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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥

॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥

पञ्चमी उमासंहितायां

एकोनपञ्चाशत्तमोऽध्यायः


उमाप्रादुर्भाववर्णनम्
भगवती उमाके प्रादुर्भावका वर्णन


मुनय ऊचुः -
उमाया भुवनेशान्याः सूत सर्वार्थवित्तम ।
अवतारं समाचक्ष्व यतो जाता सरस्वती ॥ १ ॥
या गीयते परब्रह्ममूलप्रकृतिरीश्वरी ।
निराकारापि साकारा नित्यानन्दमयी सती ॥ २ ॥
मुनिगण बोले-सर्वार्थवेत्ता सूतजी ! अब आप भुवनेश्वरी उमाके अवतारका वर्णन करें, जिनसे सरस्वती | उत्पन्न हुई, जो परब्रह्म, मूलप्रकृति, ईश्वरी, निराकार होकर भी साकार एवं नित्यानन्दमयी सती कही जाती हैं ॥ १-२ ॥

सूत उवाच -
तापसाः शृणुत प्रेम्णा चरित्रं परमं महत् ।
यस्य विज्ञानमात्रेण नरो याति परां गतिम् ॥ ३ ॥
सूतजी बोले-हे तपस्वियो ! आपलोग उनके अति महान् चरित्रका प्रेमपूर्वक श्रवण कीजिये, जिसके जाननेमात्रसे मनुष्य परम गतिको प्राप्त कर लेता है ॥ ३ ॥

देवदानवयोर्युद्धमेकदासीत्परस्परम् ।
महामायाप्रभावेणामराणां विजयोऽभवत् ॥ ४ ॥
एक बार दैत्यों एवं देवताओंमें परस्पर युद्ध हुआ, उसमें महामायाके प्रभावसे देवगणोंकी विजय हुई ॥ ४ ॥

ततोऽवलिप्ता अमराः स्वप्रशंसां वितेनिरे ।
वयं धन्या वयं धन्या किं करिष्यन्ति नोऽसुराः ॥ ५ ॥
ये प्रभावं समालोक्यास्माकं परमदुःसहम् ।
भीता नागालयं याता यातयातेति वादिनः ॥ ६ ॥
अहो बलमहो तेजो दैत्यवंशक्षयङ्‌करम् ।
अहो भाग्यं सुमनसामेवं सर्वेऽभ्यवर्णयन् ॥ ७ ॥
इससे देवताओंको अहंकार हो गया और वे अपनी प्रशंसा करने लगे कि हमलोग धन्य हैं, हमलोग धन्य हैं । वे असुर हमलोगोंका क्या कर लेंगे, जो हमारे अति दुःसह प्रतापको देखकर भयभीत हो 'भागो, भागो' ऐसा कहकर पाताललोकको चले गये । अहो, दैत्योंके वंशका नाश करनेवाला हमारा बल एवं तेज अद्‌भुत है, देवताओंका आश्चर्यकारक भाग्य है-इस प्रकार वे सब आत्मश्लाघा करने लगे ॥ ५-७ ॥

तत आविरभूत्तेजः कूटरूपं तदैव हि ।
अदृष्टपूर्वं तद् दृष्ट्‍वा विस्मिता अभवन्सुराः ॥ ८ ॥
किमिदं किमिदं चेति रुद्धकण्ठाः समब्रुवन ।
अजानन्तः परं श्यामानु भावं मानभञ्जनम् ॥ ९ ॥
उसी समय वहाँ एक पुंजीभूत तेज प्रकट हुआ, जिसे पहले नहीं देखा गया था । उसे देखकर देवता आश्चर्यचकित हो उठे । देवी श्यामाके अभिमाननाशक उस प्रभावको न जानते हुए वे रैधे कण्ठसे कहने लगेयह क्या है, यह क्या है ! ॥ ८-९ ॥

तत आज्ञापयद्देवान् देवानामधिनायकः ।
यात यूयं परीक्षध्वं याथातथ्येन किन्विति ॥ १० ॥
सुरेन्द्रप्रेरितो वायुर्महसः सन्निधिं गतः ।
कस्त्वं भोरिति सम्बोध्यावोचदेनं च तन्महः ॥ ११ ॥
इति पृष्टस्तदा वायुर्महसातिगरीयसा ।
वायुरस्मि जगत्प्राणः साभिमानोऽब्रवीदिदम् ॥ १२ ॥
जङ्‌गमाजङ्‌गमं सर्वमोतप्रोतमिदं जगत् ।
मयेव निखिलाधारे चालयाम्यखिलं जगत् ॥ १३ ॥
तब देवताओंके अधिपतिने देवताओंको आज्ञा दी कि आपलोग जाइये और ठीक-ठीक परीक्षा कीजिये कि यह क्या है ? तब देवेन्द्रसे प्रेरित पवनदेव उस तेजके पास गये । उस तेजने उनको सम्बोधितकर कहा-तुम कौन हो ? । तब उस प्रबल तेजके द्वारा इस प्रकार पूछे जानेपर अभिमानसे परिपूर्ण वायुने यह कहा-मैं जगत्का प्राण वायु हूँ । यह चराचर सारा जगत् सबके आधारस्वरूप मुझमें ही ओत-प्रोत है, मैं ही सम्पूर्ण जगत्का संचालन करता हूँ ॥ १०-१३ ॥

तदोवाच महातेजः शक्तोऽसि यदि चालने ।
धृतमेतत्तृणं वायो चालयस्व निजेच्छया ॥ १४ ॥
ततः सर्वप्रयत्नेनाकरोद्यत्नं सदागतिः ।
न चचाल यदा स्थानात्तदासौ लज्जितोऽभवत् ॥ १५ ॥
उसके अनन्तर महातेजने कहा-हे वायो ! यदि तुम चलाने में समर्थ हो, तो इस रखे हुए तृणको स्वेच्छासे चला दो । तब वायुने सभी उपायोंसे उसे चलानेका यत्‍न किया, किंतु जब वह [तृण] अपने स्थानसे विचलित | नहीं हुआ, तब वे वायुदेव लज्जित हो गये ॥ १४-१५ ॥

तूष्णीं भूत्वा ततो वायुर्जगामेन्द्रं सभां प्रति ।
कथयामास तद् वृत्तं स्वकीयाभिभवान्वितम् ॥ १६ ॥
इसके बाद चुप होकर वायु इन्द्रकी सभामें गये और अपने पराभवका वह समाचार बताया ॥ १६ ॥

सर्वेशत्वं वयं सर्वे मृषैवात्मनि मन्महे ।
न पारयामहे किंचिद्वि धातुं क्षुद्रवस्त्वपि ॥ १७ ॥
ततश्च प्रेषयामास मरुत्वान्सकलान्सुरान् ।
न शेकुस्ते यदा ज्ञातुं तदेन्द्रः स्वयमभ्यगात् ॥ १८ ॥
हम सब व्यर्थ ही अपने में सर्वेश्वरत्वका अभिमान करते हैं, हमलोग छोटे-से-छोटा कार्य भी नहीं कर सकते हैं । इसके बाद इन्द्रने सभी देवताओंको भेजा, किंतु जब वे भी उसे नहीं जान सके, तब स्वयं इन्द्र उसके पास गये ॥ १७-१८ ॥

मघवन्तमथायान्तं दृष्ट्‍वा तेजोतिदुःसहम् ।
बभूवान्तर्हितं सद्यो विस्मितोऽभूच्च वासवः ॥ १९ ॥
चरित्रमीदृशं यस्य तमेव शरणं श्रये ।
इति संचिन्तयामास सहस्राक्षः पुनः पुनः ॥ २० ॥
इन्द्रको आता हुआ देखकर वह अति दुःसह तेज उसी क्षण अन्तर्धान हो गया, इन्द्र आश्चर्यचकित हो गये । तब इन्द्रने बार-बार यह विचार किया कि जिसका ऐसा चरित्र है, मुझे उसीके शरणमें जाना चाहिये ॥ १९-२० ॥

एतस्मिन्नन्तरे तत्र निर्व्याजकरुणातनुः ।
तेषामनुग्रहं कर्तुं हर्तुं गर्वं शिवाङ्‌गना ॥ २१ ॥
चैत्रशुक्लनवम्यां तु मध्याह्नस्थे दिवाकरे ।
प्रादुरासीदुमा देवी सच्चिदानन्दरूपिणी ॥ २२ ॥
महोमध्ये विराजन्ती भासयन्ती दिशो रुचा ।
बोधयन्ती सुरान् सर्वान् ब्रह्मैवाहमिति स्फुटम् ॥ २३ ॥
चतुर्भिर्दधती हस्तैर्वरपाशाङ्‌कुशाभयान् ।
श्रुतिभिः सेविता रम्या नवयौवनगर्विता ॥ २४ ॥
रक्ताम्बरपरीधाना रक्तमाल्यानुलेपना ।
कोटिकंदर्प्पसङ्‌काशा चन्द्रकोटिसमप्रभा ॥ २५ ॥
व्याजहार महामाया सर्वान्तर्यामिरूपिणी ।
साक्षिणी सर्वभूतानां परब्रह्मस्वरूपिणी ॥ २६ ॥
इसी बीच अकारण करुणामूर्ति सच्चिदानन्दरूपिणी शिवांगना भगवती उमा उन सभीपर अनुग्रह करनेके लिये एवं उनका अभिमान दूर करनेके लिये चैत्र शक्ल नवमीको मध्याह्नकालमें वहाँ प्रकट हुई । तेजके मध्यमें विराजमान, अपनी प्रभासे दसों दिशाओंको प्रकाशित करती हुई, 'मैं ही ब्रह्म हूँ'-ऐसा सभी देवताओंको स्पष्ट रूपसे बतलाती हुई, अपने चारों हाथोंमें वरद मुद्रा, पाश, अंकुश एवं अभयमुद्रा धारण की हुई, वेदोंके द्वारा सेवित, मनोहर, नवयौवनसे गर्वित, रक्त वस्त्र धारण की हुई, रक्तपुष्पोंकी माला पहनी हुई, रक्त चन्दनके अनुलेपसे युक्त, करोड़ों कामदेवके सदृश विमोहिनी; करोड़ों चन्द्रमाओंक समान कान्तिवाली उन सर्वान्तर्यामिनी सर्वभूतसाक्षिणी परब्रह्मस्वरूपिणी महामायाने कहा- ॥ २१-२६ ॥

उमोवाच -
न ब्रह्मा न सुरारातिर्न पुरारातिरीश्वरः ।
मदग्रे गर्वितुं किंचित्का कथान्यसुपर्वणाम् ॥ २७ ॥
उमा बोलीं-मेरे सामने न ब्रह्मा, न विष्णु एवं न तो महेश्वर ही कुछ भी गर्व करने में समर्थ हैं, अन्य देवताओंकी तो बात ही क्या है ? ॥ २७ ॥

परं ब्रह्म परं ज्योतिः प्रणवद्वन्द्वरूपिणी ।
अहमेवास्मि सकलं मदन्यो नास्ति कश्चन ॥ २८ ॥
निराकारापि साकारा सर्वतत्त्वस्वरूपिणी ।
अप्रतर्क्यगुणा नित्या कार्यकारणरूपिणी ॥ २९ ॥
कदाचिद्दयिताकारा कदाचित्पुरुषाकृतिः ।
कदाचिदुभयाकारा सर्वाकाराहमीश्वरी ॥ ३० ॥
मैं ही परब्रह्म, परमज्योति, प्रणव और युगलरूपिणी हूँ, मैं ही सब कुछ हूँ, मेरे अतिरिक्त अन्य कोई कुछ नहीं है । मैं निराकार होकर भी साकार, सर्वतत्त्वस्वरूपिणी, तर्कसे परे गुणोंवाली, नित्य तथा कार्य-कारणस्वरूपिणी हूँ । मैं कभी स्त्रीरूपवाली, कभी पुरुषरूपवाली तथा कभी दोनों ही स्वरूपोंवाली हो जाती हूँ, इस प्रकार मैं सर्वस्वरूपा महेश्वरी हूँ ॥ २८-३० ॥

विरञ्चिः सृष्टिकर्ताहं जगत्पाताहमच्युतः ।
रुद्रः संहारकर्ताहं सर्वविश्वविमोहिनी ॥ ३१ ॥
सृष्टिकर्ता ब्रह्मा मै ही हूँ, जगत्का पालन करनेवाला विष्णु मैं ही हूँ, संहार करनेवाला शिव भी मैं ही हूँ एवं जगत्को मोहनेवाली (महामाया) भी मैं ही हूँ ॥ ३१ ॥

कालिका कमलावाणीमुखाः सर्वा हि शक्तयः ।
मदंशादेव संजातास्तथेमाः सकलाः कलाः ॥ ३२ ॥
मत्प्रभावाज्जिताः सर्वे युष्माभिर्दितिनन्दनाः ।
तामविज्ञाय मां यूयं वृथा सर्वेशमानिनः ॥ ३३ ॥
कालिका, कमला, सरस्वती आदि समस्त शक्तियाँ मेरे ही अंशसे उत्पन्न हुई हैं और ये सब मेरी कलाएँ हैं । मेरे ही प्रभावसे तुमलोगोंने दैत्योंपर विजय प्राप्त की है, उस मुझ [शक्ति]-को न जानकर तुमलोग व्यर्थ ही अपनेको सर्वेश समझते हो ॥ ३२-३३ ॥

यथा दारुमयीं योषां नर्तयत्यैन्द्रजालिकः ।
तथैव सर्वभूतानि नर्तयाम्यहमीश्वरी ॥ ३४ ॥
मद्‌भयाद्वाति पवनः सर्वं दहति हव्यभुक् ।
लोकपालाः प्रकुर्वन्ति स्वस्वकर्माण्यनारतम् ॥ ३५ ॥
जिस प्रकार ऐन्द्रजालिक काठकी पुतलीको नचाता है, उसी प्रकार मैं ईश्वरी सभी प्राणियोंको नचाती हूँ । मेरे भयसे पवन बहता है, अग्नि सबको जलाती है एवं लोकपाल निरन्तर अपने-अपने कार्य करते हैं ॥ ३४-३५ ॥

कदाचिद्देववर्गाणां कदाचिद्दितिजन्मनाम् ।
करोमि विजयं सम्यक् स्वतन्त्रा निजलीलया ॥ ३६ ॥
अविनाशि परं धाम मायातीतं परात्परम् ।
श्रुतयो वर्णयन्ते यत्तद्‌रूपं तु ममैव हि ॥ ३७ ॥
मैं सर्वथा स्वतन्त्र हूँ, इसलिये अपनी लीलासे कभी देवगणोंकी और कभी दैत्योंकी भलीभाँति विजय कराती हूँ । वेद जिस अविनाशी तथा मायातीत परात्पर परमधामका वर्णन करते हैं, वह तो मेरा ही रूप है ॥ ३६-३७ ॥

सगुणं निर्गुणं चेति मद्‌रूपं द्विविधं मतम् ।
मायाशबलितं चैकं द्वितीयं तदनाश्रितम् ॥ ३८ ॥
एवं विज्ञाय मां देवाः स्वं स्वं गर्वं विहाय च ।
भजत प्रणयोपेताः प्रकृतिं मां सनातनीम् ॥ ३९ ॥
सगुण एवं निर्गुण-यह मेरा दो प्रकारका रूप कहा गया है । प्रथम रूप मायामय है एवं दूसरा रूप मायारहित है । हे देवताओ ! इस प्रकार मुझे जानकर और अपने-अपने गर्वका परित्याग करके भक्तिसे युक्त होकर मुझ सनातनी प्रकृतिकी आराधना करो ॥ ३८-३९ ॥

इति देव्या वचः श्रुत्वा करुणागर्भितं सुराः ।
तुष्टुवुः परमेशानीं भक्तिसंनतकन्धराः ॥ ४० ॥
क्षमस्व जगदीशानि प्रसीद परमेश्वरि ।
मैवं भूयात्कदाचिन्नो गर्वो मातर्दयां कुरु ॥ ४१ ॥
देवीके ऐसे दयायुक्त वचनको सुनकर भक्तिसे सिर झुकाये हुए देवतालोग परमेश्वरीकी स्तुति करने लगेहे जगदीश्वरि । क्षमा कीजिये । हे परमेश्वरि ! प्रसन्न हो जाइये, अब हमलोगोंको ऐसा गर्व कभी न हो । हे मातः ! दया कीजिये ॥ ४०-४१ ॥

ततःप्रभृति ते देवा हित्वा गर्वं समाहिताः ।
उमामाराधयामासुर्यथापूर्वं यथाविधि ॥ ४२ ॥
इति वः कथितो विप्रा उमाप्रादुर्भवो मया ।
यस्य श्रवणमात्रेण परमं पदमश्नुते ॥ ४३ ॥
उसी समयसे वे देवता अभिमान छोड़कर एकाग्रचित्त हो पूर्वकी भाँति विधिपूर्वक पार्वतीकी आराधना करने लगे । हे विप्रो ! इस प्रकार मैंने आपलोगोंसे उमाके प्रादुर्भावका वर्णन कर दिया, जिसके श्रवणमात्रसे परमपद प्राप्त होता है ॥ ४२-४३ ॥

इति श्रीशिवमहापुराणे पञ्चम्यामुमासंहितायां
उमाप्रादुर्भाववर्णनं नामैकोनपञ्चाशत्तमोऽध्यायः ॥ ४९ ॥
इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत पाँचवीं उमासंहितामें उमाप्रादुर्भाववर्णन नामक उनचासवां अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ४९ ॥



श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु


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