Menus in CSS Css3Menu.com


॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥

॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥

पञ्चमी उमासंहितायां

पञ्चचत्वारिंशोऽध्यायः


मधुकैटभवधे महाकालिकावतारवर्णनम्
भगवती जगदम्बाके चरितवर्णनक्रममें सुरथराज एवं समाधि वैश्यका वृत्तान्त तथा मधु कैटभके वधका वर्णन


मुनय ऊचुः -
श्रुत्वा शंभोः कथा रम्या नानाख्यानसमन्विता ।
नानावतार संयुक्ता भुक्तिमुक्तिप्रदा नृणाम् ॥ १ ॥
इदानीं श्रोतुमिच्छामस्त्वत्तो ब्रह्मविदांवर ।
चरित्रं जगदंबाया भगवत्या मनोहरम् ॥ २ ॥
परब्रह्म महेशस्य शक्तिराद्या सनातनी ।
उमा या समभिख्याता त्रैलोक्यजननी परा ॥ ३ ॥
सती हैमवती तस्या अवतारद्वयं श्रुतम् ।
अपरानवतारांस्त्वं ब्रूहि सूत महामते ॥ ४ ॥
मुनिगण बोले-हे सूतजी ! हमलोगोंने अनेक आख्यानोंसे युक्त मनोहर शिवकथा सुनी, जो अनेक अवतारोंसे सम्बन्धित तथा मनुष्योंको मुक्ति एवं भुक्ति देनेवाली है । हे ब्रह्मवेत्ताओंमें श्रेष्ठ ! अब हमलोग आपसे भगवती जगदम्बाके मनोहर चरित्रको सुनना चाहते हैं । परब्रह्म महेश्वरकी जो सनातनी आद्या शक्ति हैं, वे उमा नामसे विख्यात हैं । वे ही त्रिलोकीको उत्पन्न करनेवाली पराशक्ति हैं । उनके दक्षकन्या सती तथा हैमवती पार्वतीये दो अवतार हमने सुने । हे महामते सूतजी ! अब आप उनके अन्य अवतारोंका वर्णन कीजिये ॥ १-४ ॥

को विरज्येत मतिमान् गुणश्रवणकर्मणि ।
श्रीमातुर्ज्ञानिनो यानि न त्यजन्ति कदाचन ॥ ५ ॥
उन श्रीमाताके गुणोंका श्रवण करनेसे भला कौन बुद्धिमान् विरत होना चाहेगा, [जबकि] ज्ञानीलोग भी उनके गुणानुवाद-श्रवणका त्याग नहीं करते ॥ ५ ॥

सूत उवाच -
धन्या यूयं महात्मानः कृतकृत्याः स्थ सर्वदा ।
यत्पृच्छथ पराम्बाया उमायाश्चरितं महत् ॥ ६ ॥
सूतजी बोले-आप सभी महात्मा धन्य एवं कृतकृत्य हैं, जो सर्वदा पराम्बा भगवती पार्वतीका महान् चरित्र पूछते हैं ॥ ६ ॥

शृण्वतां पृच्छतां चैव तथा वाचयतां च तत् ।
पादाम्बुजरजांस्येव तीर्थानि मुनयो विदुः ॥ ७ ॥
ते धन्या कृतकृत्याः स्युर्धन्या तेषां प्रसूः कुलम् ।
येषां चित्तं भवेल्लीनं श्रीदेव्यां परसंविदि ॥ ८ ॥
मुनियोंने जगदम्बाका चरित्र पूछनेवालों, सुननेवालों तथा पढ़नेवालोंके चरणकमलोंकी धूलिको ही तीर्थ कहा है । जिन लोगोंका चित्त परमसंवितस्वरूपिणी श्रीदेवीके चिन्तनमें लीन रहता है, वे धन्य हैं, कृतकृत्य हैं और उनकी जननी तथा कुल भी धन्य हैं ॥ ७-८ ॥

ये न स्तुवन्ति देवेशीं सर्वकारणकारणाम् ।
मायागुणैर्मोहिताः स्युर्हतभाग्या न संशयः ॥ ९ ॥
जो लोग समस्त कारणोंकी कारणभूता जगदम्बाकी स्तुति नहीं करते हैं, वे मायाके गुणोंसे मोहित और भाग्यहीन ही रहते हैं, इसमें संशय नहीं है ॥ ९ ॥

न भजन्ति महादेवीं करुणारससागराम् ।
अन्धकूपे पतन्त्येते घोरे संसाररूपिणि ॥ १० ॥
जो करुणारसकी सिन्धुस्वरूपा महादेवीका भजन नहीं करते, वे संसाररूपी घोर अन्धकूपमें पड़ते हैं ॥ १० ॥

गङ्‌गां विहाय तृप्त्यर्थं मरुवारि यथा व्रजेत् ।
विहाय देवीं तद्‌भिन्नं तथा देवान्तरं व्रजेत् ॥ ११ ॥
जो मनुष्य देवीको छोड़कर दूसरे देवताओंकी शरण लेता है, वह मानो गंगाजीको छोड़कर मरुस्थलके जलाशयके पास जाता है ॥ ११ ॥

यस्याः स्मरणमात्रेण पुरुषार्थचतुष्टयम् ।
अनायासेन लभते कस्त्यजेत्तां नरोत्तमः ॥ १२ ॥
एतत्पृष्टः पुरा मेधाः सुरथेन महात्मना ।
यदुक्तं मेधसा पूर्वं तच्छृणुष्व वदामि ते ॥ १३ ॥
जिनके स्मरणमात्रसे चारों पुरुषार्थ [धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष] बिना परिश्रमके प्राप्त हो जाते हैं, उन देवीका कौन श्रेष्ठ पुरुष त्याग करेगा ? पूर्व समयमें महात्मा सुरथने मेधा ऋषिसे यही पूछा था, तब मेधाने जो कहा था, उसीको मैं आपसे कह रहा हूँ, सुनिये ॥ १२-१३ ॥

स्वारोचिषेऽन्तरे पूर्वं विरथो नाम पार्थिवः ।
सुरथस्तस्य पुत्रोऽभून्महाबलपराक्रमः ॥ १४ ॥
दानशौण्डः सत्यवादी स्वधर्म कुशलः कृती ।
देवीभक्तो दयासिन्धुः प्रजानां परिपालकः ॥ १५ ॥
पहले स्वारोचिष मन्वन्तरमें विरथ नामक राजा हुआ था, उसका पुत्र सुरथ महाबली एवं पराक्रमशाली था । वह दानमें निपुण, सत्यवादी, अपने धर्ममें कुशल, सफल, देवीभक्त, दयासागर और प्रजापालक था ॥ १४-१५ ॥

पृथिवीं शासतस्तस्य पाकशासनतेजसः ।
बभूबुर्नव ये भूपाः पृथ्वीग्रहणतत्पराः ॥ १६ ॥
कोलानाम्नीं राजधानीं रुरुधुस्तस्य भूपतेः ।
तैः समं तुमुलं युद्धं समपद्यत दारुणम् ॥ १७ ॥
युद्धे स निर्जितो भूपः प्रबलैस्तैर्द्विषद्‌गणैः ।
उज्जासितच्च कोलाया हृत्वा राज्यमशेषतः ॥ १८ ॥
इन्द्रके समान तेजसम्पन्न वह राजा जब पृथ्वीका शासन कर रहा था, उस समय नौ राजा ऐसे थे, जो उसका राज्य लेनेको उद्यत हो गये । उन्होंने उस राजाकी कोला नामक राजधानीको घेर लिया और उनके साथ [सुरथका] भयंकर संग्राम हुआ । उन महाबली शत्रुओंने युद्ध में उस राजाको पराजित कर दिया और उसका सारा राज्य छीनकर उसे कोलापुरीसे बाहर निकाल दिया ॥ १६-१८ ॥

स राजा स्वपुरीमेत्याकरोद्राज्यं स्वमन्त्रिभिः ।
तत्रापि च महापक्षैर्विपक्षैः स पराजितः ॥ १९ ॥
दैवाच्छत्रुत्वमापन्नैरमात्यप्रमुखैर्गणैः ।
कोशस्थितं च यद्वित्तं तत्सर्वं चात्मसात्कृतम् ॥ २० ॥
वह राजा अपनी पुरीमें आकर अपने मन्त्रियोंके साथ राज्य करने लगा, किंतु वहाँ भी उसके प्रबल शत्रुओंने उसे पराजित कर दिया । दैवयोगसे शत्रुता करके उसके मन्त्री आदि प्रमुख सहायकोंने कोषमें जो भी धन स्थित था, वह सब स्वयं ले लिया ॥ १९-२० ॥

ततः स निर्गतो राजा नगरान्मृगयाछलात् ।
असहायोऽश्वमारुह्य जगाम गहनं वनम् ॥ २१ ॥
इसके बाद असहाय वह राजा आखेटके बहाने घोड़ेपर चढ़कर घने वनमें चला गया ॥ २१ ॥

इतस्ततस्तत्र गच्छन्‌राजा मुनिवराश्रमम् ।
ददर्श कुसुमारामभ्राजितं सर्वतोदिशम् ॥ २२ ॥
वेदध्वनिसमाकीर्णं शान्तजन्तुसमाश्रितम् ।
शिष्यैः प्रशिष्यैस्तच्छिष्यैः समन्तात्परिवेष्टितम् ॥ २३ ॥
वहाँ इधर-उधर भटकते हुए उस राजाने किसी मुनिके उत्तम आश्रमको देखा, जो चारों ओरसे पुष्पवाटिकाओंसे सुशोभित था, वेदध्वनिसे गुंजित, शान्त जन्तुओंसे परिव्याप्त और उनके शिष्यों, प्रशिष्यों तथा उनके भी शिष्योंसे सभी ओरसे घिरा हुआ था ॥ २२-२३ ॥

व्याघ्रादयो महावीर्या अल्पवीर्यान्महामते ।
तदाश्रमे न बाधन्ते द्विजवर्यप्रभावतः ॥ २४ ॥
हे महामते ! उन द्विजवरके प्रभावसे उस आश्रममें महाबलवान् व्याघ्र आदि जन्तु निर्बल जन्तुओंको पीड़ा नहीं पहुँचाते थे ॥ २४ ॥

उवास तत्र नृपतिर्महाकारुणिको बुधः ।
सत्कृतो मुनिनाथेन सुवचो भोजनासनैः ॥ २५ ॥
वहाँपर परम दयालु तथा बुद्धिमान् राजा मुनिवर्यके द्वारा मधुर वचन, भोजन, आसन, पान आदिसे सत्कृत होकर निवास करने लगा ॥ २५ ॥

एकदा स महाराजश्चिन्तामाप दुरत्ययाम् ।
अहो मे हीनभाग्यस्य दुर्बुद्धेर्हीनतेजसः ॥ २६ ॥
हृतं राज्यमशेषेण शत्रुवर्गैर्मदोद्धतैः ।
मत्पूर्वै रक्षितं राज्यं शत्रुभिर्भुज्यतेऽधुना ॥ २७ ॥
एक समय वह राजा अत्यधिक चिन्तामग्न होकर सोचने लगा । आश्चर्य है कि मुझ भाग्यहीन, बुद्धिहीन एवं निस्तेजका सम्पूर्ण राज्य मदोन्मत्त शत्रुओंने छीन लिया । मेरे पूर्वजोंसे रक्षित राज्यका उपभोग इस समय शत्रु कर रहे हैं ॥ २६-२७ ॥

मादृशश्चैत्रवंशेस्मिन्न कोप्यासीन्महीपतिः ।
किं करोमि क्व गच्छामि कथं राज्यं लभेमहि ॥ २८ ॥
इस चैत्रवंशमें मेरे-जैसा [अभागा] कोई राजा नहीं हुआ । अब मैं क्या करूँ कहाँ जाऊँ और किस प्रकार अपना राज्य प्राप्त करूं ? ॥ २८ ॥

अमात्या मन्त्रिणश्चैव मामका ये सनातनाः ।
न जाने कं च नृपतिं समासाद्याधुनासते ॥ २९ ॥
विनाश्य राज्यमधुना न जाने कां गतिं गताः ।
रणभूमिमहोत्साह्य अरिवर्गनिकर्तनाः ॥ ३० ॥
मामका ये महाशूरा नृपमन्यं भजन्ति ते ।
पर्वताभा गजा अश्वा वातवद्वेगगामिनः ॥ ३१ ॥
पूर्वपूर्वार्जितः कोशः पाल्यते तैर्न वाधुना ।
एवं मोहवशं यातो राजा परमधार्मिकः ॥ ३२ ॥
जो मेरे परम्परागत अमात्य तथा मन्त्री थे, वे इस समय न जाने किस राजाका आश्रय लेकर निवास करते होंगे । वे इस राज्यका विनाश करके न जाने अब किस गतिको प्राप्त हुए होंगे । युद्धभूमिमें महान् उत्साहवाले एवं शत्रुवर्गका छेदन करनेवाले मेरे जो महान् शूरवीर थे, वे दूसरे राजाके आश्रयमें होंगे । पर्वतके समान हाथियों और वायुके समान वेगशाली घोड़ों तथा पहलेके पूर्वजोंद्वारा अर्जित मेरे कोषकी रक्षा वे इस समय करते होंगे अथवा नहीं । इस प्रकार विचार करता हुआ वह परम धार्मिक राजा मोहके वशीभूत हो गया ॥ २९-३२ ॥

एतस्मिन्नन्तरे तत्र वैश्यः कश्चित्समागतः ।
राजा पप्रच्छ कस्त्वं भोः किमर्थमिह चागतः ॥ ३३ ॥
इसी बीच कोई वैश्य वहाँ आया । राजाने उससे पूछा-तुम कौन हो ? और किसलिये यहाँ आये हो ? ॥ ३३ ॥

दुर्मना लक्ष्यसे कस्मादेतन्मे ब्रूहि साम्प्रतम् ।
इत्याकर्ण्य वचो रम्यं नरपालेन भाषितम् ॥ ३४ ॥
दृग्भ्यां विमुञ्चन्नश्रूणि समाधिर्वैश्यपुङ्‌गवः ।
प्रत्युवाच महीपालं प्रणयावनतो गिरम् ॥ ३५ ॥
इस समय तुम इतने दुखी क्यों दिखायी पड़ रहे हो, इसे मुझे बताओ । राजाके द्वारा कहे गये इस मनोहर वचनको सुनकर वह वैश्यश्रेष्ठ समाधि अपने नेत्रोंसे आँसू बहाता हुआ प्रेम और विनययुक्त वाणीमें राजासे कहने लगा- ॥ ३४-३५ ॥

वैश्य उवाच -
समाधिर्नाम वैश्योऽहं धनिवंशसमुद्‌भवः ।
पुत्रदारादिभिस्त्यक्तो धनलोभान्महीपते ॥ ३६ ॥
वैश्य बोला-हे महीपते ! मैं धनियोंके वंशमें उत्पन्न समाधि नामक वैश्य हूँ । मेरे स्त्री-पुत्र आदिने धनलोभके कारण मेरा त्याग कर दिया है ॥ ३६ ॥

स वनमभ्यागतो राजन्दुःखितः स्वेन कर्मणा ।
सोहं पुत्रप्रपौत्राणां कलत्राणां तथैव च ॥ ३७ ॥
भ्रातॄणां भ्रातृपुत्राणां परेषां सुहृदां तथा ।
न वेद्मि कुशलं सम्यक् करुणासागर प्रभो ॥ ३८ ॥
हे राजन् ! अपने [पूर्वकृत] कर्मसे दुःखित होकर मैं इस वनमें आया हूँ । हे करुणासागर ! हे प्रभो ! मैं अपने पुत्रों, पौत्रों, स्त्रियों, भाइयों, भतीजों एवं अन्य सुहदोंका कुशल भलीभाँति नहीं जान पा रहा हूँ ॥ ३७-३८ ॥

राजोवाच -
निष्कासितो यैः पुत्राद्यैर्दुर्वृत्तैर्धनगर्धिभिः ।
तेषु किं भवता प्रीतिः क्रियते मूर्खजन्तुवत् ॥ ३९ ॥
राजा बोला-दुराचारी तथा धनके लोभी जिन पुत्र आदिने तुम्हें [घरके बाहर निकाल दिया, उनसे तुम मूर्ख प्राणीके समान प्रीति क्यों करते हो ? ॥ ३९ ॥

वैश्य उवाच -
सम्यगुक्तं त्वया राजन्वचः सारार्थबृंहितम् ।
तथापि स्नेहपाशेन मोह्यतेऽतीव मे मनः ॥ ४० ॥
वैश्य बोला-हे राजन् ! आपने सचमुच सारगर्भित बात कही है, किंतु स्नेहपाशसे जकड़े रहनेके कारण मेरा मन अत्यन्त मोहग्रस्त हो रहा है ॥ ४० ॥

एवं मोहाकुलौ वैश्यपार्थिवौ मुनिसत्तम ।
जग्मतुर्मुनिवर्यस्य मेधसः सन्निधिं तदा ॥ ४१ ॥
स वैश्यराजसहितो नरराजः प्रतापवान् ।
प्रणनाम महावीरः शिरसा योगिनां वरम् ॥ ४२ ॥
[सूतजी बोले-] हे मुनिश्रेष्ठ ! तदुपरान्त इस प्रकार मोहसे व्याकुल राजा एवं वैश्य दोनों ही मुनिवर सुमेधाके पास गये । वैश्यवरसहित उस प्रतापी महाधैर्यशाली राजाने सिर झुकाकर योगिराजको प्रणाम किया ॥ ४१-४२ ॥

बद्ध्वाञ्जलिमिमां वाचमुवाच नृपतिर्मुनिम् ।
भगवन्नावयोर्मोहं छेत्तुमर्हसि साम्प्रतम् ॥ ४३ ॥
अहं राजश्रिया त्यक्तो गहनं वनमाश्रितः ।
तथापि हृतराज्यस्य तोषो नैवाभिजायते ॥ ४४ ॥
अयं च वैश्यः स्वजनैर्दाराद्यैर्निष्कृतो गृहात् ।
तथाप्येतस्य ममता न निवृत्तिं समश्नुते ॥ ४५ ॥
किमत्र कारणं ब्रूहि ज्ञानिनोरपि नो मनः ।
मोहेन व्याकुलं जातं महत्येषां हि मूर्खता ॥ ४६ ॥
उसके अनन्तर राजाने हाथ जोड़कर मुनिसे यह वचन कहा-हे भगवन् ! इस समय आप हम दोनोंका संशय दूर करनेकी कृपा कीजिये । मैं अपनी राज्यलक्ष्मीसे त्यक्त होकर इस गहन वनमें आया हूँ, तथापि राज्यके अपहरण हो जानेके कारण मुझे शान्ति नहीं है । यह वैश्य भी अपने कुदम्बियोंद्वारा घरसे निकाल दिया गया है, फिर भी इसकी ममता दूर नहीं हो रही है । इसमें क्या कारण है, उसे कहिये, जानकार होते हुए भी हम दोनोंका मन मोहसे व्याकुल हो गया है, यह तो महान् मूर्खता है ! ॥ ४३-४६ ॥

ऋषि उवाच -
महामाया जगद्धात्री शक्तिरूपा सनातनी ।
सा मोहयति सर्वेषां समाकृष्य मनांसि वै ॥ ४७ ॥
ऋषि बोले-हे राजन् ! वे जगद्धात्री शक्तिरूपा सनातनी महामाया ही सबके मनको आकृष्टकर मौहमें डाल देती हैं ॥ ४७ ॥

ब्रह्मादयः सुराः सर्वे यन्मायामोहिताः प्रभो ।
न जानन्ति परं तत्त्वं मनुष्याणां च का कथा ॥ ४८ ॥
हे प्रभो ! ब्रह्मा आदि समस्त देवता भी जिनकी मायासे मोहित होकर परमतत्त्वको नहीं जान पाते, फिर मनुष्योंकी तो बात ही क्या ? ॥ ४८ ॥

सा सृजत्यखिलं विश्वं सैव पालयतीति च ।
सैव संहरते काले त्रिगुणा परमेश्वरी ॥ ४९ ॥
वे त्रिगुणा परमेश्वरी सम्पूर्ण संसारको उत्पन्न करती हैं, वे ही उसका पालन करती हैं और वे ही फिर समय प्राप्त होनेपर उसका विनाश भी करती हैं ॥ ४९ ॥

यस्योपरि प्रसन्ना सा वरदा कामरूपिणी ।
स एव मोहमत्येति नान्यथा नृपसत्तम ॥ ५० ॥
हे नृपश्रेष्ठ ! वरदायिनी एवं कामरूपिणी वे देवी जिसके ऊपर प्रसन्न होती हैं, वही मोहका अतिक्रमण करता है, दूसरा कोई नहीं ॥ ५० ॥

राजोवाच -
का सा देवी महामाया या च मोहयतेऽखिलान् ।
कथं जाता च सा देवी कृपया वद मे मुने ॥ ५१ ॥
राजा बोला-वे देवी महामाया कौन हैं, जो सभीको मोहित कर देती हैं, वे देवी किस प्रकार उत्पन्न हुई ? हे मुने ! कृपाकर मुझसे कहिये ॥ ५१ ॥

ऋषिरुवाच -
जगत्येकार्णवे जाते शेषमास्तीर्य योगिराट् ।
योगनिद्रामुपाश्रित्य यदा सुष्वाप केशवः ॥ ५२ ॥
तदा द्वावसुरौ जातौ विष्णौ कर्णमलेन वै ।
मधुकैटभनामानौ विख्यातौ पृथिवीतले ॥ ५३ ॥
प्रलयार्कप्रभौ घोरौ महाकायौ महाहनू ।
दंष्द्राकरालवदनौ भक्षयन्तौ जगन्ति वा ॥ ५४ ॥
ऋषि बोले-जगत्के एकार्णव हो जानेपर जब योगिराज विष्णु योगनिद्राका आश्रय लेकर शेषशय्यापर सो रहे थे, उस समय विष्णुके कानोंके मलसे दो दैत्य उत्पन्न हुए, जो मधु और कैटभ नामसे भूतलपर प्रसिद्ध हुए । वे प्रलयकालीन सूर्यके समान तेजस्वी, भयानक, विशाल शरीरवाले, बड़ी ठोड़ीवाले और दाढ़ोंके कारण विकराल मुखवाले थे, ऐसा प्रतीत होता था कि वे सभी लोकोंका भक्षण कर जायँगे ॥ ५२-५४ ॥

तौ दृष्ट्‍वा भगवन्नाभिपङ्कजे कमलासनम् ।
हननायोद्यतावास्तां कस्त्वं भोरिति वादिनौ ॥ ५५ ॥
उस समय भगवान्के नाभिकमलपर ब्रह्माजीको स्थित देखकर वे दोनों दैत्य उन्हें मारनेको उद्यत हुए और कहने लगे–'तुम कौन हो ?' ॥ ५५ ॥

समालोक्यं तु तौ दैत्यौ सुरज्येष्ठो जनार्दनम् ।
शयानं च पयोम्भोधौ तुष्टाव परमेश्वरीम् ॥ ५६ ॥
उस समय उन दोनों दैत्योंको देखकर तथा विष्णुको क्षीरसागरमें शयन करते हुए जानकर ब्रह्माजी परमेश्वरीकी स्तुति करने लगे ॥ ५६ ॥

ब्रह्मोवाच -
रक्षरक्ष महामाये शरणागतवत्सले ।
एताभ्यां घोररूपाभ्यां दैत्याभ्यां जगदम्बिके ॥ ५७ ॥
ब्रह्माजी बोले-हे महामाये ! हे शरणागतवत्सले ! हे जगदम्बे ! घोर रूपवाले इन दोनों दैत्योंसे रक्षा कीजिये, रक्षा कीजिये ॥ ५७ ॥

प्रणमामि महामायां योगनिद्रामुमां सतीम् ।
कालरात्रिं महारात्रिं मोहरात्रिं परात्पराम् ॥ ५८ ॥
त्रिदेवजननीं नित्यां भक्ताभीष्टफलप्रदाम् ।
पालिनीं सर्वदेवानां करुणावरुणालयम् ॥ ५९ ॥
मैं महामाया, योगनिद्रा, उमा, सती, कालरात्रि, महारात्रि, मोहरात्रि, परात्परा, तीनों देवताओंकी जननी, नित्या, भक्तोंको अभीष्ट फल देनेवाली, समस्त देवोंका पालन करनेवाली तथा करुणासागररूपिणी देवीको प्रणाम करता हूँ ॥ ५८-५९ ॥

त्वत्प्रभावादहं ब्रह्मा माधवो गिरिजापतिः ।
सृजत्यवति संसारं काले संहरतीति च ॥ ६० ॥
[हे देवि !] आपके प्रभावसे मैं ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव इस जगत्का सृजन, पालन तथा समय प्राप्त होनेपर संहार करते हैं ॥ ६० ॥

त्वं स्वाहा त्वं स्वधा त्वं ह्रीस्त्वं बुद्धिर्विमला मता ।
तुष्टिः पुष्टिस्त्वमेवाम्ब शान्तिः क्षान्तिः क्षुधा दया ॥ ६१ ॥
हे अम्ब ! आप ही स्वाहा, स्वधा, लज्जा तथा निर्मल बुद्धि कही गयी हैं, आप ही तुष्टि, पुष्टि, शान्ति, क्षान्ति, क्षुधा और दया हैं ॥ ६१ ॥

विष्णुमाया त्वमेवाम्ब त्वमेव चेतना मता ।
त्वं शक्तिः परमा प्रोक्ता लज्जा तृष्णा त्वमेव च ॥ ६२ ॥
हे अम्ब ! आप ही विष्णुमाया और चेतना कही गयी हैं । आप ही परमाशक्ति, लज्जा एवं तृष्णा कही गयी हैं ॥ ६२ ॥

भ्रान्तिस्त्वं स्मृतिरूपा त्वं मातृरूपेण संस्थिता ।
त्वं लक्ष्मीर्भवने पुंसां पुण्याक्षरप्रवर्तिनाम् ॥ ६३ ॥
आप भ्रान्ति तथा स्मृति हैं एवं मातरूपसे स्थित हैं । आप ही पुण्य आचारमें संलग्न मनुष्योंकि घरमें लक्ष्मीरूपसे स्थित हैं ॥ ६३ ॥

त्वं जातिस्त्वं मता वृत्तिर्व्याप्तिरूपा त्वमेव हि ।
त्वमेव चित्तिरूपेण व्याप्य कृत्स्नं प्रतिष्ठिता ॥ ६४ ॥
आप ही जाति तथा वृत्ति कही गयी हैं । आप ही व्याप्तिरूपा हैं । आप ही चित्तिरूपसे सारे संसारमें व्याप्त होकर स्थित हैं ॥ ६४ ॥

सा त्वमेतौ दुराधर्षावसुरौ मोहयाम्बिके ।
प्रबोधय जगद्योने नारायणमजं विभुम् ॥ ६५ ॥
हे अम्बिके ! हे जगद्योने ! आप इन दोनों अजेय दैत्योंको मोहित कीजिये और अजन्मा तथा सर्वव्यापी नारायणको जगाइये ॥ ६५ ॥

ऋषिरुवाच -
ब्रह्मणा प्रार्थिता सेयं मधुकैटभनाशने ।
महाविद्या जगद्धात्री सर्वविद्याधिदेवता ॥ ६६ ॥
द्वादश्यां फाल्गुनस्यैव शुक्लायां समभून्नृप ।
महाकालीति विख्याता शक्तिस्त्रैलोक्यमोहिनी ॥ ६७ ॥
ऋषि बोले-हे नृप ! ब्रह्माजीके द्वारा प्रार्थित वे महाविद्या, जगद्धात्री, समस्त विद्याओंकी अधिदेवता भगवती मधु-कैटभका नाश करनेहेतु फाल्गुन शुक्ल द्वादशीको प्रकट हुई, वे तीनों लोकोंको मोहित करनेवाली शक्ति महाकाली-इस नामसे प्रसिद्ध हुई ॥ ६६-६७ ॥

ततोऽभवद्वियद्वाणी मा भैषीः कमलासन ।
कण्टकं नाशयाम्यद्य हत्वाजौ मधुकैटभौ ॥ ६८ ॥
इत्युक्त्वा सा महामाया नेत्रवक्त्रादितो हरेः ।
निर्गम्य दर्शने तस्थौ ब्रह्मणोऽव्यक्तजन्मनः ॥ ६९ ॥
तब आकाशवाणी हुई–'हे ब्रह्मदेव ! तुम भयभीत | मत होओ, मैं युद्ध में मधु-कैटभका वधकर आज तुम्हारा दुःख दूर करूंगी'-ऐसा कहकर वे महामाया विष्णुके नेत्र एवं मुख आदिसे निकलकर अव्यक्तजन्मा ब्रह्माजीके समक्ष स्थित हो गयीं ॥ ६८-६९ ॥

उत्तस्थौ च हृषीकेशो देवदेवो जनार्दनः ।
स ददर्श पुरो दैत्यो मधुकैटभसंज्ञकौ ॥ ७० ॥
उसके बाद देवदेव जनार्दन हषीकेश [निद्रासे] उठे और उन्होंने अपने सामने मधु-कैटभ नामक दोनों दैत्योंको देखा ॥ ७० ॥

ताभ्यां प्रववृत्ते युद्धं विष्णोरतुलतेजसः ।
पञ्चवर्षसहस्राणि बाहुयुद्धमभूत्तदा ॥ ७१ ॥
महामायाप्रभावेण मोहितो दानवोत्तमौ ।
जजल्पतू रमाकान्तं गृहाण वरमीप्सितम् ॥ ७२ ॥
तब उन दोनोंके साथ महातेजस्वी विष्णुका युद्ध आरम्भ हो गया, पाँच हजार वर्षपर्यन्त बाहुयुद्ध हुआ । उसके अनन्तर महामायाके प्रभावसे मोहित हुए दोनों दैत्यश्रेष्ठ विष्णुसे बोले-आप मनोवांछित वर ग्रहण कीजिये ॥ ७१-७२ ॥

नारायण उवाच -
मयि प्रसन्नौ यदि वां दीयतामेष मे वरः ।
मम वध्यावुभौ नान्यं युवाभ्यां प्रार्थये वरम् ॥ ७३ ॥
नारायण बोले-यदि तुम दोनों मुझसे प्रसन्न हो तो मुझे यह वर दो कि मैं स्वयं तुम दोनोंका वध कर सकूँ, मैं तुम दोनोंसे अन्य वर नहीं माँगता हूँ ॥ ७३ ॥

ऋषिरुवाच -
एकार्णवां महीं दृष्ट्‍वा प्रोचतुः केशवं वचः ।
आवां जहि न यत्रासौ धरणी पयसाप्लुता ॥ ७४ ॥
ऋषि बोले-तब सभी ओरसे जलमग्न पृथ्वीकी ओर देखकर उन दोनोंने विष्णुसे यह वचन कहा-जहाँ पृथ्वीपर जल न हो, उस स्थानपर आप हम दोनोंका वध कीजिये ॥ ७४ ॥

तथास्तु प्रोच्य भगवांश्चक्रमुत्थाप्य सूज्ज्वलम् ।
चिच्छेद शिरसी कृत्वा स्वकीयजघने तयोः ॥ ७५ ॥
'ऐसा ही होगा'-यह कहकर भगवान्ने अपना अत्यन्त देदीप्यमान चक्र उठाकर उन दोनों दैत्योंको अपनी जंघापर रखकर उनके सिर काट दिये ॥ ७५ ॥

एवन्ते कथितो राजन् कालिकायाः समुद्‌भवः ।
महालक्ष्म्यास्तथोत्पत्तिं निशामय महामते ॥ ७६ ॥
हे राजन् ! हे महामते ! इस प्रकार मैंने आपसे कालिकाकी उत्पत्ति कह दी, अब महालक्ष्मीकी उत्पत्तिका वृत्तान्त सुनिये ॥ ७६ ॥

निर्विकारादि साकारा निराकारापि देव्युमा ।
देवानां तापनाशार्थं प्रादुरासीद्युगे युगे ॥ ७५ ॥
निर्विकार तथा निराकार होनेपर भी वे भगवती उमा देवगणोंका दुःख दूर करनेके लिये युग-युगमें शरीर धारणकर प्रकट होती हैं ॥ ७७ ॥

यदिच्छावैभवं सर्वं तस्या देहग्रहः स्मृतः ।
लीलया सापि भक्तानां गुणवर्णनहेतवे ॥ ७८ ॥
अपनी इच्छाके अनुसार देह धारण करना उन भगवतीका इच्छावैभव कहा गया है और वे भी लीलासे इसलिये शरीर धारण करती हैं कि भक्त उनके गणोंका गान करते रहें ॥ ७८ ॥

इति श्रीशिवमहापुराणे पञ्चम्यामुमासंहितायां मधुकैटभवधे
महाकालिकावतारवर्णनं नाम पञ्चचत्वारिंशोऽध्यायः ॥ ४५ ॥
इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत पाँचवीं उमासंहितामें महाकालिकावतारवर्णन नामक पैंतालीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ४५ ॥



श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु


GO TOP