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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥

॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥

पञ्चमी उमासंहितायां

चत्वारिंशोऽध्यायः


श्राद्धकल्पे पितृप्रभाववर्णनम्
पितृश्राद्धका प्रभाव-वर्णन


व्यास उवाच -
इत्याकर्ण्य श्राद्धदेवः सूर्यान्वयमनुत्तमम् ।
पर्यपृच्छन्मुनिश्रेष्ठः शौनकः सूतमादरात् ॥ १ ॥
व्यासजी बोले-श्राद्धदेव सूर्यके वंशके वर्णनको सुनकर मुनिश्रेष्ठ शौनकने सूतजीसे आदरपूर्वक पूछा ॥ १ ॥

शौनक उवाच -
सूतसूत चिरंजीव व्यासशिष्य नमोऽस्तु ते ।
श्राविता परमा दिव्या कथा परमपावनी ॥ २ ॥
शौनकजी बोले-हे सूतजी ! हे चिरंजीव ! हे व्यासशिष्य | आपको नमस्कार है, आपने परम दिव्य एवं अति पवित्र कथा सुनायी ॥ २ ॥

त्वया प्रोक्तः श्राद्धदेवः सूर्यः सद्वंशवर्द्धनः ।
संशयस्तत्र मे जातस्तं ब्रवीमि त्वदग्रतः ॥ ३ ॥
आपने कहा कि श्राद्धके देवता सूर्यदेव हैं, जो उत्तम वंशकी वृद्धि करनेवाले हैं. इस विषयमें मुझे एक सन्देह है, उसे मैं आपके समक्ष कहता हूँ ॥ ३ ॥

कुतो वै श्राद्धदेवत्वमादित्यस्य विवस्वतः ।
श्रोतुमिच्छामि तत्प्रीत्या छिंधि मे संशयं त्विमम् ॥ ४ ॥
विवस्वान् सूर्यदेव श्राद्धदेव क्यों कहे जाते हैं ? मेरे इस सन्देहको दूर कीजिये, मैं उसे प्रेमपूर्वक सुनना चाहता हूँ ॥ ४ ॥

श्राद्धस्यापि च माहात्म्यं तत्फलं च वद प्रभो ।
प्रीताश्च पितरो येन श्रेयसा योजयन्ति तम् ॥ ५ ॥
हे प्रभो ! आप श्राद्धके माहात्म्य तथा उसके फलको भी कहिये, जिससे पितृगण प्रसन्न होकर अपने वंशजका निरन्तर कल्याण करते हैं ॥ ५ ॥

एतच्च श्रोतुमिच्छामि पितॄणां सर्गमुत्तमम् ।
कथय त्वं विशेषेण कृपां कुरु महामते ॥ ६ ॥
हे महामते ! मैं पितरोंकी श्रेष्ठ उत्पत्तिको सुनना चाहता हूँ, आप इसे कहिये और [मेरे ऊपर] विशेष कृपा कीजिये ॥ ६ ॥

सूत उवाच -
वच्मि तत्तेऽखिलं प्रीत्या पितृसर्गं तु शौनक ।
मार्कण्डेयेन कथितं भीष्माय परिपृच्छते ॥ ७ ॥
गीतं सनत्कुमारेण मार्कण्डेयाय धीमते ।
तत्तेऽहं संप्रवक्ष्यामि सर्वकामफलपदम् ॥ ८ ॥
सूतजी बोले-हे शौनक ! मैं उस समस्त पितृसर्गको आपसे प्रेमपूर्वक कह रहा है, जैसा कि भीष्मके पूछनेपर मार्कण्डेयने उनसे कहा था और महर्षि सनत्कुमारने बुद्धिमान् मार्कण्डेयसे जो कहा था, उसे मैं आपसे कहूँगा । यह सभी कामनाओंको पूर्ण करनेवाला है ॥ ७-८ ॥

युधिष्ठिरेण संपृष्टो भीष्मो धर्मभृतां वरः ।
शरशय्यास्थितः प्रोचे तच्छृणुष्व वदामि ते ॥ ९ ॥
युधिष्ठिरके पूछनेपर धर्मात्माओंमें श्रेष्ठ भीष्मने शरशय्यापर लेटे हुए जो कहा था, उसे मैं आपसे कह रहा हूँ, सुनिये ॥ ९ ॥

युधिष्ठिर उवाच -
पुष्टिकामेन पुंसां वै कथं पुष्टिरवाप्यते ।
एतच्छ्रोतुं समिच्छामि किं कुर्वाणो न सीदति ॥ १० ॥
युधिष्ठिरजी बोले-[हे पितामह !] पुष्टि चाहनेवाले पुरुषको किस प्रकार पुष्टिकी प्राप्ति होती है और कौनसा कार्य करनेवाला [मनुष्य] दुखी नहीं होता, इसे मैं सुनना चाहता हूँ ॥ १० ॥

सूत उवाच -
युधिष्ठिरेण संपृष्टं प्रश्नं श्रुत्वा स धर्मवित् ।
भीष्मः प्रोवाच सुप्रीत्या सर्वेषां शृण्वतां वचः ॥ ११ ॥
सूतजी बोले-युधिष्ठिरके द्वारा आदरसहित पूछे गये प्रश्नको सुनकर वे धर्मात्मा भीष्म सभीको सुनाते हुए प्रेमपूर्वक यह वचन कहने लगे- ॥ ११ ॥

भीष्म उवाच -
ये कुर्वन्ति नराः श्राद्धान्यपि प्रीत्या युधिष्ठिर ।
श्राद्धैः प्रीणाति तत्सर्वं पितॄणां हि प्रसादतः ॥ १२ ॥
श्राद्धानि चैव कुर्वन्ति फलकामाः सदा नरा ।
अभिसंधाय पितरं पितुश्च पितरं तथा ॥ १३ ॥
पितुः पितामहश्चैव त्रिषु पिंडेषु नित्यदा ।
पितरो धर्मकामस्य प्रजाकामस्य च प्रजाम् ॥ १४ ॥
पुष्टिकामस्य पुष्टिं च प्रयच्छन्ति युधिष्ठिर ॥ १५ ॥
भीष्म बोले-हे युधिष्ठिर ! जो मनुष्य प्रेमसे श्राद्धोंको करते हैं, उन श्राद्धोंसे निश्चय ही पितरोंकी कृपासे उसका सब कुछ सम्पन्न हो जाता है । श्रेष्ठ फलकी इच्छा रखनेवाले मनुष्य पिता, पितामह और प्रपितामहइन तीनोंका पिण्डोंसे श्राद्ध सदा करते हैं । हे युधिष्ठिर । [त्राद्धसे प्रसन्न हुए] पितर धर्म तथा प्रजाकी इच्छा करनेवालेको धर्म तथा सन्तान प्रदान करते हैं और पुष्टि चाहनेवालेको पुष्टि प्रदान करते हैं ॥ १२-१५ ॥

युधिष्ठिर उवाच -
वर्तन्ते पितरः स्वर्गे केषांचिन्नरके पुनः ।
प्राणिनां नियतं चापि कर्मजं फलमुच्यते ॥ १६ ॥
तानि श्राद्धानि दत्तानि कथं गच्छन्ति वै पितॄन् ।
कथं शक्तास्तमाहर्त्तुं नरकस्था फलं पुनः ॥ १७ ॥
देवा अपि पितॄन्स्वर्गे यजन्त इति मे श्रुतम् ।
एतदिच्छाम्यहं श्रोतुं विस्तरेण ब्रवीहि मे ॥ १८ ॥
युधिष्ठिर बोले-[हे पितामह !] किन्हींके पितर स्वर्गमें और किन्हींके नरकमें निवास करते हैं और प्राणियोंका कर्मजन्य फल भी नियत कहा जाता है । किये गये वे श्राद्ध पितरोंको किस प्रकार प्राप्त होते हैं और नरकमें स्थित पितर किस प्रकार श्राद्धोंको प्राप्त करने में तथा फल देने में समर्थ होते हैं ? मैंने सुना है कि देवतालोग भी स्वर्गमें पितरोंका यजन करते हैं । मैं यह सब सुनना चाहता हूँ, आप विस्तारपूर्वक मुझसे कहिये ॥ १६-१८ ॥

भीष्म उवाच -
अत्र ते कीर्तयिष्यामि यथा श्रुतमरिन्दम ।
पित्रा मम पुरा गीतं लोकान्तरगतेन वै ॥ १९ ॥
भीष्मजी बोले-हे शत्रुमर्दन ! इस विषयमें जैसा मैंने सुना है और परलोकमें गये हुए मेरे पिताने जैसा मुझसे कहा है, उसे आपसे मैं कह रहा हूँ ॥ १९ ॥

श्राद्धकाले मम पितुर्मया पिंडः समुद्यतः ।
मत्पिता मम हस्तेन भित्त्वा भूमिमयाचत ॥ २० ॥
नैष कल्पविधिर्दृष्ट इति निश्चित्य चाप्यहम् ।
कुशेष्वेव ततः पिंडं दत्तवानविचारयन् ॥ २१ ॥
किसी समय जब मैं श्राद्धकालमें पिण्डदान देने लगा, तब मेरे पिताने भूमिका भेदनकर अपने हाथमें पिण्डदान ग्रहण करना चाहा । किंतु ऐसी कल्प-विधि नहीं देखी गयी है-ऐसा निश्चय करके [पिताके अनुरोधका] बिना विचार किये मैंने कुशाओंपर ही पिण्डदान किया ॥ २०-२१ ॥

ततः पिता मे सन्तुष्टो वाचा मधुरया तदा ।
उवाच भरतश्रेष्ठ प्रीयमाणो मयानघ ॥ २२ ॥
त्वया दायादवानस्मि धर्मज्ञेन विपश्चिता ।
तारितोहं तु जिज्ञासा कृता मे पुरुषोत्तम ॥ २३ ॥
तब मुझसे सन्तुष्ट हुए मेरे पिताने मधुर वाणीमें कहाहे अनघ ! हे भरतश्रेष्ठ ! मैं तुमसे प्रसन्न हूँ । तुम्हारे जैसे धर्मात्मा एवं विद्वान् [पुत्र]-से मैं पुत्रवान् हूँ । हे पुरुषोत्तम ! तुमसे जैसी आशा थी, तुमने मुझे तार दिया । मैंने तो [तुम्हारी धर्मनिष्ठाकी] परीक्षा की थी ॥ २२-२३ ॥

प्रमाणं यद्धि कुरुते धर्माचारेण पार्थिवः ।
प्रजास्तदनु वर्तन्ते प्रमाणाचरितं सदा ॥ २४ ॥
राजधर्मकी प्रधानतासे राजा जैसा आचरण करता है, प्रजाएँ भी प्रमाण मानकर उसी आचरणका अनुसरण करती हैं । ॥ २४ ॥

शृणु त्वं भरतश्रेष्ठ वेदधर्मांश्च शाश्वतान् ।
प्रमाणं वेदधर्मस्य पुत्र निर्वर्त्तितं त्वया ॥ २५ ॥
तस्मात्तवाहं सुप्रीतः प्रीत्या वरमनुत्तमम् ।
ददामि त्वं प्रतीक्षस्व त्रिषु लोकेषु दुर्लभम् ॥ २६ ॥
हे भरतश्रेष्ठ ! हे पुत्र ! तुम सनातन वेदधौंको सुनो, तुमने वेदधर्मके प्रमाणानुसार कर्म किया है । अतः तुमसे प्रसन्न होकर प्रेमपूर्वक मैं तुम्हें तीनों लोकोंमें दुर्लभ उत्तम वर देता हूँ, तुम उसे ग्रहण करो ॥ २५-२६ ॥

न ते प्रभविता मृत्युर्यावज्जीवितुमिच्छसि ।
त्वत्तोभ्यनुज्ञां संप्राप्य मृत्युः प्रभविता पुनः ॥ २७ ॥
किं वा ते प्रार्थितं भूयो ददामि वरमुत्तमम् ।
तद् ब्रूहि भरतश्रेष्ठ यत्ते मनसि वर्तते ॥ २८ ॥
तुम जबतक जीवित रहना चाहोगे, तबतक मृत्यु तुमपर प्रभावी नहीं होगी । तुमसे आज्ञा पाकर ही मृत्यु [तुम्हारे ऊपर] प्रभाव डाल सकेगी । अब इसके अतिरिक्त तुम और जो उत्तम वर चाहते हो, उसे मैं तुम्हें दूंगा । हे भरतश्रेष्ठ ! तुम्हारे मनमें जो हो, उसे माँगो ॥ २७-२८ ॥

इत्युक्तवति तस्मिंस्तु अभिवाद्य कृताञ्जलिः ।
अवोचं कृतकृत्योऽहं प्रसन्ने त्वयि मानद ।
प्रश्नं पृच्छामि वै कंचिद्वाच्यः स भवता स्वयम् ॥ २९ ॥
उनके इस प्रकार कहनेपर मैंने हाथ जोड़कर उनका अभिवादन करके कहा-हे मानद ! आपके प्रसन्न होनेसे मैं कृतकृत्य हो गया हूँ । मैं कुछ प्रश्न पूछता हूँ, आप उसका उत्तर दें ॥ २९ ॥

स मामुवाच तद् ब्रूहि यदीच्छसि ददामि ते ।
इत्युक्तेथ मया तत्र पृष्टः प्रोवाच तन्नृपः ॥ ३० ॥
तब उन्होंने मुझसे कहा-तुम जो [जानना चाहते हो, उसे पूछो, मैं उसे बताऊँगा । उनके ऐसा कहनेपर मैंने राजासे पूछा, तब वे उसे कहने लगे- ॥ ३० ॥

शन्तनुरुवाच -
शृणु तात प्रवक्ष्यामि प्रश्नं तेऽहं यथार्थतः ।
पितृकल्पं च निखिलं मार्कण्डेयेन मे श्रुतम् ॥ ३१ ॥
यत्त्वं पृच्छसि मां तात तदेवाहं महामुनिम् ।
मार्कण्डेयमपृच्छं हि स मां प्रोवाच धर्मवित् ॥ ३२ ॥
शान्तनु बोले-हे तात ! सुनो, मैं तुम्हारे प्रश्नका उत्तर यथार्थ रूपसे दे रहा हूँ, जैसा कि मैंने मार्कण्डेयसे समस्त पितृकल्प सुना है । हे तात ! तुम मुझसे जो पूछते हो, उसीको मैंने महामुनि मार्कण्डेयसे पूछा था, तब उन धर्मवेत्ताने मुझसे कहा- ॥ ३१-३२ ॥

मार्कण्डेय उवाच -
शृणु राजन्मया दृष्टं कदाचित्पश्यता दिवम् ।
विमानं महादायान्तमन्तरेण गिरेस्तदा ॥ ३३ ॥
मार्कण्डेयजी बोले-हे राजन् ! सुनो, किसी समय आकाशकी ओर देखते हुए मैंने पर्वतके अन्दरसे आते हुए किसी विशाल विमानको देखा ॥ ३३ ॥

तस्मिन्विमाने पर्यक्षं ज्वलिताङ्‌गारवर्चसम् ।
महातेजः प्रज्वलन्तं निर्विशेषं मनोहरम् ॥ ३४ ॥
अपश्यं चैव तत्राहं शयानं दीप्ततेजसम् ।
अङ्‌गुष्ठमात्रं पुरुषमग्नावग्निमिवाहितम् ॥ ३५ ॥
मैंने उस विमानमें स्थित पर्यकमें जलते हुए अंगारके समान प्रभावाले, अत्यन्त असामान्य मनोहर तथा प्रज्वलित महातेजके सदृश एक अंगुष्ठमात्र पुरुषको लेटे हुए देखा, जो कि अग्निमें स्थापित अग्निके समान तेजोमय प्रतीत हो रहा था ॥ ३४-३५ ॥

सोऽहं तस्मै नमः कृत्वा प्रणम्य शिरसा प्रभुम् ।
अपृच्छं चैव तमहं विद्यामस्त्वां कथं विभो ॥ ३६ ॥
मैंने सिर झुकाकर उन्हें प्रणाम करके उन प्रभुसे पूछा-हे विभो ! मैं आपको किस प्रकार जान सकता हूँ ? ॥ ३६ ॥

स मामुवाच धर्मात्मा तेन तद्विद्यते तपः ।
येन त्वं बुध्यसे मां हि मुने वै ब्रह्मणः सुतम् ॥ ३७ ॥
सनत्कुमारमिति मां विद्धि किं करवाणि ते ।
ये त्वन्ये ब्रह्मणः पुत्राः कनीयांसस्तु ते मम ॥ ३८ ॥
भ्रातरः सप्त दुर्धर्षा येषां वंशाः प्रतिष्ठिताः ।
वयं तु यतिधर्माणः संयम्यात्मानमात्मनि ॥ ३९ ॥
तब उन धर्मात्माने मुझसे कहा-हे मुने ! निश्चय ही तुम्हारेमें वह तप नहीं है, जिससे तुम मुझ ब्रह्मपुत्रको जान सको । तुम मुझे सनत्कुमार समझो । मैं तुम्हारा कौन-सा कार्य सम्पन्न करूँ ? ब्रह्माके जो अन्य पुत्र हैं, वे मेरे सात छोटे भाई हैं, जिनके वंश प्रतिष्ठित हैं । हमलोग अपने में ही आत्माको स्थिर करके यतिधर्ममें संलग्न रहनेवाले हैं ॥ ३७-३९ ॥

यथोत्पन्नस्तथैवाहं कुमार इति विश्रुतः ।
तस्मात्सनत्कुमारं मे नामैतत्कथितं मुने ॥ ४० ॥
मैं जैसे उत्पन्न हुआ हूँ, वैसा ही हूँ अत: कुमार इस नामसे प्रसिद्ध हुआ । अत: हे मुने ! सनत्कुमार-यह मेरा नाम कहा गया है ॥ ४० ॥

यद्‌भक्त्या ते तपश्चीर्णं मम दर्शनकाङ्‌क्षया ।
एष दृष्टोऽस्मि भद्रं ते कं कामं करवाणि ते ॥ ४१ ॥
तुमने मेरे दर्शनकी इच्छासे भक्तिपूर्वक तपस्या की है, इसलिये मैंने तुम्हें दर्शन दिया, तुम्हारा कल्याण हो, अब मैं तुम्हारा कौन-सा मनोरथ पूर्ण करूँ ? ॥ ४१ ॥

इत्युक्तवन्तं तं चाहं प्रावोचं त्वं शृणु प्रभो ।
पितॄणामादिसर्गं च कथयस्व यथातथम् ॥ ४२ ॥
उनके इस प्रकार कहनेपर मैंने उनसे कहा-हे प्रभो ! सुनिये, आप पितरोंके आदिसर्गको मुझसे यथार्थ रूपसे कहिये ॥ ४२ ॥

इत्युक्तः स तु मां प्राह शृणु सर्वं यथातथम् ।
वच्मि ते तत्त्वतस्तात पितृसर्गं शुभावहम् ॥ ४३ ॥
मेरे ऐसा कहनेपर उन्होंने कहा-हे तात ! सुनो, मैं तुमसे सुखदायक सम्पूर्ण पितृसर्ग यथार्थरूपसे तत्त्वपूर्वक कहता हूँ ॥ ४३ ॥

सनत्कुमार उवाच -
देवान्पुरासृजद्‌ब्रह्मा मां यक्षध्वं स चाह तान् ।
तमुत्सृज्य तमात्मानमयजंस्ते फलार्थिनः ॥ ४४ ॥
ते शप्ता ब्रह्मणा मूढा नष्टसंज्ञा भविष्यथ ।
तस्मात्किंचिदजानन्तो नष्टसंज्ञाः पितामहम् ॥ ४५ ॥
प्रोचुस्तं प्रणताः सर्वे कुरुष्वानुग्रहं हि नः ।
सनत्कुमारजी बोले-पूर्वकालमें ब्रह्माजीने देवगोंको उत्पन्न किया और उनसे कहा-तुमलोग मेरा यजन करो, किंतु फलकी आकांक्षा करनेवाले वे उन्हें छोड़कर आत्मयजन करने लगे । तब ब्रह्माजीने उन्हें शाप दे दिया-मूढो ! तुमलोगोंका ज्ञान नष्ट हो जायगा । उसके अनन्तर कुछ भी न जानते हुए वे सभी नष्ट ज्ञानवाले देवता सिर झुकाकर उन पितामहसे बोले हम लोगोंपर कृपा कीजिये ॥ ४४-४५ १/२ ॥

इत्युक्तस्तानुवाचेदं प्रायश्चित्तार्थमेव हि ॥ ४६ ॥
पुत्रान्स्वान्परिपृच्छध्वं ततो ज्ञानमवाप्स्यथ ।
उनके ऐसा कहनेपर ब्रह्माने इस कर्मका प्रायश्चित्त करनेके लिये यह कहा कि तुमलोग अपने पुत्रोंसे पूछो, तभी ज्ञान प्राप्त होगा ॥ ४६ १/२ ॥

इत्युक्ता नष्टसंज्ञास्ते पुत्रान्पप्रच्छुरोजसा ॥ ४७ ॥
प्रायश्चित्तार्थमेवाधिलब्धसंज्ञा दिवौकसः ।
गम्यतां पुत्रका एवं पुत्रैरुक्ताश्च तेऽनघ ॥ ४८ ॥
अभिशप्तास्तु ते देवाः पुत्रकामेन वेधसम् ।
पप्रच्छुरुक्ताः पुत्रैस्ते गतास्ते पुत्रका इति ॥ ४९ ॥
उनके ऐसा कहनेपर नष्ट ज्ञानवाले वे देवता प्रायश्चित्त जाननेके लिये पुत्रोंके पास गये और इस कर्मका प्रायश्चित्त उनसे पूछा । हे अनघ ! तब उनका [समाधान करके] पुत्रोंने उनसे कहा-प्राप्त हुए ज्ञानवाले हे पुत्रो ! आप सभी देवता प्रायश्चित्तके लिये जाइये । तब अभिशप्त वे सभी देवता पुत्रोंकी इच्छासे प्रेरित हो ब्रह्मदेवके पास पुनः जा पहुंचे तथा [समग्र वृत्तान्त कह सुनाया और] पूछने लगे कि हमारे पुत्रोंने हमें 'पुत्र' कहा है [इसका क्या रहस्य है ?] ॥ ४७-४९ ॥

ततस्तानब्रवीद्देवो देवान्ब्रह्मा ससंशयान् ।
शृणुध्वं निर्जराः सर्वे यूयं न ब्रह्मवादिनः ॥ ५० ॥
तस्माद्यदुक्तं युष्माकं पुत्रैस्तैर्ज्ञानिसत्तमैः ।
मन्तव्यं संशयं त्यक्त्वा तथा न च तदन्यथा ॥ ५१ ॥
देवाश्च पितरश्चैव यजध्वं त्रिदिवौकसः ।
परस्परं महाप्रीत्या सर्वकामफलप्रदा ॥ ५२ ॥
तब ब्रह्माजीने संशययुक्त उन देवताओंसे कहाहे देवताओ ! सुनो, तुमलोग ब्रह्मवादी नहीं हो । अत: तुमलोगोंके उन परम ज्ञानी पुत्रोंने जो कहा-उसे सन्देहका त्याग करके ठीक समझो, वह अन्यथा नहीं है । तुमलोग देवता हो और वे [ज्ञान प्रदान करनेसे] तुम्हारे पितर हैं । अतः सभी कामनाओंको सिद्ध करनेवाले आपलोग प्रसन्नतासे परस्पर एक-दूसरेका यजन करें ॥ ५०-५२ ॥

सनत्कुमार उवाच -
ततस्ते छिन्नसंदेहाः प्रीतिमन्तः परस्परम् ।
बभूवुर्मुनिशार्दूल ब्रह्मवाक्यात्सुखप्रदाः ॥ ५३ ॥
सनत्कुमारजी बोले-हे मुनिश्रेष्ठ ! तब ब्रह्माजीके वचनसे सन्देहरहित हो वे एक-दूसरेपर प्रसन्न होकर आपसमें सुख देनेवाले हुए ॥ ५३ ॥

ततो देवा हि प्रोचुस्तान्यदुक्ताः पुत्रका वयम् ।
तस्माद्‌भवन्तः पितरो भविष्यथ न संशयः ॥ ५४ ॥
इसके बाद देवगणोंने अपने पुत्रोंसे कहा-तुमलोगोंने हमें 'पुत्रकाः'-ऐसा कहा है, अतः तुमलोग पितर होओगे, इसमें संशय नहीं है ॥ ५४ ॥

पितृश्राद्धे क्रियां कश्चित्करिष्यति न संशयः ।
श्राद्धैराप्यायितः सोमो लोकानाप्याययिष्यति ॥ ५५ ॥
समुद्रं पर्वतवनं जङ्‌गमाजङ्‌गमैर्वृतम् ।
श्राद्धानि पुष्टिकामाश्च ये करिष्यन्ति मानवाः ॥ ५६ ॥
तेभ्यः पुष्टिप्रदाश्चैव पितरः प्रीणिताः सदा ।
श्राद्धे ये च प्रदास्यन्ति त्रीन्पिंडान्नामगोत्रतः ॥ ५७ ॥
सर्वत्र वर्तमानास्ते पितरः प्रपितामहाः ।
भावयिष्यन्ति सततं श्राद्धदानेन तर्पिताः ॥ ५८ ॥
जो कोई भी पितृश्राद्धमें पितृकर्म करेगा, [वह निश्चय ही पूर्णमनोरथ होगा] उसके श्राद्धोंसे तृप्त हुए चन्द्रदेव सभी लोगोंको एवं समुद्र, पर्वत तथा वनसहित चराचरको तृप्त करेंगे । जो मनुष्य पुष्टिकी कामनासे श्राद्ध करेंगे, उससे प्रसन्न हुए पितर उन्हें सदा पुष्टि प्रदान करेंगे । जो लोग श्राद्धमें नाम-गोत्रपूर्वक तीन पिण्डदान करेंगे, उनके श्राद्धसे तृप्त हुए तथा सर्वत्र वर्तमान वे पितर तथा प्रपितामह उनकी सभी कामनाओंकी पूर्ति करेंगे ॥ ५५-५८ ॥

इति तद्वचनं सत्यं भवत्वथ दिवौकसः ।
पुत्राश्च पितरश्चैव वयं सर्वे परस्परम् ॥ ५९ ॥
एवं ते पितरो देवा धर्मतः पुत्रतां गताः ।
अन्योन्यं पितरो वै ते प्रथिताः क्षितिमण्डले ॥ ६० ॥
[ब्रह्माजीने कहा ही था कि] हे देवताओ ! उनका यह कथन सत्य हो । इसलिये हम सभी देवगण तथा पितृगण परस्पर पिता तथा पुत्र हैं । उन पितरोंके भी पिता वे देवगण [ज्ञानोपदेशरूप] धर्मसम्बन्धके कारण पितरोंके पुत्र बने और परस्पर एक-दूसरेके पिता-पुत्रके रूपमें पृथ्वीपर प्रसिद्ध हुए ॥ ५९-६० ॥

इति श्रीशिवमहापुराणे पञ्चम्यामुमासंहितायां
श्राद्धकल्पे पितृप्रभाववर्णनंनाम चत्वारिंशोऽध्यायः ॥ ४० ॥
इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत पाँचवीं उमासंहिताके श्राद्धकाल्पमें पितृप्रभाववर्णन नामक चालीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ४० ॥



श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु


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