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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥
॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥ पञ्चमी उमासंहितायां
सप्तचत्वारिंशोऽध्यायः धूम्रलोचन चण्डमुण्डरक्तबीजवधः
शुम्भ-निशुम्भसे पीड़ित देवताओंद्वारा देवीकी स्तुति तथा देवीद्वारा धूम्रलोचन, चण्ड-मुण्ड आदि असुरोंका वध ऋषिरुवाच - आसीच्छुम्भासुरो दैत्यो निशुंभश्च प्रतापवान् । त्रैलोक्यमोजसाक्रान्तं भ्रातृभ्यां सचराचरम् ॥ १ ॥ ताभ्याम्प्रपीडिता देवा हिमवन्तं समाययुः । जननीं सर्वभूतानां कामदात्रीं ववन्दिरे ॥ २ ॥ ऋषि बोले-हे राजन् ! पूर्व समयमें शुम्भ एवं निशुम्भ नामक प्रतापी दैत्य हुए । उन दोनों भाइयोंने अपने तेजसे चराचरसहित तीनों लोकोंको आक्रान्त कर रखा था । उन दोनोंसे पीड़ित हुए देवगण हिमालयपर्वतपर गये और समस्त प्राणियोंकी माता तथा कामनाओंको पूर्ण करनेवाली देवीकी स्तुति करने लगे ॥ १-२ ॥ देवा ऊचुः - जय दुर्गे महेशानि जयात्मीयजनप्रिये । त्रैलोक्यत्राणकारिण्यै शिवायै ते नमो नमः ॥ ३ ॥ नमो मुक्तिप्रदायिन्यै पराम्बायै नमो नमः । नमः समस्तसंसारोत्पत्तिस्थित्यन्तकारिके ॥ ४ ॥ देवगण बोले-हे दुर्गे ! हे महेश्वरि ! आपकी जय हो, हे आत्मीयजनप्रिये ! आपकी जय हो, त्रैलोक्यकी रक्षा करनेवाली आप शिवाको नमस्कार है, नमस्कार है । मुक्तिदायिनीको नमस्कार है, पराम्बाको नमस्कार है, समस्त जगत्का सृजन, पालन तथा संहार करनेवालीको नमस्कार है ॥ ३-४ ॥ कालिकारूपसंपन्ने नमस्काराकृते नमः । छिन्नमस्तास्वरूपायै श्रीविद्यायै नमोऽस्तु ते ॥ ५ ॥ हे कालिकारूपसम्पन्ने ! आपको नमस्कार है । आप ताराकृतिको नमस्कार है । आप छिन्नमस्तास्वरूपा तथा श्रीविद्याको नमस्कार है ॥ ५ ॥ भुवनेशि नमस्तुभ्यं नमस्ते भैरवाकृते । नमोस्तु बगलामुख्यै धूमावत्यै नमो नमः ॥ ६ ॥ हे भुवनेश्वरि ! आपको नमस्कार है, आप भैरवाकृतिको नमस्कार है । आप बगलामुखीको नमस्कार है । आप धूमावतीको बार-बार नमस्कार है ॥ ६ ॥ नमस्त्रिपुरसुन्दर्यै मातङ्गयै ते नमो नमः । अजितायै नमस्तुभ्यं विजयायै नमो नमः ॥ ७ ॥ जयायै मङ्गलायै ते विलासिन्यै नमो नमः । दोग्ध्रीरूपे नमस्तुभ्यं नमो घोराकृतेऽस्तु ते ॥ ८ ॥ त्रिपुरसुन्दरीको नमस्कार है, मातंगीको बार-बार नमस्कार है । आप अजिताको नमस्कार है, विजयाको बार-बार नमस्कार है । आप जया, मंगला तथा विलासिनीको बार-बार नमस्कार है, आप दोग्ध्रीरूपाको नमस्कार है, आप घोराकृतिको नमस्कार है ॥ ७-८ ॥ मनोऽपराजिताकारे नित्याकारे नमो नमः । शरणागतपालिन्यै रुद्राण्यै ते नमो नमः ॥ ९ ॥ हे अपराजिताकारे ! आपको नमस्कार है, हे नित्याकारे ! आपको नमस्कार है । शरणागतोंका पालन करनेवाली आप रुद्राणीको बार-बार नमस्कार है ॥ ९ ॥ नमो वेदान्तवेद्यायै नमस्ते परमात्मने । अनन्तकोटिब्रह्माण्डनायिकायै नमो नमः ॥ १० ॥ आप वेदान्तवेद्याको नमस्कार है, आप परमात्माको नमस्कार है, अनन्तकोटि ब्रह्माण्डकी नायिकाको बारबार नमस्कार है ॥ १० ॥ इति देवैः स्तुता गौरी प्रसन्ना वरदा शिवा । प्रोवाच त्रिदशान्सर्वान्युष्माभिः स्तूयतेऽत्र का ॥ ११ ॥ इस प्रकार देवताओंद्वारा स्तुति की जाती हुई वरदायिनी गौरी शिवाने प्रसन्न होकर सभी देवगणोंसे कहा-आपलोग यहाँपर किसकी स्तुति कर रहे हैं ? ॥ ११ ॥ ततो गौरीतनोरेका प्रादुरासीत्कुमारिका । सोवाच मिषतां तेषां शिवशक्तिं परादरात् ॥ १२ ॥ स्तोत्रं मे क्रियते मातः समस्तैः स्वर्गवासिभिः । निशुंभशुंभदैत्याभ्यां प्रबलाभ्यां प्रपीडितैः ॥ १३ ॥ उसी समय पार्वतीके शरीरसे एक कन्या प्रकट हुई, उन देवगणोंके देखते-देखते ही उसने अत्यन्त आदरपूर्वक शिवशक्ति पार्वतीजीसे कहा-हे मातः ! महाबली शुम्भनिशुम्भसे पीड़ित हुए सभी स्वर्गवासी देवता मेरी स्तुति कर रहे हैं ॥ १२-१३ ॥ शरीरकोशाद्यत्तस्या निर्गता तेन कौशिकी । नाम्ना सा गीयते साक्षाच्छुंभासुरनिबर्हिणी ॥ १४ ॥ चैवोग्रतारिका प्रोक्ता महोग्रतारिकापि च । प्रादुर्भूता यतः सा वै मातङ्गीत्युच्यते भुवि ॥ १५ ॥ वे पार्वतीके शरीरकोशसे उत्पन्न हुई, अतः शुम्भासुरका नाश करनेवाली वे कौशिकी नामसे पुकारी जाती हैं । वे ही उग्रतारिका एवं वही महोग्रतारिका भी कही गयी हैं । वे प्रकट हुई, इसलिये लोकमें मातंगी कही जाती हैं ॥ १४-१५ ॥ बभाषे निखिलान्देवान्यूयं तिष्ठत निर्भयाः । कार्यं वः साधयिष्यामि स्वतन्त्राहं विनाश्रयम् ॥ १६ ॥ उन्होंने सभी देवताओंसे कहा-आप सब निर्भय होकर निवास कीजिये । मैं स्वतन्त्र हैं, इसलिये किसीके सहारेके बिना ही मैं आपलोगोंका कार्य सिद्ध करूँगी ॥ १६ ॥ इत्युक्त्वा सा तदा देवी तरसान्तर्हिताऽभवत् । चाण्डमुण्डौ तु तान्देवीमद्राष्टां सेवकौ तयोः ॥ १७ ॥ दृष्ट्वा मनोहरं तस्या रूपं नेत्रसुखावहम् । पेततुस्तौ धरामध्ये नष्टसंज्ञौ विमोहितौ ॥ १८ ॥ तब ऐसा कहकर वे देवी उसी क्षण अन्तर्धान हो गयीं । उन दोनों शुम्भ-निशुम्भके चण्ड-मुण्ड नामक सेवकोंने [उसी समय] उन देवीको देखा । नेत्रोंको सुख प्रदान करनेवाले उनके मनोहर रूपको देखते ही वे चेतनाहीन तथा मोहित हो पृथ्वीपर गिर पड़े ॥ १७-१८ ॥ गत्वा व्याजह्रतुः सर्वं राज्ञे वृत्तान्तमादितः । दृष्टा काचिन्मया पूर्वा नारी राजन्मनोरमा ॥ १९ ॥ हिमवच्छिखरे रम्ये संस्थिता सिंहवाहिनी । समन्ताद्देवकन्याभिः सेविता बद्धपाणिभिः ॥ २० ॥ कुरुते पादसंवाहं काचित्संस्कुरुते कचान् । पाणिसंवाहनं काचित्काचिन्नेत्राञ्जनं न्यधात् ॥ २१ ॥ काचिद् गृहीत्वा हस्तेनादर्शं दर्शयते मुखम् । नागवल्लीं ददात्येका लवङ्गैलादिसंयुताम् ॥ २२ ॥ पतदूग्रहं करे कृत्वा स्थिता काचित्सखी पुरः । भूषयत्यखिलाङ्गानि काचिद्भूषाम्बरादिभिः ॥ २३ ॥ इसके बाद जाकर उन दोनोंने [अपने] राजासे आरम्भसे लेकर सारा वृत्तान्त कहा-हे राजन् ! हमने एक मनोहर अपूर्व स्त्री देखी है, जो हिमालयके रम्य शिखरपर सिंहारूढ होकर स्थित है । सभी ओरसे देवकन्याएँ हाथ जोड़कर उसकी सेवा कर रही हैं । कोई [देवकन्या] उसका पैर दबाती है, कोई केश सँवारती है, कोई हाथ दबाती है, कोई नेत्रोंमें सुरमा लगाती है । कोई हाथमें दर्पण लेकर उन्हें मुख दिखा रही है, कोई लौंग-इलायचीमिश्रित पान खिला रही है, कोई स्त्री हाथमें पीकदान लेकर उसके सामने खड़ी है और कोई आभूषण एवं वस्त्रोंसे उसके सभी अंगोंका श्रृंगार कर रही है ॥ १९-२३ ॥ कदलीस्तंभजंघोरुः कीरनासाऽहिदोर्लता । रणन्मञ्जीरचरणा रम्यमेखलया युता ॥ २४ ॥ लसत्कस्तूरिकामोदमुक्ताहारचलस्तनी । ग्रैवेयकलसद्ग्रीवा ललन्तीदाममण्डिता ॥ २५ ॥ अर्द्धचन्द्रधरा देवी मणिकुण्डलधारिणी । रम्यवेणिर्विशालाक्षी लोचनत्रयभूषिता ॥ २६ ॥ वह देवी केलेके स्तम्भके समान ऊरुदेशवाली, शुकसदृश नासिकावाली, सर्पके समान भुजावल्लीवाली, बजते हुए नूपुरोंसे युक्त चरणोंवाली, रम्य मेखलासे युक्त, कस्तूरीकी गन्ध तथा मोतियोंकी मालासे शोभायमान हिलते हुए स्तनवाली, ग्रैवेयकसे सुशोभित ग्रीवावाली, बिजलीके समान कान्तिसे देदीप्यमान, अर्धचन्द्र तथा मणिमय कुण्डल धारण किये हुए स्थित है ॥ २४-२६ ॥ साक्षरा मालिकोपेता पाणिराजितकङ्कणा । स्वर्णोर्मिकाङ्गुलिर्भ्राजत्पारिहार्यलसत्करा ॥ २७ ॥ शुभवस्त्रावृता गौरी पद्मासनविराजिता । काश्मीरबिन्दुतिलका चन्द्रालङ्कृतमस्तका ॥ २८ ॥ तडिद्द्युतिर्महामूल्याम्बरचोलोन्नमत्कुचा । भुजैरष्टाभिरुत्तुङ्गैर्धारयन्ती वरायुधान् ॥ २९ ॥ मनोहर चोटीवाली, विशाल नेत्रोंवाली, तीन नेत्रोंसे सुशोभित, अक्षरब्रह्ममयी माला धारण किये हुए, हाथोंमें मनोहर कंकणसे सुशोभित, स्वर्णकी अंगूठीसे युक्त अँगुलियोंवाली, उज्ज्वल बाजूबन्दसे सुशोभित भुजाओंवाली, श्वेत वस्त्र पहने हुए, गौरवर्णवाली, कमलके आसनपर विराजमान, केसरविन्दुका तिलक धारण किये हुए चन्द्रमासे अलंकृत मस्तकवाली, विद्युत्के समान कान्तिवाली, बहुमूल्य वस्त्रका चोल धारण किये हुए, ऊँचे स्तनोंवाली तथा उत्तुंग आठों हाथोंमें श्रेष्ठ आयुध धारण की हुई स्थित है ॥ २७-२९ ॥ तादृशी नासुरी नागी न गन्धर्वी न दानवी । विद्यते त्रिषु लोकेषु यादृशी सा मनोरमा ॥ ३० ॥ तस्मात्संभोगयोग्यत्वं तस्यास्त्वयेव शोभते । नारीरत्नं यतः सा वै पुंरत्नं च भवान्प्रभो ॥ ३१ ॥ वह जैसी सुन्दर है, वैसी त्रिलोकीमें न कोई असुर स्त्री है, न नाग स्त्री है, न गन्धर्व स्त्री है और न ही दानव स्त्री है । अतः हे प्रभो ! उसके परिग्रहकी योग्यता आपमें ही शोभित होती है; क्योंकि आप पुरुषरत्न हैं और वह स्त्रीरत्न है ॥ ३०-३१ ॥ इत्युक्तं चण्डमुण्डाभ्यां निशम्य स महासुरः । दूतं सुग्रीवनामानं प्रेषयामास तां प्रति ॥ ३२ ॥ गच्छ दूत तुषाराद्रौ तत्रास्ते कापि सुन्दरी । सा नेतव्या प्रयत्नेन कथयित्वा वचो मम ॥ ३३ ॥ चण्ड-मुण्डके द्वारा कहा गया यह वचन सुनकर उस महान् असुरने देवीके पास अपना सुग्रीव नामक दूत भेजा और उससे कहा-हे दूत ! तुम हिमालयपर्वतपर जाओ, वहाँ एक सुन्दर स्त्री है, मेरा सन्देश कहकर उसे यत्नपूर्वक [मेरे पास] लाओ ॥ ३२-३३ ॥ इति विज्ञापितस्तेन सुग्रीवो दानवोत्तमः । गत्वा हिमाचलं प्राह जगदम्बां महेश्वरीम् ॥ ३४ ॥ उसकी यह आज्ञा पाकर दैत्योंमें श्रेष्ठ उस सुग्रीवने हिमालयपर्वतपर जाकर महेश्वरी जगदम्बासे कहा- ॥ ३४ ॥ दूत उवाच - देवि शुंभासुरो दैत्यो निशुंभस्तस्य चानुजः । विख्यातस्त्रिषु लोकेषु महा बलपराक्रमः ॥ ३५ ॥ चारोहं प्रेषितस्तेन सन्निधिं ते समागमम् । स यज्जगौ सुरेशानि तत्समाकर्णयाधुना ॥ ३६ ॥ दूत बोला-हे देवि ! महान् बल तथा पराक्रमवाले शुम्भासुर एवं उनके छोटे भाई निशुम्भ तीनों लोकोंमें विख्यात हैं । मैं उनका दूत हूँ । उनके द्वारा भेजा गया मैं आपके पास आया हूँ । हे सुरेश्वरि ! उन्होंने जो कहा है, उसे अब आप सुनिये ॥ ३५-३६ ॥ इन्द्रादीन्समरे जित्वा तेषां रत्नान्यपाहरम् । देवभागं स्वयं भुञ्जे यागे दत्तं सुरादिभिः ॥ ३७ ॥ मैंने इन्द्र आदिको युद्धमें जीतकर उनके सारे रत्न ले लिये हैं और यज्ञमें देवगणोंके द्वारा दिये गये यज्ञभागको मैं स्वयं ग्रहण करता हूँ ॥ ३७ ॥ स्त्रीरत्नं त्वामहं मन्ये सर्वरत्नोपरिस्थितम् । सा त्वं ममानुजं मां वा भजतात्कामजै रसैः ॥ ३८ ॥ मैं तुम्हें सभी रत्नोंमें सर्वश्रेष्ठ स्त्रीरत्न समझता हूँ, अतः तुम कामजन्य रसोंके द्वारा मेरा अथवा मेरे छोटे भाईका सेवन करो ॥ ३८ ॥ इति दूतोक्तमाकर्ण्य वचनं शुंभभाषितम् । जगाद सा महामाया भूतेशप्राणवल्लभा ॥ ३९ ॥ शुम्भके द्वारा सन्दिष्ट दूतका कहा हुआ वचन सुनकर शिवप्राणप्रिया वे महामाया कहने लगीं- ॥ ३९ ॥ देव्युवाच - सत्यं वदसि भो दूत नानृतं किंचिदुच्यते । परं त्वेका कृता पूर्वं प्रतिज्ञा तान्निबोध मे ॥ ४० ॥ यो मे दर्पं विधुनुते यो मां जयति सङ्गरे । उत्सहे तमहं कर्तुं पतिं नान्यमिति ध्रुवम् ॥ ४१ ॥ स त्वं कथय शुंभाय निशुंभाय वचो मम । यथा युक्तं भवेदेवं विदधातु तथाऽत्र सः ॥ ४२ ॥ देवी बोलीं-हे दूत ! तुम सत्य कह रहे हो, तुमने थोड़ा-सा भी असत्य नहीं कहा है, किंतु मैंने पहले एक प्रतिज्ञा की है, उसे मुझसे जान लो । जो युद्धमें मुझे जीत लेगा और जो मेरा अहंकार दूर करेगा, मैं उसे ही पतिरूपमें वरण करूँगी, दूसरेको नहीं, यह निश्चित है । तुम शुम्भ-निशुम्भसे मेरा यह वचन कह दो । इस विषयमें जैसा उचित हो, वह वैसा ही करे ॥ ४०-४२ ॥ इत्थं देवीवचः श्रुत्वा सुग्रीवो नाम दानवः । राज्ञे विज्ञापयामास गत्वा तत्र सविस्तरम् ॥ ४३ ॥ तब सुग्रीव नामक दूतने देवीका यह वचन सुनकर वहाँ जाकर विस्तारपूर्वक अपने राजासे कह दिया ॥ ४३ ॥ अथ दूतोक्तमाकर्ण्य शुंभो भैरवशासनः । धूम्राक्षं प्राह सक्रोधः सेनान्यं बलिनां वरम् ॥ ४४ ॥ हे धूम्राक्ष तुषाराद्रौ वर्तते कापि सुन्दरी । तामानय द्रुतं गत्वा यथा यास्यति सात्र वै ॥ ४५ ॥ तस्या आनयने भीतिर्न कार्याऽसुरसत्तम । युद्धं कार्यं प्रयत्नेन यदि सा योद्धुमिच्छति ॥ ४६ ॥ उसके अनन्तर दूतकी बात सुनकर प्रचण्ड शासनवाले शुम्भने क्रोधित हो बलवानोंमें श्रेष्ठ अपने सेनापति धूम्राक्षसे कहा-हे धूम्राक्ष ! हिमालयपर्वतपर कोई सुन्दरी स्थित है, तुम वहाँ शीघ्र जाकर वह जिस किसी प्रकार भी यहाँ आये, उसे लिवा लाओ । हे दैत्यसत्तम ! उसके लानेमें भय मत करना, यदि वह युद्ध भी करना चाहे तो तुम प्रयत्नपूर्वक युद्ध करना ॥ ४४-४६ ॥ एवं विज्ञापितो दैत्यो धूम्रलोचनसंज्ञकः । गत्वा हिमाचलं प्राह भुवनेशीमुमांशजाम् ॥ ४७ ॥ भर्तुर्ममान्तिकं गच्छ नोचेत्त्वां घातयाम्यहम् । षष्ट्यासुराणां सहितः सहस्राणां नितंबिनि ॥ ४८ ॥ इस प्रकार शुम्भकी आज्ञा प्राप्तकर उस धूम्रलोचन नामक दैत्यने हिमालयपर जाकर उमाके अंशसे उत्पन्न भुवनेश्वरीसे कहा-हे नितम्बिनि ! तुम मेरे स्वामीके पास चलो, नहीं तो साठ हजार सैनिकोंसे युक्त मैं तुम्हें मार डालूंगा ॥ ४७-४८ ॥ देव्युवाच - दैत्यराट्प्रेषितो वीर हंसि चेत्किं करोमि ते । परन्त्वसाध्यं गमनं मन्ये सङ्ग्राममन्तरा ॥ ४९ ॥ देवी बोलीं-हे वीर ! दैत्यराजने तुम्हें भेजा है, यदि तुम मुझे मार दोगे, तो मैं तुम्हारा क्या कर सकती हूँ, किंतु मैं युद्धके बिना वहाँ जाना असम्भव समझती हूँ ॥ ४९ ॥ इत्युक्तस्तामन्वधावद्दानवो धूम्रलोचनः । हुङ्कारोच्चारणेनैव तं ददाह महेश्वरी ॥ ५० ॥ ततः प्रभृति सा देवी धूमावत्युच्यते भुवि । आराधिता स्वभक्तानां शत्रुवर्गनिकर्तिनी ॥ ५१ ॥ देवीके द्वारा ऐसा कहे जानेपर वह दानव धूम्रलोचन उनकी ओर झपटा, किंतु महेश्वरीने 'हुँ' के उच्चारणमात्रसे उसे [उसी क्षण] भस्म कर दिया । उसी समयसे वे देवी लोकमें धूमावती नामसे विख्यात हुईं, जो आराधित होकर अपने भक्तोंके शत्रुओंका नाश कर देती हैं ॥ ५०-५१ ॥ धूम्राक्षे निहते देव्या वाहनेनातिकोपिना । चर्वितास्तद्गणाः सर्वेऽपलायन्तावशेषिताः ॥ ५२ ॥ धूम्राक्षके मार दिये जानेपर देवीके वाहन सिंहने अत्यन्त कुपित होकर उसके सैनिकोंका भक्षण कर डाला और जो शेष बचे, वे सब भाग गये ॥ ५२ ॥ इत्थं देव्या हतं दैत्यं श्रुत्वा शुंभः प्रतापवान् । चकार बहुलं कोपं सन्दष्टोष्ठपुटद्वयः ॥ ५३ ॥ इस प्रकार देवीके द्वारा धूम्रलोचन दैत्यको मारा गया सुनकर वह प्रतापी शुम्भ अपने दोनों ओठोंको चबाता हुआ अत्यन्त क्रोधित हुआ ॥ ५३ ॥ चण्डं मुंडं रक्तबीजं प्रैषयत्क्रमतोऽसुरान् । तेपि चाज्ञापिता दैत्या ययुर्यत्राम्बिका स्थिता ॥ ५४ ॥ उसने क्रमसे चण्ड, मुण्ड और रक्तबीज नामक दैत्योंको भेजा, तब उसकी आज्ञा पाकर वे भी वहाँ गये, जहाँ देवी स्थित थीं ॥ ५४ ॥ सिंहारूढा भगवतीमणिमादिभिराश्रिताम् । भासयन्ती दिशो भासा दृष्ट्वोचुर्दानवर्षभाः ॥ ५५ ॥ हे देवि तरसा मूलं याहि शुंभनिशुंभयोः । अन्यथा घातयिष्यामः सगणां त्वां सवाहनाम् ॥ ५६ ॥ वृणीष्व तं पतिं वामे लोकपालादिभिः स्तुतम् । प्रपत्स्यसे महानंदं देवानामपि दुर्लभम् ॥ ५७ ॥ सिंहपर आरूढ, अणिमादि सिद्धियोंसे युक्त और अपने तेजसे दसों दिशाओंको प्रकाशित करती हुई भगवतीको देखकर उन दैत्यराजोंने कहा-हे देवि ! तुम शीघ्रतासे शुम्भ एवं निशुम्भके पास चलो, अन्यथा हमलोग तुम्हें गणों एवं वाहनके साथ मार डालेंगे । हे वामे ! लोकपालों आदिके द्वारा स्तुत उन शुम्भका पतिरूपमें वरण करो, इससे तुम देवताओंके लिये भी दुर्लभ महान् आनन्द प्राप्त करोगी ॥ ५५-५७ ॥ इत्युक्तमाकलयाम्बा स्मयित्वा परमेश्वरी । उदाजहार सा देवी सूनृतं रसवद्वचः ॥ ५८ ॥ उनका यह वचन सुनकर वे परमेश्वरी देवी हँसकर रसमय सत्य वचन कहने लगी-॥ ५८ ॥ देव्युवाच - अद्वितीयो महेशानः परब्रह्म सदाशिवः । यत्तत्त्वं न विदुर्वेदा विष्ण्वादीनां च का कथा ॥ ५९ ॥ तस्याहं प्रकृतिः सूक्ष्मा कथमन्यं पतिं वृणे । सिंही कामातुरा नैव जम्बुकं वृणुते क्वचित् ॥ ६० ॥ करेणुर्गर्दभं नैव द्वीपिनी शशकं न वा । मृषा वदत भो दैत्यो मृत्युव्यालनियन्त्रिताः ॥ ६१ ॥ यूयं प्रयात पातालं युध्यध्वं शक्तिरस्ति चेत् । देवी बोलीं-जो अद्वितीय महेशान परब्रह्म सदाशिव कहे जाते हैं और जिन्हें वेद भी तत्त्वतः नहीं जानते. फिर विष्णु आदिकी तो बात ही क्या ? मैं उन्हींकी सूक्ष्म प्रकृति हूँ, अतः किसी दूसरेको पतिरूपमें किस प्रकार वरण करूँ ? कामपीड़ित सिंहिनी कभी गीदड़का, हथिनी कभी गधेका एवं व्याघ्री खरगोशका वरण नहीं कर सकती है ? हे दैत्यो ! कालसर्पसे ग्रस्त हुए तुमलोग झूठ बोल रहे हो । अब शीघ्र ही पाताल चले जाओ अथवा यदि सामर्थ्य हो तो युद्ध करो ॥ ५९-६१ १/२ ॥ इति क्रोधकरं वाक्यं श्रुत्वोचुस्ते परस्परम् ॥ ६२ ॥ अबलां मनसि ज्ञात्वा न हन्मो भवतीं वयम् । अथो स्थिरैहि पञ्चास्ये युद्धेच्छा मानसेऽस्ति चेत् ॥ ६३ ॥ क्रोधको उत्पन्न करनेवाले इस प्रकारके वचन सुनकर वे परस्पर कहने लगे-हमलोग अपने मनमें तुम्हें अबला समझकर नहीं मार रहे हैं, हे सिंहवाहिनि ! यदि तुम मनसे युद्धकी लालसा रखती हो तो सिंहपर सुस्थिर होकर बैठ जाओ और [युद्धके लिये] आओ ॥ ६२-६३ ॥ तेषामेवं विवदतां कलहः समवर्धत । ववृषु समरे बाणा उभयोर्दलयोः शिताः ॥ ६४ ॥ इस प्रकार उनके विवाद करनेपर कलह बढ़ गया और युद्ध में दोनों ही पक्षोंसे तीखे बाण बरसने लगे ॥ ६४ ॥ एवं तैः समरं कृत्वा लीलया परमेश्वरी । जघान चण्डमुण्डाभ्यां रक्तबीजं महासुरम् ॥ ६५ ॥ द्वेषबुद्धिं विधायापि त्रिदशस्थितयोऽप्यमी । अन्तेऽप्रापन्परं लोकं यँल्लोकं यान्ति तज्जनाः ॥ ६६ ॥ इस प्रकार उनके साथ युद्ध करके परमेश्वरीने लीलामात्रसे चण्ड-मुण्डसहित महान् असुर रक्तबीजको मार डाला । द्वेषबुद्धि रखनेपर भी उन देवशत्रुओंने अन्तमें उस श्रेष्ठ लोकको प्राप्त किया, जिस लोकको देवीके भक्त प्राप्त करते हैं ॥ ६५-६६ ॥ इति श्रीशिवमहापुराणे पञ्चम्यामुमासंहितायां धूम्रलोचन चण्डमुण्डरक्तबीजवधो नाम सप्तचत्वारिंशोऽध्यायः ॥ ४७ ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत पाँचवीं उमासंहितामें धूम्रलोचन-चण्ड-मुण्ड-रक्तबीजका वध नामक सैंतालीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ४७ ॥ श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु |