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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥
॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥ पञ्चमी उमासंहितायां
एकचत्वारिंशोऽध्यायः पितृसर्गवर्णनं सप्तव्याधगति वर्णनम्
पितरोंकी महिमाके वर्णनक्रममें सप्त व्याधोंके आख्यानका प्रारम्भ सनत्कुमार उवाच - सप्त ते तपतां श्रेष्ठ स्वर्गे पितृगणाः स्मृताः । चत्वारो मूर्त्तिमन्तो वै त्रयश्चैव ह्यमूर्तयः ॥ १ ॥ तान्यजन्ते देवगणा आद्या विप्रादयस्तथा । आप्याययन्ति ते पूर्वं सोमं योगबलेन वै ॥ २ ॥ सनत्कुमारजी बोले-हे तपस्वियोंमें श्रेष्ठ ! स्वर्गमें सात पितृगण कहे गये हैं, जिनमें चार मूर्तिमान् हैं एवं तीन अमूर्त हैं । वे पितर पूर्वसे ही योगबलके द्वारा सोमको तृप्त करते रहे हैं । देवगण तथा ब्राह्मण उन्हींका यजन करते हैं ॥ १-२ ॥ तस्माच्छ्राद्धानि देयानि योगिनां तु विशेषतः । सर्वेषां राजतं पात्रमथ वा रजतान्वितम् ॥ ३ ॥ दत्तं स्वधां पुरोधाय श्राद्धे प्रीणाति वै पितॄन् । वह्नेराप्यायनं कृत्वा सोमस्य तु यमस्य वै ॥ ४ ॥ उदगायनमप्यग्नावग्न्यभावेऽप्सु वा पुनः । पितॄन्प्रीणाति यो भक्त्या पितरः प्रीणयन्ति तम् ॥ ५ ॥ यच्छन्ति पितरः पुष्टिं प्रजाश्च विपुलास्तथा । स्वर्गमारोग्यवृद्धिं च यदन्यदपि चेप्सितम् ॥ ६ ॥ इसलिये योगनिष्ठ पितरोंको विशेष रूपसे श्राद्ध देने चाहिये । इन सभी [सातों] पितरोंको चाँदी या चाँदीसे युक्त पात्र तथा स्वधापूर्वक दिया गया श्राद्ध प्रसन्नता प्रदान करता है । जो मनुष्य अग्नि, सोम तथा यमका आप्यायनकर अग्निमें उदगायन करता है अथवा अग्निके अभावमें जलमें उदगायन करके भक्तिसे पितरोंको तृप्त करता है, उससे सन्तुष्ट हुए पितर उसे भी सन्तुष्ट करते हैं । पितृगण प्रसन्न हो जानेपर उसे पुष्टि, विपुल सन्तति, स्वर्ग, आरोग्यवृद्धि तथा अन्य अभीष्ट भी प्रदान करते हैं ॥ ३-६ ॥ देवकार्यादपि मुने पितृकार्यं विशिष्यते । पितृभक्तोऽसि विप्रर्षे तेन त्वमजरामरः ॥ ७ ॥ हे मुने ! देवकार्यकी अपेक्षा पितृकार्यको विशेष कहा गया है, हे विप्रर्षे । आप पितृभक्त हैं, इसलिये अजर-अमर हैं ॥ ७ ॥ न योगेन गतिः सा तु पितृभक्तस्य या मुने । पितृभक्तिर्विशेषेण तस्मात्कार्या महामुने ॥ ८ ॥ हे मुने ! योगसे भी वह गति नहीं प्राप्त होती, जो पितृभक्तको प्राप्त होती है, इसलिये हे महामुने ! विशेष रूपसे पितृभक्ति करनी चाहिये ॥ ८ ॥ मार्कण्डेय उवाच - एवमुक्त्वाऽऽशु देवेशो देवानामपि दुर्लभम् । चक्षुर्दत्त्वा सविज्ञानं जगाम यौगिकीं गतिम् ॥ ९ ॥ मार्कण्डेयजी बोले-ऐसा कहकर वे देवेश [सनत्कुमार] मुझे देवताओंके लिये भी दुर्लभ विज्ञानमय दृष्टि देकर शीघ्र ही योगगतिको प्राप्त हो गये ॥ ९ ॥ शृणु भीष्म पुरा भूयो भारद्वाजात्मजा द्विजाः । योगधर्ममनुप्राप्य भ्रष्टा दुश्चरितेन वै ॥ १० ॥ वाग्दुष्टः क्रोधनो हिंस्रः पिशुनः कविरेव च । स्वसृषः पितृवर्ती च नामभिः कर्मभिस्तथा ॥ ११ ॥ हे भीष्म । सुनो* पूर्व समयमें कुछ ब्राह्मण रहते थे, जो भरद्वाजके पुत्र थे । वे योगधर्मका सेवन करते-करते दुराचारमें फँस जानेके कारण [स्वर्गसे] भ्रष्ट हो गये । वे वाग्दुष्ट, क्रोधन, हिंस्र, पिशुन, कवि, खसम और पितृवर्ती नामवाले थे और अपने नामके अनुसार कार्य भी किया करते थे ॥ १०-११ ॥ कौशिकस्य सुतास्तात शिष्या गर्गस्य चाभवन् । पितर्युपरते सर्वे प्रवसन्तस्तदाभवन् ॥ १२ ॥ विनियोगाद्गुरोस्तस्य गां दोग्ध्रीं समकालयन् । समानवत्सां कपिलां सर्वेऽन्यायागतास्तदा ॥ १३ ॥ हे तात ! [दूसरे जन्ममें] वे सभी कौशिकके पुत्र एवं गर्गके शिष्य हुए । पिताके मर जानेपर वे सभी प्रवास (गुरुके आश्रम)-में रहने लगे । एक समय उन गुरुकी आज्ञासे दूध देनेवाली तथा बछड़ेसे युक्त कपिला गौको चराते-चराते वे अन्यायमें प्रवृत्त हो गये ॥ १२-१३ ॥ तेषां पथि क्षुधार्तानां बाल्यान्मोहाच्च भारत । क्रूरा बुद्धिः समुत्पन्ना तां गां तै हिंसितुं तदा ॥ १४ ॥ तां कविः स्वसृषश्चैव याचेते नैति वै तदा । न चाशक्यास्तु ताभ्यां वा तदा वारयितुं निजाः ॥ १५ ॥ हे भारत ! मोह तथा मूर्खताके कारण भूखसे व्याकुल उन सभीको मार्गमें उसे मारनेके लिये क्रूर बुद्धि उत्पन्न हुई । कवि तथा खसृमने उनसे गौकी माँग की, किंतु उन्होंने नहीं दिया और उन भाइयोंसे उसे बचाने में भी वे दोनों समर्थ नहीं हो सके ॥ १४-१५ ॥ पितृवर्ती तु यस्तेषां नित्यं श्राद्धाह्निको द्विजः । स सर्वानब्रवीत्कोपात् पितृभक्तिसमन्वितः ॥ १६ ॥ यद्यशक्यं प्रकर्तव्यं पितॄनुद्दिश्य साध्यताम् । प्रकुर्वन्तो हि श्राद्धं तु सर्व एव समाहिताः ॥ १७ ॥ उनमें जो पितृवर्ती नामक भाई था, वह नित्यश्राद्ध करनेवाला था, पितृभक्तिसे युक्त वह क्रोधपूर्वक उन | सभीसे कहने लगा-यदि तुम लोग इसका वध अवश्य करना चाहते ही हो तो पितरोंको उद्देश्यकर ऐसा करो और सावधान होकर उससे पितरोंका श्राद्ध करो ॥ १६-१७ ॥ एवमेषा च गौर्धर्मं प्राप्स्यते नात्र संशयः । पितॄनभ्यर्च्य धर्मेण नाधर्मो नो भविष्यति ॥ १८ ॥ ऐसा करनेसे यह गौ धर्मको प्राप्त होगी, इसमें संशय नहीं है । धर्मपूर्वक पितरोंका पूजन कर लेनेसे हमलोगोंको [वधजन्य] अधर्म भी नहीं होगा ॥ १८ ॥ एवमुक्ताश्च ते सर्वे प्रोक्षयित्वा च गां तदा । पितृभ्यः कल्पयित्वा तु ह्युपायुञ्जत भारत ॥ १९ ॥ हे भारत ! उसके ऐसा कहनेपर उन सभीने गौका प्रोक्षण करके उसको मारकर उससे पितरोंका श्राद्ध किया और उसे उपयोगमें ले लिया ॥ १९ ॥ उपयुज्य च गां सर्वे गुरोस्तस्य न्यवेदयन् । शार्दूलेन हता धेनुर्वत्सा वै गृह्यतामिति ॥ २० ॥ इस प्रकार सभीने गायका उपयोगकर गुरुसे निवेदन किया कि सिंहने गायको मार दिया, अब इस बछड़ेको ग्रहण कीजिये ॥ २० ॥ आर्तवत्स तु तं वत्सं प्रतिजग्राह वै द्विजः । मिथ्योपचारतः पापमभूत्तेषां च गोघ्नताम् ॥ २१ ॥ सरल स्वभावके कारण ब्राह्मणने भी उस बछड़ेको ग्रहण कर लिया, इस मिथ्या उपचार [असत्ययुक्त अपकर्म]-से उन गोहत्यारोंको पाप लगा ॥ २१ ॥ ततः कालेन कियता कालधर्ममुपागताः । ते सप्त भ्रातरस्तात बभूवुः स्वायुषःक्षये ॥ २२ ॥ हे तात ! इसके बाद कुछ काल बीत जानेपर वे सातों भाई अपनी आयुके क्षीण होनेपर कालधर्म (मृत्यु)को प्राप्त हुए ॥ २२ ॥ ते वै क्रूरतया हैंस्त्र्यात्स्वानार्यत्वाद् गुरोस्तथा । उग्रहिंसाविहाराश्च जाताः सप्त सहोदराः ॥ २३ ॥ लुब्धकस्य सुतास्तावद् बलवन्तो मनस्विनः । जाता व्याधा दशार्णेषु सप्त धर्मविचक्षणाः ॥ २४ ॥ क्रूरकर्म, हत्या एवं गुरुसे अनार्य व्यवहार करनेके कारण उग्र स्वभाववाले तथा हिंसामें ही रमण करनेवाले वे सभी सातों भाई दशार्ण देशमें किसी बहेलियेके बलवान्, मनस्वी तथा धर्मप्रवीण सात पुत्र हुए ॥ २३-२४ ॥ स्वधर्मनिरताः सर्वे मृगा मोहविवर्जिताः । आसन्नुद्वेगसंविग्ना रम्ये कालंजरे गिरौ ॥ २५ ॥ उसके अनन्तर अपने धर्ममें निरत वे सभी कालधर्मको प्राप्त होकर दूसरे जन्ममें रम्य कालंजरपर्वतपर [पूर्वकृत कर्मोके कारण] उद्वेगसे युक्त तथा [जातिस्मरताके कारण] मोहविवर्जित मृगजन्मको प्राप्त होकर वहीं विहार करने लगे ॥ २५ ॥ तमेवार्थमनुध्याय ज्ञानं मरणसंभवम् । आसन्वनचराः क्षान्ता निर्द्वंद्वा निष्परिग्रहाः ॥ २६ ॥ उस जन्ममें भी वे जातिस्मरताको प्राप्तकर पूर्वकृत कमकि फलका स्मरण करते हए निर्द्वन्द्व, निष्परिग्रह तथा क्षमाशील हो वनमें विचरण करते थे ॥ २६ ॥ ते सर्वे शुभकर्माणः सद्धर्माणो वनेचराः । विधर्माचरणैर्हीना जातिस्मरणसिद्धयः ॥ २७ ॥ पूर्वजातिषु यो धर्मः श्रुतो गुरुकुलेषु वै । तथैव चास्थिता बुद्धौ संसारेऽप्यनिवर्तने ॥ २८ ॥ वे सभी वनेचर मृग शुभ कर्मवाले, उत्तम धर्मका आचरण करनेवाले, विधर्म आचरणसे रहित तथा | जातिस्मरणकी सिद्धिवाले थे । उन्होंने पूर्वजन्ममें गुरुकुलोंमें जो धर्म सुन रखा था, वे संसारसे निवृत्त होनेके लिये उसीको बुद्धिमें रखते थे ॥ २७-२८ ॥ गिरिमध्ये जहुः प्राणाँल्लब्धाहारास्तपस्विनः । तेषां तु पतितानां च यानि स्थानानि भारत ॥ २९ ॥ तथैवाद्यापि दृश्यन्ते गिरौ कालञ्जरे नृप । कर्मणा तेन ते जाताः शुभाशुभविवर्जकाः ॥ ३० ॥ उसके अनन्तर उन तपस्वी मृगोंने [बिना यत्लके] प्राप्त आहारको ग्रहण करते हुए वहीं पर्वतके मध्यमें अपने प्राणोंका त्याग कर दिया । हे भारत ! हे नृप ! उन पतितोंके जो स्थान थे, वे आज भी कालंजरपर्वतपर दिखायी पड़ते हैं । इस शुभकर्मके प्रभावसे वे शुभ तथा अशुभ दोनोंसे मुक्त हो गये ॥ २९-३० ॥ शुभाऽशुभतरां योनिं चक्रवाकत्वमागताः । शुभे देशे शरद्वीपे सप्तैवासञ्जलौकसः ॥ ३१ ॥ त्यक्त्वा सहचरीधर्मं मुनयो धर्मधारिणः । निःसङ्गा निर्ममाः शान्ता निर्द्वंद्वा निष्परिग्रहाः ॥ ३२ ॥ निवृत्तिनिर्वृताश्चैव शकुना नामतः स्मृताः । ते ब्रह्मचारिणः सर्वे शकुना धर्मधारिणः ॥ ३३ ॥ जातिस्मराः सुसंवृद्धाः सप्तैव ब्रह्मचारिणः । स्थिता एकत्र सद्धर्मा विकाररहिताः सदा ॥ ३४ ॥ पुनः वे सातों मृग परमपुण्य क्षेत्र शरद्वीपमें शुभसे भी शुभ जलवासी चक्रवाक योनिको प्राप्त हुए । वे सहचारी धर्मका त्याग करके मुनियोंकी भांति धर्मनिरत होकर रहते थे । वे पक्षी निःसंग, निर्मम, शान्त, निर्द्वन्द्व, निष्परिग्रह, निवृत्ति तथा निर्वृत नामवाले थे । वे सभी ब्रह्मचर्यपरायण तथा धर्मनिरत थे । जातिस्मरणवाले तथा अभ्युदयसे युक्त वे सातों पक्षी विकारसे रहित हो सर्वदा एक ही स्थानमें निवास करते थे ॥ ३१-३४ ॥ विप्रयोनौ तु यन्मोहान्मिथ्यापचरितं गुरौ । तिर्यग्योनौ तथा जन्म श्राद्धाज्ज्ञानं च लेभिरे ॥ ३५ ॥ तथा तु पितृकार्यार्थं कृतं श्राद्धं व्यवस्थितैः । तदा ज्ञानं च जातिं च क्रमात्प्राप्तं गुणोत्तरम् ॥ ३६ ॥ उन्होंने ब्राह्मणयोनिमें जो गुरुके प्रति दोषपूर्ण मिथ्या आचार किया था, इस कारण उन्हें पक्षियोनि प्राप्त हुई, किंतु श्राद्ध करनेके कारण उन्हें ज्ञानबल रहा । उन्होंने व्यवस्थित होकर पितरोंको प्रसन्न करनेके निमित्त श्राद्ध किया था, इसलिये उन्होंने क्रमसे उत्कृष्ट गुणोंसे युक्त ज्ञान तथा जातिको प्राप्त किया ॥ ३५-३६ ॥ पूर्वजादिषु यद्ब्रह्म श्रुतं गुरुकुलेषु वै । तथैव संस्थितज्ञानं तस्माज्ज्ञानं समभ्यसेत् ॥ ३७ ॥ पूर्वजन्मोंमें गुरुकुलोंमें उन्होंने जो ज्ञान सुना था, वही ज्ञान उनमें बना हुआ था । अतः सबको ज्ञानका अभ्यास करना चाहिये ॥ ३७ ॥ सुमनाश्च सुवाक्छुद्धः पञ्चमश्छिद्रदर्शकः । स्वतन्त्रश्च सुयज्ञश्च कुलीना नामतः स्मृताः ॥ ३८ ॥ [उस योनिमें] वे पक्षी सुमना, सुवाक्, शुद्ध, पंचम, छिद्रदर्शक, स्वतन्त्र और सुयज नामवाले हुए ॥ ३८ ॥ तेषां तत्र विहङ्गानां चरतां धर्मचारिणाम् । सुवृत्तमभवत्तत्र तच्छृणुष्व महामुने ॥ ३९ ॥ नीपानामीश्वरो राजा प्रभावेण समन्वितः । श्रीमानन्तःपुरवृतो वनं तत्राविवेश ह ॥ ४० ॥ हे महामुने ! वनमें विचरण करनेवाले उन धर्मात्मा पक्षियोंके सामने जो सुन्दर घटना घटी, उसे आप सुनें । नीप देशका बड़ा प्रभावशाली तथा श्रीमान् राजा [विभ्राज] एक समय अन्तःपुरकी स्त्रियोंसे युक्त हो उस वनमें आया ॥ ३९-४० ॥ स्वतन्त्रश्चक्रवाकः स स्पृहयामास तं नृपम् । दृष्ट्वा यान्तं सुखोपेतं राज्यशोभासमन्वितम् ॥ ४१ ॥ सुखसम्पन्न तथा राज्यशोभायुक्त उस राजाको आया हुआ देखकर स्वतन्त्र नामक उस चक्रवाकने यह इच्छा की ॥ ४१ ॥ यद्यस्ति सुकृतं किंचित्तपो वा नियमोऽपि वा । खिन्नोऽहमुपवासेन तपसा निश्चलेन च ॥ ४२ ॥ तस्य सर्वस्य पूर्णेन फलेनापि कृतेन हि । सर्वसौभाग्यपात्रश्च भवेयमहमीदृशः ॥ ४३ ॥ इस निश्चल तप एवं निरन्तर उपवाससे मैं अत्यन्त शिथिल हो गया हूँ, यदि मेरा कुछ पुण्य, तप, नियम हो तो उसके करनेसे प्राप्त हुए पूर्ण फलसे मैं इसीके सदृश सम्पूर्ण सौभाग्यका पात्र हो जाऊँ ॥ ४२-४३ ॥ मार्कण्डेय उवाच - ततस्तु चक्रवाकौ द्वावासतुः सहचारिणौ । आवां वै सचिवौ स्याव तव प्रियहितैषिणौ ॥ ४४ ॥ मार्कण्डेयजी बोले-उसके बाद दोनों सहचारी चकवोंने कहा कि हम दोनों तुम्हारे राजा होनेपर तुम्हारे प्रिय तथा हितैषी मन्त्री होवें ॥ ४४ ॥ तथेत्युक्त्वा तु तस्यासीत्तदा योगात्मनो गतिः । एवं तौ चक्रवाकौ च स्ववाक्यं प्रत्यभाषताम् ॥ ४५ ॥ तब ऐसा ही हो, ऐसा उनके कहनेसे उस योगात्माकी वैसी ही गति हो गयी, जिससे दोनों चकवोंने मन्त्री होनेके लिये अपनी बात की थी ॥ ४५ ॥ यस्मात्कर्म ब्रुवाणस्वं योगधर्ममवाप्य तम् । एवं वरं प्रार्थयसे तस्माद्वाक्यं निबोध मे ॥ ४६ ॥ [तदुपरान्त उन तीनों पक्षियोंसे चौथा पक्षी शुचिवाक कहने लगा-] योगधर्मको प्राप्त करके भी ऐसा वर चाह रहे हो । तुम कर्मकी बात कह रहे हो अर्थात् कर्मबन्धनमें बँधना चाहते हो तो अब मैं जो कह रहा हूँ, उसे सुनो ॥ ४६ ॥ राजा त्वं भविता तात कांपिल्ये नगरोत्तमे । एतौ ते सचिवौ स्यातां व्यभिचारप्रधर्षितौ ॥ ४७ ॥ न तानूचुस्त्रयो राज्यं चतुरः सहचारिणः । सप्रसादं पुनश्चक्रे तन्मध्ये सुमनाब्रवीत् ॥ ४८ ॥ हे तात ! तुम श्रेष्ठ काम्पिल्यनगरमें राजा होगे एवं योगसे भ्रष्ट हुए ये दोनों चक्रवाक तुम्हारे मन्त्री होंगे । तदुपरान्त राज्यलोलुप उन पक्षियोंसे जब अन्य पक्षियोंने बोलना बन्द कर दिया, तब वे तीनों अपने चारों सहचरोंसे कहने लगे-'हमपर कृपा कौजिये । ' तब उनमेंसे सुमना नामक पक्षी बोला- ॥ ४७-४८ ॥ अन्तर्वो भविता शापः पुनर्योगमवाप्स्यथ । सर्वसत्त्वः सुयज्ञश्च स्वतन्त्रोऽयं भविष्यति ॥ ४९ ॥ पितृप्रसादाद्युष्माभिः संप्राप्तं सुकृतं भवेत् । गां प्रोक्षयित्वा धर्मेण पितृभ्यश्चोपकल्पिताः ॥ ५० ॥ तुमलोगोंका शाप भी मिट जायगा और तुमलोग पुनः योग प्राप्त करोगे-यह स्वतन्त्र सभी प्राणियोंकी भाषाका जानकार होगा । तुम सभीको पितरोंके प्रसादका पुण्य प्राप्त होगा, क्योंकि गौका प्रोक्षणकर तुमलोगोंने पितरोंके निमित्त श्राद्ध किया है ॥ ४९-५० ॥ अस्माकं ज्ञानसंयोगः सर्वेषां योगसाधनम् । इदं च कार्यं संरब्धं श्लोकमेकमुदाहृतम् ॥ ५१ ॥ पुरुषान्तरितं श्रुत्वा ततो योगमवाप्स्यथ । इत्युक्त्वा स तु मौनोभूद्विहङ्गः सुमना बुधः ॥ ५२ ॥ हमलोगोंके ज्ञानका संयोग तुम सभीके योगका निमित्त कैसे बनेगा-इस विषयमें जब तुमलोग | किसी पुरुषसे हमलोगोंके द्वारा कहा गया श्लोक सुनोगे, तब तुम्हें योगकी प्राप्ति होगी । इस प्रकार कहकर वह सुमना नामक बुद्धिमान् चक्रवाक चुप हो गया ॥ ५१-५२ ॥ मार्कण्डेय उवाच - लोकानां स्वस्तये तात शन्तनुप्रवरात्मज । इत्युक्तं तच्चरित्रं मे किं भूयः श्रोतुमिच्छसि ॥ ५३ ॥ मार्कण्डेयजी बोले-हे तात ! हे शन्तनुपुत्र ! मैंने लोककल्याणके निमित्त यह चरित्र आपसे कहा, अब दूसरा क्या सुनना चाहते हैं ? ॥ ५३ ॥ इति श्रीशिवमहापुराणे पञ्चम्यामुमासंहितायां पितृसर्गवर्णनं सप्तव्याधगति वर्णनंनामैकचत्वारिंशोऽध्यायः ॥ ४१ ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत पाँचवीं उमासंहितामें पितसर्गवर्णन तथा सप्तव्याधगतिवर्णन नामक इकतालीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ४१ ॥ श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु |