![]() |
॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥
॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥ पञ्चमी उमासंहितायां
पञ्चाशत्तमोऽध्यायः शताक्ष्याद्यवतारवर्णनम्
दस महाविद्याओंकी उत्पत्ति तथा देवीके दुर्गा, शताक्षी, शाकम्भरी और भ्रामरी आदि नामोंके पड़नेका कारण मुनय ऊचुः - श्रोतुकामा वयं सर्वे दुर्गाचरितमन्वहम् । अपरं च महाप्राज्ञ तत्त्वं वर्णय नोऽद्भुतम् ॥ १ ॥ मुनिगण बोले-हे महाप्राज्ञ ! हमलोग दुर्गाके चरित्रको निरन्तर सुनना चाहते हैं, अतः आप हमलोगोंसे दूसरे अद्धत [लीला] तत्त्वका वर्णन कीजिये ॥ १ ॥ शृण्वतां त्वन्मुखाम्भोजात् कथा नाना सुधोपमाः । न तृप्यति मनोऽस्माकं सूत सर्वार्थवित्तम ॥ २ ॥ समस्त अर्थोंको जाननेवालोंमें श्रेष्ठ हे सूतजी ! आपके मुखारविन्दसे निकलती हुई अमृतके समान अनेक कथाओंको सुनते हुए हमलोगोंका मन तृप्त नहीं होता है ॥ २ ॥ सूत उवाच - दुर्गमः प्रथितो नाम्ना रुरुपुत्रो महाबलः । ब्रह्मणो वरदानेन चतस्रोऽलभत श्रुतीः ॥ ३ ॥ देवाजेयबलं चापि संप्राप्य जगतीतले । करोति स्म बहूत्पातान्दिवि देवाश्चकम्पिरे ॥ ४ ॥ सर्वा नष्टेषु वेदेषु क्रिया नष्टा बभूव ह । ब्राह्मणाश्च दुराचारा बभूबुः ससुरास्तदा ॥ ५ ॥ सूतजी बोले-[पूर्वकालमें] रुरुके दुर्गम नामसे विख्यात महाबली पुत्रने ब्रहादेवके वरदानसे चारों वेदोंको प्राप्त किया । वह देवगणोंसे भी अजेय बल प्राप्तकर पृथ्वीतलपर बहुत उपद्रव करने लगा, जिससे स्वर्गमें देवता भी काँप उठे । उस समय वेदोंके नष्ट हो जानेसे सारी क्रियाएँ नष्ट हो गयीं और देवताओंसहित ब्राह्मण दुराचारी हो गये ॥ ३-५ ॥ न दानं न तपोऽत्युग्रं न यागो हवनं न हि । अनावृष्टिस्ततो जाता पृथिव्यां शतवार्षिकी ॥ ६ ॥ उस समय न तो कहीं दान किया जाता था, न उग्र तपस्या की जाती थी, न यज्ञ होता था और न हवन ही होता था, उससे पृथ्वीपर सौ वर्षकी अनावृष्टि हुई ॥ ६ ॥ हाहाकारो महानासीत् त्रिषु लोकेषु दुःखिताः । अभवंश्च जनाः सर्वे क्षुत्तृड्भ्यां पीडिता भृशम् ॥ ७ ॥ सरितः सागराश्चैव वापीकूपसरांसि च । निर्जला अभवन्सर्वे संशुष्का वृक्षवीरुधः ॥ ८ ॥ तीनों लोकोंमें हाहाकार होने लगा । सभी लोग भूख-प्याससे पीड़ित होकर अत्यन्त दुखी हो गये । सभी नदियाँ, समुद्र, बावली, कूप, सरोवर जलविहीन हो गये और वृक्ष तथा लताएँ सूख गयीं ॥ ७-८ ॥ ततो दृष्ट्वा मदाद्दुःखं प्रजानां दीनचेतसाम् । त्रिदशाः शरणं याता योगमायां महेश्वरीम् ॥ ९ ॥ तब दीन चित्तवाली प्रजाओंकी महान् विपत्ति देखकर देवता योगमाया महेश्वरीके शरणमें गये ॥ ९ ॥ देवा ऊचुः - रक्ष रक्ष महामाये स्वकीयाः सकलाः प्रजाः । कोपं संहर नूनन्त्वं लोका नङ्क्ष्यन्ति वान्यथा ॥ १० ॥ देवगण बोले-हे महामाये ! आप अपनी समस्त प्रजाओंकी रक्षा करें और अपने क्रोधको दूर करें, अन्यथा सभी लोक अवश्य नष्ट हो जायेंगे ॥ १० ॥ कथा शुंभोहतो दैत्यो निशुंभश्च महाबलः । धूम्राक्षश्चण्डमुण्डौ च रक्तबीजो महाबलः ॥ ११ ॥ स मधुः कैटभो दैत्यो महिषासुर एव च । तथैवामुं कृपासिन्धो दीनबन्धो जहि द्रुतम् ॥ १२ ॥ हे कृपासिन्धो ! हे दीनबन्धो ! जिस प्रकार आपने दैत्य शुम्भ, महाबलशाली निशुम्भ, धूम्राक्ष, चण्ड, मुण्ड, महाबली रक्तबीज, मधु, कैटभ तथा महिषासुरका वध किया था; उसी प्रकार शीघ्र इसका भी वध कीजिये ॥ ११-१२ ॥ अपराधो भवत्येव बालकानां पदे पदे । सहते को जनो लोके केवलं मातरं विना ॥ १३ ॥ बालकोंसे तो अपराध पद-पदपर होता है, केवल माताके अतिरिक्त लोकमें उसे कौन सह सकता है ! ॥ १३ ॥ यदायदाभवद्दुःख देवानां ब्रह्मणां तथा । तदातदावतीर्याशु कुरुषे सुखिनो जनान् ॥ १४ ॥ हे देवि ! जब-जब देवगणों और ब्राह्मणोंको दुःख हुआ, तब-तब आपने अवतार लेकर उन लोगोंको सुखी बनाया है ॥ १४ ॥ इति विक्लवितं तेषां समाकर्ण्य कृपामयी । अनन्ताक्षमयं रूपं दर्शयामास साम्प्रतम् ॥ १५ ॥ धनुर्बाणौ तथा पद्मं नानामूलफलानि च । चतुर्भिर्दधती हस्तैः प्रसन्नमुखपङ्कजा ॥ १६ ॥ उन देवताओंके इस दीन वचनको सुनकर कृपामयी भगवतीने उस समय अनन्त नेत्रोंवाला अपना स्वरूप दिखाया । वे प्रसन्न मुखकमलवाली थी और चारों हाथोंमें धनुष, बाण, कमल तथा नाना प्रकारके फलमूल धारण की हुई थीं ॥ १५-१६ ॥ ततो दृष्ट्वा प्रजास्तप्ताः करुणापूरितेक्षणा । रुरोद नव घस्राणि नव रात्रीः समाकुला ॥ १७ ॥ मोचयामास दृष्टिभ्यो वारिधाराः सहस्रशः । ताभिः प्रतर्पिता लोका औषध्यः सकला अपि ॥ १८ ॥ तदनन्तर प्रजाओंको दुखी देखकर करुणाभरे नेत्रोंवाली वे व्याकुल होकर लगातार नौ दिन एवं नौ रात्रितक रोती रहीं । उस समय वे नेत्रोंसे हजारों जलधाराएँ बहाने लगी, उन धाराओंसे सभी लोक तथा समस्त औषधियाँ तृप्त हो गयीं ॥ १७-१८ ॥ अगाधतोयाः सरितो बभूवुः सागरा अपि । रुरुहुर्धरणीपृष्ठे शाकमूलफलानि च ॥ १९ ॥ समुद्र एवं नदियाँ अगाध जलसे परिपूर्ण हो गयीं और पृथ्वीतलपर शाक तथा फल-मूल उगने लगे ॥ १९ ॥ विततार करस्थानि सुमनोभ्यः फलानि च । गोभ्यस्तृणानि रम्याणि तथान्येभ्यो यथार्हतः ॥ २० ॥ भगवती शुद्ध हदयवाले महात्मा पुरुषोंको अपने हाथोंमें रखे हुए फल बाँटने लगीं । उन्होंने गौओंके लिये सुस्वादु तृण और दूसरे प्राणियोंके लिये यथायोग्य भोज्य वस्तुओंको प्रस्तुत किया ॥ २० ॥ सन्तुष्टा अभवन्सर्वे सदैवद्विजमानुषाः । ततो जगाद सा देवी किमन्यत्करवाणि वः ॥ २१ ॥ इस प्रकार ब्राह्मण, देवता और मनुष्योंसहित सभी सन्तुष्ट हो गये, तब उन देवीने कहा-अब मैं आपलोगोंका कौन-सा कार्य करूं ? ॥ २१ ॥ समेत्योचुस्तदा देवा भवत्या तोषिता जनाः । वेदान्देहि कृपां कृत्वा दुर्गमेण समाहृतान् ॥ २२ ॥ तब सभी देवताओंने मिलकर [हे देवि !] आपने सभी लोगोंको सन्तुष्ट कर दिया, अब कृपाकर दुर्गमद्वारा हरण किये गये वेदोंको हमें उपलब्ध कराइये ॥ २२ ॥ तथास्त्विति प्रभाष्याह यातयात निजालयम् । वितरिष्यामि वो वेदानचिरेणैव कालतः ॥ २३ ॥ तब देवीने 'ऐसा ही होगा' कहकर पुनः उनसे कहा कि अब आपलोग अपने घर जाइये, मैं शीघ्र ही आपलोगोंको वेद प्रदान करूँगी ॥ २३ ॥ ततः प्रमुदिता देवाः स्वं स्वं धाम समाययुः । सुप्रणम्य जगद्योनिं फुल्लेन्दीवरलोचनाम् ॥ २४ ॥ - इसके बाद प्रसन्न हुए देवतालोग जगत्को उत्पन्न करनेवाली तथा विकसित नीलकमलके समान नेत्रोंवाली देवीको प्रणामकर अपने-अपने स्थानको चले गये ॥ २४ ॥ ततः कोलाहलो जातो दिवि भूम्यन्तरिक्षके । तच्छ्रुत्वा रौरवः सद्यो न्यरुणत्सर्वतः पुरीम् ॥ २५ ॥ तब स्वर्ग, भूलोक तथा अन्तरिक्षमें कोलाहल मच गया, उसे सुनकर दुर्गमने चारों ओरसे [अमरावती] पुरीको घेर लिया ॥ २५ ॥ ततस्तेजोमयं चक्रं विधाय परितः शिवा । रक्षणार्थं देवतानां स्वयं तस्माद् बहिर्गता ॥ २६ ॥ ततः समभवद्युद्धं देव्या दैत्यस्य चोभयोः । ववृषुः समरे बाणान्निशितान्कङ्कटच्छिदः ॥ २७ ॥ इसके बाद शिवा-पार्वती देवताओंकी रक्षाके लिये पुरीके चारों ओर तेजोमय मण्डलका निर्माणकर स्वयं उस [धेरै]-से बाहर आ गयीं । तब देवी और दैत्य दोनोंके बीच संग्राम छिड़ गया । दोनों पक्षोंसे कवचोंको काटनेवाले तीक्ष्ण बाणोंकी वर्षा होने लगी ॥ २६-२७ ॥ एतस्मिन्नन्तरे तस्याः शरीराद् रम्यमूर्त्तयः । काली तारा च्छिन्नमस्ता श्रीविद्या भुवनेश्वरी ॥ २८ ॥ भैरवी बगला धूम्र श्रीमत्त्रिपुरसुदरी । मातङ्गी च महाविद्या निर्गता दश सायुधाः ॥ २९ ॥ इसी बीच उनके शरीरसे काली, तारा, छिन्नमस्ता, श्रीविद्या, भुवनेश्वरी, भैरवी, बगला, धूमा, त्रिपुरसुन्दरी तथा मातंगी-ये मनोहर रूपवाली दस महाविद्याएँ शस्त्रयुक्त हो प्रकट हो गयीं ॥ २८-२९ ॥ असंख्यातास्ततो जाता मातरो दिव्यमूर्तयः । चन्द्रलेखाधराः सर्वाः सर्वा विद्युतत्समप्रभाः ॥ ३० ॥ ततो मातृगणैर्युद्धं प्रावर्तत भयङ्करम् । रौरवीयं हतं ताभिर्दलमक्षौहिणीशतम् ॥ ३१ ॥ उसके बाद दिव्य मूर्तिवाली असंख्य मातृकाएँ प्रकट हुईं, वे सब चन्द्रलेखाको धारण किये थीं तथा विद्युत्के समान कान्तिवाली थीं । तब मातृगणोंके साथ उस दुर्गमका भयंकर संग्राम होने लगा, उन देवियोंने रुरुपुत्र दुर्गमकी सौ अक्षौहिणी सेना नष्ट कर दी ॥ ३०-३१ ॥ जघान सा तदा दैत्यं दुर्गमं शूलधारया । पपात धरणीपृष्ठे खातमूलद्रुमो यथा ॥ ३२ ॥ तब उन्होंने अपने त्रिशूलकी धारसे उस दैत्यपर प्रहार किया और वह उखड़े हुए मूलवाले वृक्षके समान पृथ्वीपर गिर पड़ा ॥ ३२ ॥ इत्थं हत्वा तदा दैत्यं दुर्गमासुरनामकम् । आदाय चतुरो वेदान्ददौ देवेभ्य ईश्वरी ॥ ३३ ॥ इस प्रकार दुर्गम नामक असुरको मारकर उससे चारों वेदोंको लेकर ईश्वरीने देवताओंको दे दिया ॥ ३३ ॥ देवा ऊचुः - अस्मदर्थं त्वया रूपमनन्ताक्षिमयं धृतम् । मुनयः कीर्तयिष्यन्ति शताक्षीन्त्वामतोऽम्बिके ॥ ३४ ॥ आत्मदेहसमुद्भूतैः शाकैर्लोका भृता यतः । शाकंभरीति विख्यातं तत्ते नाम भविष्यति ॥ ३५ ॥ दुर्गमाख्यो महादैत्यो हतो यस्मात्ततः शिवे । दुर्गां भगवतीं भद्रां व्याहरिष्यन्ति मानवाः ॥ ३६ ॥ देवता बोले-हे अम्बिके ! हमलोगोंके लिये आपने अनन्त नेत्रोंवाला स्वरूप धारण किया, अतः मुनिलोग आपको 'शताक्षी' कहेंगे । आपने अपनी देहसे उत्पन्न शाकोंद्वारा लोकोंका भरण [-पोषण] किया, अत: आपका 'शाकम्भरी'-यह नाम विख्यात होगा । हे शिवे ! आपने दुर्गम नामक महादैत्यका वध किया है, इसलिये मानव आप कल्याणमयी भगवतीको 'दुर्गा' कहेंगे ॥ ३४-३६ ॥ योगनिद्रे नमस्तुभ्यं नमस्तेऽस्तु महाबले । नमो ज्ञानप्रदे तुभ्यं विश्वमात्रे नमो नमः ॥ ३७ ॥ हे योगनिद्रे । आपको नमस्कार है । हे महाबले ! आपको नमस्कार है । हे ज्ञानप्रदे ! आपको नमस्कार है । आप विश्वमाताको बार-बार नमस्कार है ॥ ३७ ॥ तत्त्वमस्यादिवाक्यैर्या बोध्यते परमेश्वरी । अनन्तकोटिब्रह्माण्डनायिकायै नमो नमः ॥ ३८ ॥ जिन परमेश्वरीका ज्ञान तत्त्वमसि' आदि वाक्योंसे होता है, उन अनन्तकोटिब्रह्माण्डनायिकाको बार-बार नमस्कार है ॥ ३८ ॥ वाङ्मनःकायदुष्प्रापां सूर्यचन्द्राग्निलोचनाम् । स्तोतुं न शक्नुमो मातस्त्व त्प्रभावाबुधा वयम् ॥ ३९ ॥ हे मातः ! आपके प्रभावको न जाननेवाले हमलोग वाणी, मन और शरीरसे दुष्प्राप्य तथा सूर्य, चन्द्रमा एवं अग्निरूपी तीन नेत्रोंवाली आपकी स्तुति नहीं कर सकते हैं ॥ ३९ ॥ मादृशानमरान्दृष्ट्वा कः कुर्यादीदृशीं दयाम् । वर्जयित्वा सुरेशानीं शताक्षी मातरं विना ॥ ४० ॥ हम-जैसे देवगणोंको देखकर सुरेश्वरी माता शताक्षीके बिना कौन इस प्रकारकी दया कर सकता है ॥ ४० ॥ त्रिलोकी नाभिभूयेत बाधाभिश्च निरन्तरम् । एवं कार्यस्त्वया यत्नोऽस्माकं वैरिविनाशनम् ॥ ४१ ॥ अब आप इस प्रकारका यत्न करें कि बाधाओंसे निरन्तर त्रिलोकी पराभूत न हो सके और हमारे शत्रुओंका नाश हो ॥ ४१ ॥ देव्युवाच - वत्सान्दृष्ट्वा यथा गावो व्यग्रा धावन्ति सत्वरम् । तथैव भवतो दृष्ट्वा धावामि व्याकुला सती ॥ ४२ ॥ देवी बोलीं-[हे देवगणो !] जिस प्रकार अपने बछड़ोंको देखकर गायें शीघ्रतासे व्यग्र हो दौड़ती हैं, उसी प्रकार मैं भी आपलोगोंको देखकर व्यग्र होकर दौड़ पड़ती हूँ ॥ ४२ ॥ मम युष्मानपश्यन्त्या पश्यन्त्या बालकानिव । अपि प्राणान्प्रयच्छन्त्याः क्षण एको युगायते ॥ ४३ ॥ मैं आपलोगोंको सन्तानके समान देखती रहती हूँ, किंतु जब नहीं देख पाती तो मेरा एक-एक क्षण युगके समान बीतता है । मैं आपलोगोंके लिये अपने प्राणों को भी न्योछावर कर सकती हूँ ॥ ४३ ॥ कापि चिन्ता न कर्तव्या युष्माभिर्भक्तिशालिभिः । भवत्यां मयि तिष्ठन्त्यां संहरन्त्यां निजापदः ॥ ४४ ॥ आपलोगोंकी विपत्तियोंको दूर करनेवाली मेरे रहते आप भक्तोंको किसी प्रकारकी चिन्ता नहीं करनी चाहिये ॥ ४४ ॥ यथा पूर्वं हता दैत्या हनिष्यामि तथासुरान् । संशयो नात्र कर्त्तव्यः सत्यंसत्यं ब्रवीम्यहम् ॥ ४५ ॥ जिस प्रकार मैंने पूर्व समयमें दैत्योंका वध किया था, उसी प्रकार [आगे भी] असुरोंका वध करूँगी, इसमें संशय नहीं करना चाहिये, यह मैं सत्य-सत्य कहती हूँ ॥ ४५ ॥ यदा शुंभो निशुंभश्चापरौ दैत्यौ भविष्यतः । तदाहं नन्दभार्यायां यशोदायां यशोमयी ॥ ४६ ॥ योनिजं रूपमास्थाय जनिष्ये गोपगोकुले । हनिष्याम्यसुरौ तन्मां व्याहरिष्यन्ति नन्दजाम् ॥ ४७ ॥ जब दूसरे शुम्भ एवं निशुम्भ नामक दैत्य उत्पन्न होंगे, तब यशोमयी मैं नन्दभार्या यशोदाके गर्भसे योनिज रूप ग्रहणकर गोपोंके गोकुलमें अवतरित होऊँगी और उन दोनोंका वध करूँगी, तब लोग मुझे 'नन्दजा' कहेंगे ॥ ४६-४७ ॥ भ्रामरं रूपमास्थाय वधिष्याम्यरुणं यतः । भ्रामरीति च मां लोके कीर्तयिष्यन्ति मानवाः ॥ ४८ ॥ कृत्वा भीमं पुना रूपं रक्षांस्यत्स्याम्यहं यदा । भीमा देवीति विख्यातं तन्मे नाम भविष्यति ॥ ४९ ॥ मैं भ्रमरका रूप धारणकर अरुण नामक दैत्यका वध करूँगी । अत: मानव लोकमें मुझे 'भ्रामरी'-इस नामसे पुकारेंगे । पुनः जब मैं भीम [भयंकर] रूप धारणकर राक्षसोंका भक्षण करूँगी, तब मेरा 'भीमादेवी'यह नाम विख्यात होगा ॥ ४८-४९ ॥ यदा यदाऽसुरोत्थैव बाधा भुवि भविष्यति । तदा तदावतीर्याहं शं करिष्याम्यसंशयम् ॥ ५० ॥ इस प्रकार जब-जब पृथ्वीपर दैत्योंके द्वारा बाधा उत्पन्न होगी, तब-तब मैं अवतार लेकर निस्सन्देह कल्याण करूँगी ॥ ५० ॥ या शताक्षी स्मृता देवी सैव शाकंभरी मता । सैव प्रकीर्तिता दुर्गा व्यक्तिरेकैव त्रिष्वपि ॥ ५१ ॥ जो देवी शताक्षी कही गयी हैं, वे ही शाकम्भरी हैं और वे ही दुर्गा भी कहलाती हैं, इन तीनों नामोंद्वारा एक ही सत्ताका प्रतिपादन होता है ॥ ५१ ॥ न शताक्षीसमा काचिद्दयालुर्भुवि देवता । दृष्ट्वारुदत्प्रजास्तप्ता या नवाहं महेश्वरी ॥ ५२ ॥ भूलोकमें शताक्षीके समान कोई दयालु देवता नहीं है, जिन्होंने प्रजाओंको सन्तप्त देखकर निरन्तर नौ दिनोंतक रुदन किया ॥ ५२ ॥ इति श्रीशिवमहापुराणे पञ्चम्यामुमासंहितायां शताक्ष्याद्यवतारवर्णनं नाम पञ्चाशत्तमोऽध्यायः ॥ ५० ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत पाँचवीं उमासंहितामें शताक्ष्याश्वतारवर्णन नामक पचासवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ५० ॥ श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु |