीं किया था ॥ ४-५ ॥ पाणिग्रहणमन्त्राणां निष्ठा स्यात्सप्तमे पदे । न च सत्यव्रतस्थस्य तमुपांशुमबुद्ध्यत ॥ ६ ॥ तस्मिन्स परितोषाय पितुरासीन्महात्मनः । कुलस्य निष्कृतिं विप्र कृतवान्वै भवेदिति ॥ ७ ॥ न तं वसिष्ठो भगवान्पित्रा त्यक्तं न्यवारयत् । अभिषेक्ष्याम्यहं पुत्रमस्यां नैवाब्रवीन्मुनिः ॥ ८ ॥ यद्यपि पाणिग्रहण-क्रियाकी समाप्ति सप्तपदीपर होती है, [इससे पूर्व कन्याग्रहण विहित है, तथापि इसी बहाने इसका व्रत हो जायगा, इस प्रकारके] वसिष्ठजीके आशयको सत्यव्रत समझ नहीं सका । वसिष्ठजीने सोचा कि ऐसा करनेसे पिता भी प्रसन्न हो जायेंगे और इसके कुलकी निष्कृति भी हो जायगी । इसलिये पिताके द्वारा परित्याग करनेपर भी वसिष्ठने उन्हें मना नहीं किया । उन्होंने सोचा कि उपांशुव्रत पूरा हो जानेपर मैं स्वयं इसका अभिषेक करूँगा, इसलिये उस समय मुनिने कुछ नहीं कहा ॥ ६-८ ॥ स तु द्वादश वर्षाणि दीक्षां तामुद्वहद् बली । अविद्यामाने मांसे तु वसिष्ठस्य महात्मनः ॥ ९ ॥ सर्वकामदुहां दोग्ध्रीं ददर्श स नृपात्मजः । तां वै क्रोधाच्च लोभाच्च श्रमाद्वै च क्षुधान्वितः ॥ १० ॥ दाशधर्मगतो राजा तां जघान स वै मुने । स तं मांसं स्वयं चैव विश्वामित्रस्य चात्मजम् ॥ ११ ॥ भोजयामास तच्छ्रुत्वा वसिष्ठो ह्यस्य चुक्रुधे । उवाच च मुनिश्रेष्ठस्तं तदा क्रोधसंयुतः ॥ १२ ॥ इस प्रकार उस बली राजपुत्रने बारह वर्षतक उस दीक्षाको धारण किया । किसी समय कहीं भी मांस न मिलनेपर उस राजकुमारने महात्मा वसिष्ठकी गौको देखा, जो सभी प्रकारकी कामनाओंको पूर्ण करनेवाली थी । हे मुने ! क्रोध, लोभ एवं मोहके कारण चाण्डालधर्मको प्राप्त हुए क्षुधासे पीड़ित उस राजाने उस गायको मार दिया और उसने उसके मांसको स्वयं खाया और विश्वामित्रके पुत्रको भी खिलाया । तब यह सुनकर मुनिश्रेष्ठ वसिष्ठ उसपर बहुत कुपित हुए और क्रोधित होकर उससे कहने लगे- ॥ ९-१२ ॥ वसिष्ठ उवाच - पातयेयमहं क्रूरं तव शङ्कुमयोमयम् । यदि ते द्वाविमौ शङ्कू नश्येतां वै कृतौ पुरा ॥ १३ ॥ वसिष्ठजी बोले-अरे क्रूर ! यदि तुझमें फिरसे किये गये ये दो शंकु (पाप) न होते तो मैं तेरे प्रथम शंकुको अवश्य नष्ट कर देता ॥ १३ ॥ पितुश्चापरितोषेण गुरोर्दोग्ध्रीवधेन च । अप्रोक्षितोपयोगाच्च त्रिविधस्ते व्यतिक्रमः ॥ १४ ॥ त्रिशङ्कुरिति होवाच त्रिशङ्कुरिति स स्मृतः । [कन्याहरणद्वारा] पिताको असन्तुष्ट करने, गुरुकी गायका वध करने और अप्रोक्षित मांसका भक्षण करनेके कारण तुमने तीन प्रकारका अपराध किया है, अतः तुम त्रिशंकु हो जाओगे, तब उनके इस प्रकार कहनेपर वह त्रिशंकु-इस नामसे प्रसिद्ध हो गया ॥ १४ १/२ ॥ विश्वामित्रस्तु दाराणामागतो भरणे कृते ॥ १५ ॥ तेन तस्मै वरं प्रादान्मुनिः प्रीतस्त्रिशङ्कवे । छन्द्यमानो वरेणाथ वरं वव्रे नृपात्मजः ॥ १६ ॥ जब विश्वामित्र तपस्याकर [अपने आश्रम] आये, तब त्रिशंकुके द्वारा अपनी स्त्रीका भरण-पोषण किये जानेके कारण उन्होंने वर माँगनेके लिये उससे कहा, तब राजपुत्रने वर माँगा और उन मनिने प्रसन्न होकर उस त्रिशंकुको वर प्रदान किया ॥ १५-१६ ॥ अनावृष्टिभये चास्मिञ्जाते द्वादशवार्षिके । अभिषिच्य पितू राज्ये याजयामास तं मुनिः ॥ १७ ॥ मिषतां देवतानां च वसिष्ठस्य च कौशिकः । सशरीरं तदा तं तु दिवमारोहयत्प्रभुः ॥ १८ ॥ बारह वर्षकी इस अनावृष्टिका भय दूर हो जानेपर मुनिने उसे पिताके राज्यपर अभिषिक्त करके उससे यज्ञ कराया । उसके बाद प्रभु विश्वामित्रने वसिष्ठ एवं सभी देवताओंके देखते-देखते उसे सशरीर स्वर्ग भेज दिया ॥ १७-१८ ॥ तस्य सत्यरथा नाम भार्या केकयवंशजा । कुमारं जनयामास हरिश्चन्द्रमकल्मषम् ॥ १९ ॥ स वै राजा हरिश्चन्द्रो त्रैशङ्कव इति स्मृतः । आहर्ता राजसूयस्य सम्राडिति ह विश्रुतः ॥ २० ॥ केकयवंशमें उत्पन्न उसकी सत्यरथा नामक भार्याने हरिश्चन्द्र नामक निष्पाप पुत्रको उत्पन्न किया । वे ही राजा हरिश्चन्द्र त्रिशंकुके पुत्र होनेसे त्रैशंकव भी कहे गये हैं । ये राजसूययज्ञके कर्ता और चक्रवर्ती राजाके रूपमें प्रसिद्ध हुए ॥ १९-२० ॥ हरिश्चन्द्रस्य हि सुतो रोहितो नाम विश्रुतः । रोहितस्य वृकः पुत्रो वृकाद् बाहुस्तु जज्ञिवान् ॥ २१ ॥ हरिश्चन्द्रका पुत्र रोहित नामसे प्रसिद्ध हुआ । रोहितका पुत्र वृक था और वृकसे बाहु उत्पन्न हुआ ॥ २१ ॥ हैहयास्तालजंघाश्च निरस्यन्ति स्म तं नृपम् । नात्मार्थे धार्मिको विप्रः स हि धर्मपरोऽभवत् ॥ २२ ॥ सगरं ससुतं बाहुर्जज्ञे सह गरेण वै । और्वस्याश्रममासाद्य भार्गवेणाभिरक्षितः ॥ २३ ॥ हे विप्रो ! उस धर्मयुगमें वह राजा सम्यग् रीतिसे धर्मका पालन नहीं करता था, जिसके कारण] हैहय और तालजंघ राजाओंने उसे [धर्महीन जानकर] राज्यसे हटा दिया । [तत्पश्चात्] और्वके आश्रममें आकर भार्गवके द्वारा रक्षित उस बाहुने गरसहित सगर नामक पुत्रको उत्पन्न किया ॥ २२-२३ ॥ आग्नेयमस्त्रं लब्ध्वा च भार्गवात्सगरो नृपः । जिगाय पृथिवीं हत्वा तालजंघान्स हैहयान् ॥ २४ ॥ शकान्बहूदकांश्चैव पारदान्सगणान्खशान् । सुधर्मं स्थापयामास शशास वृषतः क्षितिम् ॥ २५ ॥ राजा सगरने भार्गवसे आग्नेयास्त्र पाकर हैहयवंशी तालजंघों, शकों, बहूदकों, पारदों एवं गणोंसहित खशोंको मारकर पृथ्वीको जीत लिया एवं उत्तम धर्मकी स्थापना की तथा धर्मपूर्वक पृथ्वीपर शासन किया ॥ २४-२५ ॥ शौनक उवाच - स वै गरेण सहितः कथं जातस्तु क्षत्रियात् । जितवानेतदाचक्ष्व विस्तरेण हि सूतज ॥ २६ ॥ शौनक बोले-हे सूतजी ! वे [सगर] क्षत्रिय बाहुसे किस प्रकार गरके सहित उत्पन्न हुए और उन्होंने किस प्रकार सभीको जीता, इसे विस्तारपूर्वक कहिये ॥ २६ ॥ सूत उवाच - पारीक्षितेन संपृष्टो वैशंपायन एव च । यदाचष्ट स्म तद्वक्ष्ये शृणुष्वैकमना मुने ॥ २७ ॥ सूतजी बोले-हे मुने ! परीक्षित्-पुत्र (जनमेजय)के पूछनेपर वैशम्पायनने जो कहा था, उसीको मैं कह रहा हूँ, आप एकाग्रचित्त होकर सुनें ॥ २७ ॥ परीक्षिदुवाच - कथं स सगरो राजा गरेण सहितो मुने । जातः स जघ्निवान्भूयानेतदाख्यातुमर्हसि ॥ २८ ॥ परीक्षितके पुत्र (जनमेजय) बोले-हे मुने ! वे राजा सगर किस प्रकार गरसहित उत्पन्न हुए और उन्होंने उन राजाओंका वध कैसे किया ? आप इसे बतानेकी कृपा करें ॥ २८ ॥ वैशम्पायन उवाच - बाहोर्व्यसनिनस्तात हृतं राज्यमभूत्किल । हैहयैस्तालजंघैश्च शकैः सार्द्धं विशांपते ॥ २९ ॥ वैशम्पायन बोले-हे तात ! हे विशाम्पते ! व्यसनग्रस्त बाहुका सारा राज्य शकोंके साथ हैहयवंशी तालजंघोंने छीन लिया ॥ २९ ॥ यवनाः पारदाश्चैव काम्बोजाः पाह्लवास्तथा । बहूदकाश्च पञ्चैव गणाः प्रोक्ताश्च रक्षसाम् ॥ ३० ॥ एते पञ्च गणा राजन् हैहयार्थेषु रक्षसाम् । कृत्वा पराक्रमान् बाहो राज्यं तेभ्यो ददुर्बलात् ॥ ३१ ॥ यवन, पारद, काम्बोज, पाहव और बहूदक राक्षसोंके ये पाँच गण कहे गये हैं । हे राजन् ! राक्षसोंके इन पाँच गणोंने हैहयोंके लिये पराक्रम करके बलपूर्वक बाहुका राज्य उन्हें दे दिया ॥ ३०-३१ ॥ हृतराज्यस्ततो विप्राः स वै बाहुर्वनं ययौ । पत्न्या चानुगतो दुःखी स वै प्राणानवासृजत् ॥ ३२ ॥ पत्नी या यादवी तस्य सगर्भा पृष्ठतो गता । सपत्न्या च गरस्तस्यै दत्तः पूर्वं सुतेर्ष्यया ॥ ३३ ॥ नष्ट राज्यवाला वह राजा [बाहु] दुःखित होकर अपनी पत्नीके साथ वन चला गया और उसने प्राण त्याग दिये । उसकी जो यादवी नामक पत्नी साथमें गयी थी, वह गर्भिणी अवस्थामें थी और उसकी सौतने पुत्रके ईर्ष्यावश उसे विष दे दिया ॥ ३२-३३ ॥ सा तु भर्तुश्चितां कृत्वा ज्वलनं चावरोहत । और्वस्तां भार्गवो राजन्कारुण्यात्समवारयत् ॥ ३४ ॥ तस्याश्रमे स्थिता राज्ञी गर्भरक्षणहेतवे । सिषेवे मुनिवर्यं तं स्मरन्ती शङ्करं हृदा ॥ ३५ ॥ हे राजन् ! वह पतिकी चिता बनाकर अग्निमें प्रवेश करने लगी, तव भार्गव औवने दयापूर्वक उसे [सती होनेसे] रोक दिया । उसके अनन्तर अपने गर्भकी रक्षाके लिये वह उन्हींके आश्रममें निवास करने लगी और मनमें शंकरका ध्यान करती हुई उन महामुनिकी सेवा करने लगी ॥ ३४-३५ ॥ एकदा खलु तद् गर्भो गरेणैव सह च्युतः । सुमुहूर्त्ते सुलग्ने च पञ्चोच्चग्रहसंयुते ॥ ३६ ॥ किसी समय पाँच उच्च ग्रहोंसे युक्त शुभ मुहूर्त तथा शुभ लग्नमें उसका गर्भ विषके साथ उत्पन्न हुआ ॥ ३६ ॥ तस्मिँल्लग्ने च बलिनि सर्वथा मुनिसत्तम । व्यजायत महाबाहुः सगरो नाम पार्थिवः ॥ ३७ ॥ हे मुनिश्रेष्ठ ! उस सर्वथा बलवान् लग्नमें महाबाहु राजा सगरने जन्म लिया ॥ ३७ ॥ और्वस्तु जातकर्मादि तस्य कृत्वा महात्मनः । अध्याप्य वेदशास्त्राणि ततोऽस्त्रं प्रत्यपादयत् ॥ ३८ ॥ आग्नेयं तं महाभागो ह्यमरैरपि दुःसहम् । जग्राह विधिना प्रीत्या सगरोऽसौ नृपोत्तमः ॥ ३९ ॥ और्वने उस महात्माके जातकर्म आदि संस्कार करके बादमें वेद-शास्त्रोंको पढ़ाकर उसे अस्त्र-विद्या सिखायी और उन नृपश्रेष्ठ महाभाग सगरने विधिपूर्वक प्रसन्नतासे देवताओंके लिये भी दुःसह उस आग्नेयास्त्रकी शिक्षा ग्रहण की ॥ ३८-३९ ॥ स तेनास्त्रबलेनैव बलेन च समन्वितः । हैहयान्विजघानाशु सङ्कुद्धोऽस्त्रबलेन च ॥ ४० ॥ आजहार च लोकेषु कीर्तिं कीर्तिमतां वरः । धर्मं संस्थापयामास सगरोऽसौ महीतले ॥ ४१ ॥ इसके बाद उसने अपनी सेनासे युक्त होकर आग्नेयास्त्रके बलसे क्रुद्ध हो शीघ्र ही हैहयोंका वध किया और यशस्वियोंमें श्रेष्ठ उन सगरने लोकोंमें अपना यश फैलाया तथा पृथ्वीतलपर धर्मकी स्थापना की ॥ ४०-४१ ॥ ततः शकाः सयवनाः काम्बोजाः पाह्लवास्तथा । हन्यमानास्तदा ते तु वसिष्ठं शरणं ययुः ॥ ४२ ॥ वसिष्ठो वंचनां कृत्वा समयेन महाद्युतिः । सगरं वारयामास तेषां दत्त्वाभयं नृपम् ॥ ४३ ॥ तब उनके द्वारा मारे जाते हुए शक, यवन, काम्बोज तथा पाहव [नरेश भयभीत हो] वसिष्ठकी शरणमें गये । महातेजस्वी वसिष्ठने नैतिक छल करके कुछ शर्तोंके द्वारा उन्हें अभय प्रदानकर राजा सगरको उनका वध करनेसे रोक दिया ॥ ४२-४३ ॥ सगरः स्वां प्रतिज्ञां तु गुरोर्वाक्यं निशम्य च । धर्मं जघान तेषां वै केशान्यत्वं चकार ह ॥ ४४ ॥ सगरने अपनी प्रतिज्ञा और गुरुके वाक्यको ध्यानमें रखकर उनके धर्म नष्ट कर दिये और उनके केशोंको विरूप कर दिया ॥ ४४ ॥ अर्द्धं शकानां शिरसो मुंडं कृत्वा व्यसर्जयत् । यवनानां शिरः सर्वं कांबोजानां तथैव च ॥ ४५ ॥ उन्होंने शकोंका आधा सिर और यवनों तथा काम्बोजोंका सारा सिर मुंडवाकर उन्हें छोड़ दिया । ॥ ४५ ॥ पारदा मुंडकेशाश्च पाह्लवाः श्मश्रुधारिणः । निः स्वाध्यायवषट्काराः कृतास्तेन महात्मना ॥ ४६ ॥ उन महात्माने पारदोंका केश मुड़वा दिया तथा पहवोंको दाढ़ी-मूंछ धारण करा दिया और उन्हें स्वाध्याय एवं वषट्कारसे रहित कर दिया ॥ ४६ ॥ जिता च सकला पृथ्वी धर्मतस्तेन भूभुजा । सर्वे ते क्षत्रियास्तात धर्महीनाः कृताः पुराः ॥ ४७ ॥ स धर्मविजयी राजा विजित्वेमां वसुंधराम् । अश्वं संस्कारयामास वाजिमेधाय पार्थिवः ॥ ४८ ॥ हे तात ! पूर्वकालमें उस राजाने सम्पूर्ण पृथ्वीको धर्मपूर्वक जीत लिया और उन सभी क्षत्रियोंको धर्महीन बना दिया । इस प्रकार उस धर्मविजयी राजाने इस पृथ्वीको जीतकर अश्वमेध-यज्ञ करनेके लिये एक घोड़ेका संस्कार कराया ॥ ४७-४८ ॥ तस्य चास्यतेः सोऽश्वः समुद्रे पूर्वदक्षिणे । गतः षष्टिसहस्रैस्तु तत्पुत्रैरन्वितो मुने ॥ ४९ ॥ देवराजेन शक्रेण सोऽश्वो हि स्वार्थसाधिना । वेलासमीपेऽपहृतो भूमिं चैव प्रवेशितः ॥ ५० ॥ हे मुने ! अश्वको छोड़ दिये जानेपर वह पूर्वदक्षिण समुद्रके तटपर पहुँच गया, राजा सगरके साठ हजार पुत्र उसके पीछे-पीछे चल रहे थे । अपना स्वार्थ सिद्ध करनेवाले देवराज इन्द्रने समुद्रके तटसे उस घोड़ेको चुरा लिया और उसे भूमितलमें रख दिया ॥ ४९-५० ॥ महाराजोऽथ सगरस्तद्धयान्वेषणाय च । स तं देशं तदा पुत्रैः खानयामास सर्वतः ॥ ५१ ॥ तब महाराज सगरने उस घोड़ेको खोजनेके लिये अपने पुत्रोंसे उस देशको सभी ओरसे खुदवा डाला ॥ ५१ ॥ आसेदुस्ते ततस्तत्र खन्यमाने महार्णवे । तमादिपुरुषं देवं कपिलं विश्वरूपिणम् ॥ ५२ ॥ तदनन्तर उन सबने उस खोदे जाते हुए महासागरमें विश्वरूपी आदिपुरुष उन प्रभु [महर्षि] कपिलको प्राप्त किया ॥ ५२ ॥ तस्य चक्षुःसमुत्थेन वह्निना प्रतिबुध्यतः । दग्धाः षष्टिसहस्राणि चत्वारस्त्ववशेषिताः ॥ ५३ ॥ हर्षकेतुः सुकेतुश्च तथा धर्मरथोऽपरः । शूरः पञ्चजनश्चैव तस्य वंशकरा नृपाः ॥ ५४ ॥ उनके जागते ही उनके नेत्रोंसे निकली हुई अग्निके द्वारा [सगरके] साठ हजार पुत्र जल गये और केवल चार ही शेष रहे । हर्षकेतु, सुकेतु, धर्मरथ और पराक्रमी पंचजन-ये ही उनके वंशको चलानेवाले राजा बचे थे ॥ ५३-५४ ॥ प्रादाच्च तस्मै भगवान् हरिः पञ्च वरान्स्वयम् । वंशं मेधां च कीर्तिञ्च समुद्रं तनयं धनम् ॥ ५५ ॥ सागरत्वं च लेभे स कर्मणा तस्य तेन वै । तं चाश्वमेधिकं सोऽश्वं समुद्रादुपलब्धवान् ॥ ५६ ॥ आजहाराश्वमेधानां शतं स तु महायशाः । ईजे शंभुविभूतीश्च देवतास्तत्र सुव्रताः ॥ ५७ ॥ भगवान् कपिलने [प्रसन्न होकर] उन्हें स्वयं वंश, विद्या, कीर्ति, पुत्रके रूपमें समुद्र और धन-ये पाँच वर दिये । अपने उस कर्मसे समुद्रने सागरत्व अर्थात् सगरका पुत्रत्व प्राप्त किया और उन्होंने उस आश्वमेधिक घोड़ेको भी समुद्रसे प्राप्त किया । उन महायशस्वीने सौ अश्वमेध-यज्ञ सम्पन्न किये और शिवकी विभूतियों तथा सच्चरित्र देवताओंका पूजन किया ॥ ५५-५७ ॥ इति श्रीशिवमहापुराणे पञ्चम्यामुमासंहितायां सत्यव्रतादिसगरपर्यन्त वंशवर्णनं नामाष्टत्रिंशोऽध्यायः ॥ ३८ ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत पाँचवीं उमासंहितामें सत्यव्रतादिसणरपर्यन्तवंशवर्णन नामक अड़तीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ३८ ॥ श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु |