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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥
॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥ पञ्चमी उमासंहितायां
अष्टश्चत्वारिंशोऽध्यायः निशुंभशुंभवधोपाख्याने सरस्वतीप्रादुर्भाववर्णनम्
सरस्वतीदेवीके द्वारा सेनासहित शुम्भ-निशुम्भका वध राजोवाच - धूम्राक्षं चण्डमुण्डं च रक्तबीजासुरन्तथा । भगवन्निहतं देव्या श्रुत्वा शुम्भः सुरार्दनः ॥ १ ॥ किमकार्षीत्ततो ब्रह्मन्नेतन्मे ब्रूहि साम्प्रतम् । शुश्रूषवे जगद्योनेश्चरित्रं पापनाशनम् ॥ २ ॥ राजा बोले-हे भगवन् ! देवीके द्वारा धूम्राक्ष, चण्ड-मुण्ड एवं रक्तबीजको मारा गया सूनकर देवताओंको कष्ट देनेवाले शुम्भने क्या किया ? हे ब्रह्मन् ! अब आप जगत्कारणभूता देवीके पापनाशक चरित्रको सुननेकी इच्छावाले मुझे इसे बताइये ॥ १-२ ॥ ऋषिरुवाच - हतानेमान्दैत्यवरान्महासुरो निशम्य राजन्महनीयविक्रमः । अजिज्ञपत्स्वीयगणान्दुरासदान् रणाभिधोच्चारणज्जातसंमदान् ॥ ३ ॥ बलान्विताः संमिलिता ममाज्ञया जयाशया कालकवंशसंभवाः । सकालकेयासुरमौर्यदौर्हृदाः तथा परेऽप्याशु प्रयाणयन्तु ते ॥ ४ ॥ ऋषि बोले-हे राजन् ! मान्य पराक्रमवाले उस महान् असुरने इन दैत्यवरोंके मारे जानेका समाचार सुनकर युद्धका नाम लेते ही मदोन्मत्त होनेवाले अपने दुर्धर्ष सैनिकोंको आज्ञा दी-मेरी आज्ञासे कालकवंशीय, कालकेय, मौर्य एवं दौहद नामवाले सभी असुर एवं अन्य असुर भी विजयकी आशा लेकर सेनासे युक्त होकर एक साथ बुद्धके लिये प्रस्थान करें ॥ ३-४ ॥ निशुंभशुंभौ दितिजान्निदेश्य तान् रथाधिरूढौ निरयां बभूवतुः । बलान्यनूकाबलिनोस्तयोर्धराद् विनाशवन्तः शलभा इवोत्थिताः ॥ ५ ॥ उन दैत्योंको इस प्रकारकी आज्ञा देकर शुम्भ एवं निशुम्भ भी रथपर सवार हो निकल पड़े । उन महाबलशालियोंके सैनिक उनके पीछे-पीछे ऐसे चले, मानो विनष्ट होनेवाले शलभ [पतिंगे] पृथ्वीसे निकल पड़े हों ॥ ५ ॥ प्रसादयामास मृदङ्गमर्दलं सभेरिकाडिण्डिमझर्झरानकम् । रणस्थले संजहृषू रणप्रिया असुप्रियाः सङ्गरतः पराययुः ॥ ६ ॥ उस समय [वह दैत्यराज] मृदंग, ढोल, भेरी, डिण्डिम, झाँझ, नगाड़ा आदि अनेक बाजे संग्रामभूमिमें बजवाने लगा, रणप्रिय योद्धा हर्षित हो उठे और प्राणसे मोह रखनेवाले युद्धभूमिसे भाग गये ॥ ६ ॥ भटाश्च ते युद्धपटावृतास्तदा रणस्थलीमापुरपापविग्रहाः । गृहीतशस्त्रास्त्रचया जिगीषया परस्परं विग्रहयन्त उल्बणम् ॥ ७ ॥ कवच धारण किये हुए तथा निष्पाप शरीरवाले वे समस्त राक्षस वीर ढेरों अस्त्र-शस्त्र लेकर विजयकी इच्छासे एक-दूसरेको खूब ललकारते हुए युद्धभूमिमें पहुँचे ॥ ७ ॥ गजाधिरूढास्तुरगाधिरोहिणो रथाधिरूढाश्च तथापरेऽसुराः । अलक्षयन्तः स्वपराञ्जनान्मुदाऽ सुरेशसङ्गे समरेऽभिरेभिरे ॥ ८ ॥ कुछ राक्षस सैनिक हाथीपर सवार थे, कुछ घोड़ेपर सवार थे, कुछ स्थपर आरूढ़ थे, इस प्रकार सभी असुर अपने-परायेको न देखते हुए शुम्भके साथ प्रसन्न होकर युद्धभूमिमें इधर-उधर घूमने लगे ॥ ८ ॥ ध्वनिः शतघ्नी जनितो मुहुर्मुहु- र्बभूव तेन त्रिदशाः समेजिताः । महान्धकारः समपद्यताम्बरे विलोक्यते नो रथमण्डलं रवेः ॥ ९ ॥ उस समय शतघ्नीकी ध्वनि होने लगी, उससे देवता कम्पित हो उठे । आकाशमण्डलमें अन्धकार छा गया, जिससे सूर्यका रथमण्डल नहीं दिखायी पड़ता था ॥ ९ ॥ पदातयो निर्व वजुर्हि कोटिशः प्रभूतमाना विजयाभिलाषिणः । रथाश्वगा वारणगा अथापरेऽ- सुरा निरीयुः कति कोटिशो मुदा ॥ १० ॥ विजयके इच्छुक करोड़ों महामानी राक्षस पैदल ही चल पड़े और अन्य करोड़ों राक्षस रथों, हाथियों तथा घोड़ोंपर सवार हो प्रसन्नतापूर्वक पहुँचे ॥ १० ॥ अशुक्ल शैला एव मत्तवारणा अतानिषुश्चीत्कृतिशब्दमाहवे । क्रमेलकाश्चापि गलद्गलध्वनिं वितन्वते क्षुद्रमहीधरोपमाः ॥ ११ ॥ काले पर्वतके समान मदमत्त हाथी युद्धस्थलमें चिंग्घाड़ने लगे और छोटे पर्वतोंके समान ऊँट भी गलगल ध्वनि करने लगे ॥ ११ ॥ हयाश्च ह्रेषन्त उदग्रभूमिजा विशालकण्ठाभरणा गतेर्विदः । पदानि दन्तावलमूर्ध्नि बिभ्रतः सुडिड्यिरे व्योमपथा यथाऽवयः ॥ १२ ॥ विशाल कण्ठहार पहने हुए, उत्तम देशमें उत्पन्न तथा गतिका ज्ञान रखनेवाले घोड़े हिनहिनाने लगे और हाथियोंके मस्तकपर अपना पैर रखकर पक्षियोंके समान आकाशमार्गमें उड़ने लगे ॥ १२ ॥ समीक्ष्य शत्रोर्बलमित्थमापतत् चकार सज्यं धनुरम्बिका तदा । ननाद घण्टां रिपुसाददायिनी जगर्ज सिंहोऽपि सटां विधूनयन् ॥ १३ ॥ तब इस प्रकार शत्रुओंकी सेनाको उपस्थित देखकर अम्बिकाने धनुषपर डोरी चढ़ायी और शत्रुओंको कष्ट देनेवाले अपने घण्टेका नाद किया । उधर, सिंह भी अपना अयाल हिलाता हुआ गर्जन करने लगा ॥ १३ ॥ ततो निशुंभस्तुहिनाचलस्थितां विलोक्य रम्याभरणायुधां शिवाम् । गिरं बभाषे रसनिर्भरां परां विलासनीभावविचक्षणो यथा ॥ १४ ॥ भवादृशीनां रमणीयविग्रहे दुनोति कीर्णं खलु मालतीदलम् । कथं करालाहवमातनोष्यसे महेशि तेनैव मनोज्ञवर्ष्मणा ॥ १५ ॥ तत्पश्चात् हिमालयपर विराजमान और रम्य आभूषण तथा शस्त्रोंको धारण करनेवाली शिवाको देखकर वह निशुम्भ कामुकके समान रससे भरी हुई उत्तम वाणीमें बोला-हे महेशि ! तुम जैसी सुन्दरियोंके रमणीय शरीरपर गिरा हुआ मालतीपुष्प भी कष्ट पहुंचाता है, अतः तुम इस कोमल शरीरसे यह भयंकर संग्राम क्यों करना चाहती हो ? ॥ १४-१५ ॥ इतीरयित्वा वचनं महासुरो बभूव मौनी तमुवाच चंडिका । वृथा किमात्थासुर मूढ सङ्गरं कुरुष्व नागालयमन्यथा व्रज ॥ १६ ॥ ततोतिरुष्टः समरे महारथ- श्चकार बाणावलिवृष्टिमद्भुताम् । घनाघनाः संववृषुर्यथोदकं रणस्थले प्रावृडिवागतास्तदा ॥ १७ ॥ ऐसा वचन कहकर वह महान् असुर चुप हो गया । तब चण्डिकाने उससे कहा-अरे मूर्ख असुर ! व्यर्थ क्यों बोल रहे हो ? युद्ध करो, अन्यथा पातालमें चले जाओ । तब अत्यधिक क्रोधित हुआ वह महारथी दैत्य युद्धमें बाणोंकी ऐसी अद्भुत वर्षा करने लगा, जिस प्रकार आये हुए मेघ वर्षाकालमें जलकी वृष्टि करते हैं ॥ १६-१७ ॥ शरैः शितैः शूलपरश्वधायुधैः सभिन्दिपालैः परिघैः शरासनैः । भुशुण्डिकाप्रासक्षुरप्रसंज्ञकै र्महासिभिः संयुयुधे मदोद्धतैः ॥ १८ ॥ वह मदसे उन्मत्त हो तीखे बाणों, त्रिशूल, फरसा, भिन्दिपाल, परिघ, तरकसों, तोप, भाला, छूरी एवं महान् खड्ग [से युक्त सैनिकों]-को साथ लेकर संग्राम करने लगा ॥ १८ ॥ विबभ्रमुस्तत्समरे महागजा विभिन्नकुंभाअसिताद्रिसन्निभाः । चलद्बलाकाधवला विकेतवो विसेतवः शुंभनिशुंभकेतवः ॥ १९ ॥ उस संग्राममें विदीर्ण मस्तकोंवाले, काले पर्वतोंके समान बड़े-बड़े हाथी घूमने लगे और उड़ती हुई बलाकाओंकी पंक्ति-जैसी श्वेत शुम्भ-निशुम्भकी पताकाएँ खण्डित होकर नीचे गिरने लगीं ॥ १९ ॥ विभिन्नदेहा दितिजा झषोपमा विकन्धरा वाजिगणा भयङ्कराः । परासवः कालिकया कृता रणे मृगारिणा चाशिषतापरेऽसुरा ॥ २० ॥ कालिकाने रणमें राक्षसोंको मछलीके समान काटकर प्राणहीन कर डाला, गर्दनके कट जानेके कारण घोड़े भयंकर दिखायी पड़ने लगे । उस समय अन्य राक्षसोंको सिंहने अपना आहार बना लिया ॥ २० ॥ विसुस्रुवू रक्तवहास्तदन्तरे सरिच्चयास्तत्र विपुप्लुवे हतैः । कचा भटानां जलनीलिकोपमा- स्तदुत्तरीयं सितफेनसंनिभम् ॥ २१ ॥ युद्धके बीचमें रक्तकी धाराओंवाली कितनी ही नदियाँ बह चली और उनमें कटे हुए रुण्ड-मुण्ड बहने लगे । योद्धाओंके केश जलकी काईके समान दिखायी पड़ रहे थे और उनके उत्तरीय सफेद फेन जैसे प्रतीत हो रहे थे ॥ २१ ॥ तुरङ्गसादी तुरगाधिरोहिणं गजस्थितानभ्यपतन्गजारुहः । रथी रथेशं खलु पत्तिरङ्घ्रिगान् समप्रतिद्वन्द्विकलिर्महानभूत् ॥ २२ ॥ उस समय घुड़सवार घुड़सवारोंसे, हाथीपर सवार हाथीपर सवारी करनेवालोंसे, रथी रथके स्वामीसे और पैदल सैनिक पैदल सैनिकोंसे लड़ने लगे । इस प्रकार परस्पर समान प्रतिद्वन्द्वियोंवाला घमासान संग्राम होने लगा ॥ २२ ॥ ततो निशुंभो हृदये व्यचिन्तयत् करालकालोयमुपागतोऽधुना । भवेद्दरिद्रोऽपि महाधनो महा- धनो दरिद्रो विपरीतकालतः ॥ २३ ॥ जडो भवेत्स्फीतमतिर्महामति- र्जडो नृशंसो बहुमन्तु संस्तुतः । पराजयं याति रणे महाबला जयन्ति सङ्ग्राममुखे च दुर्बलाः ॥ २४ ॥ उसके बाद निशुम्भने मनमें विचार किया कि इस समय यह भयंकर काल उपस्थित हो गया है, कालकी विपरीततासे दरिद्र महान् धनवान् तथा महान् धनवान् दरिद्र हो जाता है । जड़ महाबुद्धिमान् एवं महाबुद्धिमान् जड़ हो जाता है, हत्यारा बड़े-बड़े मुनियोंसे प्रशंसित होता है, महाबली पराजित हो जाते हैं और दुर्बल युद्ध में विजय प्राप्त कर लेते हैं ॥ २३-२४ ॥ जयोऽजयो वा परमेश्वरेच्छया भवत्यनायासत एव देहिनाम् । न कालमुल्लंघ्य शशाक जीवितुं महेश्वरः पद्मजनी रमापतिः ॥ २५ ॥ उपेत्य सङ्ग्राममुखं पलायनं न साधु वीरा हृदयेऽनुमन्वते । परन्तु युद्धे कथमेतया जयो विनाशितं मे सकलं बलं यथा ॥ २६ ॥ अत: प्राणियोंकी जय अथवा पराजय परमेश्वरकी इच्छासे अनायास ही होती रहती है । महेश्वर, ब्रह्मा एवं विष्णु भी कालका अतिक्रमणकर जीनेमें समर्थ नहीं हो सकते । उत्तम वीर रणभूमिमें [शत्रुके सामने] जाकर पुनः भाग जाना अपने मन में उचित नहीं समझते हैं, किंतु इसके साथ युद्ध में विजय कैसे होगी, जिसने मेरी सम्पूर्ण सेना नष्ट कर दी है ॥ २५-२६ ॥ इयं हि नूनं सुरकर्म साधितुं समागता दैत्यबलं च बाधितुम् । पुराणमूर्तिः प्रकृतिः परा शिवा न लौकिकीयं वनिता कदापि वा ॥ २७ ॥ यह निश्चय ही देवगणोंके कार्यको सिद्ध करनेके लिये एवं दैत्यसेनाके विनाशके लिये आयी हुई है । यह सनातनमूर्ति परा प्रकृति शिवा है, यह सांसारिक स्त्री कदापि नहीं है ॥ २७ ॥ वधोऽपि नारीविहितोऽयशस्करः प्रगीयते युद्धरसं लिलिक्षुभिः । तथाप्यकृत्वा समरं कथं मुखं प्रदर्शयामोऽसुरराजसन्निधौ ॥ २८ ॥ युद्धरसका आस्वादन करनेवाले वीरोंने स्त्रीद्वारा हुए वधको निन्दित बताया है, फिर भी बिना युद्ध किये दैत्यराजके सामने मुँह किस प्रकार दिखायेंगे ? ॥ २८ ॥ विचारयित्वेति महारथो रथं महान्तमध्यास्य नियन्तृचोदितम् । ययौ द्रुतं यत्र महेश्वराङ्गना सुराङ्गनाप्रार्थितयौवनोद्गमा ॥ २९ ॥ ऐसा विचारकर वह महारथी अपने सारथिसे हाँके जाते हुए विशाल रथपर आरूढ़ हो शीघ्रतासे उस स्थानपर गया, जहाँ देवांगनाओंसे प्रार्थित वे यौवनकी उद्गमस्वरूपा पार्वती विराजमान थीं ॥ २९ ॥ अवोचदेनां स महेशि किं भवे- देभिर्हतैर्वेतनजीविभिर्भटैः । तवास्ति काङ्क्षा यदि योद्धुमावयो- स्तदा रणः स्याद्धृतयुद्धसत्पटैः ॥ ३० ॥ उसने उनसे कहा-हे महेश्वरि ! इन आजीविकाके लिये ही युद्धमें प्रवृत्त योद्धाओंको मारनेसे क्या लाभ ! यदि हम दोनोंसे तुम्हारी युद्ध करनेकी अभिलाषा हो, तो कवच उतारकर हमलोगोंका युद्ध हो ॥ ३० ॥ उवाच कालीं प्रति कौशिकी तदा समीक्ष्यतामेष दुराग्रहोऽनयोः । करोति कालो विपदागमे मतिं विभिन्नवृत्तिं सदसत्प्रवर्तकः ॥ ३१ ॥ ततो निशुंभोऽभिजघान चण्डिकां शरैः सहस्रैश्च तथैव कालिकाम् । बिभेद बाणानसुरप्रचोदितान् सहस्रखण्डं स्वशरोत्करैः शिवा ॥ ३२ ॥ तब कौशिकीने कालीसे कहा-इन दोनोंके इस दुराग्रहको देखो, अच्छे और बुरे मार्गमें प्रेरित करनेवाला काल विपत्ति आनेपर बुद्धिको विपरीत वृत्तिवाला बना देता है । उसके बाद निशुम्भने चण्डिका एवं कालिकापर हजारों बाणोंसे प्रहार किया, किंतु शिवाने अपने बाणोंसे उस असुरके द्वारा चलाये गये बाणोंके हजारों टुकड़े कर दिये ॥ ३१-३२ ॥ ततः समुत्थाय कृपाणमुज्ज्वलं स चर्म्म कण्ठीरवमूर्ध्न्यताडयत् । बिभेदं तं चापि महासिनाम्बिका यथा कुठारेण तरुं तरुश्छिदः ॥ ३३ ॥ इसके बाद उसने ढालसहित उज्ज्वल खड्ग उठाकर सिंहके सिरपर मारा, किंतु अम्बिकाने अपने महाखड्गसे उसके भी टुकड़े-टुकड़े कर दिये, जिस प्रकार कुल्हाड़ी | बड़े-बड़े वृक्षों को टुकड़े-टुकड़े कर देती है ॥ ३३ ॥ स भिन्नखड्गो निचखान मार्गणं पराम्बिका वक्षसि सोऽपि चिच्छिदे । पुनस्त्रिशूलं हृदयेऽक्षिपत्तद- प्यचूर्ण यन्मुष्टिनिपातनेन सा ॥ ३४ ॥ गदां समादाय पुनर्महारथोऽ- भ्यधावदम्बां मरणोन्मुखोऽसुरः । अचूर्णयत्तामपि शूलधारया पुनस्त्रिशूलं विददार सोऽन्यया ॥ ३५ ॥ उसके खड्गके टुकड़े-टुकड़े हो जानेपर उसने अम्बिकाके वक्षःस्थलपर बाणसे प्रहार किया, तब देवीने उसे भी काट दिया । इसके बाद उसने देवीके हृदयपर त्रिशूल फेंका, उन्होंने उसे भी [अपने] मुष्टिप्रहारसे चूरचूर कर दिया । तब मरनेके लिये उद्यत हुआ वह महारथी दैत्य गदा लेकर देवीकी ओर दौड़ा, देवीने उसे भी अपने त्रिशूलकी धारसे चूर्ण कर दिया । उसने पुनः दूसरी गदासे देवीके त्रिशूलको चूर-चूर कर दिया ॥ ३४-३५ ॥ ततोम्बिका भीमभुजङ्गमोपमैः सुरद्विषां शोणितचूषणोचितैः । निशुम्भमात्मीयशिलीमुखैः शितै- र्निहत्य भूमीमनयद्विषोक्षितैः ॥ ३६ ॥ निपातितेऽमानबलेऽसुरप्रभुः कनीयसि भ्रातरि रोषपूरितः । रथस्थितो बाहुभिरष्ट भिर्वृतो जगाम यत्र प्रमदा महेशितुः ॥ ३७ ॥ तदनन्तर अम्बिकाने देव-शत्रुओंके रक्तको चूसनेयोग्य, भयंकर सर्पसदृश तथा विषदिग्ध अपने तीक्ष्ण बाणोंसे निशुम्भको मारकर भूमिपर गिरा दिया । अमित बलवाले अपने छोटे भाईके मार दिये जानेपर क्रोधमें भरा हुआ आठ भुजाओंसे युक्त दैत्यराज शम्भ रथपर सवार होकर वहाँ पहुँचा, जहाँ [भगवती] महेश्वरी थीं ॥ ३६-३७ ॥ अवादयच्छंखमरिन्दमं तदा धनुः स्वनं चापि चकार दुःसहम् । ननाद सिंहोऽपि सटां विधूनयन् बभूव नादत्रयनादितन्नभः ॥ ३८ ॥ उसने शत्रुओंको दमितकर देनेवाला शंखनाद किया और धनुषके दुःसह टंकारकी ध्वनि की । इधर [देवीका] सिंह भी अपने अयालोंको हिलाता हुआ भयंकर गर्जना करने लगा, इन तीनों नादोंसे आकाश गूंज उठा ॥ ३८ ॥ ततोऽट्टहासं जगदम्बिकाकरो- सुरारयोऽखिलाः । जयेति शब्दं जगदुस्तदा सुरा यदाम्बिकोवाच रणे स्थिरो भव ॥ ३९ ॥ स दैत्यराजो महतीं ज्वलच्छिखां मुमोच शक्तिं निहता च सोल्कया । बिभेद शुंभप्रहितान् शरान् शिवा शिवेरितान्सोपि सहस्रधा शरान् ॥ ४० ॥ उसके पश्चात् अम्बिकाने अट्टहास किया, उससे सभी असुर भयभीत हो उठे । जब अम्बिकाने उससे कहा कि युद्ध में खड़े रहो, तब देवताओंने जय-जयकार किया । तब उस दैत्यराजने प्रदीप्त अग्निशिखाके समान अपनी भीषण शक्तिसे देवीपर प्रहार किया, किंतु देवीने उसे उल्काके द्वारा काट दिया । फिर शिवाने शुम्भके द्वारा चलाये गये बाणोंके और उसने भी शिवाके द्वारा छोड़े गये बाणोंके हजारों टुकड़े कर दिये ॥ ३९-४० ॥ त्रिशूलमुत्क्षिप्य जघान चण्डिका महासुरं तं स पपात मूर्च्छितः । विभिन्नपक्षो हरिणा यथा नगः प्रकंपयन् द्यां वसुधां स वारिधिम् ॥ ४१ ॥ इसके बाद चण्डिकाने त्रिशूल उठाकर उस महान् असुरपर ऐसा प्रहार किया, जिससे वह मूछित होकर आकाश तथा समुद्रसहित पृथ्वीको कपाता हुआ उसी प्रकार गिर पड़ा, जैसे इन्द्रके द्वारा काटे गये पंखवाला पर्वत गिर पड़ता है ॥ ४१ ॥ ततो मृषित्वा त्रिशिखोद्भवां व्यथां विधाय बाहूनयुतं महाबलः । स कालिकां सिंहयुतां महेश्वरीं जघान चक्रैरमरक्षयङ्करैः ॥ ४२ ॥ इसके बाद वह महाबली [दैत्य] त्रिशूलकी व्यथाको सहकर [मायासे] दस हजार भुजाएँ बनाकर देवताओंका भी नाश करनेमें समर्थ चक्रोंसे सिंहपर सवार महेश्वरी कालिकापर प्रहार करने लगा ॥ ४२ ॥ तदस्तचक्राणि विभिद्य लीलया त्रिशूलमुद्गूर्य जघान सासुरम् । शिवा जगत्पावनपाणिपङ्कजा- दुपात्तमृत्यू परमं पदं गतौ ॥ ४३ ॥ तब उन शिवाने लीलापूर्वक उसके चक्रोंको नष्ट करके अपना त्रिशूल उठाकर उस असुरको मार दिया । इस प्रकार शिवाके जगत्पावन करकमलसे मृत्युको प्राप्त होकर वे दोनों [दैत्य] परमपदके भागी हुए ॥ ४३ ॥ हते तस्मिन्महावीर्ये निशुंभे भीमविक्रमे । शुंभे च सकला दैत्या विविशुर्बलिसद्मनि ॥ ४४ ॥ भक्षिता अपरे कालीसिंहाद्यैरमरद्विषः । पलायितास्तथान्ये च दशदिक्षु भयाकुलाः ॥ ४५ ॥ तब उस महाबली तथा प्रचण्ड पराक्रमवाले निशुम्भ एवं शुम्भके मार दिये जानेपर सभी दैत्य पातालमें प्रवेश कर गये और कुछ दैत्योंको काली तथा सिंह आदिने भक्षण कर लिया तथा अन्य दैत्य भयभीत होकर दसों दिशाओंमें भाग गये ॥ ४४-४५ ॥ बभूवुर्मार्गवाहिन्यः सरितः स्वच्छपाथसः । ववुर्वाताः सुखस्पर्शा निर्मलत्वं ययौ नभः ॥ ४६ ॥ पुनर्यागः समारेभे देवैर्ब्रह्मर्षिभिस्तथा । सुखिनश्चाभवन्सर्वे महेन्द्राद्या दिवौकसः ॥ ४७ ॥ [दैत्योंके मारे जानेपर] नदियाँ स्वच्छ जलवाली होकर अपने मार्गसे बहने लगी, सुखदायक पवन बहने लगा, आकाश निर्मल हो गया । देवगणों तथा ब्रह्मर्षियोंने यज्ञ प्रारम्भ कर दिये और इन्द्र आदि सभी देवता सुखी हो गये ॥ ४६-४७ ॥ पवित्रं परमं पुण्यमुमायाश्चरितं प्रभो । दैत्यराजवधोपेतं श्रद्धया यः समभ्यसेत् ॥ ४८ ॥ स भुक्त्वेहाखिलान्भोगांस्त्रिदशैरपि दुर्लभान् । परत्रोमालयं गच्छन्महामायाप्रसादतः ॥ ४९ ॥ हे प्रभो ! जो दैत्यराजके वधसे युक्त पार्वतीके इस परम पवित्र तथा पुण्यप्रद चरित्रको श्रद्धापूर्वक पढ़ता है, वह इस लोकमें देवताओंके लिये भी दुर्लभ सभी सुखोंको भोगकर महामायाके अनुग्रहसे देवीलोकको प्राप्त करता है ॥ ४८-४९ ॥ ऋषिरुवाच - एवं देवी समुत्पन्ना शुंभासुरनिबर्हिणी । प्रोक्ता सरस्वती साक्षादुमांशाविर्भवा नृप ॥ ५० ॥ ऋषि बोले-हे राजन् ! शुम्भासुरका वध करनेवाली देवी इस प्रकार उत्पन्न हुईं, जो साक्षात् पार्वतीके अंशसे उत्पन्न सरस्वती कही गयी हैं ॥ ५० ॥ इति श्रीशिवमहापुराणे पञ्चम्यामुमासंहितायां निशुंभशुंभवधोपाख्याने सरस्वतीप्रादुर्भाववर्णनंनामाष्टचत्वारिंशोऽध्यायः ॥ ४८ ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत पाँचवीं उमासंहितामें शुम्भ-निशुम्भवध उपाख्यानमें सरस्वतीप्रादुर्भाववर्णन नामक अड़तालीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ४८ ॥ श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु |