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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥

॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥

पञ्चमी उमासंहितायां

द्विचत्वारिंशोऽध्यायः


पितृकल्पे पितृभाववर्णनम्
'सप्त व्याध' सम्बन्धी श्लोक सुनकर राजा ब्रह्मदत्त और उनके मन्त्रियोंको पूर्वजन्मका स्मरण होना और योगका आश्रय लेकर उनका मुक्त होना


भीष्म उवाच -
मार्कण्डेय महाप्राज्ञ पितृभक्तिभृतां वर ।
किं जातं तु ततो ब्रूहि कृपया मुनिसत्तम ॥ १ ॥
भीष्मजी बोले-हे मार्कण्डेयजी ! हे महाप्राज ! हे पितृभक्तोंमें श्रेष्ठ ! हे मुनिश्रेष्ठ ! इसके अनन्तर क्या हुआ, कृपया आप बताइये ? ॥ १ ॥

मार्कण्डेय उवाच -
ते धर्मयोगनिरताः सप्त मानसचारिणः ।
वाय्वंबुभक्षाः सततं शरीरमुपशोषयन् ॥ २ ॥
स राजान्तःपुरवृतो नन्दने मघवा इव ।
क्रीडित्वा सुचिरं तत्र सभार्यः स्वपुरं ययौ ॥ ३ ॥
मार्कण्डेयजी बोले-[तदुपरान्त उनका जन्म मानसरोवरके हंसोंके रूपमें हुआ । ] वे मानसरोवरमें विचरण करनेवाले सातों पक्षी धर्मयोगमें तत्पर हो पवन तथा जलका आहार करते हुए अपना शरीर सुखाने लगे । इधर, नीपदेशका वह राजा [उन पक्षियोंकी योगचर्याको देखकर योगधर्मकी प्राप्तिकी अभिलाषा करता हुआ] अन्तःपुरकी स्त्रियोंके साथ नन्दनवनमें इन्द्रके समान क्रीड़ाकर भार्यासहित अपने नगरको चला गया ॥ २-३ ॥

अनूहो नाम तस्यासीत्पुत्रः परमधार्मिकः ।
तं वैभ्राजः सुतं राज्ये स्थापयित्वा वनं ययौ ॥ ४ ॥
तपः कर्तुं समारेभे यत्र ते सहचारिणः ।
स वै तत्र निराहारो वायुभक्षो महातपाः ॥ ५ ॥
उसका अनूह (अणुह) नामक परम धर्मात्मा पुत्र था, उस पुत्रको राज्यपर स्थापित करके उसने वनकी ओर प्रस्थान किया और जहाँ वे सहचारी हंस पक्षी थे. वहींपर वह महातपस्वी निराहार रहकर वायुभक्षण करते हुए तप करने लगा ॥ ४-५ ॥

ततो विभ्राजितं तेन विभ्राजं नाम तद्वनम् ।
बभूव सुप्रसिद्धं हि योगसिद्धिप्रदायकम् ॥ ६ ॥
उससे विभाजित होनेके कारण वह वन योगसिद्धिप्रदायक वैभ्राज नामसे विशेष प्रसिद्ध हुआ ॥ ६ ॥

तत्रैव ते हि शकुनाश्चत्वारो योगधर्मिणः ।
योगभ्रष्टास्त्रयश्चैव देहत्यागकृतोऽभवन् ॥ ७ ॥
कांपिल्ये नगरे ते तु ब्रह्मदत्तपुरोगमाः ।
जाताः सप्त महात्मानः सर्वे विगतकल्मषाः ॥ ८ ॥
वहींपर योगधर्ममें तत्पर उन चारों पक्षियोंने तथा योगसे भ्रष्ट शेष तीन पक्षियोंने अपने शरीरका त्याग किया, पुन: वे काम्पिल्य नामक नगरमें ब्रह्मदत्त आदि नामवाले सात निष्पाप महात्मा हुए ॥ ७-८ ॥

स्मृतिमन्तोऽत्र चत्वारस्त्रयस्तु परिमोहिताः ।
स्वतन्त्रस्याह्वयो जातो ब्रह्मदत्तो महौजसः ॥ ९ ॥
इनमें चारको तो अपने पूर्वजन्मकी स्मृति बनी रही, किंतु [शेष] तीन पूर्वजन्मकी स्मृतिके नष्ट हो जानेसे मोहमें पड़ गये थे । उनमें स्वतन्त्र नामक चक्रवाक महातेजस्वी अणुहके पुत्र ब्रह्मदत्त नामसे विख्यात हुआ ॥ ९ ॥

छिद्रदर्शी सुनेत्रस्तु वेदवेदाङ्‌गपारगौ ।
जातौ श्रोत्रियदायादौ पूर्वजातिसहाषितौ ॥ १० ॥
पञ्चालो बह्वृचस्त्वासीदाचार्यत्वं चकार ह ।
द्विवेदः पुंडरीकश्च छंदोगोऽध्वर्युरेव च ॥ ११ ॥
छिद्रदर्शी और सुनेत्र पूर्वजन्ममें उसके साथ रहनेके कारण उसी नगरमें वेद-वेदांगपारगामी [पंचाल तथा पुण्डरीक नामवाले] श्रोत्रियपुत्र हुए । पंचाल बत्वच अर्थात् ऋग्वेदी था और आचार्यत्व करता था । पुण्डरीक दो वेदोंका ज्ञाता होनेसे छन्दोगान करनेवाला और अध्वर्यु हुआ ॥ १०-११ ॥

ततो राजा सुतं दृष्ट्‍वा ब्रह्मदत्तमकल्मषम् ।
अभिषिच्य स्वराज्ये तु परां गतिमवाप्तवान् ॥ १२ ॥
पञ्चालः पुण्डरीकस्तु पुत्रौ संस्थाप्य मन्दिरे ।
विविशतुर्वनं तत्र गतौ परमिकां गतिम् ॥ १३ ॥
ब्रह्मदत्तस्य भार्या तु सन्नितिर्माम भारत ।
सा त्वेकभावसंयुक्ता रेमे भर्त्रा सहैव तु ॥ १४ ॥
इधर राजाने अपने पुत्र ब्रह्मदत्तको पापरहित देखकर उसका राज्याभिषेक करके परम गति प्राप्त की । पंचाल और पुण्डरीकके भी पिताने अपने दोनों पुत्रोंको राजाके मन्त्रिपदपर अभिषिक्तकर वनमें जाकर परम गति प्राप्त की । हे भारत ! ब्रह्मदत्तकी सन्नति नामक भार्या थी, वह अपने पतिमें अनन्यभावसे रमण करती थी ॥ १२-१४ ॥

शेषास्तु चक्रवाका वै कांपिल्ये सहचारिणः ।
जाताः श्रोत्रियदायादा दरिद्रस्य कुले नृप ॥ १५ ॥
धृतिमान्सुमहात्मा च तत्त्वदर्शीं निरुत्सुकः ।
वेदाध्ययन सम्पन्नाश्चत्वारश्छिद्रदर्शिनः ॥ १६ ॥
हे राजन् ! सहचारी (चारों) चक्रवाक उसी काम्पिल्य नगरमें किसी दरिद्र श्रोत्रियके पुत्रोंके रूपमें उत्पन्न हुए । धृतिमान्, सुमहात्मा, तत्त्वदर्शी और निरुत्सुक उनके नाम थे । ये सभी चारों वेदाध्ययनसम्पन्न और सांसारिक दोषोंके ज्ञाता थे ॥ १५-१६ ॥

ते योगनिरताः सिद्धाः प्रस्थिताः सर्व एव हि ।
आमन्त्र्य च मिथः शंभोः पदाम्भोजं प्रणम्य तु ॥ १७ ॥
ते तमूचुर्द्विजाः सर्वे पितरं पुनरेव च ।
करिष्यामो विधानं ते येन त्वं वर्तयिष्यसि ॥ १८ ॥
एक समय इन योगनिरत सिद्ध पुरुषोंने परस्पर विचार किया और [अपना कल्याण करनेके लिये] वे शिवजीके चरणकमलोंमें प्रणामकर प्रस्थान करने लगे । उस समय [पिताके द्वारा रोके जानेपर] उन सभी ब्राह्मणोंने अपने पितासे कहा-हम आपकी आजीविकाकी व्यवस्था किये जा रहे हैं, जिससे आपका निर्वाह हो जायगा ॥ १७-१८ ॥

इमं श्लोकं महार्थं त्वं राजानं सहमंत्रिणम् ।
श्रावयेथ समागम्य ब्रह्मदत्तमकल्मषम् ॥ १९ ॥
आप मन्त्रियोंसहित निष्पाप ब्रह्मदत्त राजाके पास जाकर महान् अर्थपूर्ण इस श्लोक को सुना देना ॥ १९ ॥

प्रीतात्मा दास्यति स ते ग्रामान् भोगांश्च पुष्कलान् ।
एतावदुक्त्वा ते सर्वे पूजयित्वा च तं गुरुम् ।
योगधर्ममनुप्राप्य परां निर्वृतिमाययुः ॥ २० ॥
चतुर्णां तु पिता योऽसौ ब्राह्मणानां महात्मनाम् ।
श्लोकं सोऽधीत्य पुत्रेभ्यः कृतकृत्य इवाभवत् ॥ २१ ॥
इस श्लोकसे हर्षित हुआ राजा अनेक ग्राम तथा नाना प्रकारकी भोग-सामग्री देगा । इस प्रकार कहकर वे अपने पिताकी पूजा कर और योगधर्म प्राप्तकर परमशान्तिका अनुभव करने लगे । उन चारोंके पिता भी अपने महात्मा पुत्रोंके द्वारा कहे गये श्लोकका अध्ययनकर कृतकृत्य हो गये ॥ २०-२१ ॥

श्रावयामास राजानं श्लोकं तं सचिवौ च तौ ।
सप्तव्याधा दशार्णेषु मृगाः कालञ्जरे गिरौ ॥ २२ ॥
चक्रवाकाः शरद्वीपे हंसाः सरसि मानसे ।
तेऽभिजाताः कुरुक्षेत्रे ब्राह्मणा वेदपारगाः ॥ २३ ॥
प्रस्थिता दीर्घमध्वानं यूयं किमवसीदथ ।
तच्छ्रुत्वा मोहमगमद्‌ब्रह्मदत्तो नराधिपः ॥ २४ ॥
उसने राजाके पास जाकर मन्त्रियोंकी उपस्थितिमें उस श्लोकको सुनाया-'जो दशार्ण देशमें सात व्याध हुए, कालंजरपर्वतपर सात हरिण हुए, शरद्वीपमें सात चक्रवाक और पुनः मानसरोवरमें सात हंस हुए; वे ही कुरुक्षेत्रमें वेदवेत्ता ब्राह्मण हुए हैं । चार तो अपना रास्ता पार कर चुके, अब तीन शेष तुमलोग क्यों इस जगत्के दुर्गम मार्गमें भटक रहे हो ?' इतना सुनते ही राजा ब्रह्मदत्त उसी क्षण मोहित हो गया ॥ २२-२४ ॥

सचिवश्चास्य पाञ्चालः पुण्डरीकश्च भारत ।
ततस्ते तत्सर: स्मृत्वा योगं तमुपलभ्य च ॥ २५ ॥
ब्राह्मणान् विपुलैरथैर्भोगैश्च समयोजयन् ।
अभिषिच्य स्वराज्ये तु विष्वक्सेनमरिन्दमम् ॥ २६ ॥
जगाम ब्रह्मदत्तो हि सदारो वनमेव ह ।
प्राप्य योगं बलादेव गतिं प्राप सुदुर्लभाम् ॥ २७ ॥
हे भारत ! उसीके साथ उसके सचिव पांचाल और पुण्डरीक भी मोहित हो गये । फिर वे मानसरोवरका स्मरण करते ही योगको प्राप्त हो गये । उसके अनन्तर ब्रह्मदत्तने उस ब्राहाणको बहुत-सा रथ, भोगसामग्री एवं धन दिया और अपने विष्वक्सेन नामक शत्रुहन्ता पुत्रको राज्यपर अभिषिक्तकर स्वयं पत्‍नीसमेत वन चला गया और योगबलसे श्रेष्ठ गतिको प्राप्त किया ॥ २५-२७ ॥

पुण्डरीकोऽपि धर्मात्मा सांख्ययोगमनुत्तमम् ।
प्राप्य योगगतिः सिद्धो विशुद्धस्तेन कर्मणा ॥ २८ ॥
क्रमं प्रणीय पाञ्चाल्यः शिक्षां चोत्पाद्य केवलाम् ।
योगाचार्यगतिं प्राप यशश्चाग्रयं महातपाः ॥ २९ ॥
धर्मात्मा पुण्डरीक भी सर्वश्रेष्ठ सांख्ययोगको प्राप्तकर योगका आश्रय ले उसके साधनसे विशुद्ध और सिद्ध हो गया । इसी प्रकार महातपस्वी पांचाल (पंचाल)-ने भी [वैदिकोंमें प्रसिद्ध] क्रमपाठ तथा शिक्षा [वेदांगविशेष अथवा योगशास्त्रीय ग्रन्थ]-का प्रणयनकर उत्तम कीर्ति तथा योगाचार्यगति (मोक्ष) प्राप्त की ॥ २८-२९ ॥

शूरा ये सम्प्रपद्यन्ते अपुनर्भवकाङ्‌क्षिणः ।
पापम्प्रणाशयन्त्वद्य तच्छम्भोः परमं पदम् ॥ ३० ॥
शारीरे मानसे चैव पापे वाग्जे महामुने ।
कृते सम्यगिदम्भक्त्या पठेच्छ्रद्धासमन्वितः ॥ ३१ ॥
जिन शूरोंको मुक्तिकी इच्छा हो, वे भगवान् सदाशिवके चरणकमलोंका ध्यानकर अपना पाप नष्ट करें । हे महामुने ! शरीर, मन तथा वाणीसे किये गये पापके नाशके लिये श्रद्धा एवं भक्तिसे समन्वित हो इस आख्यानका भलीभाँति पाठ करना चाहिये ॥ ३०-३१ ॥

मुच्यते सर्वपापेभ्यः शिवनामानुकीर्तनात् ।
उच्चार्यमाण एतस्मिन्देवदेवस्य तस्य वै ॥ ३२ ॥
शिवनामका पुनः-पुनः कीर्तन करनेसे व्यक्ति सभी पापोंसे मुक्त हो जाता है । उन देवदेव शिवके नामोंका उच्चारण होते ही पाप उसी प्रकार विलीन हो जाता है, जैसे पानी भरते ही मिट्टीका कच्चा घड़ा विनष्ट हो जाता है ॥ ३२ ॥

विलयं पापमायाति ह्यामभाण्डमिवाम्भसि ।
तस्मात्तत्संचिते पापे समनन्तरमेव च ॥ ३३ ॥
जप्तव्यमेतत्पापस्य प्रशमाय महामुने ।
नरैः श्रद्धालुभिभूर्यः सर्वकामफलाप्तये ॥ ३४ ॥
पुष्ट्यर्थमिममध्यायं पठेदेनं शृणोति वा ।
मुच्यते सर्वपापेभ्यो मोक्षं याति न संशयः ॥ ३५ ॥
इतना ही नहीं, हे महामुने ! संचित [अथवा किये गये] पापके नाशके लिये भी निरन्तर शिवनामका जप अवश्य करना चाहिये । श्रद्धालुजनोंको अपने मनोभिलषितकी सिद्धिहेतु भी शिवनामका जप करना आवश्यक है । जो मनुष्य पुष्टिके लिये इस अध्यायको पढ़ता और सुनता है, वह सब पापोंसे छूटकर मोक्षको प्राप्त करता है, इसमें सन्देह नहीं ॥ ३३-३५ ॥

इति श्रीशिवमहापुराणे पञ्चम्यामुमासंहितायां
पितृकल्पे पितृभाववर्णनं नाम द्विचत्वारिंशोऽध्यायः ॥ ४२ ॥
इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत पाँचवीं उमासंहितामें पितृप्रभाववर्णन नामक बयालीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ४२ ॥



श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु


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