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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥
॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥ पञ्चमी उमासंहितायां
एकपञ्चाशत्तमोऽध्यायः क्रियायोगनिरूपणम्
भगवतीके मन्दिरनिर्माण, प्रतिमास्थापन तथा पूजनका माहात्म्य और उमासंहिताके श्रवण एवं पाठकी महिमा मुनय ऊचुः - व्यासशिष्य महाभाग सूत पौराणिकोत्तम । अपरं श्रोतुमिच्छामः किमप्याख्यानमीशितुः ॥ १ ॥ उमाया जगदम्बायाः क्रियायोगमनुत्तमम् । प्रोक्तं सनत्कुमारेण व्यासाय च महात्मने ॥ २ ॥ मुनिगण बोले-हे व्यासशिष्य ! हे महाभाग ! हे पौराणिकोत्तम सूतजी ! हमलोग महेश्वरी उमा जगदम्बाके अद्वितीय अनुत्तम क्रियायोगाख्यानको सुनना चाहते हैं, जिसे सनत्कुमारने महात्मा व्याससे कहा था ॥ १-२ ॥ सूत उवाच - धन्या यूयं महात्मानो देवीभक्तिदृढव्रताः । पराशक्तेः परं गुप्तं रहस्यं शृणुतादरात् ॥ ३ ॥ सूतजी बोले-देवीकी भक्तिमें दृढ़ व्रतवाले आप सभी महात्मा धन्य हैं; अब पराशक्तिके अत्यन्त गुप्त रहस्यको आपलोग आदरपूर्वक सुनिये ॥ ३ ॥ व्यास उवाच - सनत्कुमार सर्वज्ञ ब्रह्मपुत्र महामते । उमायाः श्रोतुमिच्छामि क्रियायोगं महाद्भुतम् ॥ ४ ॥ कीदृक्च लक्षणं तस्य किं कृते च फलं भवेत् । प्रियं यच्च पराम्बायास्तदशेषं वदस्व मे ॥ ५ ॥ व्यासजी बोले-हे सनत्कुमार ! हे सर्वज्ञ ! हे ब्रह्मपुत्र ! हे महामते ! मैं पार्वतीके अत्यन्त अद्भुत क्रियायोगको सुनना चाहता हूँ । उसका क्या लक्षण है, उसके अनुष्ठानका क्या फल होता है और पराम्बाको जो प्रिय है, उसे पूर्णरूपसे बताइये ॥ ४-५ ॥ सनत्कुमार उवाच - द्वैपायन यदेतत्त्वं रहस्यं परिपृच्छसि । तच्छृणुष्व महाबुद्धे सर्वं मे वर्णयिष्यतः ॥ ६ ॥ सनत्कुमार बोले-हे द्वैपायन ! हे महाबुद्धे ! आप जिस रहस्यको पूछ रहे हैं, उसका वर्णन मैं कर रहा हूँ, आप सुनें ॥ ६ ॥ ज्ञानयोगः क्रियायोगो भक्तियोगस्तथैव च । त्रयो मार्गाः समाख्याताः श्रीमातुर्मुक्तिमुक्तिदाः ॥ ७ ॥ ज्ञानयोग, क्रियायोग और भक्तियोग-ये श्रीमाता [की उपासना]-के तीन मार्ग हैं, जो भोग एवं मोक्षको देनेवाले कहे गये हैं ॥ ७ ॥ ज्ञानयोगस्तु संयोगश्चित्तस्यैवात्मना तु यः । यस्तु बाह्यार्थसंयोगः क्रियायोगः स उच्यते ॥ ८ ॥ भक्तियोगो मतो देव्या आत्मनश्चैक्यभावनम् । त्रयाणामपि योगानां क्रियायोगः स उच्यते ॥ ९ ॥ चित्तका आत्माके साथ जो संयोग है, वह ज्ञानयोग कहा गया है और जो बाहरके अर्थों (वस्तुओं)-का संयोग है, वह क्रियायोग कहा जाता है और देवीके साथ आत्माका संयुक्त हो एकरस हो जाना भक्तियोग माना गया है । अब मैं इन तीनों योगोंमें जो क्रियायोग है, उसका वर्णन कर रहा हूँ ॥ ८-९ ॥ कर्मणा जायते भक्तिर्भक्त्या ज्ञानं प्रजायते । ज्ञानात्प्रजायते मुक्तिरिति शास्त्रेषु निश्चयः ॥ १० ॥ कर्मसे भक्ति होती , भक्तिसे ज्ञान होता है और ज्ञानसे मुक्ति होती है-ऐसा शास्त्रोंमें निर्णय किया गया है ॥ १० ॥ प्रधानं कारणं योगो विमुक्तेर्मुनिसत्तम । क्रियायोगस्तु योगस्य परमं ध्येयसाधनम् ॥ १ १ ॥ हे मुनिसत्तम ! मुक्तिका प्रधान कारण योग है और क्रियायोग उस योगके ध्येयका उत्तम साधन है ॥ ११ ॥ मायां तु प्रकृतिं विद्यान्मायावि ब्रह्म शाश्वतम् । अभिन्नं तद्वपुर्ज्ञात्वा मुच्यते भवबन्धनात् ॥ १२ ॥ प्रकृतिको माया तथा शाश्वत ब्रह्मको मायावी जानना चाहिये, उन दोनोंके स्वरूपको परस्पर अभिन्न जानकर व्यक्ति संसारबन्धनसे मुक्त हो जाता है ॥ १२ ॥ यस्तु देव्यालयं कुर्यात्पाषाणं दारवं तथा । मृन्मयं वाथ कालेय तस्य पुण्यफलं शृणु । अहन्यहनियोगेन जयतो यन्महाफलम् ॥ १३ ॥ प्राप्नोति तत्फलन्देव्या यः कारयति मन्दिरम् । सहस्रकुलमागामि व्यतीतं च सहस्रकम् । स तारयति धर्मात्मा श्रीमातुर्धाम कारयन् ॥ १४ ॥ कोटिजन्मकृतं पापं स्वल्पं वा यदि वा बहु । श्रीमातुर्मन्दिरारम्भक्षणादेव प्रणश्यति ॥ १५ ॥ हे कालीपुत्र [हे व्यास !] जो पत्थर, काष्ठ अथवा मिट्टीसे देवीका मन्दिर बनवाता है, उसके पुण्यका फल सुनिये । प्रतिदिन योगके द्वारा यजन करनेवालेको जो महान् फल मिलता है, उस फलको वह मनुष्य प्राप्त करता है, जो देवीका मन्दिर बनवाता है । श्रीमाताके मन्दिरको बनवानेवाला वह धर्मात्मा अपनेसे पहलेके हजार कुलोंको एवं वादके हजार कुलोंको तार देता है । श्रीमाताके मन्दिरके आरम्भके क्षण ही करोड़ों जन्मोंमें किये गये उसके छोटे अथवा बड़े सभी पाप नष्ट हो जाते हैं ॥ १३-१५ ॥ नदीषु च यथा गङ्गा शोणः सर्वनदेषु च । क्षमायां च यथा पृथ्वी गांभीर्ये च यथोदधिः ॥ १६ ॥ ग्रहाणां च समस्तानां यथा सूर्यो विशिष्यते । तथा सर्वेषु देवेषु श्रीपराम्बा विशिष्यते ॥ १७ ॥ सर्वदेवेषु सा मुख्या यस्तस्याः कारयेद् गृहम् । प्रतिष्ठां समवाप्नोति स च जन्मनि जन्मनि ॥ १८ ॥ जिस प्रकार नदियोंमें गंगा, नदोंमें शोण, क्षमामें पृथ्वी, गम्भीरतामें समुद्र और सभी ग्रहोंमें सूर्य श्रेष्ठ हैं, उसी प्रकार सभी देवोंमें श्रीपराम्बा श्रेष्ठ हैं, वे सभी देवताओंमें प्रधान हैं, अतः जो उनके मन्दिरका निर्माण करवाता है, वह जन्म-जन्मान्तरमें प्रतिष्ठा प्राप्त करता है ॥ १६-१८ ॥ वाराणस्यां कुरुक्षेत्रे प्रयागे पुष्करे तथा । गङ्गासमुद्रतीरे च नैमिषेऽमरकण्टके ॥ १९ ॥ श्रीपर्वते महापुण्ये गोकर्णे ज्ञानपर्वते । मथुरायामयोध्यायां द्वारावत्यां तथैव च ॥ २० ॥ इत्यादि पुण्यदेशेषु यत्र कुत्र स्थलेऽपि वा । कारयन्मातुरावासं मुक्तो भवति बन्धनात् ॥ २१ ॥ वाराणसी, कुरुक्षेत्र, प्रयाग, पुष्कर, गंगासागर, नैमिषारण्य, अमरकण्टक, महापुण्यदायी श्रीपर्वत, गोकर्ण, ज्ञानपर्वत, मथुरा, अयोध्या एवं द्वारका आदि पुण्यस्थलोंमें अथवा जिस-किसी भी जगह श्रीमाताके मन्दिरका निर्माण करवानेवाला संसारके बन्धनसे मुक्त हो जाता है ॥ १९-२१ ॥ इष्टकानां तु विन्यासो यावद्वर्षाणि तिष्ठति । तावद्वर्षसहस्राणि मणिद्वीपे महीयते ॥ २२ ॥ जितने वर्षोंतक[देवीके मन्दिरकी] इंटोंका विन्यास स्थित रहता है, उतने हजार वर्षपर्यन्त मनुष्य मणिद्वीपमें प्रतिष्ठा प्राप्त करता है ॥ २२ ॥ प्रतिमाः कारयेद्यस्तु सर्वलक्षणलक्षिताः । स उमायाः परं लोकं निर्भयो व्रजति धुवम् ॥ २३ ॥ जो भगवतीकी सर्वलक्षणयुक्त प्रतिमाका निर्माण करवाता है, वह निर्भय हो निश्चित रूपसे देवीके परम लोकको जाता है ॥ २३ ॥ देवीमूर्तिं प्रतिष्ठाप्य शुभर्तुं ग्रहतारके । कृतकृत्यो भवेन्मर्त्यो योगमायाप्रसादतः ॥ २४ ॥ ये भविष्यन्ति येऽतीता आकल्पात्पुरुषाः कुले । तांस्तांस्तारयते देव्या मूर्तिं संस्थाप्य शोभनाम् ॥ २५ ॥ शुभ ऋतु, शुभ ग्रह एवं शुभ नक्षत्रमें देवीकी मूर्तिको प्रतिष्ठापित करके मनुष्य योगमायाकी कृपासे कृतकृत्य हो जाता है । उसके कुलमें कल्पसे लेकर जितनी भी पीढ़ियाँ हैं और जो भी आगे उत्पन्न होंगी, उन सभीको वह देवीकी उत्तम मूर्तिकी स्थापना करके तार देता है ॥ २४-२५ ॥ त्रिलोकीस्थापनात्पुण्यं यद्भवेन्मुनिपुङ्गव । तत्कोटिगुणितं पुण्यं श्रीदेवीस्थापनाद्भवेत् ॥ २६ ॥ हे मुनिश्रेष्ठ ! त्रिलोकीके स्थापित करनेसे जो पुण्य होता है, उसका करोड़ों गुना पुण्य श्रीदेवीकी प्रतिष्ठा करनेसे होता है ॥ २६ ॥ मध्ये देवीं स्थापयित्वा पञ्चायतनदेवताः । चतुर्दिक्षु स्थापयेद्यस्तस्य पुण्यं न गण्यते ॥ २७ ॥ जो मन्दिरके मध्यमें देवीकी प्रतिष्ठाकर उनके चारों ओर पंचायतन देवताओंको स्थापित करता है, उसके पुण्यकी गणना नहीं की जा सकती है ॥ २७ ॥ विष्णोर्नाम्नां कोटिजपाद्ग्रहणेचन्द्रसूर्ययोः । यत्फलं लभ्यते तस्माच्छतकोटिगुणोत्तरम् ॥ २८ ॥ शिवनाम्नो जपादेव तस्मात्कोटिगुणोत्तरम् । श्रीदेवीनामजापात्तु ततः कोटिगुणोत्तरम् ॥ २९ ॥ देव्याः प्रासादकरणात्पुण्यं तु समवाप्यते । स्थापिता येन सा देवी जगन्माता त्रयीमयी ॥ ३० ॥ न तस्य दुर्लभं किंचित् श्रीमातुः करुणावशात् । वर्धन्ते पुत्रपौत्राद्या नश्यत्यखिलकश्मलम् ॥ ३१ ॥ सूर्य-चन्द्रग्रहणमें विष्णुके नामोंको करोड़ों बार जपनेसे जो पुण्यफल प्राप्त होता है, उससे सौ करोड़ गुना अधिक पुण्यफल शिवनामके जपसे होता है, उससे भी करोड़ गुना पुण्यफल देवीके नाम-जपसे होता है और उससे भी करोड़ गुना अधिक पुण्यफल देवीके मन्दिरका निर्माण करानेसे प्राप्त होता है । जिसने वेदरूपा तथा त्रिगुणात्मिका जगज्जननी देवीको प्रतिष्ठापित किया, श्रीमाताकी दयासे उसके लिये कुछ भी दुर्लभ नहीं है । उसके पुत्र-पौत्रादि निरन्तर बढ़ते रहते हैं और उसका सम्पूर्ण पाप नष्ट हो जाता है ॥ २८-३१ ॥ मनसा ये चिकीर्षन्ति मूर्तिस्थापनमुत्तमम् । तेऽप्युमायाः परं लोकं प्रयान्ति मुनिदुर्लभम् ॥ ३२ ॥ जो लोग मनमें भी देवीको उत्तम मूर्तिस्थापनाकी इच्छा करते हैं, वे मुनियोंके लिये भी दुर्लभ उमादेवीके परमलोकको प्राप्त करते हैं ॥ ३२ ॥ क्रियमाणं तु यः प्रेक्ष्य चेतसा ह्यनुचिन्तयेत् । कारयिष्याम्यहं यर्हि संपन्मे संभविष्यति ॥ ३३ ॥ एवं तस्य कुलं सद्यो याति स्वर्गं न संशयः । महामायाप्रभावेण दुर्लभं किं जगत्त्रये ॥ ३४ ॥ किसीके द्वारा बनवाये जाते हुए मन्दिरको देखकर जो मनमें यह सोचता है कि जब मुझे सम्पत्ति होगी, तब मैं भी मन्दिर बनवाऊँगा । इस प्रकार सोचनेवालेका कुल शीघ्र ही स्वर्गको जाता है, इसमें संशय नहीं है । महामायाके प्रभावसे त्रिलोकीमें कौन-सी वस्तु दुर्लभ है ॥ ३३-३४ ॥ श्रीपराम्बा जगद्योनिं केवलं ये समाश्रिताः । ते मनुष्या न मन्तव्याः साक्षाद्देवीगणाश्च ते ॥ ३५ ॥ जो जगत्कारणभूता श्रीपराम्बाका एकमात्र आश्रय ग्रहण करते हैं, उन्हें मनुष्य नहीं समझना चाहिये, वे तो देवीके साक्षात् गण हैं ॥ ३५ ॥ ये व्रजन्तः स्वपन्तश्च तिष्ठन्तो वाप्यहर्निशम् । उमेति द्व्यक्षरं नाम ब्रुवते ते शिवागणाः ॥ ३६ ॥ जो चलते-सोते अथवा बैठे हुए उमा-इस दो अक्षरके नामका उच्चारण करते रहते हैं, वे तो शिवाके साक्षात् गण हैं ॥ ३६ ॥ नित्ये नैमित्तिके देवीं ये यजन्ति परां शिवाम् । पुष्पैर्धूपैस्तथा दीपैस्ते प्रयास्यन्त्युमालयम् ॥ ३७ ॥ जो लोग नित्य तथा नैमित्तिक कर्मोंमें पुष्पों, धूपों तथा दीपोंसे परा शिवाकी पूजा करते हैं, वे उमालोक प्राप्त करते हैं ॥ ३७ ॥ ये देवीमण्डपं नित्यं गोमयेन मृदाथवा । उपलिंपन्ति मार्जन्ति ते प्रयास्यन्त्युमालयम् ॥ ३८ ॥ जो लोग प्रतिदिन गोमयसे अथवा मृत्तिकासे देवीमण्डपका उपलेप करते हैं तथा उसका मार्जन करते हैं, वे उमालोक प्राप्त करते हैं ॥ ३८ ॥ यैर्देव्या मन्दिरं रम्यं निर्मापितमनुत्तमम् । तत्कुलीनाञ्जनान्माता ह्याशिषः संप्रयच्छति ॥ ३९ ॥ मदीयाः शतवर्षाणि जीवन्तु प्रेमभाजनाः । नापदामयनानीत्थं श्रीमाता वक्त्यहर्निशम् ॥ ४० ॥ जिन्होंने देवीके रम्य तथा उत्तम मन्दिरका निर्माण करवाया है, उनके कुलमें उत्पन्न लोगोंको देवी आशीर्वाद देती हैं-'मेरे प्रेमपात्र भक्त सौ वर्षतक जीवित रहें और उनपर कदापि कोई विपत्ति न आये'-ऐसा वे श्रीमाता रात-दिन कहती हैं ॥ ३९-४० ॥ येन मूर्तिर्महादेव्या उमायाः कारिता शुभा । नरायुतन्तत्कुलजं मणिद्वीपे महीयते ॥ ४१ ॥ जिसने महादेवी उमाकी शुभ मूर्तिका निर्माण करवाया है, उसके कुलके दस हजार पीढ़ियोंतकके लोग मणिद्वीपमें प्रतिष्ठा प्राप्त करते हैं ॥ ४१ ॥ स्थापयित्वा महामायामूर्तिं सम्यक्प्रपूज्य च । यं यं प्रार्थयते कामं तं तं प्राप्नोति साधकः ॥ ४२ ॥ साधक महामायाकी मूर्ति स्थापित करके और उसकी विधिवत् पूजाकर जिस-जिस मनोरथके लिये प्रार्थना करता है, उसे [अवश्य ही] प्राप्त कर लेता है ॥ ४२ ॥ यः स्नापयति श्रीमातुः स्थापितां मूर्तिमुत्तमाम् । घृतेन मधुनाक्तेन तत्फलं गणयेत्तु कः ॥ ४३ ॥ जो श्रीमाताकी स्थापित की गयी उत्तम मूर्तिको मधुमिश्रित घृतसे स्नान कराता है, उसके फलकी गणना कौन कर सकता है ॥ ४३ ॥ चन्दनागुरुकर्पूर मांसीमुस्तादियुग्जलैः । एकवर्णगवां क्षीरैः स्नापयेत्परमेश्वरीम् ॥ ४४ ॥ एक वर्णवाली गौओंके दूधसे तथा चन्दन, अगरु, कपूर, जटामांसी, मोथा आदिसे मिश्रित जलसे परमेश्वरीको स्नान कराना चाहिये ॥ ४४ ॥ धूपेनाष्टादशाङ्गेन दद्यादाहुतिमुत्तमाम् । नीराजनं चरेद्देव्याः साज्यकर्पूरवर्तिभिः ॥ ४५ ॥ अठारह [सुगन्धित] द्रव्योंसे बनाये गये धूपसे उत्तम आहुति प्रदान करनी चाहिये । घी तथा कपूरयुक्त बत्तियोंसे देवीकी आरती करनी चाहिये ॥ ४५ ॥ कृष्णाष्टम्यां नवम्यां वामायां वा पञ्चदिक्तिथौ । पूजयेज्जगतां धात्रीं गंधपुष्पैर्विशेषतः ॥ ४६ ॥ संपठञ्जननीसूक्तं श्रीसूक्तमथ वा पठन् । देवीसूक्तमथो वापि मूकमन्त्रमथापि वा ॥ ४७ ॥ कृष्णपक्षकी अष्टमी, नवमी, अमावास्या अथवा [शुक्लपक्षकी] पूर्णिमा तिथिको मातृसूक्त, श्रीसूक्त पढ़ते हुए अथवा देवीसूक्त पढ़ते हुए अथवा मूलमन्त्रका उच्चारण करते हुए गन्ध-पुष्पोंद्वारा विशेष रूपसे जगज्जननीका पूजन करना चाहिये ॥ ४६-४७ ॥ विष्णुक्रान्तां च तुलसीं वर्जयित्वाखिलं सुमम् । देवीप्रीतिकरं ज्ञेयं कमलन्तु विशेषतः ॥ ४८ ॥ अर्पयेत्स्वर्णपुष्पं यो देव्यै राजतमेव वा । स याति परमं धाम सिद्धकोटि भिरन्वितम् ॥ ४९ ॥ विष्णुकान्ता एवं तुलसीको छोड़कर अन्य सभी पष्पोंको देवीके लिये प्रीतिकर जानना चाहिये तथा कमल विशेषरूपसे देवीको प्रिय है । जो देवीको स्वर्णपुष्प अथवा रजतपुष्प समर्पित करता है, वह करोड़ों सिद्धोंके द्वारा सेवित परम धामको जाता है ॥ ४८-४९ ॥ पूजनान्ते सदा कार्यं दासैरेनः क्षमापनम् । प्रसीद परमेशानि जगदानन्ददायिनि ॥ ५० ॥ इति वाक्यैः स्तुवन्मन्त्री देवीभक्तिपरायणः । ध्यायेत्कण्ठीरवारूढां वरदाभयपाणिकाम् ॥ ५१ ॥ भक्तोंको चाहिये कि वे पूजनके अन्तमें अपने पापोंके लिये क्षमा-प्रार्थना करें । हे परमेश्वरि ! हे जगदानन्ददायिनि ! प्रसन्न होइये । देवीभक्तिपरायण साधकको इन वाक्योंसे स्तुति करते हुए सिंहपर आरूढ़ तथा हाथोंमें वरद एवं अभयमुद्रा धारण करनेवाली भगवतीका ध्यान करना चाहिये ॥ ५०-५१ ॥ इत्थं ध्यात्वा महेशानीं भक्ताभीष्टफलप्रदाम् । नानाफलानि पक्वानि नैवेद्यत्वे प्रकल्पयेत् ॥ ५२ ॥ इस प्रकार भक्तोंको अभीष्ट फल देनेवाली महेश्वरीका ध्यान करके नैवेद्यके रूपमें अनेक प्रकारके पके हुए फल अर्पित करना चाहिये ॥ ५२ ॥ नैवेद्यं भक्षयेद्यस्तु शंभुशक्तेः परात्मनः । स निर्भूयाखिलं पङ्कं निर्मलो मानवो भवेत् ॥ ५३ ॥ जो मनुष्य परमेश्वरी शम्भुशक्तिके नैवेद्यका भक्षण करता है, वह अपने सम्पूर्ण पापपंकको धोकर निर्मल हो जाता है ॥ ५३ ॥ चैत्रशुक्लतृतीयायां यो भवानीव्रतं चरेत् । भवबन्धननिर्मुक्तः प्राप्नुयात्परमं पदम् ॥ ५४ ॥ जो चैत्र शुक्ल तृतीयाको भवानीव्रतका अनुष्ठान करता है, वह सांसारिक बन्धनसे छूटकर परमपद प्राप्त करता है ॥ ५४ ॥ अस्यामेव तृतीयायां कुर्याद्दोलोत्सवं बुधः । पूजयेज्जगतां धात्रीमुमां शङ्करसंयुताम् ॥ ५५ ॥ कुसुमैः कुङ्कुमैर्वस्त्रैः कर्पूरागुरुचन्दनैः । धूपैर्दीपैः सनैवेद्यैः स्रग्गन्धैरपरैरपि ॥ ५६ ॥ बुद्धिमान् पुरुष इसी तृतीया तिथिको दोलोत्सव सम्पन्न करे और पुष्प, कुंकुम, वस्त्र, कपूर, अगुरु, चन्दन, धूप, दीप, नैवेद्य, माला एवं अन्य मनोहर गन्धोंसे शिवसहित जगद्धात्रीका पूजन करे ॥ ५५-५६ ॥ आन्दोलयेत्ततो देवीं महामायां महेश्वरीम् । श्रीगौरीं शिवसंयुक्तां सर्वकल्याणकारिणीम् ॥ ५७ ॥ प्रत्यब्दं कुरुते योस्यां व्रतमान्दोलनं तथा । नियमेन शिवा तस्मै सर्वमिष्टं प्रयच्छति ॥ ५८ ॥ इसके बाद सबका कल्याण करनेवाली महामाया भगवती महेश्वरी श्रीगौरीको शिवसहित [पालनेमें बैठाकर] झुलाये । जो इस तिथिको प्रतिवर्ष नियमानुसार व्रत तथा झूलनोत्सव करता है, उसे शिवा समस्त अभीष्ट फल प्रदान करती हैं ॥ ५७-५८ ॥ माधवस्य सिते पक्षे तृतीया याऽक्षयाभिधा । तस्यां यो जगदम्बाया व्रतं कुर्यादतन्द्रितः ॥ ५९ ॥ मल्लिकामालतीचंपाजपाबन्धूकपङ्कजैः । कुसुमैः पूजयेद्गौरीं शङ्करेण समन्विताम् ॥ ६० ॥ कोटिजन्मकृतं पापं मनोवाक्कायसम्भवम् । निर्धूय चतुरो वर्गानक्षयानिह सोऽश्नुते ॥ ६१ ॥ वैशाख शुक्लपक्षमें जो अक्षय तृतीया नामक तिथि है, उसमें जो आलस्यरहित होकर जगदम्बाका व्रत करता है एवं मल्लिका, मालती, चम्पा, जपा, बन्धूक तथा कमलपुष्पोंसे शिवसमेत पार्वतीका पूजन करता है, वह करोड़ों जन्मोंमें मन, वाणी तथा शरीरसे किये गये पापोंको विनष्टकर अक्षय चतुर्वर्ग [धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष]-को प्राप्त कर लेता है ॥ ५९-६१ ॥ ज्येष्ठे शुक्लतृतीयायां व्रतं कृत्वा महेश्वरीम् । योऽर्चयेत्परमप्रीत्या तस्यासाध्यं न किंचन ॥ ६२ ॥ जो ज्येष्ठमासके शुक्लपक्षकी तृतीयाको व्रत करके परम प्रीतिसे महेश्वरीका पूजन करता है, उसके लिये कुछ भी असाध्य नहीं है ॥ ६२ ॥ आषाढशुक्लपक्षीयतृतीयायां रथोत्सवम । देव्याः प्रियतमं कुर्याद्यथावित्तानुसारतः ॥ ६३ ॥ रथं पृथ्वीं विजानीयाद्रथाङ्गे चन्द्रभास्करौ । वेदानश्वान्विजानीयात्सारथिं पद्मसंभवम् ॥ ६४ ॥ आषाढ़मासके शुक्लपक्षकी तृतीयाको अपने धनसामर्थ्यके अनुसार देवीका अतिप्रिय रथोत्सव सम्पन्न करना चाहिये । उसमें पृथ्वीको रथ और चन्द्रमा तथा सूर्यको रथके दोनों पहिये समझना चाहिये, वेदोंको घोड़े तथा ब्रह्माको सारथि समझना चाहिये ॥ ६३-६४ ॥ नानामणिगणाकीर्णं पुष्पमालाविराजितम् । एवं रथं कल्पयित्वा तस्मिन्त्संस्थापयेच्छिवाम् ॥ ६५ ॥ लोकसंरक्षणार्थाय लोकं द्रष्टुं पराम्बिका । रथमध्ये संस्थितेति भावयेन्मतिमान्नरः ॥ ६६ ॥ इस प्रकार अनेक मणियोंसे जटित एवं पुष्पमालाओंसे सुशोभित रथका निर्माणकर उसपर शिवाको स्थापित करे । उस समय बुद्धिमान् मनुष्य [मनमें] यह भावना करे कि श्रीपराम्बा लोककी रक्षाके लिये एवं लोकका अवलोकन करनेके लिये रथके मध्यमें बैठी हुई हैं ॥ ६५-६६ ॥ रथे प्रचलिते मन्दं जयशब्दमुदीरयेत् । पाहि देवि जनानस्मान्प्रपन्नान्दीनवत्सले ॥ ६७ ॥ इति वाक्यैस्तोषयेच्च नानावादित्रनिःस्वनैः । सीमान्ते तु रथं नीत्वा तत्र संपूजयेद्रथे ॥ ६८ ॥ नानास्तोत्रैस्ततः स्तुत्वाप्यानयेत्तां स्ववेश्मनि । प्रणिपातशतं कृत्वा प्रार्थयेज्जगदम्बिकाम् ॥ ६९ ॥ रथके धीरे-धीरे चलनेपर देवीकी जयकार करे और प्रार्थना करे कि हे देवि ! हे दीनवत्सले ! हम शरणागत जनोंकी रक्षा कीजिये । इन वचनोंसे तथा अनेक वाद्योंकी ध्वनियोंसे भगवतीको सन्तुष्ट करे और सीमापर्यन्त रथ ले जाकर वहाँ रथमें भगवतीका पूजन करे । इसके बाद अनेक स्तोत्रोंसे स्तुति करके उन जगदम्बाको अपने घर ले आये और सैकड़ों प्रणाम करके उनकी प्रार्थना करे ॥ ६७-६९ ॥ एवं यः कुरुते विद्वान्पूजाव्रतरथोत्सवम् । इह भुक्त्वाखिलान्भोगान्सोऽन्ते देवीपदं व्रजेत् ॥ ७० ॥ जो विद्वान् इस प्रकार देवीका पूजन, व्रत एवं रथोत्सव करता है, वह इस लोकमें सम्पूर्ण सुखोंका उपभोग करके अन्तमें देवीके धामको जाता है ॥ ७० ॥ शुक्लायान्तु तृतीयायामेवं श्रावणभाद्रयोः । यो व्रतं कुरुतेऽम्बायाः पूजनं च यथाविधि ॥ ७१ ॥ मोदते पुत्रपौत्राद्यैर्धनाद्यैरिह सन्ततम् । सोऽन्ते गच्छेदुमालोकं सर्वलोकोपरि स्थितम् ॥ ७२ ॥ इसी प्रकार श्रावण और भाद्रपदमासकी शुक्ल तृतीयाको जो विधिपूर्वक अम्बाका व्रत और पूजन करता है, वह इस लोकमें पुत्र, पौत्र एवं धन आदिसे सम्पन्न होकर सदा आनन्दित रहता है तथा अन्तमें सब लोकोंसे ऊपर विराजमान उमालोकको जाता है ॥ ७१-७२ ॥ आश्विने धवले पक्षे नवरात्रव्रतं चरेत् । यत्कृते सकलाः कामाः सिद्ध्यन्त्येव न संशयः ॥ ७३ ॥ आश्विनमासके शुक्लपक्षमें नवरात्रनत करना चाहिये, जिसे करनेपर सम्पूर्ण कामनाएँ सिद्ध हो जाती हैं, इसमें संशय नहीं है ॥ ७३ ॥ नवरात्रव्रतस्यास्य प्रभावं वक्तुमीश्वरः । चतुरास्यो न पञ्चास्यो न षडास्यो न कोऽपरः ॥ ७४ ॥ नवरात्रव्रतं कृत्वा भूपालो विरथात्मजः । हृतं राज्यं निजं लेभे सुरथो मुनिसत्तमाः ॥ ७५ ॥ इस नवरात्रव्रतके प्रभावका वर्णन करने में ब्रह्मा, महादेव तथा कार्तिकेय भी समर्थ नहीं हैं, फिर दूसरा | कौन समर्थ हो सकता है । हे मुनिवरो ! नवरात्रव्रतका अनुष्ठान करके विरथके पुत्र राजा सुरथने छीने गये अपने राज्यको [पुनः] प्राप्त कर लिया था ॥ ७४-७५ ॥ ध्रुवसंधिसुतो धीमानयोध्याधिपतिर्नृपः । सुदर्शनो हृतं राज्यं प्रापदस्य प्रभावतः ॥ ७६ ॥ अयोध्याके अधिपति बुद्धिमान् ध्रुवसन्धिपुत्र राजा सुदर्शनने इसके प्रभावसे ही [शत्रुओंके द्वारा] छीना गया अपना राज्य प्राप्त किया था ॥ ७६ ॥ व्रतराजमिमं कृत्वा समाराध्य महेश्वरीम् । संसारबन्धनान्मुक्तः समाधिर्मुक्तिभागभूत् ॥ ७७ ॥ इस व्रतराजका अनुष्ठान करके तथा महेश्वरीकी आराधना करके समाधि [नामक वैश्य] संसारबन्धनसे मुक्त होकर मोक्षका भागी हुआ ॥ ७७ ॥ तृतीयायां च पञ्चम्यां सप्तम्यामष्टमीतिथौ । नवम्यां वा चतुर्दश्यां यो देवी पूजयेन्नरः ॥ ७८ ॥ आश्विनस्य सिते पक्षे व्रतं कृत्वा विधानतः । तस्य सर्वं मनोभीष्टं पूरयत्यनिशं शिवा ॥ ७९ ॥ जो मनुष्य आश्विनमासके शुक्लपक्षमें तृतीया, पंचमी, सप्तमी, अष्टमी, नवमी एवं चतुर्दशी तिथियोंको विधिपूर्वक व्रत करके देवीका पूजन करता है, उसकी सभी मनोवांछाओंको शिवा निरन्तर पूर्ण करती रहती हैं ॥ ७८-७९ ॥ यः कार्त्तिकस्य मार्गस्य पौषस्य तपसस्तथा । तपस्यस्य सिते पक्षे तृतीयायां व्रतं चरेत् ॥ ८० ॥ लोहितैः करवीराद्यैः पुष्पैर्धूपैः सुगन्धितैः । पूजयेन्मङ्गलां देवीं स सर्वं मङ्गलं लभेत् ॥ ८१ ॥ जो कार्तिक, मार्गशीर्ष, पौष, माघ और फाल्गुन मासके शुक्लपक्षमें तृतीयाको व्रत करता है तथा लाल कनेर आदिके फूलों एवं सुगन्धित धूपोंसे मंगलमयी देवीकी पूजा करता है, वह सम्पूर्ण मंगलको प्राप्त कर लेता है ॥ ८०-८१ ॥ सौभाग्याय सदा स्त्रीभिः कार्यमेतन्महाव्रतम् । विद्याधनसुताप्त्यर्थं विधेयं पुरुषैरपि ॥ ८२ ॥ स्त्रियोंको अपने सौभाग्यके लिये इस महान् व्रतका सदा अनुष्ठान करना चाहिये और पुरुषोंको भी विद्या, धन एवं पुत्रप्राप्तिके लिये इस व्रतका अनुष्ठान करना चाहिये ॥ ८२ ॥ उमामहेश्वरादीनि व्रतान्यन्यानि यान्यपि । देवीप्रियाणि कार्याणि स्वभक्त्यैवं मुमुक्षुभिः ॥ ८३ ॥ इसी प्रकार देवीको प्रिय लगनेवाले उमा-महेश्वर आदि जो भी अन्य व्रत हैं, उनका अनुष्ठान मोक्षकी अभिलाषा रखनेवालोंको भक्तिभावसे करना चाहिये ॥ ८३ ॥ संहितेयं महापुण्या शिवभक्तिविवर्द्धिनी । नानाख्यानसमायुक्ता भुक्तिमुक्तिप्रदा शिवा ॥ ८४ ॥ यह उमासंहिता परम पुण्यमयी, शिवभक्तिको बढ़ानेवाली, अनेक आख्यानोंसे युक्त, भोग तथा मोक्ष प्रदान करनेवाली और कल्याणकारिणी है ॥ ८४ ॥ य एनां शृणुयाद्भक्त्या श्रावयेद्वा समाहितः । पठेद्वा पाठयेद्वापि स याति परमां गतिम् ॥ ८५ ॥ जो सावधान होकर भक्तिपूर्वक इसे सुनता है अथवा सुनाता है, पढ़ता है या पढ़ाता है, वह परम गतिको प्राप्त होता है ॥ ८५ ॥ यस्य गेहे स्थिता चेयं लिखिता ललिताक्षरैः । संपूजिता च विधिवत्सर्वान्कामान्स आप्नुयात् ॥ ८६ ॥ भूतप्रेतपिशाचादिदुष्टेभ्यो न भयं क्वचित । पुत्रपौत्रादिसम्पत्तिर्लभत्येव न संशयः ॥ ८७ ॥ जिसके घरमें सुन्दर अक्षरोंमें लिखी गयी यह संहिता स्थित रहती है और विधिवत् पूजित होती है, वह सम्पूर्ण मनोरथोंको प्राप्त कर लेता है । उसे भूत, प्रेत, पिशाच आदि दुष्टोंसे कभी भय नहीं होता और वह पुत्र-पौत्र आदि तथा सम्पत्तिको प्राप्त कर लेता है, इसमें संशय नहीं है ॥ ८६-८७ ॥ तस्मादियं महापुण्या रम्योमासंहिता सदा । श्रोतव्या पठितव्या च शिवभक्तिमभीप्सुभिः ॥ ८८ ॥ अतः शिवकी भक्ति चाहनेवालोंको इस परम पुण्यमयी तथा रम्य उमासंहिताका सदा श्रवण एवं पाठ करना चाहिये ॥ ८८ ॥ इति श्रीशिव महापुराणे पञ्चम्यामुमासंहितायां क्रियायोगनिरूपणं नामैकपञ्चाशत्तमोऽध्यायः ॥ ५१ ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत पाँचवीं उमासंहितामें क्रियायोगनिरूपण नामक इक्यावनवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ५१ ॥ समाप्तेयं पञ्चम्युमासंहिता । ॥ पंचम उमासंहिता पूर्ण हुई । श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु |